Wednesday, December 31, 2014

"2015"

प्रतीक्षा के बीच आखिर एक और नए वर्ष ने कदम रख ही दिया।  शुभकामनायें !
क्या आप जानते हैं कि ये वर्ष बेहद विशेष है, क्योंकि ये आपको कई सौगातें देने वाला है।  आप ही कहिये,इन सौगातों के बारे में आपको धीरे-धीरे समयानुसार बताया जाये या फिर आप सब कुछ अभी तत्काल जान लेना चाहते हैं। चलिए आपके उत्सुकता भरे इंतज़ार की कद्र करते हुए कुछ तो आपको अभी, इसी वक़्त बता दिया जाये।
 सबसे बड़ी खुशखबरी तो आपके लिए यह है कि आपको इस साल वे ढेर सारी पार्टियाँ फिर से मिलने वाली हैं जो आपके मित्रों, परिजनों,सहकर्मियों,पड़ोसियों आदि ने पिछले साल अपने-अपने जन्मदिन पर दी थीं।  विश्वस्त सूत्रों से खबर मिली है कि इस साल वे सभी अपना-अपना जन्मदिन फिर से मनाने वाले हैं।  है न ख़ुशी को चार-चाँद लगाने वाली बात? तो आप भी कंजूसी मत कीजियेगा, अपने जन्मदिन पर भी  सबको बढ़िया सी पार्टी दे डालियेगा।
पहले दिन ही इतनी ख़ुशी? रोज़ ऐसी ही ख़ुशी मिले आपको।  शुभकामनायें !       

Friday, December 26, 2014

कैसा लगता है आपको ये?

मुझे याद है, बचपन में यदि हम कभी अपने से थोड़े से बड़े लड़कों के साथ भी खेलने-घूमने का आग्रह करते थे तो वे टाल देते थे, कहते थे अपने साथ वालों के पास जाओ,वहीँ खेलो।कभी-कभी तो झिड़क भी दिया जाता था- बड़ों के बीच नहीं।
लड़कियों के बीच जाने का तो सवाल ही नहीं।  शर्म नहीं आती लड़कियों की बातें सुनते?
बड़े लोग सतर्क रहते थे, हम उनके बीच उन्हें चाय-पानी देने तो जा सकते थे, पर बैठने-बतियाने नहीं।  फ़ौरन सुनना पड़ता था-बेटा, बच्चों के बीच खेलो।
हमेशा मन में ये शंका सी होती रहती थी कि आखिर ये लोग ऐसी क्या बातें कर रहे हैं, जो हम नहीं सुन सकते। ऐसा लगता था कि सबका अपना-अपना एक छोटा सा गुट है और उसके बाहर जाना अशोभनीय।
अब???
अब तो मज़े हैं।  अस्सी साल की उम्र में कोई किस्सा कहिये और झटपट पंद्रह साल के किशोर से उस पर "लाइक"लीजिये। आप सत्रह साल के नवोदित कवि को किसी प्रवचनकार की मुद्रा में अपनी कविता किसी ऐसे बुजुर्ग को तन्मयता से सुनाते देख सकते हैं, जो पच्चीस किताबें लिख चुका है।
बड़े-छोटे-महिला-बुजुर्ग कोई विभाजन नहीं।
किसी महल में बैठे राजा भोज पर दूर-देहात के गंगू तेली को बेसाख़्ता हँसते देखिये। जंगल में किसी बाज़ के हाथों घायल परिंदे पर आँसू बहाते दूर-देश के बॉक्सिंग चैम्पियन को देखिये।
कैसा लगता है आपको ये? आपके ऑप्शंस हैं-अच्छा, बहुत अच्छा,बहुत ही अच्छा!         

Wednesday, December 24, 2014

सबा से ये कहदो कि कलियाँ बिछाए

वो आ रहा है।  हम खुश हों, कि वो आ रहा है, या हम उदासीन हो जाएँ, वो तो आ रहा है।  क्योंकि वो हमारी नहीं, अपनी चाल से आता है, इसलिए हरबार आता है। इस बार भी आ रहा है।
भारत ने उसका स्वागत अपने दो रत्नों से किया है।  प्रतिक्रिया मिलीजुली है।  वैसे भी रत्न सबको कहाँ खुश कर पाते हैं? पहनने वालों को ख़ुशी देते हैं, तो देखने वालों को जलन!
रत्नों का उजाला सतरंगी प्रतिक्रियाएं जगाता है-
-देर से दिया है, बहुत पहले मिल जाना चाहिए था!
-ये तो इन्होंने दिया है, वो होते तो कभी न देते!
लगता है कि सुनार-जौहरियों की भी जातियां होने लगीं।  ये सुनार होगा तो उसे सोना कहेगा, वो सुनार होगा तो इसे सोना बताएगा। झंडों में लिपट गए दिमाग भी।  अब विवाद से परे कुछ भी नहीं।
हाँ,लेकिन ये निर्विवाद है कि वो आ रहा है। ये जाने वाला चाहे चुरा ले गया हो आँखों की नींदें, पर ये तय है कि  वो फिर लेके दिल का करार आ रहा है। क्रिसमस की हज़ारों शुभकामनायें!"मैरी क्रिसमस"     

    

Tuesday, December 23, 2014

ऐसा क्यों?

कुछ लोग जानना चाहते हैं कि "पहले लेखकीय सपने"की तलाश से मुझे क्या मिलेगा? अर्थात इस बात से मुझे क्या फर्क पड़ेगा कि कोई सपने बदलते-बदलते लेखक बन गया है, या वह पैदा ही लेखक बनने के लिए हुआ था?
बताता हूँ-
जो लोग[लेखक]परिस्थिति, असफलताओं,संयोगों के चलते लेखक बन जाते हैं, उनके लेखन में ईर्ष्या,अवसाद,बदला,पलायन,आक्रामकता,समर्पण आदि के तत्व आ जाते हैं जो उनके पात्रों,विचारों और स्थितियों को ताउम्र प्रभावित करते हैं। जबकि शुद्ध लेखकीय जीवनारम्भ करने वाली कलम सिर्फ वही कहती है जो कहने के लिए जन्मती है।वह आसानी से वाद-विचार-वर्चस्व के शिकंजे में नहीं फँसती।
एक पाठक के रूप में किसी ऐसे रचनाकार की गंध पाना और उसका समग्र पढ़ना या फिर ऐसे मकसद के राही को समय रहते पहचानना और उसकी रचना-प्रक्रिया को बनते देखना,यही मकसद है!       

Sunday, December 21, 2014

कोई है?

अपने देश "भारत" के बारे में एक बात मुझे हमेशा बड़ी उदास करने वाली लगती रही है।यहाँ की शिक्षा प्रणाली में 'कैरियर'चुनने की कोई माकूल प्रविधि नहीं है।  हर बड़े होते बच्चे को अपने सपने और ज़मीनी हकीकत की दो पतवारें लेकर भविष्य बनाने की नाव खेनी पड़ती है। सपने पोसने का कहीं प्रावधान नहीं है।बच्चा थोड़ा सा बड़ा हुआ नहीं कि उसकी पीठ पर माता-पिता, अभिभावकों के सपने लदने लगते हैं।  पैरों में आर्थिक परिस्थिति की बेड़ियां पड़ने लगती हैं।राह में भ्रष्टाचार और पक्षपात के कंटीले झाड़ उगने लगते हैं।यहाँ, किसी भी बड़े से बड़े कलाकार,खिलाड़ी या लेखक की जीवनी में ये पढ़ने को मिल जाता है कि मेरे घरवाले मुझे डॉक्टर ,इंजीनियर, अफसर आदि बनाना चाहते थे किन्तु ऐसा न हो सका।
इस बार नए साल के अपने संकल्प के लिए मैं जो बातें सोच रहा हूँ, उनमें एक यह भी है कि मैं वर्षारम्भ से ही ऐसे लोगों की तलाश करूँगा जो अपने जीवन में "लेखक" बनना चाहते हैं। जाहिर है कि यह जानना सरल नहीं है। फिरभी, यदि आपकी निगाह में कोई ऐसा है, या फिर ऐसे लोगों की तलाश करने का कोई सुगम तरीका है, तो कृपया मुझे बता कर मेरी मदद कीजिये।
जिस तरह हम बाजार से बिना कीड़ा लगी सब्ज़ी छाँटने की कोशिश करते हैं, उसी तरह कोई ऐसा लेखक जिसके दिमाग में ज़िंदगी में कभी भी लेखक बनने के अलावा विकल्प के रूप में और कोई ख़्वाब न आया हो! कोई है?              

Saturday, December 20, 2014

काउंट डाउन शुरू-

साल २०१४ ने संकेत दे दिया है कि वो जा रहा है। कुछ ही दिनों में एक नया वर्ष आ जायेगा।अब ये कयास शुरू हो जायेंगे कि कैसा होगा वो नया साल? शुरू हो जाएगी वो नुक्ताचीनी भी, कि कैसा रहा ये गुज़रता साल?लोग एक-दूसरे को नया साल अच्छा होने की शुभकामनायें देंगे।  वैसे तो सब अच्छा ही होगा, पर जोखिम तो हर बात में होते ही हैं।
एक युवक को प्रेम हो गया। प्रेमिका ने फोन करके शाम को एक पार्क में मिलने बुलाया।युवक का प्रेम पहला था, लिहाज़ा थोड़ा नर्वस था। कैसे, और क्या तैयारी की जाये शाम की, दिन भर ये सोचता रहा।देखे-सुने अनुभवों से इतना तो पता था ही कि प्रेमी-प्रेमिका जब भी मिलते हैं तो कोई न कोई गाना गाते हैं। बस,पसंद का एक गाना डाउन लोड किया और उसके रियाज़ में जुट गया।  गीत था, "शाम रंगीन हुई है तेरे आँचल की तरह"
शाम आई।  प्रेमिका आई।  मिलन की घड़ी आई। तैयारी थी ही,आलाप लेकर गीत शुरू कर दिया।
लेकिन ये क्या???
प्रेमिका ने झट से उसका हाथ झटका, और उठ कर चल दी।  युवक की समझ में कुछ न आया, वह हतप्रभ रह गया।
दरअसल युवक ने ध्यान नहीं दिया था कि प्रेमिका ने आज सफ़ेद दुपट्टा ओढ़ रखा है।
तो नया साल आने में अभी पूरे दस दिन बाकी हैं। आपके पास समय है, यदि कोई तैयारी करनी है तो कर डालिये,ताकि कोई जोखिम न रहे और नए साल में सब अच्छा ही हो!            

Thursday, December 11, 2014

बड़ों की बात-२

दरअसल आज़ादी के बाद जब भारत में "भाषा"की बात आई तो हिंदी के सन्दर्भ में इस तरह सोचा गया कि भारत के हर हिस्से की अपनी कोई भाषा होते हुए भी हिंदी को अपनाने की तैयारी कहाँ, कैसी है?
कुछ हिस्से ऐसे थे जो अपनी भाषाओँ के हिंदी से साम्य के कारण हिंदी को अपनाने में समर्थ थे। यहाँ बात सामर्थ्य की थी, इच्छा की नहीं। इसी कारण उत्तरप्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान आदि को "हिंदी"प्रदेश मान लिया गया, जबकि पंजाब, गुजरात,बंगाल या अन्य दक्षिणी राज्यों को अहिन्दी प्रदेशों के रूप में देखते हुए इनकी क्षेत्रीय भाषाओँ को भी सरकारी कामकाज की भाषा बना दिया गया।
अपेक्षा ये थी, कि "देश की एक भाषा"की महत्ता को स्वीकार करते हुए ये बाकी राज्य भी अब हिंदी अपनाने की ओर बढ़ें। इन्हें समय केवल सुविधा-सद्भाव के कारण दिया गया।
अब जब देश इस इंतज़ार में है कि धीरे-धीरे ये राज्य घोषणा करें कि अब वे पूरी तरह हिंदी अपनाने के लिए तैयार हैं, ऐसे में एक 'हिंदी-भाषी' राज्य से मांग आ रही है कि वहां क्षेत्रीय-भाषा को "सरकारी"मान्यता दी जाये। इस कारण लोग इस मांग को 'अतीत में प्रत्यावर्तन' की तरह देख रहे हैं।  इसे भाषिक केंद्रीकरण की कोशिश के विरुद्ध विकेंद्रीकरण की आवाज़ माना जा रहा है।
इसका फैसला समय और लोगों की इच्छाशक्ति मिलकर करेंगे।         

Wednesday, December 10, 2014

बड़ों की बात

क्या आप जानते हैं कि इस समय देश का सबसे बड़ा राज्य कौन सा है? ठीक पहचाना, राजस्थान !
एक समय था,जब हर जगह यूपी-बिहार की बात ही होती थी। नायिका का झुमका तो बरेली में गिरता ही था, नायक का दिल भी लखनऊ शहर की फ़िरदौस पर ही आता था, हेमाजी तो आगरा से घाघरा मंगवाते-मंगवाते मथुरा की सांसद ही हो गयीं। नायिका कहती थी कि मैं पटने से आई, नार मैं 'पटने' वाली हूँ। यहाँ तक कि कर्णाटक की शिल्पा भी यूपी-बिहार लूटने ही निकलती थीं।
लेकिन जबसे उत्तर प्रदेश ने 'उत्तराखंड' दिया,बिहार ने झारखण्ड दिया और मध्य प्रदेश ने छत्तीसगढ़, तब से नक्शानवीसों की तूलिका ने राजस्थान के नक़्शे पर आँखें टिका दीं।  यह देश का सबसे बड़ा राज्य बन गया। यही राजस्थान इस समय एक विशेष हलचल से गुज़र रहा है। ये हलचल राजस्थान में इन दिनों राजस्थानी भाषा को संविधान में मान्यता दिलाने को लेकर उठ रही है। अभी तो आलम ये है कि सरकारी रिकार्ड में कामकाज की भाषा से लेकर प्रदेश की राजभाषा के रूप में हिंदी ही दर्ज है। लेकिन देश के किसी भी हिस्से में आप राजस्थान के मूल निवासियों को राजस्थानी भाषा ही बोलते सुन सकते हैं चाहे उन्हें वहां रहते हुए कितने भी साल गुज़र गए हों। जो लोग राजस्थानी भाषा को मान्यता देने की मांग करते हैं उनका मुख्य तर्क ये है-
जब पंजाब में पंजाबी, बंगाल में बंगाली,गुजरात में गुजराती या तमिलनाडु में तमिल भाषा को मान्यता है तो राजस्थान में राजस्थानी को क्यों नहीं?
यहाँ इस बात पर भी गौर किया जाना चाहिए कि उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश,हरियाणा,हिमाचल प्रदेश में भी वहां की भाषाओँ- ब्रज, अवधी,भोजपुरी,गढ़वाली,कुमायूँनी,कौरवी, मैथिली,बुंदेलखंडी आदि के होते हुए राजभाषा के रूप में हिंदी को ही मान्यता दी गयी है।[जारी]                       

Monday, December 8, 2014

"संतोष"

एक शक्तिशाली राजा के दरबार में एक युवक चला आया। युवक आकर्षक, बुद्धिमान और गंभीर था। राजा ने मन ही मन सोचा कि ऐसे प्रतिभाशाली युवकों को तो राजदरबार में ऊंचे ओहदे पर होना चाहिए। राजा ने युवक की परीक्षा लेने की ठानी , ताकि सफल होने पर उसे रुतबेदार आसन दिया जा सके।  राजा ने युवक को अपने राज्य के एक सूबे में भेजते हुए कहा-"नौजवान, अपनी शक्ति का प्रदर्शन करो, जाओ, जितने शेर-चीते-हाथी-ऊँट पकड़ कर ला सकते हो, लाओ।"
युवक राजा का मंतव्य भाँप कर अपने अभियान पर निकल पड़ा।  युवक ने मचान बाँधा, और शेरों को पकड़ने की कोशिश करने लगा। जी तोड़ पसीना बहाने के बाद भी युवक एक भी शेर नहीं पकड़ सका।
उसने हिम्मत न हारी, सोचा,शेर न सही, वह घोड़े-हाथियों का एक बड़ा झुण्ड ही पकड़ कर राजा की सेवा में पेश करे। किन्तु लाख कोशिशों के बाद भी वह ऐसा झुण्ड नहीं पकड़ सका।
अपने पुरुषार्थ को भाग्य भरोसे छोड़ना उसे गवारा न था, उसने सोचा, छोटे-छोटे मृग-हरिण ही हाथ में आ जाएँ तो उनका एक जत्था लेकर राजा के दरबार में पेश करूँ।लेकिन दिनों का फेर ऐसा कि मृग भी सम्मानजनक संख्या में जुटा पाना संभव न हो सका।
लेकिन कहते हैं कि कोशिश करने वालों की हार नहीं होती। आखिर बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा ,और युवक को वन में अठखेलियाँ करते चंद खरगोश मिल गए। युवक ने एक पल भी गंवाए बिना उन्हें पिंजरे में किया और उन्हें साथ में लेकर राज-दरबार का रुख किया।
राजा ने युवक को देखते ही उसकी हौसला-अफ़ज़ाई की-"शाबाश, जब ये मिल गए हैं तो कभी इन्हें खाने वाले वनराज भी मिलेंगे।"           
      

Friday, December 5, 2014

जिसका काम उसी को साजे

ये बहुत पुरानी कहावत है।  इसका मतलब है कि जो जिस काम का अभ्यस्त होता है, वही उसे सलीके से कर पाता है।
हमारे देश में भोजन पकाने का काम महिलाओं का माना जाता "था"[है नहीं कह रहा] वे बरसों-बरस घर-घर खाना पकाती और आठ-दस लोगों की गृहस्थी को खिलाती रहीं, तो न किसी का ध्यान गया, और न ही किसी ने संजीदगी से उनका नोटिस ही लिया।  लोग मान बैठे कि ये तो उनका काम ही है, करेंगी।
इसी तरह गाली देना पुरुषों का काम रहा।  पुरुष चाहे पढ़े-लिखे हों या अनपढ़, धड़ल्ले से गालियाँ देते रहे।  कभी किसी ने पलट कर किसी से ये नहीं पूछा कि  भाई, ये क्या कह रहे हो? लोग माने बैठे रहे कि जैसे नल से पानी निकले, चूल्हे से आग और साबुन से झाग, वैसे ही पुरुषों के मुंह से गालियाँ निकलती ही हैं।
लेकिन फिर ज़माना बदल गया।  जब महिलाओं की जगह पुरुषों को भी रोटी बनानी पड़ी, तो रसोइयां तीन स्टार,चार स्टार,पांच स्टार होने लगीं। आखिर मर्द धुँआते चौके में मिट्टी के चूल्हे पर थोड़े ही रोटी थोपते?
ठीक वैसे ही जब महिलाओं ने गाली देना [बकना कहने में ज़बान लड़खड़ाती है] शुरू किया, तो आसमान टूट पड़ा।  संसद रुक गयी।  प्रलय आ गयी, भला अब देश-दुनिया कैसे चले ? एक औरत ने गाली दे दी!और एक ने ही नहीं, दो-दो ने! एक देश की मंत्री तो दूसरी राज्य की मुख्यमंत्री!     

