Wednesday, February 29, 2012

थोड़ी देर और ठहर [ भाग 8 ]

     ये रात कुछ ही घंटों की थी. जल्दी ही सवेरा हो गया. खिड़कियों के शटर्स फिर से खुल गए.कुछ एक दुस्साहसी पक्षी आसमान छूती ऊंचाइयों में दिखने लगे. नीले सागर के बाद हरे-पीले ज़मीनी मंज़र भी कुछ चमकदार और साफ हो गए.
     केबिन के पास के टॉयलेट में लोगों की आवाजाही शुरू हो गई. अब लोगों में आपस में थोड़ी परिचय-भावना दिखने लगी थी. अब तक नितांत अपरिचित लोग एक दूसरे के देश और नस्ल से अनभिज्ञ होते हुए भी छुट-पुट वार्तालाप करने लगे थे. ब्रश करने के लिए खड़े युवक-युवतियों के देश की पहचान उनके हाथ में पकड़े ब्रांडेड सामान की कम्पनियों से ही होती थी. लोगों के स्टेटस और उम्र का अनुमान लगाना खासा कठिन उपक्रम था.
     मुझे यह सोच कर थोड़ी घिन आई कि चूहे ने मेरी जेब में ही विष्ठा कर दी होगी. इस कल्पना में उसके सफ़ेद झक्क रंग और गुलाबी मुंह ने भी कोई रियायत नहीं बख्शी. मेरा मन चाहा कि अपनी इस कल्पना के बाबत जोर से चिल्ला कर बोल दूं, ताकि वहां बैठे सभी नस्लों और रंगों के लोग सुनें. लेकिन मुझे जेब टटोलने के बाद यह देख कर खासा इत्मीनान हुआ कि चूहे ने दिन बदल जाने का कोई फायदा नहीं उठाया था. मेरी जेब उसी तरह साफ थी.
     गलियारे में नाश्ते की ट्रॉली लेकर एयर-होस्टेस की आवाजाही शुरू हो गई थी. कई देशों के लुभावने व्यंजन, कई देशों की आभिजात्य मुस्कानों के साथ परोसे जा रहे थे. एक थाई युवती ने जब मुझे 'परांता' ऑफर किया तो मेरे ज़ेहन में चूहा फिर कौंध गया.
     मैंने सुन्दर बॉक्स में रखे छोटे परांठे पर जब मक्खन लगाना शुरू किया तो मेरे मन में चिकनाई की अपनी ज़रूरत से ज्यादा इस विचार ने काम किया कि मक्खन फेंकने या जूठा छोड़ने की नौबत न आये.अब द्वापर युग नहीं था, और अपने देश में मक्खन की कीमत और उपलब्धता से मैं भली-भांति परिचित था. लेकिन उस विलायती मक्खन की तासीर से मैं पूरी तरह नावाकिफ़ भी था. जैसे ही मैंने उसे खाया, वह मेरे गले और तालू से चिपक गया. मुझे ज़ोर-ज़ोर से हिचकियाँ आने लगीं.ऐसा लगा कि जैसे मेरे गले में वह कौर अटक गया हो. मैंने जल्दी में उसे निगलने की कोशिश की, और सहजता से उसे पेट में पहुँचाने के ख्याल से जूस के छोटे गिलास से जूस भी गटकना शुरू कर दिया. लेकिन मेरी यह कोशिश और भी मुश्किल भरी साबित हुई क्योंकि जिसे मैंने जूस समझ कर गटका था,वह भी चिकनाई वाला कोई सूप-नुमा पेय ही था. उससे मक्खन का कौर आगे खिसकने में कोई मदद नहीं मिली. मेरी हिचकियाँ और तेज़ हो गईं. तभी मुझसे एक सीट छोड़कर आगे बैठी महिला ने मेरी मदद की और नेपकिन से पकड़ कर मुझे एक दूसरे पेय का गिलास दिया, जिसे पीते ही मेरा गला साफ हो गया. मुझे ज़बरदस्त राहत मिली.
     वह महिला केनडा जा रही थी, यह मुझे बाद में उसे धन्यवाद देने के दौरान उस से हुई बातचीत में पता लगा. उस महिला की मुस्कान सहित सेवा ने मुझे पल भर भी यह नहीं लगने दिया कि मैं कहीं परदेस में परायों के बीच हूँ. इतना ही नहीं, बचे नाश्ते की प्लेट समेटने में भी उस महिला ने मेरी मदद की. अब मैं साफ़ देख पा रहा था कि महिला उम्रदराज़ थी. मेरे व्यवस्थित हो जाने के बाद वह अपना नाश्ता खाने में तल्लीन हो गई.
     चूहा शायद कुछ देर पहले की मेरी स्थिति देख चुका था, इसलिए उदासीन सा जेब के भीतर ही बैठा था. वह इस समय किसी भी तरह मेरा मज़ाक उड़ाने के मूड में भी नहीं दिख रहा था.
     लेकिन मेरे एक मैक्सिकन पत्रिका उठा कर खोलते ही मेरी यह ग़लत-फ़हमी दूर हो गई. [जारी...]         

Tuesday, February 28, 2012

थोड़ी देर और ठहर [ भाग 7 ]

     मैंने सिंहासन को तुरंत उस जेब से निकाल कर दूसरी जेब में डाल लिया. मैंने देखा कि उस खूबसूरत रत्न-जड़ित सिंहासन पर दो-एक जगह चूहे के पंजों से खरोंच के निशान बन गए थे. चूहा जेब का किनारा पकड़ कर बाहर झाँकने लगा और यह देख कर वापस नीचे छिप गया कि सिंहासन को दूसरी जेब में डाल लिया गया है.
     लेकिन रत्न-जड़ित सिंहासन को दूसरी  जेब में डाल लेने से कोई फ़र्क नहीं पड़ा, क्योंकि विक्रमादित्य की आत्मा अब तक उसी जेब में मंडरा रही थी. चूहा फिर उस से बात करने लगा- " इन जनाब ने कभी अपनी किताब 'रक्कासा सी नाचे दिल्ली' में मशीनों का जम कर मज़ाक उड़ाया था.कंप्यूटर तक को कोसा था. जबकि हकीकत यह है कि यदि अभी-अभी सिक्योरिटी चैक में मशीनें नहीं होतीं तो ये जनाब अपना सूटकेस खोल कर एक-एक चीज़ चैक करा रहे होते- चटनी, अचार और मुरब्बे तक. जबकि मशीनों ने इनके असबाब को बिना सूटकेस खोले चैक कर दिया. इनके कपड़े उतरवाए बिना इनकी जेब का इतिहास-भूगोल इन्हें बता दिया. यहाँ तक कि विक्रमादित्य का रत्न-जड़ित सिंहासन तक इन्हें बाहर नहीं निकालना पड़ा, उसकी धातुओं का लेखा-जोखा मशीनों ने चैक कर दिया."
     मुझे चूहे की हरकतों से कुछ गुदगुदी हो रही थी, मैंने किताब बंद की और न्यूयॉर्क जाने के लिए खड़े विमान की ओर बढ़ गया. विक्रमादित्य की आत्मा भी शायद वापस दूसरी जेब में रखे सिंहासन पर चली गई थी.
     न्यूयॉर्क जाने वाला हवाई जहाज और भी बड़ा, भव्य था. उसके पंखों पर ये अद्रश्य दर्प-दीप्ति तारी थी कि वह दुनिया के सबसे बेहतरीन मुल्क में जा रहा है. उसका हर कर्मचारी और मुसाफिर 'अल्टीमेट' का मतलब समझने वाला ही नहीं, बल्कि उसे भोगने और पचा लेने वाला था. जेब में चूहा भी शायद इस अहसास से खुश था और जेब के भीतरी हिस्से को प्यार से चाट रहा था. मुझे राहत मिली.
     अभी दोपहर भी पूरी तरह बीती नहीं थी कि रात हो गई. खिड़कियों पर शटर चढ़ा दिए गए. उफनते बादलों और चमकती धूप का साम्राज्य सितारों ने ले लिया. चूहे की आँखें जो अब तक चारों ओर देख कर विस्फारित थीं, अब उनींदी सी हो गईं. कई मुल्कों और कई नस्लों के वाशिंदे वहां देखते-देखते लाल कम्बलों में सिमट गए. सीटों के सामने लगे टीवी स्क्रीन एक-एक करके ऑफ़ होने लगे.
     कम्बल की गर्माइश मिलते ही विक्रमादित्य की आत्मा धीरे से निकल कर वापस दूसरी जेब में चूहे के पास आ गई. उनींदे चूहे की धीमी खुसर-पुसर फिर शुरू हो गई. वह आत्मा से कह रहा था- " सितारे नीचे आ गए हैं, बादल बगल में मंडरा रहे हैं, लेकिन इन जनाब के सर पर शीशे का ढक्कन अभी भी लगा है, इनकी खोपड़ी उसके पार जा ही नहीं सकती. ये विवेकानंद के ज्ञान को अंतिम समझते हैं. ये अब तक इस बात पर बिसूरते रहे हैं कि शरतचन्द,हजारी प्रसाद द्विवेदी और मुंशी प्रेमचन्द को नोबल पुरस्कार क्यों नहीं मिला? इन्होने कभी ये जानने की कोशिश नहीं की कि बेकन, कीट्स, वाइल्ड,मॉम  या चेखव ने क्या कहा..."
     चूहे की बात बीच में ही अधूरी रह गई, क्योंकि एक यात्री ने इशारे से मदिरा मांगी थी और एयर-होस्टेस ने उसकी फरमाइश पूरी करने के चलते उसकी सीट की लाइट जला दी थी.[जारी...]      

