"घर की मुर्गी दाल बराबर" अथवा "घर का जोगी जोगणा" दोनों एक ही बात है। इसका अर्थ ये है कि किसी व्यक्ति की अपने घर या अपने लोगों के बीच उतनी महत्ता नहीं होती, जितनी दूसरों के बीच।
ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जब कोई अपने घर अथवा देश में वर्षों तक अच्छा काम करता रहा पर उसे कोई महत्व नहीं मिला, और जब उसे किसी अन्य देश में पहचान कर सम्मानित किया गया, तो उसके अपने घर में भी लोगों ने उसका लोहा माना और उसके नाम का डंका बजने लगा।
ऐसा क्यों होता है? क्या अपने घरवाले या देशवाले निष्ठुर, पक्षपाती और नासमझ होते हैं?
नहीं, हमारी प्रतिभा को दूसरों द्वारा पहचाने जाने के कुछ कारण भी होते हैं, जिनकी वजह से हमें 'स्वीकार' मिलता है।
१. हम अपने लोगों के बीच काम करते हुए जब अपनी प्रतिभा को मांझ लेते हैं, तभी दूसरों के बीच जाते हैं, और वहां हम अपना सर्वश्रेष्ठ देने का प्रयास करते हैं।
२. हमारे अपने लोग 'अपनापे' के कारण सहजता से हमारे काम का मूल्यांकन करके हमारी कमियाँ भी बता देते हैं, जिससे हम समझते हैं कि ये हमारी आलोचना कर रहे हैं, जबकि बाहरी व्यक्ति की बात हम खुद ध्यान से सुनते हैं।
३.बाहरी सम्मान पाते ही हमारा आभा-मंडल एकाएक दमकने लगता है, जिसके प्रभाव में हमारी सीमायें या कमियाँ स्वतः मुंह छिपा लेती हैं।
और बस, हमें लगने लगता है कि विश्व शांति के लिए महात्मा गांधी मलाला जैसा कुछ न कर सके,या प्रेमचंद में रबीन्द्र नाथ टैगोर वाली बात नहीं है।
ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जब कोई अपने घर अथवा देश में वर्षों तक अच्छा काम करता रहा पर उसे कोई महत्व नहीं मिला, और जब उसे किसी अन्य देश में पहचान कर सम्मानित किया गया, तो उसके अपने घर में भी लोगों ने उसका लोहा माना और उसके नाम का डंका बजने लगा।
ऐसा क्यों होता है? क्या अपने घरवाले या देशवाले निष्ठुर, पक्षपाती और नासमझ होते हैं?
नहीं, हमारी प्रतिभा को दूसरों द्वारा पहचाने जाने के कुछ कारण भी होते हैं, जिनकी वजह से हमें 'स्वीकार' मिलता है।
१. हम अपने लोगों के बीच काम करते हुए जब अपनी प्रतिभा को मांझ लेते हैं, तभी दूसरों के बीच जाते हैं, और वहां हम अपना सर्वश्रेष्ठ देने का प्रयास करते हैं।
२. हमारे अपने लोग 'अपनापे' के कारण सहजता से हमारे काम का मूल्यांकन करके हमारी कमियाँ भी बता देते हैं, जिससे हम समझते हैं कि ये हमारी आलोचना कर रहे हैं, जबकि बाहरी व्यक्ति की बात हम खुद ध्यान से सुनते हैं।
३.बाहरी सम्मान पाते ही हमारा आभा-मंडल एकाएक दमकने लगता है, जिसके प्रभाव में हमारी सीमायें या कमियाँ स्वतः मुंह छिपा लेती हैं।
और बस, हमें लगने लगता है कि विश्व शांति के लिए महात्मा गांधी मलाला जैसा कुछ न कर सके,या प्रेमचंद में रबीन्द्र नाथ टैगोर वाली बात नहीं है।
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