Thursday, December 4, 2014

उसने हमें इतना दिया है, इतना दिया है कि कभी-कभी

प्रायः जब हम बिना कोई नाम लिए बात शुरू करते हैं तो यह माना जाता है कि  हम ईश्वर की बात ही कर रहे हैं।  पर आपको बता दूँ कि फ़िलहाल मैं ईश्वर की नहीं, "तकनीक" की बात कर रहा हूँ। प्रौद्यौगिकी की।
जो न दौड़ सके,वह दौड़ ले।  जो न चल सके, वह चल ले। जो न देख सके,वह देख ले।जो गा न सके, वो गा ले।जो नाच न सके, वो नाच ले। जिसके पास दिल न हो, वह दिल ले ले, जिसके पास दिमाग न हो, वह दिमाग।
सच में, इस दौर में तो घाटे में वो है, जिसके पास सब हो! अर्थात यदि आप समझते हैं कि आप में कोई कमी नहीं, [वैसे तो ऐसा समझना अपने आप में एक कमी है] तो तकनीक के कमाल आपको असंतुष्ट और बेचैन रखेंगे।
ये बेचैनी और असंतुष्टि अब यदा-कदा दिखाई देने लगे हैं। लोग [सब नहीं, चंद लोग]चाहने लगे हैं कि बीते दिन, बीते मूल्य, बीती बातें कभी वापस भी आएं , जब आप नीम के न झूमने को हवा का न चलना कहें।  [अभी तो पंखे या एसी के बंद होने को कहते हैं, वह भी नहीं हो पाता क्योंकि बिजली की आपूर्ति न होने के विकल्प भी मौजूद हैं]
आपको याद होगा कुछ साल पहले जब क्रिकेट मैच हुआ करते थे, तो प्रायः एक दफ्तर में एक-दो ही 'ट्रांजिस्टर' हुआ करते थे, और नतीजा ये होता था कि  कुछ लोगों को दूसरों से स्कोर पूछने के लिए विवश होकर उनसे बोलना पड़ जाता था। अब तो भीड़-भरा ट्रेन का डिब्बा हो, या किसी मॉल में लगे सेल मेले का हुजूम, आपको ऊपर देखना ही नहीं पड़ता, क्योंकि हर हाथ में स्मार्ट फोन होता ही है।शायद इसीलिए कभी-कभी लोगों के मन [मस्तिष्क में नहीं] में ख्याल आता है.…                   

Tuesday, December 2, 2014

तोता,कुत्ता, छोटू ,पिताजी और वक़्त

पिछले दिनों जबलपुर जाना हुआ। इस शहर में लगभग बीस साल पहले मैं कुछ समय के लिए रह चुका हूँ।मुझे इस शहर की कुछ बातें, शुरू से बहुत अच्छी लगती रही हैं। नर्मदा के घाट और उनके किनारे की कच्ची हलचल भी। वर्षों पहले वहां जाते ही कुछ समय के लिए मैं एक प्रतिष्ठित परिवार के जिस मकान में रहा, वह मकान भी मेरे लिए एक अनजाने आकर्षण का केंद्र रहा। उस मकान में रह रहे संयुक्त परिवार और उस भवन ने मुझे अक्सर भगवती चरण वर्मा के उपन्यास "टेढ़े मेढ़े रास्ते"की याद दिलाई। मुझे हमेशा लगता था कि मेरे अवचेतन में पैठा यह आवास भवन मेरी किसी रचना में चुपके से उतरेगा।
इक्कीस साल बाद जब मैं उस जगह गया, तो मैंने अहाते में एक बड़े शानदार कुत्ते के साथ टहलते हुए एक बच्चे को पाया। बच्चे ने मुझे देखते ही अभिवादन कर के कुत्ते को जंजीर से बाँधा और गेट खोला।मुख्य द्वार के पास एक बड़ा सा तोता पिंजरे में था, जिसने कुछ हलचल-भरी आवाज़ें निकालीं। बच्चे ने ड्रॉइंग रूम में मुझे बैठा कर अपने पिता को बुलाया, जिनके साथ मैंने चाय पी और नाश्ता किया।
इक्कीस साल पहले भी जब मैं उस घर में पहली बार गया था, तो लगभग यही नज़ारा मैंने देखा था। बस केवल इतना सा अंतर था कि 'तब' के पिता की तस्वीर अब माला सहित दीवार पर टंगी थी। तोता उसी पुराने तोते की नस्ल का, मगर नई उम्र का था। कुत्ता उसी रंग-रूप का,पर जवान था।बच्चा नया, और मेरे लिए अनजाना था और पिता में इक्कीस साल पहले के छोटू की हलकी झलक विद्यमान थी।
मेरे पास आइना नहीं था, इसलिए अपने चेहरे की उम्र मेरे सामने नहीं आ पायी, लेकिन गुज़रे "इक्कीस साल" पारदर्शी होकर मेरे सामने खड़े थे।                    

Monday, November 17, 2014

बंद गली का आखिरी मकान

दो मित्र थे।  गाँव से शहर पढ़ने के लिए आये थे।  कुछ तो मितव्ययता का ख्याल, कुछ अध्ययन के लिए आवश्यक एकांत का, और कुछ मालिक मकान से किसी परिचित की दूर की रिश्तेदारी,इन सभी बातों के कारण उन्हें एक बंद गली का आखिरी मकान ही पसंद आया और उन्होंने इसे किराये पर ले लिया।
दिन पंछी की तरह उड़ते हुए बीतने लगे।
संयोग की बात, पढ़ाई पूरी होते ही दोनों की नौकरी उसी शहर में लगी। उधर मकान का मालिक किसी और जगह जाने की योजना बना रहा था, अतःसस्ते में सौदा हो गया और दोनों ने मकान खरीद लिया।
कुछ ही समय में दोनों की पत्नियाँ भी आ गयीं, और घर बस गया।
अब धीरे-धीरे मकान की पिछली दीवार की खिड़कियाँ भी खुलने लगी हैं, चार दीवारी में लोगों ने कुछ तोड़-फोड़ भी देखी।  अब उसे लोग बंद गली का आखिरी मकान नहीं कहते।
ठीक भी है, दुनिया की कोई गली हमेशा के लिए बंद नहीं है।  "आख़िरी" कहीं भी,कभी भी,आख़िरी नहीं है।        

Tuesday, November 11, 2014

मॉरिशस के पहाड़-३

अगर आपके साथ कोई दगा करे ,आपको धोखा दे, तो आप उसके साथ कैसा बर्ताव करेंगे?
आपको आपके घर से ढेर सारे सोने का लालच देकर हज़ारों मील दूर किसी निर्जन द्वीप में ले जाकर छोड़ दे,जहाँ आपको सोना मिलना तो दूर,रोटी के भी लाले पड़ जाएँ और आपके घर लौटने के सारे रास्ते भी बंद हो जाएँ।
ऐसे में आपके सामने दो ही विकल्प हैं।
१. आप भाग्य,ईश्वर,समय,लालच,हैवानियत, इन सभी को कोसते हुए आत्मघाती तरीके से खुद को ख़त्म करलें।
२. आप तमाम जुल्म सहने के लिए खुद को तैयार करते हुए अपनी मेहनत और जीवट से मिट्टी को सोना बनाने के लिए जुट जाएँ,और अन्याय को "अंगूठा"दिखा दें।
मॉरिशस ने यही किया है। दूसरा रास्ता अख्तियार किया है। मॉरिशस की वादियों में घूमते हुए 'थम्सअप हिल'आपको इस सच्चाई की गर्वभरी सनद देता है। आखिर प्रकृति भी देखती-समझती है, इंसान के जज़्बात।          

Monday, November 10, 2014

मॉरिशस के पहाड़-२

आप जब मॉरिशस की राजधानी पोर्ट लुइस से निकल कर दक्षिण की ओर जाते हैं तो आपको एक पर्वत-माला के किनारे एक बेहद खूबसूरत पहाड़ की ऊंची चोटी पर निसर्ग की बेमिसाल अदाकारी की मिसाल के तौर पर एक अद्भुत नज़ारा देखने को मिलता है। दरअसल यह एक विशाल चट्टान है जो मानव-आकृति के रूप में आसमान के कैनवस पर चस्पाँ है। यह एक युवक के चेहरे की तरह है जो अपनी गर्दन से पहाड़ से जुड़ा है। हैरत ये देख कर होती है कि इतनी ऊंचाई पर पतली सी गर्दन ने स्वस्थ-बलिष्ठ चेहरे को कैसे साध रखा है?
इस पत्थर-बुत युवक से आपके दिल के तार और भी मुलायमियत से जुड़ जाते हैं, जब आप इस नज़ारे के नेपथ्य से इसकी कहानी सुनते हैं।
कहते हैं कि किसी समय इस पहाड़ पर सफ़ेद लिबास में परियाँ घूमा करती थीं। ये हुस्न-बालाएं एकांत रहिवास का लुत्फ़ उठाने की ग़रज़ से गुमनाम पत्थरों के गाँव में बसर करती थीं। लेकिन कहीं सौंदर्य का मेला लगे, और युवा आँखें न उठें, ये तो मुमकिन नहीं।
पहाड़ों पर मवेशी चराते एक किशोर लड़के ने भौंचक-नैन इस रूप के झरने को निहार लिया। परियों ने लड़के को देखते ही घेर लिया। गुनाह पहला था, और गुनहगार चढ़ती उम्र का मासूम, इसलिए उसे ये चेतावनी देकर छोड़ दिया गया कि वह इन हसीनाओं के बाबत किसी से जिक्र न करे।
लेकिन कोई दुनियाँ की सबसे बेजोड़ खूबसूरती देख ले, और मन पर काबू रख कर किसी से न कहे? लानत है ऐसी जवानी पर!
लड़के ने अपने देखे दृश्य का जिक्र हमनवाओं के बीच कर डाला। वादा तोड़ा।उसे सजा हुई कि हमेशा के लिए "पत्थर के हो जाओ", परिणाम-स्वरुप पत्थर का वह मासूम सनम आज भी वहां खड़ा है।          

मॉरिशस के पहाड़

इंसान से कभी-कभी यह शिकायत हो जाती है कि वह अपने जन्मदाताओं को भूल जाता है। लेकिन ऐसा कोई लांछन मॉरिशस की धरती पर नहीं लगता।  इसका कारण यह है कि लगभग सत्तर लाख वर्ष पहले सागर के गर्भ से प्रस्फुटित जिस ज्वालामुखी ने मॉरिशस को जन्म दिया वह अभी भी उपेक्षित-अनदेखा नहीं है। वह मॉरिशस के पहाड़ों के बीच एक नम नखलिस्तान की तरह बदस्तूर कायम है।
विनम्रता के लिबास में वक्त को ओढ़े खड़ा ये पथरीला मंज़र उस इंसान के मुकाबिल चुपचाप खड़ा है जो अपने कुलजमा अस्सी-सौ सालों के जीवन में कई बार घमंड और उन्माद में चूर होता दिखाई देता रहा है।
पैदा होते वक्त सतरंगी मॉरिशस ने जो सात रंग देखे-दिखाए होंगे उनकी झलक सात रंगों की मिट्टी की शक्ल में आप आज भी बिखरी देख सकते हैं।
एक विशाल झरना दिन-रात आज भी वहां पानी बहाता देखा जाता है,जाने किसी दर्द की ओट में या फिर दुनिया को "जल तू जलाल तू" की नसीहत देने के क्रम में।          

Thursday, October 30, 2014

"तारीफ" का प्रतिशत

एक कवि ने तन्मय होकर पूरे मनोयोग से एक कविता लिखी। कवि की अंतरात्मा से निरंतर ये आवाज़ आ रही थी कि कविता बेहद ही शानदार है, और ये अवश्य ही कवि को आधुनिक साहित्य में अहम मुकाम दिला कर कालजयी बनाएगी। लिहाजा कवि ने उसे एक नामी आलोचक के पास टिप्पणी के लिए भेज दिया, जो संयोग से एक प्रखर संपादक भी थे।
कुछ दिन बाद संपादक की टिप्पणी कवि को मिली-"बेहद मार्मिक, सार्थक,सटीक हृदयस्पर्शी रचना, मैं चाहता हूँ कि इसे जन-जन पढ़े,इस पर शोध हों, टीका-व्याख्या-मीमांसा हो,ताकि दुनिया को पता तो चले कि आखिर ये है क्या?"
कवि महोदय "उल्लास से स्तब्ध"हो गए, उनपर "हर्षातिरेक से हताशा" का दौरा पड़ गया।
वे तत्काल अपने एक गणितज्ञ-मित्र के पास दौड़े। उन्हें पूरा यकीन था कि उनका मित्र उन्हें मिले संपादक के पत्र में "तारीफ का प्रतिशत" निकाल कर उन्हें बता सकेगा।
           

Wednesday, October 29, 2014

एक हज़ार एक सौ बार कह दिया

फेसबुक पर एक ज़बरदस्त बहस चल रही है।  लोग "चुप रहने वालों" और "बोलने वालों" की तुलना कर रहे हैं।मुझे लगता है कि कहीं ११०० पोस्ट पूरी कर लेने वाले हमारे जैसे लोग भी किसी "नीलोफर" की चपेट में न आ जाएँ।वैसे इत्मीनान की बात ये भी है कि इस घोर तकनीकी युग में खुल्लम-खुल्ला शब्द-प्रहारों के बीच "बंद लिफाफों" की गोपनीयता अब भी कायम है।  
बहरहाल, "कहना पड़ता है" कि हम सब का आपसी सद्भाव-प्रेम-विश्वास-परिहास इसी तरह कायम रहे और महा संचारी, महा वाचाली,परम उन्मादी, चरम प्रमादी इस युग में अपनी-अपनी चमक लेकर हमारे विचारों के रंगीले जुगनू सदा इसी तरह उड़ते-मंडराते-छितराते रहें।
१०००  पोस्ट पूरी कर लेने के बाद मैंने यह सिलसिला रोक देना चाहा था। किन्तु कुछ मित्रों के उत्साह वर्धन के बाद मैंने बाँध के गेट फिर खोल दिए।मुझे वे सब याद आ रहे हैं।  उन सब के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ। उनका नाम लेने लगूँगा तो शायद बात बहुत लम्बी हो जाएगी,क्योंकि वे बहुत दूर तक फैले हैं- पिट्सबर्ग, अमेरिका के अनुराग जी से लेकर नजदीकी मोहल्ले की नीलिमा टिक्कू जी तक।  
"रंगभेद"की खिलाफत को लेकर हम सब उन हस्तियों के साथ हमेशा रहे हैं जिन्होंने रंगभेद रुपी पक्षपात का हमेशा विरोध किया।  वे चाहें मार्टिन लूथर किंग हों,नेल्सन मंडेला हों,या बराक ओबामा साहब।  
लेकिन विडंबना है कि आज हमारा देश फिर रंगभेद के चक्रव्यूह में फंसा है। 
काश! हम गर्व से दुनिया से कह पाते कि हमारे जिस मुल्क को दुनिया में हमेशा गरीब,पिछड़ा,निर्धन समझा जाता रहा है, उसके ढेरों वाशिंदों के अरबों रूपये आज विश्व भर के तमाम मुल्कों में जमा हैं। लेकिन क्या करें- "सफ़ेद काले" का चक्कर यहाँ भी बीच में आ गया। अगली बार जब हम सब दीवाली मनाएं तो लक्ष्मी पूजन   के समय कृपया यह भी देख लें कि लक्ष्मी मैया कौन से रंग का परिधान पहन कर हमारी देहरी पर आ रही हैं?श्वेत या श्याम !    
बेचारे हम !                  

Tuesday, October 28, 2014

याद कीजिये हिंदी फिल्मों के डाकुओं को

डाकू !
जिनके नाम से ही रूह काँप जाती है।
सपने में भी किसी को दिख जाएँ तो नींद से उठ कर बैठ जाए।
उनकी तस्वीर को देख कर ही लोग अपनी तिजोरी सँभालने लग जाते हैं।
गाँव में उनके घोड़ों की टाप सुनते ही खिड़कियाँ बंद होने लगती हैं।
लेकिन थोड़ी देर बाद !
पनघट पर उन्हें पानी पिलाने के लिए युवतियों में होड़ मच जाती है।
नायिका चोरी-चोरी छिपके-छिपके उनसे मिलने लग जाती है।
गाँव के लोग उनके साथ नाचते-थिरकते दिखाई देते हैं।
उन्हें पुलिस से बचाने के लिए घर में छिपाया जाता है।
उनके सीने में लगी गोली निकालने को डॉक्टर बुलाया जाता है।
क्यों?
क्योंकि वे लूट की दौलत गरीबों में बाँट देते हैं।
गाँव की अबला-निर्धन युवतियों के कन्यादान करते हैं।
सड़कों के किनारे मंदिर-धर्मशालाएं बनवाते हैं।
और मोटे -मोटे चंदे देते हैं, अमर को भी,अकबर को भी, और एंथोनी को भी।     
     

Monday, October 27, 2014

हम-आप कौन होते हैं तूफानों के रास्ते तय करने वाले !

बवंडर किसी से रास्ते पूछ कर नहीं बढ़ते। आँधियाँ चलने से पहले अपना टूर प्रोग्राम ज़ाहिर नहीं करतीं।  ये मदमाते उच्श्रृंखल मंज़र हैं , इन्हें कुदरत ने छूट दी है मनमानी करने की।
ज़्यादा से ज़्यादा इतना किया जा सकता है कि इनके उन्मादी तेवर भाँप कर हम समय रहते अपने नुक्सान को कम से कम करने की जुगत कर लें।
कई भीषण झंझावात एक गली में हुंकार भरते हुए दूसरी गली से निकल जाते हैं। दरिया इनके हौसले पस्त कर देते हैं, हवाएँ इनका रुख पलट देती हैं।
ये कोई राजपुरुष नहीं हैं कि  इनके रथ का काफिला सुरक्षा-बेड़े की "पायलेट कार" के पीछे-पीछे ही चले।
जब धरती पर ही हम इनसे पार नहीं पा सकते, तो भला आसमानों पर किसका बस?
कई काली घटाएं ग़रज कर ही चली जाती हैं।उनकी मर्ज़ी,बरसें,न बरसें।
कई बार घनघोर गर्जन करते काले मेघ हलकी सी बूँदाबाँदी करके ही चले जाते हैं। हम-आप कर ही क्या सकते हैं। यदि ये बूँद भर छींटे भी किसी को भिगो न पाएं तो ? बाजार में छतरियाँ भी तो मिलती हैं। हम-आप कर ही क्या सकते हैं? फिर किसी 'हुद हुद' या 'नीलोफर'का इंतज़ार !              