Monday, February 27, 2012

थोड़ी देर और ठहर [ भाग 6 ]

     दरअसल उस पठान सूट के पायजामे का कमर-बंद इतना बड़ा और कलात्मक था कि अपने पेट पर हर समय इतनी भव्यता टांगे रखने का ख्याल ही मुझे अटपटा सा लगा. मुझे उसका मनोविज्ञानं ही समझ में नहीं आया. जो चीज़ हरसमय भीतरी कपड़ों में छिपाए रखनी हो,उसे इतना आकर्षक बनाने का क्या मकसद? लेकिन मैं किसी तर्क-वितर्क में नहीं पड़ना चाहता था.शिवमंदिरों में बंदनवार मैंने भारत में बहुत देखे थे.
     चूहा हंस रहा था. अब मैं उसकी हंसी का भी अभ्यस्त हो चला था, इसलिए मुझे वह ज्यादा वीभत्स नहीं लगा. पर वह अब विक्रमादित्य की आत्मा को बैग में समय रखने का फलसफा समझा रहा था. भारत से जब भी कोई जहाज अमेरिका जाता था, तो वहां तक जाते-जाते उसे लगभग आधा ग्लोब पार करना पड़ता था. इस बीच बाईस-  चौबीस घंटे का समय भी लग जाता था. और पृथ्वी के अपनी धुरी पर घूमने के कारण इस दौरान लगभग  एक दिन के समय का अंतर भी पड़ जाता था.नतीजा यह होता था कि आप भारत से जिस तारिख को यात्रा पर निकलें, एक दिन और एक पूरी रात बिताने के बाद भी वहां पहुँचने पर वही तारीख़ रहती थी.तो उसी तारीख़ को पहुँच जाने के बावजूद आपको सुबह के सब काम, यथा- शौच, दांतों की सफाई, मुंह धोना आदि निपटाने ही पड़ते थे. इन्हीं कामों के लिए ज़रूरी चीज़ें बैग में रखने की वजह से, बैग में थोड़ी जगह रखने की अपेक्षा होती थी.कुछ लोग तो इस बीच अपने अंतर-वस्त्र भी बदल डालने की मानसिकता में हो जाते हैं, पर इतनी दूर  जाकर  बदल  तो चोला जाता था.
     मैंने बैग की जेब से मूंगफली वाली चिक्की का एक छोटा सा टुकड़ा तोड़ कर जेब में डाला. टुकड़े ने रत्न-जड़ित सिंहासन से टकरा कर 'खट' की आवाज़ की.चूहा अब चुप था.
     वहां से निकल कर मैं एक किताबों की दुकान में आ गया था. 'बेस्ट सेलर' के शेल्फ पर जयपुर की महारानी गायत्री देवी की आत्मकथा को देख कर मैं वहां रुक गया. ऑटोबायोग्राफी के आकर्षक चित्रों में भारत का गुलाबी शहर जयपुर काफी जीवंत दिखता था. विक्रम सेठ, अरुंधती रॉय, सलमान रुश्दी से होता हुआ मैं तसलीमा नसरीन तक पहुंचा ही था कि जेब में घुड़-घुड़ होने लगी. चूहा शायद चिक्की खा चुका था.वह फिर विक्रमादित्य की आत्मा से बतियाने लगा था. कह रहा था- " ये जनाब बाणभट्ट की आत्मकथा, सूरज का सातवां घोड़ा,मधुशाला और आधागाँव को ही साहित्य समझते रहे हैं. इन्होंने राजा निरबंसिया और मित्रो मरजानी से आगे दुनिया ही नहीं देखी.ये तो गोदान और गबन पढ़ कर ही गंगा नहाये."
     बुक स्टोर से निकलते समय मेरा ध्यान इस बात पर गया कि ' क्रॉसवर्ल्ड ' ने विमानतल पर भी अच्छा खासा स्टॉक रखा था. लेकिन ट्रांजिट की हड़बड़ी में ग्रीक साहित्य के शेल्फ में झांकना मुझे जोखिम भरा लगा. फिर मुझे निसर्ग से भी आमंत्रण मिल रहा था. इसलिए मैं न्यूयॉर्क वाले चैक-इन काउंटर की ओर ही बढ़ गया. 
     प्रसाधन से सामान्य होकर मैं बाहर आया तो सिक्योरिटी-चैक शुरू होने में लगभग बीस मिनट शेष थे. मैंने अभी-अभी खरीदा नाटक 'ट्रॉय की औरतें' उलटने-पलटने की गरज से बाहर निकाला और लाउंज में एक कुर्सी पर बैठ गया. मैंने एक हाथ से अपने सीने पर जेब को लगभग दबा कर मुश्किल से चूहे को चुप किया. वह न जाने कहाँ से ऐसा बेहूदा गाना सीख कर आया था और अब चिल्ला-चिल्ला कर गा रहा था- रक्कासा सी नाचे दिल्ली...रक्कासा सी नाचे दिल्ली...[ जारी...]        

Sunday, February 26, 2012

थोड़ी देर और ठहर [ भाग 5 ]

     मैं सोच रहा था कि चूहा अब भूखा होगा और चुपचाप मेज़ पर बैठ कर मेरे साथ कोई स्नैक्स शेयर करेगा. पर मेरे अनुमान के उलट उसकी व्यंग्य-भंगिमा बदस्तूर बनी हुई थी और वह प्लेटों की ओर पीठ करके सिंहासन पर नज़र गढ़ाए विक्रमादित्य से मुखातिब था. बारीक़ महीन आवाज़ में उसका बडबडाना जारी था- " ये जनाब अब तक रूपये को 'लक्ष्मी' मान कर पूजते रहे हैं, पर आज इन्होंने मुट्ठी भर लक्ष्मी देकर लिए डॉलर भी उस सरज़मीं पर लुटा डाले जहाँ चंगेज़ खान, तुगलक और नादिरशाह की रूहें अब तक आराम फरमा रही हैं."
     चूहे की बात से मैं तिलमिला गया और मेरी कॉफ़ी कुछ कसैली हो गई. मैंने एक शुगर-क्यूब उठा कर प्याले में डाला और धीरे-धीरे हिलाने लगा.
     सामने एक स्टोर था, जिसमें बहुत ही आकर्षक और मौलिक मुग़ल कारीगरी के एक से एक नायाब शोपीस रखे हुए थे. मैं उन्हें नजदीक से देखने की गरज से स्टोर में घुस गया.
     चूहे की तेज़ आवाज़ को दबाने के विचार से मैंने उठते-उठते सिंहासन और चूहे को एक ही जेब में डाल लिया. मेरी तरकीब काम कर गई. चूहा अब संयत और धीमे स्वर में बोल रहा था. मैं स्टोर के एक काउंटर पर रखे अरब के खुशबूदार खजूर खरीदना चाहता था. मेरा ख्याल था कि चूहा भी इन्हें खा लेगा. पर मैंने उनका दाम देखने के बाद उन्हें वापस काउंटर पर रख दिया, क्योंकि चूहे को इतनी महँगी फीस्ट देने का मेरा मन बिलकुल नहीं था. पास ही बज रहे संगीत की आवाज़ जब थोड़ी कम हुई तो जेब से चूहे और विक्रमादित्य की आत्मा का ख्याल निकल कर फिर मेरे मन में आ गया.
     चूहा कह रहा था - "ये जनाब अपनी भाषा का राग आलापते हुए दूसरों की भाषा और संस्कृति को नेस्तनाबूद करते घूमते रहे हैं, जबकि हकीकत यह है कि आज यदि ये एयरपोर्ट पर लगे निर्देश-पटों को पढ़ नहीं पाते तो अफ़्रीकी, यूरोपियन और एशियाई भीड़ के धक्के खाते हुए ये अज़रबैजान, होनोलूलू या ट्यूनीशिया के जहाज में चढ़ सकते थे... ऐसे में यही हवाई-अड्डा इनके लिए कुम्भ का मेला बन जाता और ये किसी भी द्वीप पर हिप्पियों की तरह घूमते पाए जा सकते थे. फिर इनकी मदद कोई मनमोहन देसाई नहीं कर पाता और ये मिल्टन के लॉस्ट पेरेडाइज में जिंदगी बिता देते."
     चूहे की बात सुन कर मुझे गुस्सा तो आया पर वह टॉफी, जो मैंने अभी खरीदी थी, इतनी स्वादिष्ट थी कि मैंने किसी भी विचार को उसके जायके के आड़े नहीं आने दिया. 
     उस स्टोर पर एक बहुत ही शानदार पठान-सूट टंगा हुआ था, हलके क्रीम कलर का. लेकिन उसे पसंद करने के बाद भी दो कारणों से उसे खरीदने का इरादा मुझे छोड़ना पड़ा. एक तो मैंने जितने रियाल डॉलर के बदले लिए थे, वे सूट खरीदने के लिहाज़ से थोड़े कम थे, दूसरे मेरे हैण्ड-बैग में उसके पैकेट को रखने के बाद जगह की थोड़ी तंगी हो जाने की आशंका थी. मैं बैग को अमेरिका के रास्ते तक थोड़ा खाली रखना चाहता था.क्योंकि मुझे उसमें थोड़ा 'समय' रखना था. इन दो स्पष्ट कारणों के अलावा एक तीसरा छिपा कारण उस सूट को न खरीदने का और भी था. [जारी...]   
           

Saturday, February 25, 2012

थोड़ी देर और ठहर [ भाग 4 ]

     शायद चूहा जेब से बाहर झाँक कर ' सौ चूहे खाने के बाद ' कहने आया था, पर झांकते ही उसे अंदाज़ हो गया कि मैं इस समय बैठा नहीं, बल्कि खड़ा हूँ और जेब से बाहर निकलते ही उसके नीचे गिर जाने का ख़तरा है. इसी से वह सहम कर वापस भीतर बिला गया. न जाने चूहे की आवाज़ से महिला ने क्या समझा हो, ज़रूरी नहीं कि एक देश के मुहावरे दूसरे देश में भी पहचाने जाते हों. दो-चार इधर-उधर की बातों के बाद मैं वापस अपनी सीट पर लौट आया. दो अलग-अलग देशों के लोगों के बीच की इधर-उधर की बातें भी या तो मौसम की हो सकती हैं या फिर यात्रा की.
     केबिन से शायद किसी बड़े शहर के नीचे होने की सूचना आ रही थी. इसी से मैंने अपनी सीट पर पहुँच कर फिर से खिड़की की ओर मुंह घुमा लिया. यह नदी किनारे लम्बाई में बसा कोई खूबसूरत शहर था. लगभग हर इमारत के सामने ढेर सारी कारों की कतारें आकर्षक थीं.देख कर लगता था कि चलते हुए लोग और दौड़ती हुई जिंदगी इस युग की पहचान हो. भविष्य की ओर दौड़ता समय इतिहास के पाँव छोड़ रहा था. अब विमानतल पर लैंड करने के लिए लोग कसमसाने लगे थे. हज यात्रियों का उत्साह थकान से परे और भी बढ़ गया था. बाकी लोग भी अपनी इधर-उधर की उड़ानों के लिए तत्पर हो रहे थे.तभी विमान की लैंडिंग की घोषणा भी हो गई. एक बार फिर से सीट-बेल्ट्स बंधने लगीं, और मोबाइल बंद किये जाने लगे. मुस्कानें कुछ और कटीली होने लगीं. चूहा शायद थक कर आराम कर रहा था.
     जहाज एयरपोर्ट पर उतरा तो गहमा-गहमी कुछ ज्यादा ही थी. सुबह का समय था और लन्दन, न्यूयॉर्क  या अन्य दिशाओं में जाने वाले लोगों को अपनी-अपनी दिशा पहचान कर यहाँ से अलग-अलग दलों में बँटना था.
     बाहर आकर मैंने कुछ डॉलर रियाल में बदलवा लिए, ताकि छोटी से छोटी जगह पर जाकर भी बैठ सकूं. एक बेहद नफ़ासत-भरे सुन्दर से रेस्तरां में बैठ कर जब मैंने शीशों के पार बाहर की दुनिया में निगाह डाली तो अजीबो-ग़रीब ख्याल मन में आने लगे.
     लेकिन मुझे ख्यालों से ज्यादा जेब में रखे चूहे को सम्हालना था जो अब टुकुर-टुकुर आवाज़ों के साथ जेब में ऊब चुका होने का संकेत दे रहा था.मगर यहाँ उसे बाहर निकालना सुरक्षित नहीं था. दूसरी जेब में रखे सिंहासन को निकाल कर मैंने मेज़ पर रख लिया था. कॉफ़ी के प्याले के साथ वह रत्न-जड़ित सिंहासन काफी आकर्षक दिख रहा था. शायद विक्रमादित्य की आत्मा उसके इर्द-गिर्द मंडरा रही थी.
     मेरी कॉफ़ी गिरते-गिरते बची, क्योंकि चूहे ने तेज़ी से जेब से लेकर मेज़ तक छलांग लगाई थी और वह सिंहासन के लगभग ऊपर ही कूद गया. कुछ बूँदें छलकीं जिन्हें मैंने कागज़-नेपकिन से साफ़ किया. [जारी...]           

Friday, February 24, 2012

थोड़ी देर और ठहर [ भाग- 3]

     चूहा फिर से मेरी जेब से मुंह निकाल कर झाँक रहा था और चिल्ला-चिल्ला कर विक्रमादित्य की आत्मा से बात कर रहा था- "देखा, देखा आलीजा आपने, ये जनाब पिछले साल अपने कस्बे के स्कूल में 'शाकाहार ही आहार है' प्रतियोगिता के जज थे. इन्होंने मुख्य अतिथि के रूप में वहां शाकाहार की महत्ता पर एक ज़ोरदार भाषण भी झाड़ा था." चूहा उत्तेजित होकर उछला और उसने दोनों पंजों से मेरी कमीज़ का बाहरी किनारा पकड़ लिया.उसकी पूछ उत्तेजना में जेब से बाहर लटक गई.
     चूहे ने अधखाये बिस्कुट का जो टुकड़ा खींच कर मारा था उसने लड़के के हाथ पर झन्नाटेदार वार तो किया, लेकिन लड़का अपने हाथ की सिगरेट बचाने के चक्कर में चूहे को नहीं देख पाया. उसने सारे घटनाक्रम को सहजता से लिया और इसे यात्रा में मेरी घबराहट के तौर पर ही मान कर अनदेखा कर दिया. शायद उसके टीवी पर कोई दिलचस्प कार्यक्रम आ रहा हो, उसका पूरा ध्यान उधर ही था.
     खिड़की से अब क़तर की राजधानी दोहा किसी सुन्दर भित्ति-चित्र की भांति दिखाई दे रही थी. बड़े-बड़े महल-नुमा मकानों की कोई बाउंड्री वाल नहीं थी, लेकिन वे फिर भी पैमाने से लाइन खींच कर सिमिट्री से बनाए दिख रहे थे. उनका रंग शोख और युवा हसीनाओं की तरह चमकता पीला और गुलाबी था. कुछ वर्ष पहले दुनिया-भर के खेलों का आयोजन कर चुका यह शहर हुस्न की बस्ती नज़र आता था. अनुशासन यहाँ फूलों की तरह महकता था.  पर इस मंज़र में ख़लल डालने का काम मेरी जेब में बैठा चूहा बार-बार कर देता था जिस से मैं ज़रा बेचैन था. मुझे दोहा के हवाई-अड्डे पर कुछ घंटे बिता कर, अमेरिका का विमान पकड़ना था.
     एयरपोर्ट की सिक्योरिटी पर मैंने चूहे को छोड़ जाने का मन बना लिया था, मगर मुझे इस बात का अहसास नहीं था कि इसका क्या असर होगा. अजनबी देश में किसी ख़ुफ़िया-गिरी की तोहमत लग जाने से भी इनकार नहीं किया जा सकता था. सिंहासन किसी की-रिंग की शक्ल में अब भी मेरी जेब में था.
     बैठे-बैठे थोड़े पैर सीधे करने की गरज से मैं केबिन के समीप बने गलियारे में चला आया और टहलने लगा. यहीं सामने की सीट से खड़ी हुई एक प्रौढ़ महिला से मेरा परिचय हो गया. वह मुझसे पूछने लगी कि क्या मैं हज-यात्रा के लिए जा रहा हूँ ? मदीना ?
     इस प्रश्न का नकारात्मक उत्तर देने में मुझे भारी संकोच हुआ. एक तो महिला ने इतने अपनेपन से सवाल पूछा था कि मैं किसी अपरिचय की बेल को अपने बीच फिर से नहीं उगाना चाहता था, दूसरे शायद महिला मुझे मुस्लिम समझ रही थी, इस विश्वास को भी तिरोहित करने के लिए मेरा मन तैयार नहीं था. इस से मैंने बड़ा तपा-तुला उत्तर दिया- अभी तो मुझे अमेरिका जाना है, पर वक्त आने पर मेरा इरादा मदीना जाने का भी है.
     -कब ?
     -"सौ..." मेरी जेब से चूहे ने महिला की बात का उत्तर देने की कोशिश की, पर मैंने हाथ लगा कर उसे रोक दिया. [...जारी ]          

Thursday, February 23, 2012

थोड़ी देर और ठहर [ भाग-दो]

     विक्रमादित्य की आत्मा संजीदगी से मुझसे पूछ रही थी- क्या आप किसी मिस्टर  कबीर को जानते हैं?
मैं हैरान रह गया. मेरी जेब का सफ़ेद चूहा अब ज़ोर-ज़ोर से हँस रहा था.यदि मैंने अपनी सीट-बेल्ट अभी तक बाँध कर न रखी होती तो मैं सचमुच डर से उछल पड़ता. चूहा भला क्यों हँस रहा है? ये है कौन?
     चूहा बोलने लगा.उसने बाकायदा अपना परिचय दिया, लेकिन मुझे नहीं, उस विक्रमादित्य की आत्मा को, जो मेरी जेब में रखे सिंहासन से निकल कर चूहे के पास आई थी. चूहा ज़ोर-ज़ोर से बोल रहा था- "काँकर-पाथर जोड़ के, मस्जिद लई चिनाय,ता चढ़ मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ..."मुझे लगा कि चूहे की आवाज़ सुन कर अभी कोई एयर-होस्टेस आ जाएगी, और फ्लाइट में तहलका मच जायेगा. मुझे यह भी डर था कि आसपास काफी सारे हज-यात्री बैठे थे जो चूहे की बात पर भड़क सकते थे. चूहा झूम-झूम कर मस्ती में बोले जा रहा था, जैसे किसी कार्निवाल में दर्शकों को जुटाना चाहता हो. इतना ही नहीं, बल्कि उसने विक्रमादित्य की आत्मा को मेरा परिचय भी दे डाला. वह लगातार मेरा मज़ाक उड़ा रहा था.कहने लगा-" ये ज़नाब कबीर के हिमायती ही नहीं, बल्कि उसके बड़े फैन रहे हैं, जिस कबीर ने मंदिर-मस्जिद का जम कर मज़ाक उड़ाया. हकीकत ये है कि आज सुबह-सुबह भी ये मस्जिद में अज़ान की आवाज़ सुन कर ही जागे हैं.इनका मोबाइल अलार्म नहीं बजा सका था, क्योंकि उसमें चार्ज कम था. यदि मस्जिद की वह आवाज़ नहीं होती, तो आज इनकी ये फ्लाइट मिस  हो सकती थी.इसी आवाज़ को सुन कर शहर के अखबार और दूध बेचने वाले लड़के अपना बिस्तर छोड़ कर जागे थे..."
     मैंने घबरा कर अपनी जेब पर हाथ मारा और चूहे को जेब के भीतर कर दिया. आत्मा भी सिंहासन की ओर दौड़ी. चूहा चुप तो हो गया था पर उसके दो दांत मेरी हथेली पर लग गए थे, जिन से खरोंच आ जाने से थोड़ा खून रिस रहा था. थोड़ी देर पहले कानों में लगाने के लिए एयर-होस्टेस ने जो रुई दी थी वह अभी भी मेरे पास थी. मैंने उसी से खून पौंछा और रुई को  डस्टबिन में डाल दिया.मेरे करीब बैठा लड़का यह सब नहीं देख पाया क्योंकि वह अपना टीवी चलता छोड़ कर ही टॉयलेट जाने के लिए केबिन में चला गया था. मैंने एकांत का फायदा उठा कर सामने पड़ी जूठे नाश्ते की ट्रे से एक बिस्कुट का टुकड़ा लेकर जेब में चूहे के लिए डाल दिया. आत्मा को भोजन देने के लिए तांत्रिक ने मुझे मना किया था,क्योंकि उसका सिंहासन रत्न-जड़ित था. 
     मैंने मन ही मन निश्चय किया कि अमेरिका  से लौटने के बाद मैं कबीर पर एक बड़ा आलेख लिखूंगा. 
     जहाज अब भी समुद्र पर से उड़ रहा था. धूप और शोख हो चली थी. आगे के केबिन से निकल कर एयर-होस्टेस हाथ में गर्म भाप उड़ाती ट्रे लेकर सामने से गुजरी तो चिकन-सूप की एक बाउल मैंने भी उठाली.लड़का अब सिगरेट पीने लगा था. गर्म सूप की चम्मच मैंने होठों से लगाई ही थी कि मेरी जेब से एक कंकर जैसी चीज़ बंदूख की गोली की तरह निकल कर लड़के के हाथ पर लगी. उसके हाथ से सिगरेट छूटते-छूटते बची, और वह अकबका कर दूसरी ओर देखने लगा. [जारी...]   