Sunday, October 26, 2014

"दो" अब "वज़ीर"

दो मित्र थे। युवा,स्वस्थ,संपन्न।
दोनों ने एक साथ कहीं घूमने जाने का कार्यक्रम बनाया। सुबह दस बजे की गाड़ी थी, ठीक समय पर एक-एक  बैग में कपड़े और कुछ ज़रूरी सामान रख कर दोनों स्टेशन पहुँच गए।
एक कुली ने स्टेशन पर उनसे सामान उठाने की पेशकश की।सामान कुछ ज़्यादा तो था नहीं, फिर भी न जाने क्या सोच कर एक मित्र ने बैग कुली को सौंप दिया, जबकि दूसरे ने अपना बैग अपने कंधे पर टांग लिया।  
आमने-सामने की सीटों पर दोनों व्यवस्थित हुए ही थे कि गाड़ी चल पड़ी।  
अब उन दोनों में इस बात को लेकर बहस छिड़ गयी कि दोनों में से किसका निर्णय ज़्यादा सही था।  
एक बोला-"इतना सा श्रम तो हमें करना ही चाहिए, आखिर बैग में वज़न ही कितना था?"
दूसरा बोला-"यदि एक मज़दूर की थोड़ी मदद करने के लिहाज़ से हमने पच्चीस-तीस रूपये का काम उसे दे दिया, तो इसमें गलत क्या है?"
-"तो क्या हम दूसरे को संपन्न बनाने के लिए अपने को आलसी बना लें?"
-"लेकिन यदि सब यही सोच कर अपने सब काम अपने आप करते रहे तो कितने ही लोगों की आजीविका छिन जाएगी।"
-"सबको काम देने का ज़िम्मा हमारा नहीं, सरकार का है।"
-"सरकार कैसे करेगी, हमारे माध्यम से ही न?"
-"हम सरकार के मोहरे हैं क्या?"
-"इसमें मोहरे की क्या बात है, अपने अच्छे काम का पुण्य या फ़ल हमें ही तो मिलेगा।"
बहस से दोनों तनाव में आ गए।आख़िर चुप होकर एक ने अन्य यात्री का,पास में पड़ा हुआ अखबार उठा लिया।  
अखबार में खबर थी कि अमिताभ बच्चन की फिल्म 'दो' का नाम बदलकर अब 'वज़ीर'कर दिया गया है।                

Saturday, October 25, 2014

अमेरिका में पहुँच कर याद आने वाली पहली बात

जब आप अमेरिका,कनाडा,फ़्रांस,जर्मनी,ऑस्ट्रेलिया,इंग्लैंड या जापान जैसे देशों में कदम रखते हैं तो पहली जिज्ञासा आपको शायद यही होती है कि इनका कचरा कहाँ है?
क्या भारत में हम ऐसा नहीं कर सकते? यदि इन संपन्न देशों की तुलना में हम अपने को गरीब भी मान लें, तब भी कुछ बातें तो ऐसी हैं ही जिनमें कुछ खर्च नहीं होता-
१. हम यहाँ-वहाँ सार्वजनिक स्थलों पर थूकें नहीं,खुले में शरीर की उत्सर्जन क्रियाओं को टालें, धूम्रपान, गुटखे आदि से होने वाली स्वास्थ्य-हानि व गंदगी को समझ कर इस से बचें।
२. पॉलिथीन ,कागज़ के रैपर आदि को इधर-उधर उड़ता न छोड़ें।
३. नाक-कान साफ करने के बाद अपने हाथ की सफाई का ध्यान तो रखें ही, उन उपकरणों का भी सही   निस्तारण करें जिनसे आपने सफाई की है।
४. सार्वजनिक स्थानों पर पड़े कचरे में यदि आपको कचरे से पुनर्उपयोगी वस्तुएं तलाश करते बच्चे दिखाई दें, तो उन्हें भी समझाने का प्रयास करें।
जो कचरा हमें बीमार करके दवा का खर्च बढ़वा देता है, उसे निपटाने के लिए कचरा-पेटी रखना समझदारी भरा निवेश है।
एक बड़ी समस्या सिर्फ लोगों की "आदत" है।
खुद जाँचिए-एक कमरे में बच्चों-किशोरों को अखबार पढ़ने के लिए दीजिये। फिर उन्हें किसी काम, मसलन दरवाज़ा खोलने,पानी लाने के लिए उठाइये। कमरे में पंखा चलता रहने दीजिये।
अब ध्यान से देखिये, इनमें कुछ ऐसे हैं जो जाने से पहले अखबार को किसी वस्तु से दबाएंगे, या तह करके सलीके से रख जायेंगे। अधिकांश ऐसे भी जो अख़बार को फरफरा कर उड़ता छोड़ चल देंगे।  अब आप आसानी से पहचान सकते हैं कि भविष्य में कौन "म्युनिसिपलिटी"के लिए 'प्रॉब्लम सिटिज़न' अर्थात सरदर्द -नागरिक बनने वाले हैं।                      

आन गाँव के सिद्ध

"घर की मुर्गी दाल बराबर" अथवा "घर का जोगी जोगणा" दोनों एक ही बात है। इसका अर्थ ये है कि किसी व्यक्ति की अपने घर या अपने लोगों के बीच उतनी महत्ता नहीं होती, जितनी दूसरों के बीच।
ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जब कोई अपने घर अथवा देश में वर्षों तक अच्छा काम करता रहा पर उसे कोई महत्व नहीं मिला, और जब उसे किसी अन्य देश में पहचान कर सम्मानित किया गया, तो उसके अपने घर में भी लोगों ने उसका लोहा माना और उसके नाम का डंका बजने लगा।
ऐसा क्यों होता है? क्या अपने घरवाले या देशवाले निष्ठुर, पक्षपाती और नासमझ होते हैं?
नहीं, हमारी प्रतिभा को दूसरों द्वारा पहचाने जाने के कुछ कारण भी होते हैं, जिनकी वजह से हमें 'स्वीकार' मिलता है।
१. हम अपने लोगों के बीच काम करते हुए जब अपनी प्रतिभा को मांझ लेते हैं, तभी दूसरों के बीच जाते हैं, और वहां हम अपना सर्वश्रेष्ठ देने का प्रयास करते हैं।
२. हमारे अपने लोग 'अपनापे' के कारण सहजता से हमारे काम का मूल्यांकन करके हमारी कमियाँ भी बता देते हैं, जिससे हम समझते हैं कि ये हमारी आलोचना कर रहे हैं, जबकि बाहरी व्यक्ति की बात हम खुद ध्यान से सुनते हैं।
३.बाहरी सम्मान पाते ही हमारा आभा-मंडल एकाएक दमकने लगता है, जिसके प्रभाव में हमारी सीमायें या कमियाँ स्वतः मुंह छिपा लेती हैं।
और बस, हमें लगने लगता है कि विश्व शांति के लिए महात्मा गांधी मलाला जैसा कुछ न कर सके,या प्रेमचंद में रबीन्द्र नाथ टैगोर वाली बात नहीं है।   
                   

Friday, October 24, 2014

अपने मित्रों को छाँटिए

हम प्रायः दो तरह से चीज़ों को पसंद करते हैं, शायद लोगों को भी।
एक में हम उन्हें देखते हैं, आगे बढ़ जाते हैं।  सहसा कोई कौंध सी उठती है, कि हम पलट कर फिर देखना चाहते हैं। संयोगवश या सायास हम उन्हें फिर देख पाते हैं।
जिस तरह पुराने ज़माने में गली-गली घूमता बर्तन कलई वाला कोई चमकीली धातु गर्म बर्तन पर रगड़ कर उसे चमका देता था, उसी तरह अपनी पसंद के प्राथमिकता-मानदण्ड से उसे छुआ कर देख कर हम फिर अपने जेहन में झलकी उस वस्तु को अपने पसंद-कोष में शामिल कर लेते हैं।बस, अब ये चीज़ या व्यक्ति हमें पसंद है।
दूसरे तरीके में हम उसे देखते ही ठिठक जाते हैं।  हममें से कुछ निकल कर उसमें या उसमें से कुछ निकल कर हम में जाने लगता है।  जैसे दो बर्तन किसी छिद्र से जुड़ जाने पर अपने भीतर का जल-स्तर समान कर रहे हों।
क्षणिक आवेग से हमारी आयात शर्तें उसकी निर्वाह शर्तों से समायोजित होने लगती हैं और ऐसा हो जाते ही वह हमारी पसंद की वस्तु या व्यक्ति हो जाते हैं।
एक तीसरा तरीका भी है, लेकिन वह फिलहाल अप्रासंगिक है क्योंकि उसमें हम ऑब्जेक्ट होते हैं, कोई दूसरा हमारे आखेट पर निकला हुआ होता है, जब और यदि, वह हमें जीत लेता है तो हम उसके हो जाते हैं, ये निर्णय हमारा नहीं है।ऐसा वस्तुओं के मामले में भी हो सकता है,जैसे सड़क पर चलते हुए यदि हमारी चप्पल टूट जाए, तो उसमें विवश होकर लगवाई गई कील हमारे न चाहते हुए भी अब हमारी चौबीसों घंटे की साथी है।                 

Wednesday, October 22, 2014

प्रकाश-विनिमय

प्रकाश विनिमय बड़ी कठिन प्रक्रिया है। प्रकाश यदि किसी को दिया जाए,तो यह जाता नहीं है। यह वहीँ रहते हुए अपना दायरा बढ़ा लेता है।ऐसे में प्रकाश विस्तार तो संभव है किन्तु प्रकाश विनिमय नहीं। आप किसी को बल्ब तो दे सकते हैं,जिसे वह अन्यत्र ले जाकर प्रकाशित कर ले, पर रोशनी ले जाने के लिए देना जटिल प्रक्रिया है। ठीक इसी तरह प्रकाश आयात करना भी पेचीदा है। हम कहीं से लैम्प ला सकते हैं,लेकिन उजास लाना संभव नहीं होता।
यदि हज़ारों साल में एक बार कभी ऐसा हो जाए कि अपने पैरों चल कर प्रकाश, रोशनी या उजाला आपके घर के द्वार चला आये तो अद्भुत बात होती है। वस्तुतः यही दीवाली होती है।इस दिन आसुरी शक्तियों का संहार करता भटक रहा आपका राम आपके पास वापस लौटता है। यह उजाला आने की प्रक्रिया होती है, जो सदियों में एक बार कभी होती है।
राम के लौट आने का अर्थ यह नहीं होता कि  दुनिया से आसुरी और मैली शक्तियाँ अब समाप्त हो गयीं, इनका बार-बार सिर उठाते रहना तय है। इसीलिये राम के आगमन पर बधाई से अधिक "शुभकामनाओं"का महत्व है। "उजाले संभाल कर रखिये, अँधेरे मरते नहीं, सोये होते हैं, आपको रोशनी की दरकार हमेशा रहती है"                  

Monday, October 20, 2014

महिमा-स्पर्धा

महाकवि केशव ने 'अंगद-रावण संवाद' लिख कर अंगद के मुंह से राम की महिमा का जो गुणगान किया, वह अप्रतिम है।  "सिंधु तर्यो उनकौ वनरा तुमपे धनु-रेख गई न तरी" में अंगद ने रावण को बताया कि राम का तो एक बन्दर भी  समुद्र लाँघ गया, और तुमसे लक्ष्मण रेखा तक नहीं लांघी गई।
लेकिन आज अगर महाकवि होते तो वे ये देख कर चकित हो जाते कि  अब राम की महिमा भी अक्षुण्ण नहीं रही, इस युग में उनसे भी अधिक महिमामय विभूतियाँ हैं। आप भी देखिये-

"चौदह बरस जो कटे वन में , तब जाके कहीं ये दिवाली मनी
इत काटि के लौटीं दिवस चौदह बस, भव्य कहीं ये दिवाली मनी
भाई लियौ अरु भावज छोड़ि ,ये फ्रेंड सभी संग लेय पधारीं
एक खड़ाऊँ तजी उन ने,इन नौ सौ खड़ाऊं टाँग सिधारीं
पार करी सरयू उन ने, जब केवट ने जल पाँव पखारे
कोर्ट के द्वार बन्यौ हेलीपेड कहीं तब जा इन पैर उतारे
स्वर्ण कौ देखि गए मृग दौड़ि के, सो भी तिहारे वो हाथ न आयौ
आय छियासठ कोटि करी जुरमाना भर्यो सौ कोटि चुकायो"

[भावार्थ-कवि कहता है कि श्री राम के चौदह वर्ष वनवास में काटने के कारण जैसी दिवाली मनती है, उस से भी भव्य दिवाली जयललिता जी के चौदह दिन कारावास में काटने पर मन रही है। राम तो भाई को साथ ले,भाभी को छोड़ गए, किन्तु जयललिता जी के मित्र-रिश्तेदार भी यात्रा में उनके साथ रहे। राम अपनी एक खड़ाऊँ घर पर छोड़ कर गए थे,सुश्री जयललिता जी साढ़े नौ सौ सैंडिलें घर पर टँगी छोड़ गयीं। राम के तो पैरों की मिट्टी भी धोकर उन्हें सरयू पार करने दी गयी, यहाँ न्यायालय के द्वार तक हेलीपेड बना।राम तो स्वर्ण मृग के पीछे दौड़ कर भी उसे पकड़ न सके, किन्तु जयललिता जी ने छियासठ करोड़ ज्यादा कमा कर भी सौ करोड़ का दंड चुका दिया।]          
 
      

Sunday, October 19, 2014

दिवाली

शबरी के जूठे बेर खाके चाहे लौटे कोई
चाहे भरपेट ही खिलाके होए वापसी
चाहे वनवास मिले, चाहे कारावास हो
घर-वापसी पे तो दिवाली ही दिवाली है !
  

समाधान की समस्या

चूहों ने एक सभा की। कई अनुभवी चूहों ने भाषण दिए। एक अत्यंत बुजुर्ग चूहे ने कहा-"कानून का राज सबसे अच्छा होता है। कानून से सब डरते हैं, और अपराध नहीं करते।"
बात सभी को पसंद आई। आखिर सर्वसम्मति से कानून बनाया गया,कि अब से किसी चूहे को खाना कानूनन अपराध माना जायेगा, और इसके लिए उम्र कैद तक सजा हो सकेगी।
अब बेचारी बिल्ली को क्या मालूम, कानून क्या है, तो जैसे ही उसने झपट्टा मार कर एक चूहे को उदरस्थ किया, झट पुलिस आ गई। बिल्लीपर मुक़दमा चला और उसे जेल हो गई।
बिल्ली ने जेल में रोटी खाने से साफ़ इंकार कर दिया। प्राणी अधिकार आयोग के दबाव में आकर जेलर साहब को बिल्ली के लिए जेल में रोज सुबह-शाम चूहे परोसने की व्यवस्था करनी पड़ी।           

कालजयी होने के सात तरीके

कुछ लोगों की अभिलाषा 'कालजयी' होने की होती है। इसमें कुछ गलत भी नहीं है, आखिर उम्र तो किसी की ज्यादा से ज्यादा सौ-सवा सौ साल होगी, पर कालजयी होने के बाद दुनिया में अनंत काल तक मंडराने की सम्भावना हो जाती है। यहाँ कुछ ऐसे उपाय सुझाये जा रहे हैं, जिन्हें अपनाकर आप सुगमता से कालजयी हो सकते हैं।
१. एक छोटे से [अमृता प्रीतम के शब्दों में कहें तो रसीदी टिकट के बराबर]कागज़ पर कोई शेर, दोहा,छंद लिख कर अपने नाम के साथ एक माचिस की डिबिया में रख कर गंगा में बहा दें।  [नोट-रचना तुलसी, कबीर,सूर,मीरा आदि के स्तर की हो, वह तो होगी ही, क्योंकि आप लिखेंगे]
२. केले के पत्ते पर एक "उसने कहा था" जैसी प्रगतिशील कहानी लिख कर उसके नीचे अपने हस्ताक्षर करें, और उसे किसी पूजास्थल के बुर्ज पर टांग दें।
३. अपनी अन्य इच्छाएं पूर्ण होने से पहले ही अपनी अंतिम इच्छा का जिक्र मीडिया में कर दें।
४. धर्मग्रंथों का ध्यान से अध्ययन करके ये जानने की चेष्टा करें कि कौन से नक्षत्र में किस विधि-विधान से कौन सी इलेक्ट्रॉनिक वस्तु खरीदना श्रेयस्कर रहेगा।
५. अपनी कोई स्वरचित कविता मोहल्ले के बच्चों को कंठस्थ करादें।
६. अपनी वसीयत में अपने अंतिम संस्कार के विकल्प के रूप में देहदान सुझाएं।
७. आँखें बंद कर के सोचें कि सागर-मंथन हो रहा है और अमृत हर हाल में आपको ही मिलेगा।             

Saturday, October 18, 2014

सपने में

दो मित्र थे। बचपन से ही एकसाथ खेले-पढ़े थे। हर बात में एक समान। जो बात एक को पसंद आती, वही दूसरे को भी।
न जाने कैसे, केवल एक बात में दोनों बिलकुल अलग थे। एक अपने मन की बात किसी को बताता न था,दूसरा जो भी सोचता, या करना चाहता, झटपट सभी को बता डालता था।
अब यह अंतर कहीं तो सिर चढ़ कर बोलना ही था। नतीजा ये हुआ कि पच्चीस साल बाद दोनों में से एक बेहद अमीर हो गया, जबकि दूसरा एक सामान्य मध्यम वर्गीय नागरिक रहा।
दोस्ती तो कायम थी, लिहाजा मिलते-जुलते भी थे। एक दिन फुर्सत से बैठे-बैठे दोनों के बीच इस बात पर मंथन होने लगा कि जीवन में आखिर हम दोनों के बीच स्टेटस का इतना बड़ा अंतर क्यों आया?
एक ने कहा- "मैं अपनी हर योजना सबको बता देता था, इससे मुझे सबके सुझाव और फीडबैक मिल जाते थे और मेरे काम में मुझे शानदार मुनाफा मिलता था, जिससे मैं अत्यधिक धनी हो गया।"
दूसरा बोला-"मैंने कभी किसी को कुछ नहीं बताया, तुझे भी नहीं, कि मेरा तुझसे भी चार गुना ज्यादा धन रखा कहाँ है? यहाँ तो मैं भी सादगी से रहता हूँ, ताकि धन ऐसे ही आता रहे, जबकि तुझे दिन-रात कड़ी मेहनत करनी पड़ती है।"
-"लेकिन तेरा धन है कहाँ?" पहले ने आश्चर्य से पूछा।
दूसरा बोला-"देख, मैं तो तुझे बता देता,पर अभी तो मुझे बहुत नींद आ रही है, फिर बात करेंगे।"   
   
      

Wednesday, October 8, 2014

किसी की लकीर छोटी करके नहीं, अपनी लकीर बड़ी करके बात बनेगी

शीघ्र आने वाली दीवाली के सन्दर्भ में एक अपील फेसबुक पर पढ़ी। इसमें कहा गया है कि यदि दीपोत्सव पर चाइनीज़ लाइटें,बल्ब,लैंम्प, पटाखों आदि का प्रयोग किया जायेगा तो चाइना तीन सौ करोड़ रूपये से अमीर हो जायेगा, किन्तु यदि इनकी जगह मिट्टी के दिए जलेंगे तो कुम्हार रोजगार पाएंगे और देश का पैसा देश में रहेगा।  राष्ट्रप्रेम और मानवता की इस भावना को नमन, लेकिन  …?
-हम दुनिया के हर भाग के लोगों को विशाल बाजार देने का आश्वासन देकर आमंत्रित कर रहे हैं,क्या उन लोगों को हम उनके निवेश करने के बाद सहयोग नहीं देंगे?
-क्या हम मिट्टी के दिए बनाते हमारे कुम्हारों को शिक्षा, विकास,आधुनिक व्यापार से नहीं जोड़ कर जन्म-जन्मान्तर तक गाँव की मिट्टी से ही पसीना बहाते हुए रोटी निकालते देखना चाहते हैं?
-यदि विकास और राष्ट्रीयता की यह भावना हमें प्रिय है तो हम अपने बनाये "दीपकों" की मार्केटिंग दुनिया भर में नहीं कर सकते?अपने कुम्हार को निर्यात के लिए नीतियां और सहयोग नहीं दे सकते?    