लम्बी कहानी-"थोड़ी देर और ठहर"

     -नहीं-नहीं, जेब में चूहा मुझसे नहीं रखा जायेगा. मर गया तो? बदन में सुरसुरी सी होती रहेगी. काट लेगा, इतनी देर चुपचाप थोड़े ही रहेगा? सारे में बदबू फैलेगी. कहीं निकल भागा तो?
-कुछ नहीं होगा, ये साधारण चूहा थोड़े ही है, सफ़ेद चूहा है. गुलाबी आँखों वाला. रख कर तो देखो. उसने कहा.
-पर इसे संभालेगा कौन? घोड़े के पैरों के नीचे आ गया तो ?
-नहीं आएगा,घोड़ा है ही नहीं.विक्रमादित्य सिंहासन पर बैठा है, घोड़े पर नहीं. घोड़ा तो बाहर महल के अस्तबल में है.
     आखिर उसने मेरी एक नहीं सुनी. सुबह के धुंधलके में वह प्यारा सा सफ़ेद चूहा उसने मेरी जेब में रख दिया.दूसरी जेब पहले ही भरी थी. उसमें रत्नों से जड़ा वह छोटा सा सिंहासन था, जिस पर विक्रमादित्य की आत्मा थी. धीरे-धीरे हाथ हिलाता हुआ वह तांत्रिक नज़रों से ओझल हो गया.
     मुझे कोई परेशानी नहीं थी क्योंकि सूटकेस तो लगेज में रख लिया गया था. पासपोर्ट, पैसे और दूसरी ज़रूरी चीज़ें हाथ में पकड़े बैग में थीं.हवाई जहाज अब रन-वे पर आ गया था. शहर की ओस भरी सुबह चारों ओर भीगी लाइटों का जाल फैला कर उजलाने को थी.
     जहाज उड़ कर जैसे ही आकाश में आया, धूप कुछ और चमकदार हो गई. नीचे सब साफ-साफ दिखाई दे रहा था. जेब से किसी की-चेन की तरह सिंहासन के हिलने- डुलने की आवाज़ आ रही थी.दूसरी जेब में चूहा गुमसुम और उनींदा था. कुछ सहमा हुआ भी.
     इस फ्लाइट में हज-यात्रा पर जाने वाले लोग ज्यादा थे. सबके चेहरे पर संतुष्टि की चमक थी. सब अपने-अपने स्थान पर व्यवस्थित और खुश थे. एयर-होस्टेस की मुस्कान हाथ में पकड़ी ट्रे की चॉकलेट से भी ज्यादा मीठी थी. आसमान को इतना नज़दीक देख कर शायद सबको अपना गंतव्य दिखने लगा था. नीचे ज़मीन पर साबरमती नदी की लकीर बढ़ती-बढ़ती जैसे ही अरब सागर बनी, बराबर की सीट पर बैठे युवक ने अपना टीवी ऑन कर लिया. मैं अब समंदर देखते रहना चाहता था.इतनी ऊंचाई से समंदर भी भला नीली चादर के अलावा और क्या दिखता? जल्दी ही मैंने खिड़की से मुंह हटा लिया.
     तभी अचानक मुझे सीने में हलकी सी चुभन हुई. ऐसा लगा, जैसे कोई पिन कपड़े में लगी रह गई हो.लम्बे सफ़र पर जाने से पहले लोग नए कपड़े खरीदते ही हैं, और फिर ब्रांडेड कपड़ों की पैकिंग ...कोई पिन कमीज़ में छूट जाना कोई अनोखी बात नहीं थी. मेरा हाथ झटके से सीने पर गया. एकाएक जैसे दिमाग की बत्ती जली. पिनों की डिबिया तो मैं खुद जेब में लेकर चल रहा था. ये ज़रूर उसी सफ़ेद चूहे की करामात थी जो मेरी जेब में था. मैंने जेब की ओर झाँका तो उस चूहे को अपना गुलाबी मुंह जेब से उसी तरह ऊपर उठा कर बाहर निकालते पाया जैसे समंदर की लहरों के बीच अठखेलियाँ करती व्हेल हवाई दुनिया को देखने पानी से बाहर आती है. उछल कर, ढेरों टन पानी के छींटे चारों ओर उड़ाती हुई.और पानी के इस छींटों-भरे फव्वारे पर दर्ज़नों बगुले चारों ओर से फडफडा कर उछलते हैं,पानी में उछली छोटी मछलियों को निगलने. चूहे के इस जम्प पर उछले यादों के छींटों के बीच विक्रमादित्य की आत्मा ने भी ठीक ऐसे ही प्रहार किया. उसकी आवाज़ मेरे कानों में गूंजने लगी. [जारी...]    
        

Wednesday, February 22, 2012

क्या हमें विश्व-स्तरीय शहर ही पसंद हैं?

हम अक्सर सुनते रहते हैं कि विकास के लिए हमारे अमुक शहर को चुना गया है और अब उसे विश्व-स्तरीय शहर बनाने के लिए सघन प्रयास किये जायेंगे. इसी के साथ शुरू होता है उस शहर को आधुनिक सुख-सुविधाओं से पाट देने का सिलसिला.देखते-देखते शहर अपने विकास के दिन दूने-रात चौगुने बजट के साथ कायाकल्प में जुट जाता है. यह अच्छी बात है. अगर हमारे कुछ शहर यूरोप के शहरों की तरह साफ-सुथरे, अमेरिकी शहरों की तरह भव्य, जापानी शहरों की तरह उन्नत या रशियन शहरों की तरह शालीन दिखें तो भला किसे ऐतराज़ होगा?
लेकिन यहाँ एक छोटा सा सवाल है. क्या हमारी दिलचस्पी केवल अपने 'शहरों' के कायाकल्प में ही है? क्या हम अपने ग्रामीण इलाकों के प्रति ज़रा भी चिंतित नहीं हैं.
अमेरिका में एक शहर से दूसरे शहर की ओर जाते हुए जब हम रास्ते के "गाँवों" को देखते हैं तो हमें एक पल के लिए भी यह ख्याल नहीं आता कि यहाँ जिंदगी कुछ कम सुख-सुविधाओं के साथ रहती है. केवल अंतर इतना दिखाई देता है कि गाँव में लोग कुछ कम सघनता के साथ, थोड़े ज्यादा फासले पर रहते हैं. न तो उनके जीवन स्तर में विपन्नता या पिछड़ापन दिखाई देता है और न ही उनके मानसिक स्तर में.क्योंकि लगभग सभी शहरी सुविधाएँ वहां भी हैं. ग्रामीण इलाके के पशु-मवेशी भी हृष्ट-पुष्ट दिखाई देते हैं. वहां रहने वालों के व्यवसाय कुछ अलग होंगे, लेकिन रहन-सहन में कोई कमी नहीं दिखाई देगी.
दूसरी तरफ, हमारे यहाँ आर्थिक स्तर, सामाजिक स्तर और मानसिक स्तर, सभी में शहर और गाँव के बीच ज़मीन-आसमान का अंतर दिखेगा. यदि गाँव में सम्पन्नता दिखेगी भी तो केवल उन परिवारों में जिनका व्यवसाय या पढ़ाई को लेकर जुड़ाव किसी न किसी शहर से है.
क्या ही अच्छा हो, अगर कभी हमारे मन में अपने गांवों को भी विश्व-स्तरीय बनाने की चाह जागे.      