Monday, October 6, 2014

ख़बरदार, जो सफ़ाई में किसी ने इसका साथ दिया

एक जंगल में झील के किनारे छोटी सी सुन्दर चट्टान सबका मन मोहती थी।
उड़ती-उड़ती एक तितली उस ओर चली आई। इधर-उधर देख ही रही थी कि सामने से एक छोटी मेंढकी आती दिखी। परिचय हुआ,थोड़ी बातचीत, और फिर दोस्ताना हो गया।
ऐसी सुन्दर जगह भला और कहाँ,दोनों ने तय किया कि चलो यहीं रहा जाय। एक से भले दो, मन भी लगा रहेगा और रहने का स्थाई ठिकाना भी हो जायेगा।
कुछ दिन बहुत मजे में बीते, सुबह की धूप दोनों को लुभाती,झील की लहरें दोनों के मानस को सहलातीं।
एक दिन सुबह उठते ही मेंढकी ने देखा कि तितली पथरीली चट्टान के आसपास साफ-सफाई में लगी है। पूछने पर बोली- "यहाँ कुछ सुन्दर फूल उगा लिए जाएँ,तो पराग-कणों से खाने-पीने का सतूना भी यहीं हो जाये।"
मेंढकी कुछ न बोली। अगली सुबह जब तितली सोकर उठी तो उसने देखा कि मेंढकी पहले से ही जाग कर काम में लगी है। वह झील से कुछ कीचड़,बदबूदार पानी और प्राणियों के मल से मैली हुई गन्दी मिट्टी वहां ला-लाकर डाल रही थी।  
पूछने पर बोली-"अरे मैंने सोचा, गंदगी का छोटा ढेर लगा लूँ तो कीड़े-मच्छर यहीं पनप जाएँ,खाने-पीने का जुगाड़ हो जाये।"
दोनों के बीच पहले कुछ देर का अबोला हुआ, फिर मनमुटाव हो गया।
तितली दिनभर उड़ती फिरती और जो भी मिलता उससे कहती कि इस जगह को गुलज़ार करने में मेरा साथ दो। मेंढकी कहती-"ख़बरदार जो सफाई में किसी ने इसका साथ दिया।"               

वो कौन था?

दो आदमी थे।  उनमें से एक आदमी दुनिया के किसी हिस्से में रहता था। एशिया,यूरोप,उत्तरी अमेरिका,दक्षिणी अमेरिका, अफ्रीका या ऑस्ट्रेलिया के किसी भाग में।
वह अपने सभी काम स्वयं अपने हाथ से करता था। मसलन अपना भोजन तैयार करना, सफाई करना, कपड़े धोना,अपने बगीचे की देखभाल करना, अपनी गाड़ी चलाना और उसका रख-रखाव करना, अन्य यंत्रों व उपकरणों की देखभाल और उन्हें इस्तेमाल करना, अथवा अपनी हेयर-कटिंग वगैरह। वह कभी-कभी इन कामों में अपने घर के दूसरे सदस्यों की थोड़ी बहुत मदद भी ले लेता था,लेकिन इस तरह कि जैसे वह उन्हें वो काम सिखाना चाहता हो। अगर कोई और उसके लिए ये काम करता तो वह सहयोग करने की चेष्टा करता था। यदि वह कोई काम नहीं जानता था, या उसे कोई अड़चन आती थी तो वह उसे इंटरनेट,किताबों या किसी से पूछ कर जानने की कोशिश करता था।
दूसरा आदमी दुनिया के किसी और हिस्से में रहता था।वही ,एशिया,यूरोप,उत्तरी अमेरिका,दक्षिणी अमेरिका,अफ्रीका या ऑस्ट्रेलिया के किसी भाग में।
वह अपने कम से कम काम अपने हाथ से करना पसंद करता था। मसलन, जब वह नहाने जाये, तो कोई महिला[-माँ,बहन,बीवी या बेटी आदि]उसे बताये कि साबुन-तौलिया आदि कहाँ हैं, और जब नहा कर आए तो उसके कपड़े, प्रसाधन आदि उसे दे। उसका भोजन कोई बनादे,उसे परोस दे और खा लेने पर बर्तन हटा ले।गाड़ी साफ करने को नौकर और चलाने को शोफर हो। बगीचे में माली हो।बाल काटने को सैलून हो।  कपड़े धोने और इस्त्री करने को धोबी हो।अगर कोई काम न हो पाये या बिगड़ जाए तो उसे वह डाँट सके,जो भी उसके सामने पड़े।जो काम उसे न आये,उसके लिए वह घर के किसी अन्य सदस्य को दोषी ठहरा सके।
हम भारतीय हैं, और हमें अपने पर गर्व करना चाहिए कि दुनिया के दो हिस्सों में अलग-अलग रहने वाले उन दो आदमियों में से एक "भारतीय" भी था।                       
    

Friday, October 3, 2014

"वेरी चीप"

समाजसेवा से जुड़ा एक संस्थान एक भव्य कार्यक्रम आयोजित करने की योजना बना रहा था। प्रबंधकों ने सब कुछ सोच कर कार्यक्रम की रूपरेखा बना ली, कौन मुख्य अतिथि होगा, कौन-कौन अतिथि होंगे, कौन वक्ता होंगे,किस विषय पर बातचीत होगी, जलपान में क्या परोसा जायेगा, इत्यादि। समारोह का पूरा बजट भी बना लिया गया।कार्यक्रम को नाम दिया गया-'ज्ञान- अर्जन'  
जब स्वीकृति के लिए फ़ाइल अध्यक्ष के पास गयी तो उन्होंने इस पर टिप्पणी की, "एक बार वित्तीय सलाहकार को भी दिखा लें"
सलाहकार महाशय टिप्पणी देख कर गदगद हो गए। उन्होंने तत्काल प्रबंधकों को अपने चैंबर में बुलाया और उनसे मुखातिब हुए। बोले-"सुन्दर कार्यक्रम है, केवल मुख्य अतिथि श्रीमान 'क' की जगह श्रीमान 'ख' को बुला लें।"
-"क्यों सर?" प्रबंधकों ने विनम्रता से कहा।
वे बोले-"आप क को लेने कार भेजेंगे, एस्कॉर्ट भेजेंगे, प्रेस बुलाएँगे, फोटोग्राफर बुलाएँगे।जबकि श्रीमान ख अपनी कार से आएंगे, ड्राइवर नहीं, स्वयं ड्राइव करेंगे, मोबाइल पर तस्वीरें लेकर मीडिया, प्रेस,फेसबुक,ट्विटर पर भी वे स्वयं डालेंगे, हो सकता है, उनके संस्थान का सभागृह आपको उपलब्ध करा दें,वहां जलपान की व्यवस्था भी उन्हीं की रहेगी। बहुत से श्रोता भी आपको उनके ही मिल जायेंगे, नेट से निर्धारित विषय पर बहुत सी सामग्री तो वे दिलवा ही देंगे।"
प्रबंधक-गण एक दूसरे का मुंह देखने लगे। साहस करके एक प्रबंधक बोले- "अद्भुत सर !केवल एक छोटा सा सुझाव है.… "
-"हाँ-हाँ बोलिए।"
-"हम लोग कार्यक्रम का नाम बदल दें? 'ज्ञान-लंगर' कैसा रहेगा?"
सलाहकार महोदय असमंजस में थे, वे समझ नहीं पा रहे थे कि उन्होंने संस्थान के हित में कैसे सुझाव दिए हैं !                 
     

Sunday, September 28, 2014

चूहा आराम से सो रहा था, आपने चक्कर काटने में इतनी खटर -पटर क्यों की?

हर व्यक्ति चाहता है कि वह उन्नति करे और उसका भविष्य उज्जवल हो। यदि हर व्यक्ति अपनी इस चाहत को वास्तविकता में बदल पाये तो उसका देश भी तरक्की करता है।
क्या आप कोई ऐसा ताबीज या उपकरण चाहते हैं जो आपको पहले से ही यह बता कर सचेत करदे कि किस बात से तरक्की होगी, किस से नहीं?
इन घटनाओं को गौर से देखिये-
-रात को सोते वक्त आप अपने कमरे में लगातार खटर-पटर की आवाज़ सुनते हैं तो आपको कैसा लगता है?
-लाइट जला देते ही आपको यदि कमरे में फर्श पर कोई चूहा दौड़ता हुआ दिख जाये तो आप कैसा महसूस करते हैं?
-अगली सुबह आप बाजार से चूहा पकड़ने का एक पिंजरा खरीद लाते हैं तब आपको कैसा लगता है?
-आप किसी तरह चूहे को पिंजरे में डाल देने में कामयाब हो जाते हैं, तब आपको कैसा लगता है?
-आप चूहे को बहुत दूर जंगल-खेत-मैदान में छोड़ आते हैं तब आपको कैसा लगता है?
कुछ समय बाद आप चैन से सोते हुए एक सपना देखते हैं कि चूहा वापस चलता हुआ आपके घर के नज़दीक आ रहा है। इस बार वह अकेला नहीं है, बल्कि उसके साथ काले लिबास में एक और "जीव" है जो आपके दरवाजे पर पहुँचते ही आपको एक पत्र भेंट करता है।
पत्र में लिखा है-
रात दस बजे बाद लाइट जलाने की अनुमति नहीं थी तो आपने लाइट क्यों जलाई?
बाजार में लोहे के पिंजरे उपलब्ध थे तो आपने लकड़ी का पिंजरा क्यों खरीदा?[ज़रूर लकड़ी के लिए कोई पेड़ काटा गया होगा]
क्या आपने जंगल-खेत या मैदान में चूहे को छोड़ने से पहले फॉरेस्ट विभाग,एग्रीकल्चर विभाग या प्रशासन से 'नो ऑब्जेक्शन' लिया था?     
 
   

नया बिरवा मत आने देना ,गिरे दरख्तों की टहनियां घसीट लाओ

कुछ बच्चे मैदान में क्रिकेट खेल रहे थे।  एक सज्जन वहां पहुंचे, और ज़रा संकोच के साथ ख़लल डाला। बोले-"बेटा, केवल आज-आज,एक दिन के लिए अपना खेल मुल्तवी कर सकते हो?"
-"क्यों ?"पूछा केवल दो-तीन लड़कों ने ही, किन्तु प्रश्नवाचक हर चेहरे पर टंग गया।
वे बोले- "मैं चाहता हूँ, कि आज तुम लोग अपना खेल बंद करके मेरे साथ काम करो।  हम मिल कर यहाँ एक रावण का पुतला बनाएंगे और दशहरे के दिन उसका वध करके त्यौहार मनाएंगे।"
कुछ ने खुश होकर, कुछ ने खीज कर, बैट -बॉल को एक दीवार के सहारे टिका  दिया और उन सज्जन के पीछे-पीछे चले आये।
बच्चे आपस में बातें करने लगे। "बाजार में बना- बनाया रावण मिलता तो है "किसी बच्चे से यह सुन कर वे सज्जन मुस्कराये, और बोले- "हाँ,मिलता है,पर मैं चाहता हूँ कि तुम लोग खुद रावण बनाओ,ताकि तुम्हें पता चले कि इसमें ऐसा क्या है जो इसे इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी हर साल जला कर नष्ट किया जाता है।"
-"क्रेकर्स !" एक बच्चे ने कहा तो सभी हंस पड़े।
-"नहीं," वे संजीदगी से बोले। तुम इसमें अपनी गली का सारा कचरा भरना और फिर इसे जला कर राख कर देना।
बच्चे निराश हो गए। लेकिन उन सज्जन के कहने पर आसपास से घास-फूस,कचरा जमा करने लगे।
वे बोले-हमारे सब त्यौहार इसी लिए हमारी संस्कृति में अब तक जीवंत हैं, क्योंकि ये दैनिक जीवन के लिए कुछ न कुछ उपयोगिता सिद्ध करते हैं। बाजार में बन रहे रावण बनाने वालों को रोज़गार ज़रूर देंगे, किन्तु इनसे अगर शहरों को गंदगी मिलती है तो इसे भी तो रोकना होगा।
दिनभर बच्चे काम में लगे रहे,लेकिन रात होते ही बच्चों ने उन पुराने विचारों वाले-सनकी-परम्परावादी सज्जन का "फेसबुक" पर खूब मज़ाक उड़ाया।                        

Wednesday, September 24, 2014

"कहानियों का असर"

 कुछ लोग कहते हैं कि  साहित्य अब जीवन पर से अपनी पकड़ खो रहा है। अब न उसे कोई गंभीरता से लेता है, और न ही उसे थोड़े बहुत मनोरंजन से ज़्यादा कुछ समझा जाता है।
यदि आपको भी ऐसा ही लगता है, तो कल की "दिल्ली ज़ू" की उस घटना की खबर ध्यान से पढ़िए, जिसमें बताया गया है कि  एक बीस वर्षीय युवक बाघ के बाड़े में गिर गया।  बाघ ने उसे कुछ पल ठिठक कर देखा, फिर बाद में एक अन्य दर्शक के पत्थर फेंकने पर क्रुद्ध होकर युवक को मार डाला।
लेकिन इस घटना का साहित्य से क्या सरोकार ?
इसी घटना के प्रत्यक्ष-दर्शियों ने [एक ने तो खूबसूरत फोटो तक उतार लिया]बताया है कि युवक पैर फिसल जाने से दुर्घटना-वश जब बाघ के बाड़े में गिर गया, और बाघ उसके निकट चला आया, तो अकस्मात उसे सामने देख कर युवक ने घबरा कर अपने हाथ बाघ के सामने जोड़े।
सोचिये, ये युवक के दिमाग में कैसे आया होगा? कहाँ देखा होगा उसने ये ?
साक्षात मौत ने दस्तक देकर जब भय से उसकी सारी संवेदनाओं को हर लिया, तो उस मरणासन्न मानव ने वही किया, जो कथा-कहानियों ने उसके अवचेतन में भरा होगा। उस समय तर्क या अनुभव काम नहीं कर रहे थे। साहित्य की देखी-भोगी अनुभूतियाँ संभवतः उस समय भी उसके साथ थीं, चाहे वे पंचतंत्र,बाल साहित्य या लोककथाओं से ही उपजी हों।         

Sunday, September 21, 2014

देखा होगा? नहीं देखा तो अब देखिये।

कुछ बच्चे शरारती होते हैं।  उनके क्रिया-कलापों को आप तर्क की कसौटी पर नहीं तौल सकते। उनके रक्त में ही शरारत घुली होती है।
वे यदि अपने माता-पिता के साथ भी कहीं मेहमान बन के जाएँ तो ज़्यादा देर संजीदगी से नहीं रह सकते। वे थोड़ी सी औपचारिकताओं के बाद जल्दी ही अनौपचारिक हो जाते हैं।  और उतर आते हैं अपनी शरारतों पर।उनके माता-पिता भी उनकी शरारतों के इस तरह अभ्यस्त हो जाते हैं कि फिर उन्हें रोकने-टोकने की जहमत नहीं उठाते। बल्कि मन ही मन उनकी शरारतों को अपरिहार्य मान कर उन्हें स्वीकार कर लेते हैं। लेकिन इस प्रवृत्ति से मेज़बान की नाक में दम हो जाता है। मेज़बान की समझ में नहीं आता कि आमंत्रित मेहमानों का लिहाज करके ऊधमी बच्चों को मनमानी करने दें या फिर सब कुछ भुला कर उन पर लगाम कसें।  ऐसे में निश्चित ही माँ-बाप को भी पूरी तरह निर्दोष नहीं माना जा सकता। आखिर ऐसे बच्चों पर नियंत्रण रखने की पहली ज़िम्मेदारी तो उन्हीं की है। लेकिन कहीं-कहीं तो माँ-बाप पूरी तरह अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेते हैं और अपने बच्चों को उनकी मनचाही शरारत करने देते हैं।हद तो तब होती है जब वे अपने बच्चों की करतूत देख कर भी अनजान बने रहते हैं। यदि मेज़बान दबे-ढके शब्दों में उन्हें इस ओर ध्यान दिलाना भी चाहें तो वे गौर नहीं करते।
वो किस्सा तो आपने सुना ही होगा। मेहमान का एक बच्चा बार-बार मेज़बान के पालतू पिल्ले की पूंछ खींच-खींच कर उसे तंग कर रहा था। मेहमान ने उसके माता-पिता का ध्यान उधर खींचने के लिए कहा-"ये आपका बड़ा बेटा है न जो उस टॉमी को तंग रहा है?" मेहमान ने सहजता से कहा-"जी नहीं, वह तो छोटा है, बड़ा वह है जो आपकी खिड़की का कांच तोड़ने की कोशिश कर रहा है।"
आप कभी ध्यान से देखने की कोशिश कीजिये, ये शरारती बच्चे कहीं भी हो सकते हैं, किसी भी उम्र के हो सकते हैं।  किसी भी देश के हो सकते हैं।
हो सकता है कि इनके पिता-समान नेता जब किसी देश के राष्ट्र-प्रमुख के साथ दोस्ती के माहौल में बैठ कर लंच ले रहे हों ये देश की सीमा पर बेवजह भीतर घुसने की शरारत कर रहे हों।  इनके नेता जब शांति से बैठकर दोस्ती और भाईचारे की सनद पर दस्तख़त कर रहे हों,उस समय ये सीमा पर तमंचे दिखा कर दूसरे देश के लोगों को डरा-धमका रहे हों।
खैर, ऐसी गीदड़ भभकियों से किसी का कुछ बनता-बिगड़ता तो नहीं है, पर फ़िज़ूल में मेज़बान देश के नेताओं पर कीचड़ उछालने का मौका तो उनके अपने ही देश के वाशिंदों को मिल जाता है।  आखिर शरारती बच्चे तो दोनों ही घरों में होते हैं -क्या मेहमान और क्या मेज़बान !                     

Saturday, September 20, 2014

"दस" बस है

कहते हैं कि गणित में एक क्या, शून्य यानी ज़ीरो भी बहुत है। फिर दस को कम कौन कह सकता है। दस तो बस है। दस में तो कुछ तूफानी किया जा सकता है।  कहने का मतलब है- डर के आगे जीत है!
तो जीत हो गई।  एकता की जीत, भाईचारे की जीत, मिलजुल कर रहने के ज़ज़्बे की जीत।
जीत ऐसे ही नहीं होती।  उसके लिए जीतना पड़ता है।  पिता को कहना पड़ता है कि बेटा, घर छोड़ कर मत जा, जो तू चाहेगा वही होगा। चार अंगुलियां होने पर ही मुट्ठी बनती है।मुट्ठी में ताकत होती है।  ताकत में हिम्मत होती है।  हिम्मत में गैरत होती है। गैरत में ही ज़िंदगी होती है।
आज समय बहुत बदल गया है। अब सूरज नहीं डूबना कोई बड़ी बात नहीं मानी जाती। सूरज अस्त होगा तभी तो सूर्योदय होगा। यदि सूर्यास्त ही नहीं हुआ तो सूर्योदय की सम्भावना कहाँ रह जाएगी। और सूर्योदय-सूर्यास्त को रोकने का अर्थ है ज़िंदगी को रोकना।  ज़िंदगी रोकने का मतलब है गैरत को रोकना।  हिम्मत को रोकना, ताकत को रोकना, बात घूम-फिर कर वहीँ आ जाती है।
तो अगर पैंतालीस प्रतिशत लोग कहें कि "अलग", और पचपन प्रतिशत लोग कहें कि "साथ-साथ", तो अंतर पूरा 'दस' का हुआ। और दस बस है।
बात यूनाइटेड किंगडम और स्कॉटलैंड की है।
हाँ,एक बात ज़रूर है।
अगर घर के पैंतालीस प्रतिशत लोग घर छोड़ने की मंशा रखते हों, तो घर के बुजुर्गों की नींद भी उड़ जानी चाहिए। चैन से तो हर्गिज़ नहीं बैठा जा सकता। क्योंकि अगर भगवान न करे,कभी दस प्रतिशत और गुस्सा हो गए, तो फिर कुछ भी हो सकता है। दस बस है।                         

Wednesday, September 17, 2014

गांव हमारा शहर तुम्हारा

विकास बहुत आसान है। शरीर को कोई रोग हो जाये,तो उसका इलाज नहीं करने से बीमारी का विकास हो जाता है।  लेकिन ये बापू,अर्थात महात्मा गांधी की विकास की अवधारणा नहीं है।  उनके विकास का मतलब तो बड़ा गहरा है।  वैसा विकास आसान नहीं है।  आइये देखें, कैसा विकास चाहते थे बापू?
पहले तो ये जानना ज़रूरी है कि शहरी और ग्रामीण विकास में अंतर क्या है!यदि शहर की खुशहाली बढ़े, रोज़गार बढ़े, सुविधाएँ बढ़ें तो ये शहरी विकास है।  और यदि यही सब बातें गांवों में बढ़ें तो ये ग्रामीण विकास है।  मतलब ये हुआ कि विकास चाहे शहरों में हो या गांवों में, इस से देश का भला तो होता ही है।
तो फिर बापू ग्रामीण विकास की बात क्यों करते थे? ग्रामीण विकास को देश के लिए ज़रूरी क्यों मानते थे? गांवों के विकास की बात इसलिए होती थी, क्योंकि हमारे देश की अस्सी प्रतिशत जनसँख्या गांवों में रहती है।  यदि गांव खुशहाल होंगे तो ज़्यादा आबादी को इस विकास का लाभ मिलेगा।  लोग रोजगार और रोटी के लिए गांव छोड़ कर शहर की ओर  नहीं भागेंगे।
दूसरे,बापू ये मानते थे कि पूँजी गांवों में पैदा होती है शहरों में पैदा नहीं होती।  वहां तो उसका प्रयोग होता है, बंटवारा होता है, उपभोग होता है।  उपजाने का काम गांवों का है।  हर तरह की उपज वहां होती है।  गांवों को विकसित बनाने से उत्पादन का काम और ज़ोर पकड़ेगा।गांव में काम करने वाले खुशहाल होंगे तो वे देश की उन्नति में ज़्यादा योगदान देंगे।
शहर में लोग एक-एक फुट ज़मीन बेच कर हज़ारों रूपये कमा लेते हैं,लेकिन गांव में जिनके पास लम्बी-चौड़ी धरती है उनके तन पर ठीक से कपड़ा भी नहीं होता।उनके बच्चे अच्छे स्कूलों में नहीं पढ़ पाते।  उनकी बीमारी के इलाज के लिए अच्छे डॉक्टर,अच्छे अस्पताल नहीं होते।  जबकि शहरों में सुख-सुविधाओं में जीने वालों की रोटी गांवों से आती है।  हल गांवों में चलते हैं।
एयर कंडीशंड कमरे में सवेरे नौ बजे उठ कर दोपहर पांच सितारा होटल में लंच के लिए पनीर का ऑर्डर देने वाले ये नहीं जानते कि इस पनीर के लिए दूध किसी फटेहाल किसान ने सर्दी-गर्मी-बरसात में अलस्सुबह चार बजे उठ कर निकाला है।
बापू ये जानते थे।  बापू को ये पता था कि शहरों में बैठे-बैठे पैसे को दुगना कर लेने की कई योजनाएं हैं, लेकिन गांवों में मेहनत करते-करते भी तन के कपड़े आधे हो जाते हैं।  शहर के स्कूलों में पढ़ कर बच्चों को इतना ज्ञान मिलता है कि  उन्हें लाखों की नौकरी मिल जायें पर गांव में बच्चे माँ-बाप के जोड़े हुए गहने-रूपये फीस में चले जाने पर भी अज्ञानी रह जाते हैं।  इसलिए बापू ग्रामीण विकास की बात करते थे।  गांव की खुशहाली की बात करते थे।            

Tuesday, September 16, 2014

फेसबुक पर

कल "इंजीनियर्स डे" था, दुनिया को तकनीक के सहारे ऊंचा उठाने वालों के नाम।  ओह,जाने ये कैसे लोग हैं जिन्होंने दुनिया को बदल दिया, लोगों की ज़िंदगी को बदल दिया। सतत चिंतन और कर्म से कहाँ से कहाँ ले गए  बातों को।
समुद्र में उफनते लहराते पानी को कैद करके पाइपों के सहारे हमारे घरों के भीतर भेज दिया।  सूरज डूबने के बाद घिरी अँधेरी उदासी को चकाचौंध जगमगाती रोशनी में बदल दिया। सीढ़ी दर सीढ़ी हमारे घरों को आसमानों तक ले गए। दुनिया के एक सिरे से दूसरे सिरे तक इंसान को उड़ाते ले जाने लगे। लोहे-इस्पात से आदमी के इशारे पर नाचने वाले आज्ञाकारी सेवक गढ़ दिए। ज़मीन के भीतर से बेशकीमती नगीने निकाल-निकाल कर इंसानी काया को सजा दिया। 'असंभव' नाम के लफ्ज़ का तो जैसे नामो-निशान मिटाने पर तुल गए।
मुझे तो लगता है कि एक न एक दिन इनकी पकड़ 'जीवन-मृत्यु' के चक्र से निकल कर जन्म-जन्मान्तरों पर हो जाएगी।
सच, कितना मज़ा आएगा ?
तब हमारे मित्र गण आसानी से "फेसबुक" पर [फोटो सहित] बता पाएंगे कि वे इंसान बनने से पहले की चौरासी लाख योनियों में से अभी कौन सी योनि में हैं।                  

Sunday, September 14, 2014

सागर आज भी सीमा है

ये बात बड़ी तकलीफ देने वाली है कि हम वैज्ञानिकों को आसानी से सम्मान देने को तैयार नहीं होते। वे किसी भी सार्वभौमिक समस्या को पहचान कर उसके निदान के लिए शोध-अनुसन्धान में अपना सारा जीवन लगा देते हैं,कोई न कोई हल भी खोज लेते हैं, मगर हम हैं कि अपने "ढाक के तीन पात" वाले रवैये से बिलकुल भी बदलने को तैयार ही नहीं होते।
वैज्ञानिकों ने चाँद पर हमें भेज दिया, वैज्ञानिकों ने दुनिया की दूरियां मिटा डालीं, पर हम मन की दूरियाँ मिटाने को तैयार नहीं। जहाँ एक ओर पूरे ग्लोब को एक साथ बांधे रखने की कोशिशें हो रही हैं, वहीं हम हैं कि टूटना चाहते हैं, बिखरना चाहते हैं, छिटकना चाहते हैं। हमें अलगाव चाहिए,एकांत चाहिए, स्वच्छंदता चाहिए।
सागर पर इंजीनियर लाख पुल बना डालें,हमारा आवागमन सहज कर दें, किन्तु हमारे लिए तो समुद्र अभी भी सीमा है। उसके इस पार अलग दुनिया हो, उस पार अलग दुनिया।
कल "इंजिनीयर्स डे" है। न जाने कैसे मनेगा?
लेकिन ज़मीन के बीच बहता समंदर तो मचल कर कसमसा रहा है, धरती के दो टुकड़ों को अलग करने के लिए। बात इंग्लैंड और स्कॉटलैंड की है। प्रतीक्षा १८ तारीख की।       

Friday, September 12, 2014

आदमी की बातें

मैदान में एक भैंस घास चर रही थी। उसके पीछे-पीछे एक सफ़ेद-झक़ बगुला अपने लम्बे पैरों पर लगभग दौड़ता सा चला आ रहा था।
नज़दीक पेड़ पर बैठे एक तोते ने वहां बैठे एक कबूतर से कहा-"प्रेम-प्रीत अंधे होते हैं, देखो, रुई के फाहे सा नरम-नाज़ुक धवल प्राणी उस थुलथुल-काय श्यामला के पीछे दौड़ा जा रहा है। "
कबूतर ने जवाब दिया-"प्रेम-प्रीत का तो पता नहीं, परन्तु भूख ज़रूर अंधी होती है, भैंस चरने में मगन है, उसे पीछे आते मित्र की कोई परवाह नहीं, और बगुला भी कोई भैंस की मिज़ाज़-पुरसी करने नहीं आया है, बल्कि भैंस की सांसों से घास में जो मच्छर उड़ रहे हैं, उन्हें अपना निवाला बनाने आया है।"
"ओह, तो वे दोनों ही अपने-अपने ज़रूरी कार्य में व्यस्त हैं, तब हमें अकारण उन पर छींटाकशी करने का क्या हक़?" तोते ने पश्चाताप में डूब कर कहा।
कबूतर बोला-"हाँ, लेकिन जोड़ी तो बेमेल है ही।"
तभी चरती हुई भैंस कुछ दूर बने एक तालाब के पास जाकर पानी में उतर गई। बगुला भी पानी के किनारे मछलियों पर ध्यान लगा कर खड़ा हो गया।
तोता फिर चहका-"देखो-देखो, जोड़ी बेमेल नहीं है, दोनों की मंज़िल एक ही थी, दोनों को तालाब में ही जाना था, दोनों रास्ते के मुसाफिर थे, अगर एक ही मंज़िल के राही हों, उनमें तो अपनापा हो ही जाता है।"
"कुछ भी हो, वह भोजन के बाद नहाने गई है, और बगुला तालाब से नहा-धोकर ही भोजन के लिए निकला होगा,कितना अलग स्वभाव है दोनों का" कबूतर ने उपेक्षा से कहा।
तोता बोला-"अब घर लौट कर वह दूध देगी, और ये यहाँ मछली खायेगा।  जबकि कहते हैं, दूध और मछली का कोई मेल नहीं है, दोनों एक साथ खा लो तो पचते नहीं हैं।"
कबूतर ने कहा-"और क्या, आदमी तो ऐसा ही कहते हैं।"
तभी पेड़ की तलहटी में बैठी एक गिलहरी बोल पड़ी-"आदमी की बातें खूब सीख रखी हैं तुम दोनों ने!"

            

Thursday, September 11, 2014

ये अच्छा है

पिछले पूरे सप्ताह जम्मू-कश्मीर में जो विकराल तांडव चला, उससे निपटने में भारतीय सेना की तत्परता अत्यंत सराहनीय है। विपदाओं का आना तो किसी ढब रोका नहीं जा सकता,किन्तु सेना ने यह अवश्य जता दिया कि यदि धरती समस्याओं से भरी है, तो समाधानों से भी, ज़ज़्बों से भी और हौसलों से भी।
लगभग ऐसी ही विपदा की आहटें आज जापान से भी आ रही हैं। काश,कुदरत की उद्दंडता को वहां भी मुंहतोड़ जवाब मिले।
लेकिन कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि इस तरह जन-आपदाओं में सेना को उत्तरदायी बना कर झोंक देना उचित नहीं है।  ऐसे अवसरों, बल्कि कुअवसरों पर तो आपदा-प्रबंधन दलों और स्थानीय प्रशासनों को ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए।
यह बात किसी भी देश,और विशेषतः विकासशील देश के लिए तो उपयोगी नहीं हो सकती। अन्य बचाव दल इंफ्रा-स्ट्रक्चर में सेना जैसे सज्जित और त्वरित नहीं हो सकते।उनके लिए प्रशिक्षण और सामानांतर सुविधाएँ जुटाना बेहद खर्चीला है। दूसरी ओर युद्धों का अत्यंत सीमित हो जाना सेना के अनुप्रयोग को भी तो सीमित करता है।  ऐसे में,यदि ऐसे विकट अवसरों पर सेना आम जनता के बीच मदद के लिए आती है तो एक ओर उसका अभ्यास बना रहेगा और दूसरे आम लोगों और सेना के बीच प्रगाढ़ परस्पर सौहार्द पूर्ण सम्बन्ध भी बनेंगे।  लोग देखेंगे कि कौन सीमा पर हमारा रक्षक है, और सेना के जवान भी जानेंगे कि हमने किस अवाम की हिफ़ाज़त को अपनी ज़िंदगी का सबब चुना है।  यह रिश्ता अच्छा है, पर भगवान करे कि इसकी ज़रूरत देश को कम से कम ही पड़े।             

Wednesday, September 10, 2014

आप क्या लेंगे अपने साथ?

देखते-देखते कश्मीर की अतिवृष्टि और बाढ़ बेहद खतरनाक विभीषिका में तब्दील हो गयी। निरीह और निर्दोष लोगों ने अपने घर की छत पर खड़े-खड़े मौत को तेज़ी से अपने करीब आते देखा।
ऐसे में राहत और बचाव में लगे लोग किसी देवदूत की तरह लोगों की जान सहेजने की मुहिम में जुटे रहे। अथाह पानी के ऊपर से उड़ता हुआ कोई हेलीकॉप्टर जब छतों पर सहारे की रस्सी लटकाता,या फिर पानी के ऊपर से गुज़रती कोई नाव छत पर खड़े लोगों से कूद पड़ने का आग्रह करती तो हर एक के मन में यही ख्याल आता कि शरीर के भीतर जो एक "जान" नाम की चिड़िया बैठी है, केवल उसे ही अपने साथ में लेकर भागना है।बाकी सब कुछ भूल जाना है।
आज से छह साल पहले आज के ही दिन ऐसा ही एक नज़ारा हुआ था। लेकिन तब किसी हेलीकॉप्टर की रस्सी या कश्ती के आह्वान की सुविधा नहीं मिली। 'जान'नाम की चिड़िया को साथ ले उड़ने की मोहलत भी वक़्त ने नहीं दी। पुराने दुःख नए दुःखों को कम तो क्या करेंगे, हां, बढ़ा भले ही दें।   
खैर, कुदरत का करीना भी यही है, और करिश्मा भी यही !           

Tuesday, September 9, 2014

इतने कठिन प्रश्न-पत्र नहीं बनाये जाते एक्ज़ामिनर महाशय !

आपने एक न्यायप्रिय राजा और दो स्त्रियों की कहानी ज़रूर सुनी होगी। दोनों स्त्रियों में एक ही बच्चे को लेकर विवाद हो गया। वे दोनों ही उसे अपना कहती थीं। जाहिर है कि बच्चे की माँ तो दोनों में से एक ही होगी, किन्तु दूसरी ने भी अपना दावा इस संवेदनशीलता से रखा कि बात बढ़ गई। यह तय नहीं हो पा रहा था कि बच्चे की असली माँ  दोनों में से कौन सी है। बच्चा भी इतना छोटा था कि अपनी वास्तविक माँ का कोई प्रभावी संकेत न दे सका। जटिल समस्या लोक-चौपाल से निकल कर राजदरबार में पहुँच गई।
बहुत प्रयास के बाद भी जब कोई फैसला न हो सका तो बुद्धिमान राजा ने घोषणा की कि बच्चे को काट कर आधा-आधा दोनों महिलाओं में बाँट दिया जाये। बस फिर क्या था,बच्चे की असली माँ तड़प उठी कि ऐसा न किया जाए, और बच्चा चाहे पूरा ही दूसरी महिला को दे दिया जाय। फ़ौरन दूध का दूध व पानी का पानी हो गया। नकली माँ दण्डित की गई, और बच्चा असली माँ को सौंपा गया।
ईश्वर इसी न्याय प्रियता से शायद और भी मसले सुलझाना चाहता है। उसने धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले कश्मीर को दरिया की तरह मचलते हुए सैलाब में झोंक दिया। अब वह आसमान में बैठा देख रहा है कि  उसके दोनों दावेदार मुल्कों में से किस का दिल धड़कता है? बेचैनियां कौन से देश का खाना-खराब करती हैं? मदद और इमदाद के लिए कौन दौड़ता है? दुआ के हाथ किस जानिब से उठते हैं? और कौन फ़क़त तमाशाई बना रहता है?
जो भी हो, ईश्वर को ऐसे सख्त इम्तहान शोभा नहीं देते। भला कोई इंसान और इंसानियत को यों मुश्किल में डालता है?      
           