Tuesday, February 21, 2012

अजित गुप्ता ,सरकार, जनता,रेलवे और बुढ़ापा

ऊपर जो कुछ लिखा है वह केवल शीर्षक है. पूरी इबारत यूँ है- अजित गुप्ताजी ने अपनी कई रेल-यात्राओं के दौरान वृद्धावस्था से गुज़र रहे वरिष्ठ नागरिकों के प्रति सरकारी घोषणाओं के बावजूद रेलवे द्वारा अपेक्षित सुविधाएँ मुहैया न कराये जाने पर जो अवलोकन कर के टिप्पणी की है वह एक लब्ध-प्रतिष्ठ साहित्यकार की समाज के प्रति बेचैनी ही है. बुढ़ापा वास्तव में कष्टकारी और विवश कर देने वाला ही होता है. रेलवे सुविधानुसार नियमों को तोड़-मरोड़ लेने वाला महकमा है. सरकार परम-वाचाल घोषणाकारी उपक्रम का नाम है. साहित्यकार औरों के कष्ट में नम आँखें कर लेने वाली जमात है.
यह सही है कि सरकार ने यदि कोई सुविधा देने की सार्वजनिक घोषणा कर दी है तो विभाग को तत्परता से उसे पूरा करने की ज़िम्मेदारी उठानी चाहिए,लेकिन हमें क्या होता जा रहा है? यदि सत्तर अस्सी लोगों की बोगी में आठ-दस ऐसे लोग हैं तो क्या हम आगे बढ़ कर उन्हें इतनी सी तात्कालिक सुविधा नहीं दे सकते?आखिर हम एक समाज हैं, अकेलों-अकेलों की भीड़ नहीं. इतनी सारी यात्राओं में इतने सारे यात्री परेशान होते दिखाई दे गए, अर्थात स्थिति वास्तव में चिंतनीय है.क्षमा करें, अगर हम ऐसे हैं तो सरकार भी हमारे द्वारा हमीं में से चुने हुए लोग हैं. अक्सर यह होता है कि हर बजट में सरकार का ध्यान नई-नई लोक-लुभावन घोषणाएं करने पर रहता है.बाद में इन घोषणाओं पर अनुवर्ती कार्यवाही करने में विभाग अक्सर चूक जाता है. कोई नई बात कह कर दाम बढ़ाये जाते हैं, फिर दाम तो हमेशा के लिए बढ़े हुए रह जाते हैं और सुविधा चंद दिन बाद उड़न-छू हो जाती हैं .पिछले दिनों देश ने यह देखा है कि कैसे रेल की रफ़्तार मुख्य-मंत्री की कुर्सी पकड़ने में काम आती है.      

Monday, February 20, 2012

विश्व पुस्तक मेला २५ फ़रवरी से प्रगति मैदान,नई दिल्ली में

नई दिल्ली के प्रगति मैदान में २५ फ़रवरी से विश्व पुस्तक मेले का आयोजन हो रहा है. हर बार यही होता है कि पुस्तक मेला बीतने के बाद पता चलता है कि देश-भर से अमुक-अमुक लेखकगण मेले में तशरीफ़ लाये थे. कई मित्रों से  भी यही सुनने को मिलता है कि वे वहां थे. संयोग से इस बार समय रहते ही यह याद आ गया कि अपने मित्रों और अन्य कलमकारों को वहां घेरने के लिए अभी से नाकाबंदी की जाये.
२६ फ़रवरी का दिन रविवार होने के कारण इस "आखेट" के लिए उपयुक्त रहने की सम्भावना है. अतः आपको सूचित किया जाता है कि अपने वहां होने की सूचना ९३१२४००७०९पर 'मधुदीप' को देने का कष्ट करें. ये "दिशा प्रकाशन" के स्टाल पर उपलब्ध होंगे. कम से कम ऐसे महानुभाव अपने होने की घोषणा अवश्य करें-
१. जिनकी कोई भी पुस्तक [नई] इस मेले में पहली बार आ रही हो.
२. हिंदी के सभी ऐसे रचनाकार जो अपने को देश के सर्वश्रेष्ठ १०० रचनाकारों में शुमार समझते हों[ किसी प्रमाण-पत्र की दरकार नहीं है, आपकी आत्म -विश्वास से की गई घोषणा ही काफी है]
३. पुस्तकों के ऐसे लेखक जिनकी आयु ८० से अधिक या २० से कम हो.
४. वे रचनाकार जो अपनी पुस्तक के अंग्रेजी या अन्य विदेशी भाषा में अनुवाद में रूचि रखते हों.
५. वे मित्र साहित्यकार जो इस सूचनादाता से मिलने में रूचि रखते हों.  

Sunday, February 19, 2012

पिट्सबर्ग, अमेरिका से हिमालय पर बैठे शिव को शिवरात्रि पर भेजा गया नमन

जिस समय शिवरात्रि का सवेरा भारत में दस्तक दे रहा था, भगवान शिव के दरबार में बधाइयों का ताँता लग चुका था.भारत के जो लोग अपने बच्चों के कैरियर में यह कह कर बाधा बनते हैं कि दूर जा कर बच्चे अपने घर-संस्कृति को भूल जायेंगे, उनमें से अधिकांश शायद शिवरात्रि की 'छुट्टी' के प्रमाद में अभी अपने दैनिक क्रिया-कलापों में ही उलझे हुए होंगे कि शिवरात्रि दुनिया-जहान में शुरू हो गई.शिव सबका मंगल करें.
कल रात को ज़ी-टीवी पर 'डांस इंडिया डांस' कार्यक्रम में एक से एक आधुनिक नृत्य कला पारंगतों ने भी अपने तमाम अधुनातन प्रयोग छोड़ कर पौराणिक कथानकों को ही अपने डांस में जीवंत किया. सोनल मानसिंह वहां अतिथि के रूप में मौजूद थीं. उस कार्यक्रम को देख कर मुझे ऐसा लग रहा था कि हमारी नई पीढ़ी ने दुनिया को बहुत अच्छी तरह से अपने कन्धों पर उठा लिया है. अब हम जैसे लोगों को सारी चिंताएं छोड़ कर केवल नई पीढ़ी के करतबों-कारनामों को देखना चाहिए.
कभी-कभी यह जिज्ञासा होती है कि जब सभी इंसानों और देवी-देवताओं का जन्मदिन होता है तो केवल शिव की ही "रात्रि" क्यों होती है? शायद इसीलिए, कि शिव से जुड़ा उल्लास भिनसारे, पौ फटने से पहले ही शुरू हो जाता है, इसलिए.   

"नो चोइस"अर्थात कोई विकल्प नहीं

दुनिया में आते समय यह हमारे हाथ में नहीं होता कि हम अपनी मनपसंद जाति या धर्म को चुन कर उसमें अपना जीवन शुरू करें. दुनिया में हमारी आँख खुलने से पहले ही यह सब तय हो चुका होता है.जिस घर में हम आते हैं, उसके तौर-तरीके, रीति-रिवाज़, जाति-संस्कार सब हम पर लागू हो जाते हैं. हमारा आधार हमें मिल जाता है.
लेकिन यह पहचान अंतिम नहीं है. हमारी हस्त-रेखाएं और कर्म-रेखाएं हमारे पास विकल्प के रूप में उपलब्ध होती हैं. हम एक कोशिश ज़रूर कर सकते हैं कि हम जिन लोगों के साथ चाहें, तन-मन से रह सकते हैं. तन से फिर भी दुनिया-समाज हमें किसी के साथ रहने, न रहने पर दखल देकर बाध्य करे, मन से तो हम जहाँ चाहें, जैसे चाहें, रह ही सकते हैं. अधिकांश लोग किसी भी जोखिम से बचने के लिए 'जैसा देश वैसा भेष' बना कर समय काट लेते हैं. लेकिन दुनिया में 'जैसी चाह वैसी राह'बनाने वाले भी हुए हैं.
अमिताभ बच्चन और दिलीप कुमार का नाम पद्मविभूषण पुरस्कार के लिए विचारार्थ सूची में था लेकिन इस बीच उन्हें कोई और सम्मान या पुरस्कार मिल जाने से उनकी दावेदारी ख़त्म हो गई. इसका अर्थ यह हुआ कि आप केवल किसी एक के  लाडले हों, सबके प्रिय नहीं हो सकते.सचिन तेंदुलकर भी पुरस्कार या शतक बनाने से चूक जाएँ, रिकार्ड बनाने से चूकने वाले नहीं हैं. बिना शतक हज़ार रन बनाने का करिश्मा तो वे दो बार कर ही चुके हैं, अब शायद बिना रन के  बॉल गवांने के भी चंद रिकार्ड उन्हीं के खाते में जाएँ.      

Saturday, February 18, 2012

आइये सराहें "जील "के ज़ज्बे को

"मेरी भाषा इतनी कड़क और कटु नहीं थी, लेकिन सत्ता की कारगुजारियों ने इसे ऐसा बना दिया."
आज अपने ब्लॉग पर ज़ील ने ऐसा ही कुछ लिखा है. इस ज़ज्बे पर गौर करते हुए फ़ख्र होता है.यही तो वह हथियार है जिस से कालांतर में सत्ता की गर्दन कट जाती है. एक सौ बीस करोड़ लोगों के देश में अगर सत्ता की मनमानी पर एक सौ बीस लोगों की भाषा का स्वाद भी  कड़वा हो जाये तो भविष्य उज्जवल है. उन्हें मेरी बधाई. शुरू में जब उनके ब्लॉग पर उनकी तस्वीर देखी थी तो मुझे लगा था कि वे अच्छी ग़ज़लें लिखेंगी, लेकिन उनके ब्लॉग का आज का तापमान बता रहा है कि उनके तेवर सत्ता के शेरों की "म्याऊँ"लिखेंगे.
यह सच है कि सत्ता में अगर अपराधियों और नाकारों की घुसपैठ हो जाती है तो आमआदमी का जीना दुश्वार हो जाता है.
मेक्सिको में तो लगभग १००० लोगों में १२ अपराधी हैं, अर्थात १.२ प्रतिशत. फिरभी पिछले छह सालों में पचास हज़ार से ज्यादा लोग मारे गए.वहां के राष्ट्रपति ने खुद खड़े रह कर अपराधियों से ज़ब्त किये हथियारों को नष्ट करवाया. इधर तो चुनावी राज्य उत्तर प्रदेश की ही बात कर लें. सभी दलों ने लगभग ३० प्रतिशत अपराधियों को टिकट देकर माननीय विधायक बनाने का पांसा फेंका. और उधर बन जाने के बाद उन्हें और हथियारों के लायसेंस प्रदान करने के लिए सत्तानवीसों के हाथ अभी से खुजा रहें हैं. क्योंकि ये तो 'मिनी' चुनाव है- असली दंगल तो अब आ रहा है.    

Friday, February 17, 2012

न्यूयॉर्क और लन्दन के समकक्ष जाने के लिए मौलिकता ज़रूरी

भारत के मूर्तिकार अर्जुन प्रजापति ने बर्मिंघम में अपनी कला के लिए ज़बरदस्त सराहना और सम्मान पाया, इसके लिए उन्हें बहुत-बहुत बधाई. अब उन्होंने घोषणा की है कि वे अपनी कला के जीवंत प्रयोग से दिल्ली रोड पर न्यूयॉर्क और लन्दन की तर्ज़ पर मैडम तुसाद म्यूजियम जैसा ही एक म्यूजियम बनायेंगे.
उनके हौसले को पूरा समर्थन देते हुए भी उनकी सुझाव-पुस्तिका में कुछ बातें लिख देना ज़रूरी लगता है.
१. दुनियां में बड़ी सफलता हमेशा किसी मौलिक प्रयास को ही मिली है. भव्यता की नक़ल में तो केवल यही संतुष्टि छिपी है कि हमने भी वैसा कर दिखाया. इस प्रयास में हम किसी के बराबर आते हैं.
२. किसी भी बड़े काम के लिए हौसला ही पहली शर्त है, फिरभी दूसरी शर्त- संसाधनों को भी कम नहीं आँका जा सकता. वे कोई प्रायोजना शुरू करने से पहले आर्थिक पक्ष को भी सुनिश्चित करलें तो अधिक व्यावहारिक होगा.
३. प्रोजेक्ट में कुछ नवीनता लाने के लिए चयन के कुछ मौलिक मानदंड निर्धारित करें, ताकि दर्शकों में उत्सुकता  बने.
४. अंतर-राष्ट्रीय स्तर पर उभरने के लिए कुछ अन्य देशों के समान विचारों वाले लोगों को भी जोड़ें.जिस से यह प्रयास किसी सामूहिक प्रयास की शक्ल ले सके.
ऐसे कामों में तो भारत के "काले-अरबपतियों" की मदद भी मिल जाये तो देश के नसीब से कुछ पाप ही धुलेंगे.     

Thursday, February 16, 2012

अमेरिका, जापान, चाइना,फ़्रांस, जर्मनी, इटली, आस्ट्रेलिया आदि किसी को भी दिया जा सकता है ये टेंडर

कौन कहता है कि बड़े-बड़े देश छोटे काम नहीं कर सकते? कह कर तो देखिये, इतनी मदद तो हमारी कोई भी कर देगा. ऐसे कामों के लिए तो हम पैसे भी खर्च करने को तैयार रहते हैं. फिर हमारे तो विदेशों में जमा काले धन की पासबुकें ही इतनी आकर्षक  हैं कि बहुत से देश तो उन्हें देख कर ही हमारा काम करने को तैयार हो जायेंगे, पाकिस्तान जैसे. यह बात अलग है कि पाकिस्तान जैसों से काम नहीं हो पायेगा.
हाँ, पहले ये तो सुन लीजिये कि काम है क्या?
हमें अपने एक अरब बीस करोड़ भाई-बहनों  के लिए "टैटू" बनवाने हैं.ये काफी सिंपल से ही बनेंगे, ज्यादा डिज़ाइन वगैरा का काम नहीं है. नोटों की तरह इन पर गांधीजी का चेहरा बनाने की ज़रुरत नहीं है. हाँ, गाँधी लिखा जा सकता है, उसमें कोई आपत्ति नहीं है. वैसे भी इनके मैटर में लिखने का काम ही ज्यादा है. वैसे तो ये काम हम खुद भी कर सकते थे, घिसट-घिसट कर ही सही.पर वो क्या है कि हमारा संविधान हमें ऐसे काम खुद करने की इज़ाज़त नहीं देता. क्योंकि संविधान में लिखा हुआ है कि हमें ऐसी बातों को मिटाना है.
अब संविधान बनाने वाले तो खुद सब मिट गए, इसलिए हमें किसी का डर तो है नहीं, लिहाज़ा अब हमें हर भारतवासी के चेहरे[माथे को प्राथमिकता दी जाएगी] पर उसकी जाति लिखवानी है.किसी भारतीय  भाषा के चक्कर में पड़ने पर तो हम सब फिर आपस में लड़ मरेंगे, इसलिए विदेशों से टैटू बनवाना अच्छा रहेगा, उन्हें सब ख़ुशी से चिपका लेंगे.
नोट- टेंडर उसी को दिया जायेगा, जिसकी दरें चाहें कम-ज्यादा हों पर कमीशन सबसे ज्यादा हो.      

Wednesday, February 15, 2012

लन्दन की वो सुबह आज भारत की चौबीसों घंटे चलने वाली बारहमासी है

गर्मी के दिन थे. एक नन्ही चींटी लगातार पसीना बहाते हुए अपने बिल में अपने लिए भोजन के कण कहीं से ला-ला कर जमा कर रही थी. एक पौधे की छाँव में आराम फरमा रहा टिड्डा उसे देख रहा था. टिड्डे ने चींटी को इतनी मेहनत करते देखा तो उस से रहा नहीं गया.वह चींटी से बोला- तुम सुबह से दौड़-दौड़ कर अपने बिल में भोजन जमा कर रही हो, इस से क्या फायदा? मुझे देखो, मैं आराम से बैठा गीत गा रहा हूँ. चींटी कुछ न बोली.
दिन बीते. मौसम बदल गया. कड़ाके की ठण्ड पड़ने लगी. सब कुछ बर्फ से ढक गया.घर से निकलने तक का मौसम नहीं रहा. घर में बैठे टिड्डे को भूख सताने लगी. चींटी अब घर में ही थी, आराम से घर में रखा अन्न खाती और मौसम का आनंद लेती.
टिड्डा चींटी के पास पहुंचा, और याचना के स्वर में बोला- मैंने तीन दिन से कुछ नहीं खाया है, मुझे खाने को देदो. चींटी बोली- जब मैं खाना इकठ्ठा कर रही थी, तब तुम आराम से बैठे गीत गा रहे थे, तो अब आराम से जाकर नाचो.
ये गाथा कभी इंग्लैण्ड में लिखी गई थी.
अब ये भारत में अपनाली गई है, सिर्फ थोड़े से परिवर्तन के साथ. मौसम बदलने पर टिड्डे ने चींटी का खाना छीन लिया और चींटी इंतजार में है कि कब बर्फ पिघले और वह फिर भोजन की तलाश में निकले.     

Tuesday, February 14, 2012

देश-भक्ति के ज़ज्बे को कैसे परिभाषित किया जाये?

दिलीप कुमार का नाम कोई कम लोकप्रिय नहीं हैं. पिछले पचास सालों में आने वाले लगभग हर सफल अभिनेता से उनकी तुलना हुई. कई अभिनेताओं ने उनके लटके-झटकों की नक़ल भी की. अपने दौर की लगभग हर बड़ी नायिका ने उनके साथ काम किया. उन्हें ढेरों छोटे-बड़े पुरस्कार और सम्मान मिले. वे मुंबई महानगर के किसी समय शेरिफ भी रहे. लोकप्रिय अभिनेत्री सायराबानो से उनके सफल विवाह के बाद उनकी लोकप्रियता में और इजाफा ही हुआ.
अभी कुछ समय पहले यह खबर आई, कि पाकिस्तान में उनके पैतृक  मकान को वहां की सरकार ने सुरक्षित रख कर उसे स्मारक  घोषित करने का फैसला किया है. यह भी उनके और भारत-वासियों के लिए एक बड़ा सम्मान ही है. लेकिन इस खबर का भारत में जिस गर्म-जोशी से स्वागत होना चाहिए था, वह नहीं हुआ. शायद बहुत से लोगों में तो यह ठंडापन व्याप गया कि अच्छा वे पाकिस्तान में पैदा हुए थे. बहुतों को यह शंका हो गई कि  उनके रिश्ते अभी तक पाकिस्तान से मधुर थे. बहुतों को यह अचरज हो रहा है कि उन्होंने पाकिस्तान बनते ही उस से मुंह फेर क्यों नहीं लिया था? वे वहां पैदा हुए तो क्या, उन पर तो सारा हक़ भारत का ही होना चाहिए.
देश-भक्ति का ज़ज्बा यही है तो कल शायद सोनियाजी की उपलब्धियों  पर हम इटली को भी खुश न होने दें?    