Wednesday, September 3, 2014

"रिहर्सल" ऐसी आशंकाओं को कम करते हैं

किसी ने कहा है कि जब हम बोल रहे होते हैं, तब केवल वह दोहरा रहे होते हैं जो हम पहले से ही जानते हैं। किन्तु जब हम सुन रहे होते हैं तो इस बात की सम्भावना भी रहती है कि हम कुछ नया सीख भी रहे हों।
हमेशा सुनना कमतर होने और बोलना श्रेष्ठ होने की निशानी नहीं है।
मेरे एक मित्र परसों एक कार्यक्रम की यह कह कर बड़ी सराहना कर रहे थे कि हर वर्ष यह बड़ा अच्छा कार्यक्रम होता है।  मैंने उनसे पूछा - वो फिर हो रहा है,क्या आप उसमें जायेंगे?
वे बोले- यदि मुझे वक्ता के रूप में आमंत्रित करेंगे तो चला जाऊँगा, खाली सुनने तो जाता नहीं हूँ।
मैंने उनसे कहा -इसका अर्थ है कि वहां जो श्रोता आएंगे, वे आपसे तो कमतर ही होंगे? तो घटिया लोगों के बीच जाकर आपको क्या मिलेगा? वे सोच में पड़ गए।  उन्हें इस बात का असमंजस था कि उनका मित्र उनका मज़ाक कैसे उड़ा सकता है।
कुछ दिन पूर्व कुछ लोग चंद ऐसे ख्यातिप्राप्त वरिष्ठ लोगों का इस बात के लिए उपहास कर रहे थे, कि राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री से किसी समारोह में पुरस्कार लेते समय उन लोगों से इसका "रिहर्सल" करवाया गया। क्या इसमें आपको भी कोई हैरानी की बात लगती है? हमेशा पुरस्कार ग्रहण करने वाला पुरस्कार देने वाले से छोटा नहीं होता।  इसके अलावा-
-आयोजकों पर कार्यक्रम को समयबद्धता और गरिमापूर्ण ढंग से संपन्न करने की ज़िम्मेदारी होती है, यदि वे इसके लिए पूर्व तैयारी करते हैं तो आपको अस्त-व्यस्तता से बचाने के लिए। इसमें किसी की हेठी नहीं है।
कुछ साल पहले विश्वसुंदरी प्रतियोगिता में कार्पेट पर चलते हुए मिस लाइबेरिया के सैंडिल की हील अटकने से वे गिर गयी थीं, रिहर्सल ऐसी आशंकाओं को कम करते हैं।                      

Monday, September 1, 2014

सूरज का ठंडा टुकड़ा

एक बार जंगल में घूम रहे शेर से एक परिंदे ने पूछा- "क्यों भई , तू किस बात पर दहाड़ता रहता है, तेरे जबड़े दुखते नहीं ?"
शेर ने कहा-"मुझमें ताकत का घमंड है, मेरे स्वभाव में श्रेष्ठता की गर्मी है,मुझे अच्छा लगता है सबको अपनी उपस्थिति का अहसास कराना।"
पंछी बोला-"ये सब तो ठीक है, मगर याद रख, तू सूरज के टुकड़े पर रहता ज़रूर है, लेकिन वह अब ठंडा हो चुका है।"
शेर ने कहा-"तू जानता है न मैं कौन हूँ?"
-"हाँ,राजा है,पर मेरा नहीं, जानवरों का।" पक्षी ने लापरवाही से कहा।
-"तो तेरा राजा कौन है?"शेर ने आश्चर्य से कहा।
-"मोर !" परिंदा बोला।
शेर ने सोचा, इसके मुंह लगना ठीक नहीं,इसे मेरी कोई बात पसंद नहीं आएगी। वैसे भी,ये मेरा वोटर तो है नहीं! शेर अपने रास्ते पर बढ़ गया।           

Sunday, August 31, 2014

मनुष्यता का अर्थशास्त्र

जिस तरह संपन्न देशों में हर व्यक्ति को सामाजिक सुरक्षा कोड दिया जाता है, यदि उसी तरह हर व्यक्ति का मूल्य-मूल्यांकन [वैल्यू डिटरमिनेशन] करके उसे इंगित किया जा सके तो इससे किसी भी देश की केवल जनसंख्या के स्थान पर उस देश की जनसंख्या की गुणवत्ता और उसकी कुल जन-सम्पदा का वास्तविक मूल्य जाना जा सकता है। यह लगभग प्रति व्यक्ति आय और सकल राष्ट्रीय आय की तरह ही होगा, किन्तु इस गणना से किसी देश की जनसंख्या  का वास्तविक महत्व जाना जा सकेगा। इसके लिए देश के नागरिकों की उम्र,शिक्षा,आय,व्यय,संपत्ति,ज्ञान,कौशल,व्यवसाय आदि को आधार बनाया जा सकता है।अभी देखा जाता है कि कुछ देशों के नागरिकों की तो सब जगह मांग बनी रहती है जबकि कुछ देशों से अवांछित शरणार्थियों के रूप में जनसंख्या का पलायन होता है। इस व्यवस्था से कई लाभ होंगे-
-किसी देश की ताकत या महत्व का वास्तविक आकलन हो सकेगा, केवल जनसंख्या आधारित आंकड़ा पर्याप्त नहीं हो पाता।
-एक देश से दूसरे के बीच गुणवत्ता-पूर्ण जन-विनिमय हो सकेगा।
-"ब्रेन-ड्रेन" पर नियंत्रण किया जा सकेगा।
-यह देश के भीतर भी नागरिकों के लिए विकास व उन्नति का एक अभिप्रेरक कारक होगा।
-विकासशील देश जन-मूल्य चुका कर भी वांछित जनशक्ति का आयात कर सकेंगे। इसी तरह वे जन-सम्पदा बेच भी सकेंगे।
-अत्यंत कम जनसंख्या वाले संपन्न देश भी वांछित जन -शक्ति खरीद सकेंगे।
-व्यक्तित्व का भू-मंडलीकरण होगा।                   

Wednesday, August 27, 2014

मैंने चाहा कि बता दूँ मैं हक़ीक़त अपनी, तूने लेकिन न मेरा राज़.…

मार्ग का मतलब है रास्ता
दर्शक का मतलब है देखने वाला
हिंदी बहुत आसान और स्पष्ट भाषा है, सहज, सरल।  इसमें न तो क्लिष्टता है,न ही किसी किस्म का दुराव-छिपाव।
कुछ लोग दर्शक से तात्पर्य "दिखाने वाला"भी समझ लेते हैं।  यह कैसे संभव है?
यदि हिंदी की प्रगतिशीलता के अंतर्गत शब्द गढ़ने का प्रयत्न भी किया जाए, तो दिखाने वाले के लिए 'दिखावक' या 'दर्शावक' जैसा कुछ होना चाहिए।
'मार्गदर्शी' भी ऐसा ही है।
अब ये तो सब टाइम-टाइम की बात है।  जब खाप पंचायत का ज़ोर बढ़ा तो लोग एम्पायर को भी 'खेलपंच'कहने लगे।
हाँ,अब अगर सरकारी अफसर बनने वाले बच्चे न्यूयॉर्क की किसी बिल्डिंग को "खेलपंच राज्य भवन"कहने लगें तो दोष हिंदी का थोड़े ही माना जाना चाहिए।        

तय करें कि आप चेतन हैं या भगत?

कोई भी एक साथ चेतन और भगत नहीं हो सकता।  यदि आप चेतन हैं, अर्थात जड़ नहीं हैं, तो आप किसी की कही बात आँख बंद करके नहीं मान लेंगे।  आप अपनी चेतना में उसका तथ्यात्मक निरूपण करेंगे, और उसके आधार पर फैसला करेंगे।
यदि आप भगत हैं, अर्थात किसी के अन्धानुयायी हैं तो सोच-विचार से आपका कोई लेना-देना नहीं।  आपका आका, या जिसके आप भक्त हैं, वही आपका भाग्य-विधाता है।जो उसने कहा है, वही मानिए और जो उसे भाये वही कीजिये।
फ़िलहाल तो आपको यह तय करना है कि  आप साईं बाबा को भगवान मानें या नहीं !
उसके बाद यदि समय मिले तो बाकी बातों पर भी विचार कर लीजिये- मसलन, कहाँ घर लेंगे,बच्चों को कहाँ पढ़ाएंगे, अपनी बचत कौन से बैंक में रखेंगे, कार लेंगे या फ़िलहाल दोपहिया से काम चलेगा, शाहरुख़, आमिर,ऋतिक वगैरह को थियेटर में देखेंगे या टीवी पर, मिल्खा को भारतरत्न दिलाना चाहेंगे या मैरीकॉम को, क्रिकेट खेलेंगे या कबड्डी, दिल्ली- संसद की मानेंगे या धर्मसंसद की।        

Sunday, August 24, 2014

"कार्टिलेज एज"

यह समय "कार्टिलेज" समय कहा जा रहा है।  क्योंकि यह समय सख्त इंसानियत पर कोमल मुलम्मे का नहीं है।  यह कोमल इंसानियत पर कार्टिलेज जैसे अर्धसख्त आवरण का समय है।  कुछ लोग कोमल इंसानियत को लिजलिजी मनुष्यता भी कह रहे हैं।  उधर कुछ लोग मुलम्मे को पूर्ण सख़्त मानते हुए इसे 'बोन'समय भी कहते दिख रहे हैं।  उनका तात्पर्य अस्थि-समय से है।
यह सब कहाँ हो रहा है, और ये है क्या? इसका मतलब क्या है, और इस से होगा क्या? यही जानना चाहते हैं न आप?
कोई कह रहा है कि अब विश्व युद्ध हो ही जायेगा।  कोई-कोई कह रहा है कि विश्व युद्ध होने की आशंका एक अर्ध-उजागर सत्य है।  यह सम्भावना न तो पारदर्शी है, और न अपारदर्शी।
इसमें से सत्य की चंद रश्मियाँ निकलती ज़रूर दिखती हैं, किन्तु उनकी प्रखरता संदिग्ध है।
घिनौने घोंघे की तरह सब हो रहा है।  घोंघा सागर में नहा कर भी मटमैला ही रहता है।वह भैंस के दूध की भांति धवल नहीं हो सकता।  उसे होना भी क्यों है? उसका न कुछ बनेगा न ही बिगड़ेगा।
कहा न, ये कार्टिलेज समय है।       

Friday, August 22, 2014

रस्ते में हो गई शाम

"रस्ते में हो गई शाम" संस्मरणों की श्रृंखला है, जिसके अगले भाग में आप पढ़ेंगे कुछ पलों की शेयरिंग - निर्मल वर्मा, विद्या निवास मिश्र,अज़गर वज़ाहत,मेहरुन्निसा परवेज़,सूर्यबाला,चित्रा मुद्गल,राजेंद्र यादव, कमलेश्वर, तेजेन्द्र शर्मा, धीरेन्द्र अस्थाना,अरविन्द,मधुदीप, धनञ्जय कुमार, दामोदर खडसे,दुर्गा प्रसाद अग्रवाल, आलोक श्रीवास्तव, नन्द भारद्वाज,वेदव्यास, गोविंद माथुर, प्रेमचंद गांधी …
"कुछ लोग जीवन में इस तरह मिलते हैं कि घंटों साथ बैठ कर जैसे अलाव तापें और करें बातें।
कुछ इस तरह भी, कि माचिस की जलती तीली के क्षणिक उजास में आप देख लें किसी को "-प्रबोध कुमार गोविल          

Thursday, August 21, 2014

तारे आइने में

बशीर बद्र ने कहा है- "मैं तमाम तारे तोड़ कर उन्हें मुफलिसों में बाँट दूँ, बस एक रात को आसमां का निज़ाम दो मेरे हाथ में "
शायद इसी से प्रेरणा लेकर मास कम्युनिकेशन और फिल्म स्टडीज़ के एक युवा अध्यापक ने कुछ सितारे तोड़ कर अपने छात्रों में बाँट दिए, और उन्हें असाइनमेंट के रूप में बॉलीवुड के "कपूरों" के बीच बाँटने को कहा।आइये देखें, छात्रों ने कैसे किया ये बंटवारा !
- शक्ति कपूर, तुषार कपूर,राजीव कपूर, करण कपूर,कुणाल कपूर, सोनम कपूर,रणधीर कपूर,संजय कपूर, [*]
-पिंचू कपूर, नीतू कपूर, संजना कपूर, कमल कपूर,शशि कपूर,श्रद्धा कपूर,करिश्मा कपूर,[* *] 
-शाहिद कपूर,एकता कपूर, करीना कपूर, पृथ्वीराज कपूर,रणबीर कपूर,[* * *]
-पंकज कपूर, जेनिफ़र कपूर, अनिल कपूर,विद्या बालन कपूर,शम्मी कपूर,[* * * *]
-ऋषि कपूर ,श्री देवी कपूर, राज कपूर,[* * * * *]          

Wednesday, August 20, 2014

आपकी बात तो सही है पर.…

उत्तर प्रदेश, बिहार, असम और कुछ हिस्सों में भारी वर्षा से पिछले दिनों तबाही हुई। बाढ़ के हालात अब भी बने हुए हैं।
धरती प्यासी थी, अम्बर ने जल बरसा दिया। क्या अनहोनी हुई?
लेकिन आसमान जब पृथ्वी को तोहफा देने आया, तब अगवानी की व्यवस्था तो हमारी थी न ?हमने क्या किया?
अभी मैं ट्विटर पर देख रहा था, किसी ने कहा- यदि ऐसी बाढ़ पाकिस्तान में आई होती तो मुंबई की फ़िल्मी दुनिया में डोनेशन देने की प्रतियोगिता शुरू हो गई होती।
मैं सोच रहा हूँ,कि किसी के ऐसा बयान देने के पीछे क्या बात हो सकती है?
-शायद वह इस बात से नाराज़ हों कि हम लोग दूसरों की मदद तो कर देते हैं, पर अपनों की नहीं करते।
-भारत की फिल्म नगरी पाकिस्तान से वाहवाही लूटने को बेताब रहती है।
-बॉलीवुड से मौजूदा पांच-पांच सांसद और ढेरों भूतपूर्व सांसद हैं,वे कुछ करते क्यों नहीं?
-बाढ़ में जाए पाकिस्तान?
शायद उन्हें मालूम नहीं कि बॉलीवुड के "सौ करोड़ क्लब","दो सौ करोड़ क्लब" कमाने के हैं,बांटने के नहीं!          

 
  

Tuesday, August 19, 2014

गरीब

कुछ लोग गरीब हैं।  दुनिया के हर कौने में गरीब हैं, कहीं कम कहीं ज्यादा।  गरीब की परिभाषा पर दुनिया एक मत नहीं है।  कहीं गरीबी को आय से जोड़ा जाता है तो कहीं खर्च से।
गरीब कौन हैं?क्यों हैं? कैसे हैं? यह सब विधिवत अध्ययन की चीज़ें हैं।
कुछ समय पूर्व एक गाँव में बाढ़ आई।  एक किसान के बाड़े में दो भैसें बंधी हुई थीं।  बाढ़ की अफरा-तफरी में गाँव खाली होने लगा।  भैसों की किसे परवाह होनी थी, सब अपनी जान बचा कर भाग रहे थे।  थोड़ी ही देर में गाँव में सन्नाटा हो गया।  रस्सी से बंधी होने के कारण भैंसें कहीं न जा सकीं।  पानी चढ़ता रहा।  जब भैसों की ऊंचाई से भी ऊपर निकल गया तो कुछ देर भैसों ने ज़मीन से ऊपर उठ कर तैरने की चेष्टा की।  सब जानते हैं कि भैसें पानी में तैर कर आनंदित होती हैं।  लेकिन कुछ देर बाद थकान और अचम्भे के कारण भैसों का आनंद हताशा और डर में बदलने लगा।उनके तैरने या हिल-डुल सकने की जद बस उतनी ही थी, जितनी रस्सी की लम्बाई। अलबत्ता बहते पानी में दिशा अवश्य दोनों की तितर-बितर हो रही।
घंटों बीत गए थे।भूख के तेवर भी उत्पाती थे।
कुछ देर बाद एक हरे पेड़ की डाली पानी में बहते-बहते एक भैंस के मुंह के नज़दीक अटक गई।
अब दोनों भैसों की आर्थिक, शारीरिक, और दैवी स्थिति में विराट अंतर था।         

इतिहास क्यों पढ़ते हैं लोग?