Monday, February 13, 2012

अमिताभ बच्चन के सफल ऑपरेशन की ख़ुशी में, भारत की कल के क्रिकेट मैच में जीत के उन्माद में

अमिताभ बच्चन ने अपने अभिनय से दर्शकों को जो सुकून दिया है, वह कभी ख़ाली नहीं जाता.वह अपनी व्यस्त दिनचर्या के चलते जब-जब भी अपने शरीर की किसी व्याधि से ग्रस्त होते हैं, असंख्य दर्शकों की दुआएं उनका दिया सुकून उन्हें वापस  लौटाने की पुरजोर कोशिश करती हैं. आशा है वे जल्दी ही अपने कर्म-क्षेत्र के योद्धा बन कर फिर मैदान में आ डटेंगे.
कल एक बार मैच में पिछड़ जाने के बाद जिस तरह भारत ने अंत में क्रिकेट का वह मैच जीत लिया, ख़ुशी की बात है. तो ख़ुशी दोहरी हो गई.
इस दोहरी ख़ुशी के उल्लास में, मुझे लगता है कि बहती गंगा में मैं भी हाथ धो लूं. अपनी एक गलती आपको बता दूं, शायद ख़ुशी के अवसर पर मुझे भी आपकी क्षमा मिल जाये.
मैंने कुछ दिन पहले अपनी ४०० पोस्ट पूरी होने की घोषणा की थी. लेकिन मैं भूल गया कि मैंने बीच-बीच में अपनी कुछ पोस्ट्स के ड्राफ्ट हटा डाले थे. वास्तव में मेरी ४०० पोस्ट आज पूरी हो रही हैं.
मेरी एक छोटी सी इच्छा है कि कम से कम आज मुझे अपने सभी १५ फोलोअर्स से एक छोटा सा सन्देश ज़रूर मिले. मेरे हाथ में इंतज़ार करना है, वो मैं कर रहा हूँ, बाकी आपके हाथ में है. 

Saturday, February 11, 2012

ब्राज़ील ने कपिल सिब्बल पर गोल किया?

भारत में कपिल सिब्बल ने कुछ समय पहले ये राग छेड़ा था कि नेट के लापरवाही पूर्ण इस्तेमाल को रोकने के लिए कुछ बंधन बिछाए जाएँ. कपिल सिब्बल ने तो एक नए मैच के आगाज़ की कल्पना की थी. उन्होंने मैदान साफ किया. खिलाड़ियों का आह्वान किया कि वे आयें और अपना-अपना हुनर दिखाएँ.कोई नहीं आया. उलटे राग प्रसारित करते मंच पर टमाटर और अंडे फिंकने लगे. 
अब खबर ये है कि ब्राज़ील में ऐसा कर भी दिया गया. 
सच है, किसी पेड़ के नीचे सिन्दूर से रंग कर एक पत्थर रख दो, और उसके सामने दो अगरबत्तियां जला दो तो हर आने वाला जूते उतार कर वहां शीश झुकाता है. हाँ, यह घोषणा हो कि एक भव्य मंदिर बनाया जायेगा, तो लाखों आदमी वहां शिलाएं [पत्थर ] पटक-पटक कर थक जाएँ, फिर भी भगवान का घर नहीं बन पाता.
एक बार फिर ब्राज़ील जीता.    

जिंदगी भीख में नहीं मिलती, जिंदगी लड़ के छीनी जाती है

अखबार रोज़ आते हैं, लेकिन रोज़ ऐसी खबर नहीं लाते. ख़बरें तो रोज़ होती हैं, लेकिन ख़बरों में लिपट कर ऐसे अहसास रोज़ नहीं आते.
कल अखबार में एक छोटे से बच्चे की तस्वीर थी. वो कारों के एक काफिले के आगे खड़ा था.कारों पर बेतहाशा बर्फ की परत जमा थी. सड़क पर भी बर्फ ही बर्फ. तापमान माइनस बारह डिग्री से भी ज्यादा. देश अमेरिका. बच्चा चाइनीज़. हड्डियाँ गला देने वाली सर्दियों में बच्चा बिलकुल नंगे बदन. सिर्फ अंडरवियर और जूते. 
उस अखबार को देख कर भी कंपकंपी छूटती थी. भारत में यह दृश्य होता तो निश्चित ही देख कर ऐसा लगता कि माँ-बाप अपने किसी लाभ के लिए बच्चे की बलि चढ़ा रहे हैं. 
लेकिन अमेरिका में रह रहे वे चाइनीज़ माँ-बाप अपने स्वार्थ के लिए बच्चे की बलि नहीं चढ़ा रहे थे, बल्कि बच्चे के भविष्य में मज़बूत और सहनशील बनने की आस में उसे प्रशिक्षण दे रहे थे. जब बच्चे ने निरीहता से माता-पिता की ओर देखा तो उसे पिता से पुश-अप्स करने के निर्देश मिले. एक बार बच्चे ने थोड़ा घबरा कर माँ को आवाज़ लगाई. पर पिता ने उसकी गुहार को ना-मंज़ूर कर दिया और बच्चे को अपना साहसिक कारनामा जारी रखना पड़ा.इस रिपोर्ट से कुछ बातें सिद्ध हुईं. 
१.प्रकृति इंसान के स्थानीय भगवान के रूप में माँ को ही निर्धारित करती है. 
२.शारीरिक बल-प्रदर्शन वाले खेलों में चाइनीज़ युवाओं का प्रदर्शन आश्चर्यजनक रूप से प्रभावशाली शायद इसीलिए रहता है.
३.चाइना बच्चे-बच्चे में यह भावना कूट-कूट कर भरने में लगा है कि कल उसे दुनिया के सर्वश्रेष्ठ देश का नागरिक बनना है. 
इस जज्बे  को हैरत भरी शुभकामनायें.       

Friday, February 10, 2012

क्या शिक्षाविदों की ओवरहालिंग संभव है?

कल मैं एक विश्वविद्यालय के कुछ कोर्सेज़ देख रहा था, जो २०१२ में १८ साल की उम्र के विद्यार्थियों को पढ़ाए जाने हैं.अर्थात लगभग १९९४ में पैदा हुए बच्चे उन्हें पढ़ेंगे.उनमें कुछ लेख, कुछ निबंध, कुछ नाटक, कुछ कहानियां और उपन्यास थे जिनमें से लगभग ८० प्रतिशत आज से १५० से लेकर १०० वर्ष पहले तक लिखे गए थे. उनके रचना-कारों की तीन-चार पीढ़ियाँ आराम से गुज़र चुकी होंगी.उन सब पर सैंकड़ों शोध हो चुके होंगे. लगभग हर दृष्टिकोण से दर्ज़नों टीकाएँ-पुस्तकें लिखी जा चुकी होंगी. आज उन्हें फिर से एक नई नस्ल के दिमाग में झोंकने के पीछे शिक्षकों का क्या प्रयोजन हो सकता है? शायद यही कि कुछ भी नया करने के लिए हाथ-पैर कौन हिलाए?
आदर्श नमूने के तौर पर कुछ-एक कालजयी रचनाकारों को स्थान देने में कोई हर्ज़ नहीं है. लेकिन सारा का सारा घिसा-पिटा मसाला लेकर बच्चों के लिए कौन से ज्ञान के द्वार खोले जा रहे हैं. 
महीने भर पहले संजना कपूर सार्वजनिक तौर पर ये दुखड़ा सुना कर गई हैं कि लाख कोशिशों के बावजूद मैं पृथ्वी थियेटर का कुशल सञ्चालन नहीं कर पाई और वह अब बंद होने के कगार पर है.ऐसे में हम नई नस्ल को कालिदास के नाटक पढ़ाए चले जाएँ और आशा करें कि वे बच्चे प्रबंधन और इन्फोर्मेशन टेक्नोलौजी के बच्चों की तरह बेहतर कैरियर बनायें तो यह शायद बच्चों के साथ अन्याय होगा. यह ऐसा ही है जैसे किसी को घास खिला कर शेर से लड़ने के लिए तैयार करना. इतना ही नहीं, यह पिछले सौ साल में अर्जित ज्ञान की अनदेखी करना भी है.       

Wednesday, February 8, 2012

युवराजों की थेरेपी- बोस्टन से लखनऊ तक

भारतीय दिल का कोई जवाब नहीं. जब बल्लियों उछलता है तो फिर न लखनऊ देखता है न बोस्टन. 
आजकल दिल घायल है. युवराज के फेफड़ों ने न जाने कहाँ से भयंकर संक्रमण पकड़ लिया है. भारतीय मन ने उन्हें बॉल पकड़ते देखा है, बैट पकड़ते देखा है,लेकिन बीमारी उन्हें पकड़ लेगी, यह कभी सपने में भी किसी ने नहीं सोचा. तसल्ली इस बात की है , वे अमेरिका में इलाज करा रहे हैं, इसलिए जब डाक्टर कहते हैं कि वे जल्दी ही फिर मैदान पर होंगे तो बात पर विश्वास हो जाता है. ऐसा कहने वाले डाक्टरों के मुंह में घी-शक्कर. यदि वे भारत में इलाज कराते तो बॉल ईश्वर के पाले में होती, और लोग मंदिरों में.  पर शुक्र है कि युवराज बोस्टन में हैं और बोस्टन में डाक्टर न आरक्षण से बनते हैं न पेड सीटों से,दवाइयां कमीशन से नहीं आतीं और न मशीनें रिश्वत से.
युवराज जल्दी अच्छे होकर बैट थामे दिखाई दें. शुभकामनाएं. 
आज एक ऑपरेशन और था.लखनऊ में. वहां भी थेरेपी युवराज की ही होनी है. वहां डाक्टर जनता है, हकीम   मुलायम,नर्स माया और उमा. शुभकामनायें वहां के लिए भी. यह भी लम्बा चलने वाला है. यहाँ थेरेपी सात बार में होगी.       

Tuesday, February 7, 2012

फिर उनका क्या होता है?