कुछ दिन पहले भ्रमण पर जाते एक ग्रुप को शुभकामनायें देते-देते मेरे मुंह से सहसा निकल गया- "वहां की कुछ अच्छी पिक्चर्स लाना।"  बी.एस सी. प्रथम वर्ष में पढ़ने वाली, मेरे मित्र की सुपुत्री ने एक पल अजीब सी नज़र से देखा- मानो, वह मेरी कही बात को समझने की कोशिश कर रही हो। मुझे भी लगा कि शायद वह मेरी बात समझ नहीं पाई।  तभी एकाएक वह बोली- "ओह पिक्स? ज़रूर अंकल !"
वे लोग तो चले गए, किन्तु मुझे बैठे-बैठे याद आया, कि कुछ वर्ष पहले बच्चे ये जानते थे कि पिक्चर एक शब्द है और पिक्स उसका संक्षेप।
मुझे ठीक से याद है , उससे कुछ और पहले के बच्चे अच्छी तरह जानते थे कि फोटो, तस्वीर, चित्र, पिक्चर सब एक ही हैं।
तो अपनी याददाश्त की टॉर्च को इतिहास की ओर फेंकिए, कभी-कभी जितना पीछे जाते जायेंगे, लगेगा जैसे उजाला बढ़ रहा है।
लेकिन ये सब एकदम चुपचाप कीजियेगा,  गली ने नुक्कड़ पर जाने के लिए स्कूटी निकालते किसी बच्चे से ये मत कहियेगा कि आपके दादाजी, दो घंटे में पांच मील पैदल चल लेते थे।  वह आप को यह कह कर फ़ौरन नीचा दिखा देगा कि "अंकल,मैं तो दो घंटे में मुंबई से अहमदाबाद चला जाऊंगा, बुलेट ट्रेन आने दीजिये !"और शायद आप सोचते रह जाएँ कि इसके लिए इसके पिता को कितना पैसा छोड़ना चाहिए? तिलिस्मी भविष्य में "घुटना बदलना" कोई बच्चों का खेल थोड़े ही रह जायेगा? अलबत्ता,ये भी हो सकता है कि तब हस्पतालों के प्रवेश द्वार पर बोर्ड लगे हों-"इट्स फ्री"      

Monday, August 18, 2014

सैर- सपाटा

 अलमस्त लहराकर बोलने की हमारी चाहत हमसे कई शब्द फ़िज़ूल बुलवाती है। घर-वर,खाना-खूना, रोटी-शोटी,मार-काट जैसे हज़ारों शब्द-प्रयोग हम रात-दिन कहते-सुनते हैं।
इनमें कई बार सार्थक संगत शब्द भी होते हैं, तो कई बार निरर्थक दुमछल्ले भी।
क्या आपने कभी सोचा है कि "सैर-सपाटा" हम क्यों बोलते हैं? सैर का सपाटे से क्या लेना-देना !
यह शब्द हिंदी को [हिंदी की पूर्ववर्ती भाषाओँ को] गणित ने दिया है।
चौंक गए न ?
आइये देखें-कैसे !
जब हम रोज़ाना में अपने घर में होते हैं तो तन-मन-धन से घर में होते हैं। हम जैसे चाहते हैं,वैसे रहते हैं।जो खाना है, खाते हैं, जो चाहते हैं पहनते हैं, जैसे चाहें रहते हैं।
घूमने-फिरने या भ्रमण के लिए निकलते ही कुछ परिवर्तन होते हैं।
हमें नई जगह की फ़िज़ा और औपचारिकता के तहत वस्त्र पहनने पड़ते हैं। जहाँ कुछ खर्च नहीं हो रहा था या कम हो रहा था, अब बढ़ जाता है। शरीर को कुछ आनंद मिलते हैं तो कुछ कष्ट।  मन और मूड भी बदल जाते हैं। खान-पान तो खैर बदलता ही है,घर में परहेज़ करने वाले बाहर चटखारे लेते देखे जा सकते हैं।
इन सारे परिवर्तनों का एक ग्राफ बना लीजिये। आप देखेंगे कि जमा पैसा घट गया है,खान-पान का अनुशासन घट गया है। मन का आनंद बढ़ गया है।  अर्थात तन-मन-धन का "गणित" हिल गया है। इस ग्राफ में कुछ घट कर नीचे गया है, और कुछ बढ़ कर ऊपर आ गया है। इस ग्राफ की लहर जैसी रेखा पहले से कहीं "सपाट" हो गई है।
सैर से यही सपाटा तो करके लौटते हैं आप !
                  

Sunday, August 17, 2014

कबड्डी-कबड्डी-कबड्डी

अच्छा लगता है कबड्डी जैसे खेल का लोकप्रिय होना। इस पर बड़े-बड़े लोगों का ध्यान जाना। इसके लिए सुविधाएँ जुटाने की मुहिम का शुरू होना। खिलाड़ियों को मान-सम्मान और धन मिलना, मीडिया में उनका रंग उड़ना।
क्या आप जानते हैं-
क्रिकेट जैसे खेल में एक टीम के बल्ले और दूसरी टीम की गेंद के बीच जंग होती है। बैडमिंटन या टेनिस जैसे खेल में दोनों ओर के बल्ले एक गेंद या शटल कॉक पर प्रहार करते हैं। फ़ुटबाल में दोनों दल एक बॉल के लिए झगड़ते हैं। बास्केटबॉल, हॉकी में भी निर्धारित स्थान तक बॉल का सफर होता है।  शतरंज में दो दिमाग झगड़ने के लिए मोहरों का सहारा लेते हैं, लेकिन कबड्डी जैसे खेलों में खिलाड़ियों के शरीर हारजीत का फैसला करते हैं।
इस तरह कुश्ती, मुक्केबाजी,तैराकी और कबड्डी केवल बदन के खेल हैं।
यहाँ भी कुश्ती-मुक्केबाजी में एक दूसरे के शरीर को परे हटाया जाता है, तैराकी में पानी में अकेले रहते हुए पानी को हटाया जाता है, किन्तु कबड्डी में विपक्षी के बदन को अपनी ओर खींच कर रोका जाता है। तो हुआ या नहीं ये प्यार-भरा खेल? ये खेल बढ़ा तो मोहब्बत का सन्देश ही देगा।  चाहे दो शख़्स हों, दो दल हों, दो समाज हों, या दो देश !      
           

आभासी तारतम्य

कभी-कभी महिलाएं इसे "निगरानी" भी समझ लेती हैं, किन्तु वस्तुतः यह निगरानी से ज्यादा "हिफाज़त"का भाव है, जिसके तहत घर से बाहर जाने वाली लड़की-महिला से घरवाले आभासी संपर्क बनाये रखना चाहते हैं।  "कॉलेज तो पांच बजे छूट गया था, अब सात बजे हैं" या "कहीं जाना था तो फोन क्यों नहीं किया? और "जाना क्यों था?" आदि जुमलों में प्रथम दृष्टया कड़े अनुशासन का भाव दिखाई देता है, किन्तु यह रोक-टोक  से ज्यादा 'चिंता' की अभिव्यक्ति है। निश्चित ही कुछ महिलाएं इसे चिंता से ज्यादा "चाय-खाने के लिए प्रतीक्षा रत पुरुषों की उतावली भरी प्रतीक्षा" भी मानती हैं, जो कि कभी-कभी ये होती भी है।
लड़कों के साथ ये नहीं होता। कॉलेज पांच बजे छूटा तो रात ग्यारह बजे तक कहाँ थे-साथ में कौन-कौन था- क्या कर रहे थे- फोन क्यों नहीं किया?,यह सब लड़कों से नहीं पूछा जाता।
इस लापरवाही के चलते कहीं कोई ऊँच-नीच हो जाती है, तो पहले मनमोहन जिम्मेदार थे, अब मोदी जी हैं।
लोकतंत्र ऐसे नहीं चलते।  बच्चे सालभर पहले पढ़ते हैं, फिर जाकर तीन घंटे का इम्तहान देते हैं। सरकारों से दो-बात पूछने से पहले अपना-अपना साक्षात्कार सब कर लें तो शायद समस्याएं आधी रह जाएँ।
लेकिन ये किसी भी दृष्टि से सरकार या प्रशासन को क्लीनचिट या रिबेट देना नहीं है, केवल उसके काम में जन-सहयोग का आह्वान !   
   

Friday, August 15, 2014

अधूरे जुमले

जरुरी नहीं, कि महान लोगों की हर बात महान ही हो।  कई बार वो ऐसी बात कर जाते हैं कि आपको झुंझलाहट होने लगे।
अब देखिये- गांधीजी ये तो कह गए कि यदि कोई तुम्हारे एक गाल पर चाँटा मार दे तो दूसरा भी उसके आगे कर दो, पर यह बता कर नहीं गए कि यदि वह दूसरे गाल पर भी चाँटा मार दे तो क्या करना है।
इसी तरह महाकवि कबीर ने यह फ़रमान तो जारी कर दिया कि निंदक नियरे राखिये, पर यह नहीं बता कर गए कि यदि चारों तरफ निंदक ही निंदक जमा हो जाएँ तो क्या करें।
एक राजा अपने राज को ठीक से संभाल नहीं पा रहा था, तो जनता ने ज़ोर लगा कर उसका तख्ता पलट दिया। दूसरा राजा आ गया।
पहले राजा ने सोचा, चलो अब विश्राम ही कर लें,किन्तु राजा के दरबारियों के सामने समस्या आ गई कि अब क्या करें। कुछ करके थके तो थे नहीं, सो विश्राम क्या करते।  उन्हें कुछ बुद्धिवानों ने समझाया- अरे, पहले स्तुति करते थे तो अब निंदा करो।
दरबारी बोले-लेकिन यदि नया राजा कोई गलती नहीं करे तो?
बुद्धिवानों ने समझाया-अरे मूर्खो, कुछ पढ़े-लिखे हो या नहीं? राजा बोले तो कहना-"देखो, ऑक्सीजन भीतर ले रहा है, और कार्बन डाई ऑक्साइड बाहर छोड़ रहा है।
एक दरबारी बोल पड़ा- और यदि वह चुप रहे तो?
बुद्धिवान ने कहा-तब कहना -"ये भी पहले वाले राजा जैसा, ये भी पहले वाले राजा जैसा!"        

Wednesday, August 6, 2014

प्राण निकल गए

ऐसा बहुत ही कम होता है जब आपकी खींची लकीर आपसे बड़ी हो जाये।  मक़बूल फ़िदा हुसैन की सबसे मशहूर पेंटिंग के सामने खड़े होकर भी आप दांतों तले अंगुली तभी दबाते हैं, जब आपको बताया जाये कि ये हुसैन साहब का शाहकार है।
लेकिन दुनिया भर के करोड़ों बच्चे जब साबू और चाचा चौधरी को देखते हैं तो उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं होती कि इनके "चाचा" कौन हैं ? अर्थात इन्हें किसने बनाया है।
ऐसा करिश्मा तभी हो पाता है जब रचने वाले ने रचना में प्राण भरे हों।
हम-आप भले ही यह सोच कर उदास हो लें कि प्राण अब नहीं रहे, बच्चे तो उदास हो ही नहीं सकते, जब तक उनके बिल्लू,चाची,साबू और चाचा चौधरी उनके साथ हों। और वे हमेशा रहेंगे। उनके प्राण कभी नहीं निकल सकते।
शायद प्राण को मालूम था कि किसी के दिल से बचपन कभी नहीं जाता।  इसीलिए उन्होंने बचपन के इर्द-गिर्द लकीरें खींचीं।
मैं जब रज़िया सुल्तान फिल्म देख रहा था, तो अपने मन में सोच रहा था कि हेमा मालिनी [रज़िया] कभी किसी मुसीबत में नहीं पड़ सकती, क्योंकि उसके साथ उसका "साबू" है।          

Tuesday, August 5, 2014

पहिये का खून

वो हज़ारों सालों तक धरती के भीतर पड़ा सड़ता रहा, मगर किसी ने भी उस पर ध्यान न दिया।  बल्कि धरती पर जो कुछ भी अवांछित, बेकार, और मैला होता वो सब जाकर उसी में मिल जाता। उसकी न किसी को ज़रुरत होती, और न याद ही आती।
इंसान तब अपने पैरों से चलता था। और पैरों में खून होता था। तो उसकी क्या ज़रुरत?
लेकिन पहिये का अविष्कार हो जाने के बाद इंसान को अपने पैरों से नापी दूरियाँ छोटी लगने लगीं। इंसान जहाँ अपनी बिसात हो, पैरों से जाता,और उसके आगे पहिये से।
कुछ समय बाद इंसान को लगा, कि पहिये में भी पैरों की मानिंद खून हो, तो और आगे तेज़ी से जाया जा सकता है।और तब धरती के नीचे दबे इस पेट्रोल की उसे याद आई। ये ही पहिये का खून बन गया।
खून सस्ता थोड़े ही होता है? न इंसान का और न पहिये का। लिहाज़ा इसके दाम बढ़ते गए।
अब इसके दाम रोज़ बढ़ते हैं।  कुछ लोग ये ही सोच के खुश होते हैं कि चलो,ये बेतहाशा दुर्लभ और कीमती हो गया तो इंसान दूर के ढोल बजाना छोड़ आसपास की सुधि लेना भी शुरू करेगा।
मगर बहुत से लोग इस बात से चिंतित भी रहते हैं कि पेट्रोल पहुँच से दूर हो गया तो कहीं हम वापस "कुए के मेंढक" न बन जाएँ।                

Sunday, August 3, 2014

साहित्य के अच्छे दिन- एक साक्षात्कार !

जब ये पूछा पार्टी, क्यों हारी ये जंग?
बोलीं सब बतलाऊँगी,लिख दूंगी एक छंद!

कैसे हो गए रोज़-रोज़, घोटाले चहुँ ओर?
बोलीं, कविता में कहूँ, कौन-कौन था चोर!

कौन विरोधी से मिला, कौन आपके साथ?
-ग़ज़ल कहूँगी एक दिन, होगा परदा फ़ाश !

जमाखोर भरते रहे, कौन तिजोरी माल?
-सबका सुनना एक दिन, लघुकथा में हाल!

मँहगाई बढ़ती रही, फूला भ्रष्टाचार !
-रुकिए बनने दीजिये, मुझे कहानीकार

इतना कहिये पॉलिटिक्स, अच्छी या खराब?
-बाबा थोड़ा ठहरिये, पढ़ लेना "किताब" !


Saturday, August 2, 2014

पढ़ा लिखा कलियुग !

लोग करें बदनाम व्यर्थ ही कलियुग को देखो
त्रेता- द्वापर-सतयुग से ये कैसे कम ? देखो !
त्रेता ने उठवाई सीता, रंगे रक्त से हाथ राम ने
द्वापर में हत्या करवाई कंसराज ने कर्म कांड से
हुए फैसले चीरहरण से, जुआ खेलकर राज चले
अब तो बस "किताब" से भैया, लगी-बुझी का खेल चले! 

डॉ राधाकृष्णन,वी वी गिरी और मार्गरेट अल्वा

मुझे याद है, बचपन में एक बार राष्ट्रपति भवन में जाना हुआ तब वहां डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन रहते थे।
हमें बैठा दिया गया, और फिर एक व्यक्ति ने आकर हमारी क्लास ली।  हमें औपचारिकताओं के "डूज़ एंड डोंट्स" समझाए गए।
कुछ देर बाद एक विशाल दरवाजे से राष्ट्रपति महोदय आये,तो ऐसा लगा, मानो कुछ लोगों द्वारा उनका कोई चित्र झांकी की तरह धीमी गति से हमारे बीच लाया गया हो।  कुछ देर के वार्तालाप के बाद मुलाक़ात का पटाक्षेप हो गया।
मन में एक अनजान सा जो भय समा गया था, वह तिरोहित हुआ, और हम बाहर आये।
लगभग ऐसा ही अनुभव कुछ साल बाद उस समय भी हुआ, जब वराहगिरि वेंकटगिरि राष्ट्रपति थे।
आज यह वाक़या इसलिए याद आ गया, क्योंकि राजभवन में राज्यपाल श्रीमती मार्गरेट अल्वा को सुनते हुए कुछ बातों का अंतर मुखर होकर दिमाग में आया।
डॉ राधाकृष्णन को देखकर हमें लगा था कि जैसे हमारे साथ-साथ राष्ट्रपति भवन की औपचारिकताओं से वे भी असहज हैं और चारों ओर फैले बेशकीमती इंफ्रास्ट्रक्चर के तामझाम से संगत बैठाने की मुहिम का तनाव वे भी झेल रहे हैं। ऐसा लगता था जैसे कोई ज़बरदस्त लोक है, जिसमें रहने के योग्य उन्हें, या उसमें घुसने के योग्य हमें, बनना है। वहां हम क्या करेंगे, क्या खाएंगे-पिएंगे, इसका इल्म न हमें है, और न उन्हें।
राज्यपाल महोदया के साथ ऐसा लगा,जैसे हम उनके घर में हैं।  वे हमें जिस तरह बैठाना चाहती हैं, बैठा रही हैं, जो खिलाना चाहती हैं, या हम खाना चाहते हैं,खिला रही हैं, जो ठीक नहीं हो रहा, उस पर टिप्पणी कर रही हैं ।
राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के समय भी वहां परोसे जाने वाले भोजन या अल्पाहार पर उनकी छाप दिखाई देती थी।
यह आलेख महिला-विमर्श के अंतर्गत नहीं है, यह बीतते समय का मूल्यांकन भी नहीं है,यह भावातिरेक में की गई बीते बचपन की स्मृति-खोरी भी नहीं है। पर फिर भी एक बात आपसे संकोच सहित बांटना चाहता हूँ।
बचपन में मैं सोचा करता था कि यदि राष्ट्रपति को खुजाल हुई तो वह कैसे खुजायेंगे, उन्हें छींक आ गई तो वे क्या करेंगे, यदि उन्हें खांसी आई तो डेकोरम का क्या होगा?                      

Sunday, July 27, 2014

युद्ध

यह केवल अरब-इज़राइल के युद्ध की बात नहीं है।
यह अमिताभ बच्चन के युद्ध की बात भी नहीं है।
किसी भी "युद्ध" का अस्तित्व-परिस्थितियाँ-अंजाम आखिर क्या बताते हैं?
यह क्यों होता है?
जिस तरह धरती चन्द्रमा या सूर्य के एक दूसरे के सीध में आ जाने से कभी-कभी ग्रहण हुआ करते हैं, ठीक उसी तरह दो व्यक्तियों, समाजों या देशों के विचार एक दूसरे की सीध में आ जाते हैं।  फिर तरह-तरह के प्रयास होते हैं।  कोई एक अपने विचार बदल ले।  कोई दूसरे के विचार को बदलने के लिए उसे प्रेरित कर दे, या कोई तीसरा दोनों के बीच संतुलित मध्यस्थता कर दे।
किन्तु जब ऐसा कोई प्रयास सफल न हो सके, तब युद्ध होते हैं। अतः कहा जा सकता है कि सब कुछ ठीक करने के लिए युद्ध होता है।
इस रूप में तो युद्ध अच्छा है, दुनिया को ठीक रखने के लिए ज़रूरी भी है।
लेकिन इसका एक काला-मैला पक्ष भी है।
इसमें कई निर्दोष लोगों की जानें चली जाती हैं।  विध्वंस के खौफ़नाक मंज़र में माल-संपत्ति का भारी नुक्सान होता है। सभ्यता और विकास वर्षों पीछे चले जाते हैं।
दो लोगों के झगड़े को देख कर यदि सैंकड़ों लोग सबक ले लें, दो देशों की लड़ाई यदि सैंकड़ों देशों को कुछ सावधानियाँ बरतना सिखा दे,तो युद्ध की विभीषिका को भी सहनीय माना जा सकता है। जैसे खेत में अन्न उपजाने के लिए किसान कुछ अन्न के दाने मिट्टी में फेंकता है,जैसे वातावरण को सुगन्धित या पवित्र बनाने के लिए कीमती घी आग में फेंका जाता है, जैसे हज़ारों जान बचाने वाले डॉक्टर को सिखाने के लिए पहले कुछ निर्दोष जानें ली जाती हैं।
लेकिन यदि ऐसा नहीं होता, तो युद्ध बहुत ख़राब है, इसे हर कीमत पर रोकने के लिए युद्ध-स्तर पर प्रयास किये जाने चाहियें।   
         

Saturday, July 26, 2014

राजपथ

जंगल में चोरी छिपे लकड़ी काटने गया एक आदमी रास्ता भटक गया।  काफी कोशिशें कीं,किन्तु उसे राह नहीं मिली।  मजबूरन उसने कुछ दिन जंगल में ही काटने का निर्णय ले लिया।
खाने को जंगली फल मिल जाते थे, पीने को झरनों का पानी, काम कोई था नहीं, लिहाज़ा वह दिन भर इधर-उधर भटकता।
एक दिन एक पेड़ के तने से पीठ टिकाये बैठा वह आराम से सामने टीले पर उछल-कूद करते चूहों को देख रहा था कि अचानक उसे कुछ सूझा। वह कुछ दूरी पर घास खा रहे खरगोशों के पास पहुंचा, और उनसे बोला- "तुम्हें पता है, वो सामने वाला टीला वर्षों पहले तुम्हारे पूर्वजों का था।  एक रात चूहों ने उस पर हमला करके धोखे से तुम्हारे पुरखों को भगा दिया और उस पर कब्ज़ा कर लिया।"
खरगोश चिंता में पड़ गए।  एक खरगोश ने कहा-"क्या फर्क पड़ता है, हम अब यहाँ आ गए।"
आदमी बोला-"यदि ऐसे ही चलता रहा तो एक दिन वे तुम्हें यहाँ से भी खदेड़ देंगे, और तब तुम्हारे पास दर-दर भटकने के अलावा कोई और चारा नहीं रहेगा।"
-"तो हम क्या करें?" एक भयभीत खरगोश ने कहा।
-"करना क्या है, तुम उनसे ज्यादा ताकतवर हो, उन्हें वहां से भगा दो, और अपनी जगह वापस लो।" आदमी ने सलाह दी।
खरगोशों ने उसी रात हमले की योजना बना डाली।
उधर शाम ढले आदमी चूहों के पास गया और बोला-"मैंने आज खरगोशों की बातें छिपकर सुनी हैं, वे तुम्हें यहाँ से मार-भगाने की योजना बना रहे हैं।"
-"मगर क्यों? हमने उनका क्या बिगाड़ा है?" एक चूहा बोला।
-"मैं क्या जानूँ,मगर मैंने तुम्हें सचेत कर दिया है, तुम पहले ही उन पर हमला कर दो, चाहो तो मेरे ठिकाने से थोड़ी आग लेलो, मैं तो खाना पका ही चुका हूँ। उनकी बस्ती में घास ही घास है,जरा सी आग से लपटें उठने लगेंगी।"कह कर आदमी नदी किनारे टहलने चल दिया।
रात को चूहों और खरगोशों के चीखने-चिल्लाने के बीच जंगल में भयानक आग लगी, जिसकी लपटें दूर-दूर तक दिखाई दीं।
संयोग ऐसा हुआ कि आग की लपटों के उजाले में आदमी को अपना रास्ता दिखाई दे गया।  वह अपने गाँव लौट गया।  मगर वहां जाकर उसने देखा कि उसके घर वालों ने उसके गुम हो जाने की रपट लिखा दी थी, और उसे न ढूंढ पाने के आरोप में कई अफसर बर्खास्त कर दिए गए थे।
अब उसके दिखाई देते ही सैंकड़ों कैमरे उसके पीछे-पीछे दौड़ने लगे और उसकी तस्वीरें धड़ाधड़ अख़बारों में छपने लगीं।
तभी देश में चुनावों की घोषणा हो गई और अनुभवी आला-कमानों ने घोषणा की, कि लोकप्रिय चेहरों को ही मैदान में उतारा जायेगा।                                

Friday, July 25, 2014

हिंदी का मुद्दा केवल भाषा का सवाल नहीं है !

हिंदी के पक्ष में भारत में बहुत बातें कही जा सकती हैं-
-ये संविधान की घोषित राजभाषा है, इसमें कार्य करना एक राष्ट्रीय विचार है।
-भारतीय स्वाधीनता संग्राम हिंदी के सहारे ही लड़ा गया।  गांधी,सुभाष,राजगोपालाचार्य और पुरुषोत्तमदास टण्डन सभी भारत को एक करने के लिए इसे ज़रूरी मानते थे।
-यह देश के सर्वाधिक लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा है और लोकतंत्र में संख्या का महत्व किसी से छिपा नहीं है।
किन्तु हिंदी के संग सीमाएँ भी कम नहीं जुड़ी हैं-
-दक्षिण और पूर्वोत्तर भारत के लोग हिंदी की मुख्यधारा से अपने को जुड़ा हुआ नहीं पाते।
-मेधावी और विलक्षण लोगों को हिंदी केवल 'देश' तक ही सीमित कर देती है।  वे विश्व से नहीं जुड़ सकते।
-अपरिमित तकनीकी और वैज्ञानिक ज्ञान के रास्ते केवल हिंदी के सहारे नहीं खुल सकते।
इसके अलावा एक व्यावहारिक खतरा और भी है। भारत में अशिक्षित,अल्पशिक्षित और दोषपूर्ण शिक्षित       [ ऐसे लोग जिन्होंने डिग्रियां तो येन-केन-प्रकारेण ले लीं,पर वांछित ज्ञान नहीं लिया] लोगों की भी भरमार है।किन्तु ऐसे लोग हिंदी में अपने को दक्ष मानते हैं, वे डाक्टरों, वकीलों,वैज्ञानिकों आदि के कार्य में अनुचित हस्तक्षेप करते हैं, जिससे "नीम हकीम" वाली स्थिति पैदा होती है।
अतः हिंदी का सवाल अपनी गति से समय ही हल करेगा।            

कर्म और भाग्य

एक जगह किसी विशाल दावत की तैयारियाँ चल रही थीं।  शाम को हज़ारों मेहमान भोजन के लिए आने वाले थे।  इसलिए दोपहर से ही विविध व्यंजन बन रहे थे।
पेड़ पर बैठे कौवे को और क्या चाहिए था।  उड़कर एक रोटी झपट लाया।  रोटी गरम थी।  तुरंत खा न सका, किन्तु छोड़ी भी नहीं, पैरों में दाब ली और उसके ठंडी होने का इंतज़ार करने लगा।
समय काटने के लिए कौवा रोटी से बात करने लगा।  बोला-"क्यों री,तू हमेशा गोल ही क्यों होती है?"
रोटी ने कहा-"मुझे दुनिया के हर आदमी के पास जाना होता है न, पहिये की तरह गोल होने से यात्रा में आसानी रहती है।"
-"झूठी, तू मेरे पास कहाँ आई? मैं ही उठा कर तुझे लाया!" कौवे ने क्रोध से कहा।
-"तुझे आदमी कौन कहता है रे?" रोटी लापरवाही से बोली।
कौवा गुस्से से काँपने लगा।  उसके पैरों के थरथराने से रोटी फिसल कर पेड़ के नीचे बैठे एक भिखारी के कटोरे में जा गिरी।
वेताल ने विक्रमादित्य को यह कहानी सुना कर कहा- "राजन,कहते हैं कि दुनिया में भाग्य से ज्यादा कर्म प्रबल होता है, किन्तु रोटी उस कौवे को नहीं मिली जो कर्म करके उसे लाया था, जबकि भाग्य के सहारे बैठे भिखारी को बिना प्रयास के ही मिल गयी। यदि इस प्रश्न का उत्तर जानते हुए भी तुमने नहीं दिया, तो तुम्हारा सिर टुकड़े-टुकड़े हो जायेगा।"
विक्रमादित्य बोला-"भिखारी केवल भाग्य के भरोसे नहीं था, वह भी परिश्रम करके दावत के स्थान पर आया था और धैर्यपूर्वक शाम की प्रतीक्षा कर रहा था। उधर कौवे ने कर्म ज़रूर किया था पर कर्म के साथ-साथ सभी दुर्गुण उसमें थे-क्रोध, अहंकार, बेईमानी। ऐसे में रोटी ने उसका साथ छोड़ कर ठीक ही किया।"
वेताल ने ऊब कर कहा- "राजन, तुम्हारा मौन भंग हो गया है,इसलिए मुझे जाना होगा, लेकिन यह सिलसिला अब किसी तरह ख़त्म करो, जंगल और पेड़ रोज़ कट रहे हैं, मैं भला वहां कब तक रह सकूँगा?"         
  

Wednesday, July 23, 2014

दिल,दौलत,दुनिया

कल 'ज़ी क्लासिक' चैनल ने पहली बार "दिल दौलत दुनिया" फिल्म दिखाई।
यह अभिनेत्री साधना की आख़िरी रिलीज़ फिल्म थी।  इसी फिल्म के दौरान उनकी आँखों में हुई तकलीफ बहुत बढ़ गई थी, और उन्हें लगातार शूटिंग छोड़-छोड़ कर इलाज के लिए विदेश जाना पड़ा था।  फिल्म जैसे-तैसे काट-जोड़ कर प्रदर्शित की गई।
शायद यही कारण था कि फिल्म के क्रेडिट्स में निर्माता-निर्देशक ने अपना नाम नहीं दिया। आगा,ओमप्रकाश,टुनटुन,जगदीप जैसे हास्य कलाकारों के होते हुए भी अशोक कुमार,हेलन,बेला बोस और सुलोचना के हिस्से भी हास्य भूमिकाएं आईं।
फिल्म को प्रदर्शित कर दिए जाने के पीछे दो महत्वपूर्ण कारण थे- इसके साथ उन राजेश खन्ना का नाम जुड़ा था,जो उन दिनों आराधना,दो रास्ते, दुश्मन,आनंद जैसी फ़िल्में दे चुकने के बाद सुपरस्टार थे, और पहली बार पिछले दशक की लोकप्रिय स्टार साधना के साथ काम कर रहे थे। दूसरे,स्वास्थ्य कारणों से फ़िल्मी-दुनिया छोड़ने को मजबूर हुई साधना की अनेक अधूरी पड़ी फिल्मों में से अकेली पूरी की जा सकी फिल्म यही थी।
तमाम हास्य भूमिकाओं के बीच केवल साधना और राजेश खन्ना की "समाजवाद" के समर्थन में गंभीर भूमिकाएं थीं।
उल्लेखनीय है कि साठ-सत्तर के दशक में साधना के - वो कौन थी, परख, दूल्हा-दुल्हन,लव इन शिमला,राजकुमार,एक मुसाफिर एक हसीना,हम दोनों,वक़्त,आरज़ू,मेरे मेहबूब,बद्तमीज़,मेरा साया,एक फूल दो माली, अनीता,अमानत,इश्क पर ज़ोर नहीं,इंतक़ाम,गीता मेरा नाम, गबन,सच्चाई,महफ़िल,आप आये बहार आई  जैसी अनेकों फिल्में करने के बावजूद साधना के साथ दिलीप कुमार ने कोई फिल्म नहीं की। कहते हैं कि साधना की छवि एक रहस्यमयी महिला की थी और दिलीप कुमार सायरा बानो जैसी खुली शख़्सियत के अभ्यस्त थे, उन्हें साधना का व्यक्तित्व मधुबाला की याद दिलाता था,जिसे वे भूलना चाहते थे।           

Tuesday, July 22, 2014

विद्या ददाति विनयम् [भाग-२]

 -"सर, मुझे याद था कि आज गुरु पूर्णिमा है, मैं आपके लिए उपहार लेकर ही आया हूँ।"
वे प्रसन्न हो गए-"वाह, दिखाओ तो क्या लाये हो?"
लड़के ने कंधे पर टंगे झोले से एक इलेक्ट्रिक प्रेस निकाल कर मेज पर रखते हुए कहा-"आपने मुझे आत्मनिर्भर होने का पाठ पढ़ाया, मैंने सोचा, क्यों न आपको आत्मनिर्भर बना दूँ, अब आप अपने कपड़े स्वयं इस्त्री कर सकेंगे।"
वे भीतर से तिलमिला गए, पर बाहर से सहज होते हुए बोले-"ये तो महँगी होगी, तुमने इतना नुकसान क्यों उठाया?"
लड़का संजीदगी से बोला-"बिलकुल नहीं सर, आपने मुझे गणित और हिसाब भी तो सिखाया है, ये ठीक उतने में ही आई है, जितने पैसे मैं आपको इस महीने फीस में देने वाला था।"
-"ओह, हिसाब बराबर? पर तुमने साल भर तक मेरी सेवा की, और तुम्हें कुछ न मिला!" वे बोले।
लड़के ने विनम्रता से कहा-"क्यों नहीं सर, साल भर तक प्रेस के कपड़ों का बिल नौ सौ पचास रूपये हुआ, जो आपने अब तक नहीं दिया, एक दिन आपकी शर्ट की जेब से प्रेस करते हुए मुझे हज़ार का नोट मिला, जो मैंने आपको नहीं दिया,हिसाब बराबर!"
वे अब गुस्से पर काबू न रख सके-"हिसाब के बच्चे, पचास रूपये तो लौटा!"
लड़का शांति से बोला-"आपने ही तो मुझे सिखाया था कि जो कुछ ईमानदारी से चाहो, वह अवश्य मिलता है, तो मुझे मेरी बढ़ी हुई दर से पैसे मिल गए।"
-"नालायक, तो उपहार का क्या हुआ?"वे उखड़ गए।
-"आपने मुझे इतना कुछ सिखाया,तो कुछ मैंने भी तो आपको सिखाया, हिसाब बराबर!"लड़का बोला।
-"तूने मुझे क्या सिखाया?" वे आपे से बाहर हो गए।
-"नया साल केवल दिवाली से नहीं, बल्कि 'शिक्षा' से आता है, और क्रोध मनुष्य का दुश्मन है।" कह कर लड़का अब निकलने की तैयारी कर रहा था। [समाप्त]

  

विद्या ददाति विनयम्

अबकी बार बूढ़ा धोबी जब उनके कपड़े प्रेस करके लाया, तो उसके साथ एक किशोर लड़का भी था। बूढ़ा बोला-"अबसे आपके पास ये आया करेगा, ये आपके कपड़े भी ले आएगा, और आप इसे थोड़ी देर पढ़ा देंगे तो आपका अहसान होगा, आपकी फ़ीस तो मैं दूँगा ही।"
उनकी फ़ीस सुन कर धोबी को एकबार तो लगा, जैसे गर्म प्रेस से हाथ छू गया हो, पर इसका तो वह अभ्यस्त था ही, बात तय हो गयी।  
कुछ दिन बाद बुज़ुर्ग और पारखी धोबी को महसूस हुआ कि उनके कपड़ों की क्रीज़ जितनी नुकीली बनती है, उतना उसके लड़के का दिमाग़ पैना नहीं हो रहा, और लड़का अब धोबी का काम करने में भी शर्म महसूस करने लगा है। उसे उनकी फीस ज़्यादा और कपड़ों का मेहनताना कम लगने लगा। उसने लड़के को समझाया कि उनसे प्रेस की दर कुछ बढ़ाने की अनुनय करे।  
लड़के ने संकोच के साथ अपने पिता की बात अपने शिक्षक को बताई। शिक्षक बोले- "नए साल से पैसे बढ़ा देंगे।"
पिता-पुत्र संतुष्ट हो गए। 
जनवरी में लड़के ने दर कुछ बढ़ाने के लिए कहा। वे बोले-"अरे ये तो अंग्रेज़ों का नया साल है, हमारा थोड़े ही।"लड़का चुप रह गया।  
अप्रैल में लड़के ने झिझकते हुए उन्हें फिर याद दिलाया।  वे तपाक से बोले-"अरे ये तो व्यापारियों का नया साल है, हमारा थोड़े ही।"लड़का मन मार कर चुप रहा।  
जुलाई में लड़के के स्कूल में नया सत्र शुरू होने पर उसने कहा- "सर, अब तो शिक्षा का नया साल है, आप मेरे पैसे कुछ बढ़ाएंगे?"
वे बोले-"अरे रूपये-पैसे की बात दिवाली से करते हैं।" लड़का सहम कर चुप हो गया।
कुछ दिन बाद वे परिहास में लड़के से बोले-"आज गुरु पूर्णिमा है, हर विद्यार्थी आज अपने गुरु को कुछ उपहार देता है, तुम मुझे क्या दोगे ?"
लड़के ने कहा-[जारी ]        
          

Saturday, July 19, 2014

दुनिया की समीक्षा

गाँव से कुछ दूरी पर यह एक खुला मैदान था। मैदान के एक किनारे पर कुछ लड़के गोलबंद होकर चुपचाप बैठे थे।  नज़दीक ही एक ऊंचे से खजूर के पेड़ पर बने छोटे से घोंसले में एक चिड़िया के बच्चे टुकुर-टुकुर तकते खामोश बैठे थे।
मैदान से सट कर एक सड़क जाती थी और उसके पार उथला सा एक तालाब था।  तालाब के किनारे एक टिटहरी मौन खड़ी थी और फड़फड़ाते कुछ बगुले शब्दहीन जुगाली कर रहे थे।
दलदल के समीप दो कुत्ते बिना हिले-डुले कहीं दूर देख रहे थे।
आसमान में बादलों के पार से शिव और पार्वती रोज़ के भ्रमण पर निकले हुए थे। पार्वती ने अन्यमनस्क होकर कहा-"देखो तो, ब्रह्माजी ने दुनिया बना तो दी, पर इस नीरव सन्नाटे का कोई हल क्यों नहीं निकाला, मन कितना खराब होता है ?"
शिव ने उलाहना दिया-"तुम्हें तो बात का बतंगड़ बनाने की आदत है, लड़कों की बॉल खो गई है, एक लड़का दूसरी लेने गया है, उसके आते ही सब चीखते-चिल्लाते, भागते-दौड़ते दिखेंगे।"       

Thursday, July 17, 2014

स्वीकृत पदों को ख़ाली रखना अपराध

किसी भी सरकार में किसी पद को खाली रखना केवल अनदेखी, लापरवाही,धीमी कार्यगति, या यथास्थितिवाद को कायम रखने की ही बात नहीं है, बल्कि यह घोर आपराधिक मानसिकता है।
ऐसा इन कारणों से होता है-
१. पद बिना सोचे-समझे स्वीकृत कर लिए गए हों।
२. जिन्होंने स्वीकृत किये, वो अब सत्ता में न हों, और नई सत्ता को उनके फैसले उलटने हों।
३. किसी खास व्यक्ति के लिए उस पद पर आने तक इंतज़ार करना हो।
४. किसी काम को करना न हो, लेकिन होते हुए दिखाने की विवशता हो।
यदि वास्तव में स्वीकृत पद पर कोई सुपात्र न मिल पा रहा हो, तो या तो पद की पात्रता का पुनर्मूल्यांकन तुरंत किया जाना चाहिए, अथवा पद तत्काल निरस्त किया जाना चाहिए।
यदि एक राज्यपाल कुछ महीनों के लिए दूर दराज़ के तीन राज्य संभाल सकता हो, तो दो ही बातें हो सकती हैं-
यह दिखावटी पद हो, और इस पर करने के लिए कुछ न हो।
या इस पद से शासित होने वालों को कोई दंड देने की मंशा हो।     

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...