फिलिप्पीन्स में ज़ोरदार भू-कंप आया है. छोटे-छोटे मासूम बच्चों के निरीह चेहरे देख कर ईश्वर से झगड़ा करने का मन होता है.कभी कहा जाता था कि प्राकृतिक आपदाएं भी मानवीय कारणों से आती हैं. लेकिन यह बात सहसा विश्वास करने लायक नहीं. हाँ, यह अवश्य है कि प्राकृतिक आपदाओं से मनुष्य डर कर नहीं बैठता.कुछ समय पहले जिस जापान ने कुदरत का कहर देखा था, आज उसने बर्फ से ढाई सौ कलाकृतियाँ बनाईं, जिनमें प्यार की विश्व-व्यापी यादगार 'ताजमहल' भी है. 
लेकिन मानवीय विपदाएं भी तो कोई कम नहीं. किसी भी दिन का अखबार उठा कर देखिये, आदमी क्या नहीं कर रहा ? चोरी, डकैती, हत्या, लूट, हर देश के पास अपना-अपना कानून भी है और कानून की व्याख्या भी. लेकिन क्या आपको लगता है कि कानून में इन अपराधों के लिए जितनी सजा है उसे काट कर ये अपराधी फिर भले-आदमी बन जाते होंगे? बल्कि कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि एक बार पुलिस की महफ़िल में किस्मत आजमाकर ये शातिर वहां के रोज़ के ग्राहक बन जाते होंगे. यही लोग बार-बार अपराध कर-कर के बार-बार पुलिस की गिरफ्त में आते होंगे. कितनी मुबारक "गिरफ्त" है ये. कभी-कभी पुलिस को मीडिया के ज़रिये ये आंकड़े भी सामने लाने चाहिए कि पिछले एक-दो साल में जो अपराधी पकड़े गए वे अब कहाँ हैं और क्या कर रहे हैं?यदि ऐसा होगा तो शायद नेताओं के 'निजी स्टाफ' का कैरियर ग्राफ भी जनता देख पायेगी. सरकारी स्टाफ का तो देख ही रही है.      

Sunday, February 5, 2012

किस-किस बात पर गर्व किया जा सकता है

हम किसी भी धर्म के मानने वाले हों, किसी  भी जाति के हों,किसी भी देश में रहते हों, ऐसी कौन-कौन सी बातें हैं जिन पर हम गर्व कर सकते हैं?
हम हर उस व्यक्ति पर गर्व कर सकते हैं जो अच्छा गाता हो.
हम हर उस इंसान पर भी गर्व कर सकते हैं जो बेहतर नाच सके. 
अच्छा अभिनय भी गर्व करने की चीज़ है. 
किसी भी विषय को अच्छी तरह पढ़ने वाले तो हैं ही गर्व करने योग्य.
अच्छे खिलाड़ियों पर भला किसे गर्व न होगा?
अच्छे व्यापारी,अच्छे अधिकारी,अच्छे कर्मचारी,अच्छे वकील-डाक्टर-इंजिनियर पर कोई भी गर्व करेगा. 
अच्छे शिक्षक किसे अच्छे नहीं लगेंगे?
अच्छे नेता को तो लोग पूजते हैं. 
अच्छा चित्रकार-मूर्तिकार या वाहन चालक समाज के लिए धरोहर ही है. 
अच्छा भोजन बनाने वाला और घरेलू काम करने वाला किसे पसंद नहीं आएगा? 
अच्छा बैंकर क्या कोई कम अच्छा है?
इतने विकल्प कोई कम नहीं होते. फिर भी इन सब विकल्पों के पार जाकर हर समाज, देश या घर में जब कुछ लोग ऐसे निकल ही आते हैं जो गर्व करने लायक नहीं होते, तो मन खट्टा हो जाता है. खटास का कोई इलाज है?     

Saturday, February 4, 2012

तिथियाँ बदलती हैं, दिन नहीं

एक सड़क के किनारे एक पेड़ के नीचे एक द्रष्टिहीन व्यक्ति बैठा था. पुरानी कहानियों में तो कह दिया जाता था कि वह बैठा तपस्या कर रहा था. पर अब ऐसा कहना निरापद नहीं है, क्या पता वह क्या कर रहा हो?
थोड़ी ही देर में उधर से भागता हुआ कोई आदमी गुज़रा. आदमी ने अंधे व्यक्ति से कहा-श्रीमान, क्या यह सड़क मुझे शहर की ओर पहुंचा देगी? उसने उत्तर दिया-पहुंचा तो देगी परन्तु तुम्हें इस पर चल कर जाना होगा. आहट से ऐसा लगा मानो वह आदमी चला गया.
थोड़ी ही देर में फिर एक आदमी की आहट आई. आदमी बोला- क्योंरे, ये रास्ता शहर को ही जा रहा है  न ?
अंधे व्यक्ति ने कहा- रास्ता तो नहीं जाता पर मुसाफिर पहुँच जाते हैं. आदमी चला गया. 
अभी कुछ ही समय गुज़रा होगा कि एक गाड़ी के रुकने की आवाज़ आई. फिर एक स्वर सुनाई दिया-ओ अंधे, वो सामने शहर ही दिख रहा है न ? 
जी सर, वो शहर ही है...आपकी विज़िट की तैयारी करने आपका आदमी भी अभी-अभी गया है.जनता तो पहले से ही जाने लगी थी. 
कार वाले व्यक्ति ने आँखें तरेरीं-आँखें नहीं हैं, फिर भी पूरी पंचायती कर लेता है.क्यों?
जी सर, मन की आँखें तो हैं.     

शब्दकोष में से ऐसे शब्द हटाये नहीं जा सकते?

कभी-कभी मुझे लगता है कि कुछ शब्द हमने जल्दबाजी में डिक्शनरी में डाल लिए. "स्वार्थी" शब्द पर गौर कीजिये. हमने पूरी तरह नकारात्मक अर्थ देकर इस शब्द को लोकप्रिय बना रखा है, पर क्या वास्तव में यह शब्द यही भाव लिए हुए है? 
स्वार्थी कोई हो ही नहीं सकता. आप जब घर में होते हैं तो आप चाहे जैसे कपड़े पहने हो सकते हैं.लेकिन घर में किसी दूसरे के आते ही आप अपने कपड़ों को लेकर सतर्क हो जाते हैं. कई बार तो उन्हें बदल डालते हैं. तो इसका मतलब यह हुआ कि आपने अच्छे कपड़े अपने लिए नहीं, बल्कि दूसरों के लिए पहने हैं. आप अकेले में चाहे जो कुछ खा लें, यदि कोई आपके साथ होगा तो आप अपने आप औपचारिक हो जायेंगे. यदि कोई कंजूसी करके पैसा जोड़ता है तो अधिकतर वह पैसा किसी और के काम आएगा. यदि कोई यह सोच कर जोड़ता है कि वह इस पैसे को अपने लिए ही भविष्य में काम में लेगा, तो वह व्यक्ति अपने परिजन को कष्ट न होने देने का भाव रखता है. इस प्रकार वह किसी और की जवाबदेही अपने पर ले रहा है, वह भला स्वार्थी कैसे हुआ. 
तो फिर स्वार्थी कौन और कैसे हुआ? यदि किसी व्यक्ति के द्वारा उसके अपने हित के लिए भी किये जा रहे काम को आप उसकी नकारात्मकता कह रहे हैं तो यह स्वार्थी की नकारात्मकता कहाँ हुई? यह तो आपकी नकारात्मकता हुई. ऐसे में 'स्वार्थी' नकारात्मक कहाँ हुआ. यह तो उस व्यक्ति की उसके अपने हक़ में की गई जागरूकता हुई. 
मान लीजिये, एक नेता वोट मांग रहा है. ये वोट वो अपने लिए मांग रहा है. यदि वह वास्तव में इस योग्य है कि उसे वोट दिया जाये तो फिर वह स्वार्थी नहीं हुआ. यदि वह वोट देने योग्य नहीं है फिर भी मांग रहा है तो वह इसीलिए तो मांग रहा है कि अन्यथा आप उसे वोट नहीं देंगे. तो वह स्वार्थी कहाँ हुआ? अब इसे इस तरह देखिये- यदि आपने उसे वोट दे दिया तो आप उसके समर्थक हैं, उसने वोट मांग कर क्या स्वार्थ साधा? और यदि आपने उसे वोट दिया ही नहीं तो उसने कौन सा स्वार्थ साधा?   

Friday, February 3, 2012

तो क्या कबीर को अब रिटायर करें?

सूरज उगता तो रोज़ है पर चुपचाप उग जाता है. उस से सोते हुए इंसान को जगाने के लिए कोई आहट नहीं होती. शहर में बहुत सारे लोगों को सुबह-सुबह काम पर जाना होता है. कोई अखबार बांटने जा रहा है तो कोई दूध बांटने. कोई स्कूल-कॉलेज के लिए तैयार होना चाहता है तो कोई जाने वालों को खाने का टिफिन देने के लिए उठना चाहता है. किसी की मिल उसे पुकारती है तो किसी के खेत. किसी को सुबह-सुबह भगवान का साक्षात्कार चाहिए तो किसी को सेहत के लिए ताज़ी हवा में दौड़ना है. 
अब ये सब क्या अपने-अपने मोबाइल में अलार्म  बजाएं?क्या उठने और न उठने की अनिश्चितता में आधी नींद सोयें? क्या अपने-अपने काम में लेट-लतीफ़ कहलाने का जोखिम उठायें? 
सुबह छह बजे मस्जिद से अज़ान की मोहक आवाज़ आती है जो महल्ले भर में सुनाई देती है.उतनी ही सुबह मंदिर से निराली आवाज़ गूंजती है, जिसकी पहुँच दूर-दूर तक है. ये आवाजें हजारों लोगों को जागने का आह्वान करती हैं. 
"कांकर- पाथर जोड़ कर मस्जिद लई चिनाय 
ता चढ़ मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय?"
बरसों पहले कबीर न जाने क्यों ऐसा लिख गए? तो क्या अब कबीर बाबा को ख़ारिज करें?    

गलती नौ जनों की है -अमेरिका और यूरोप तक परेशान हैं इनसे

नौ लोगों को पकड़ना कोई मुश्किल काम नहीं है. एक थानेदार भी आसानी से पकड़ कर इन्हें जेल में डाल सकता है. लेकिन आखिर कायदा-कानून भी कोई चीज़ है, कोई भी, कहीं भी, कैसे भी इन्हें कैसे पकड़ ले? इन्हें देखा जा सकता है. इनकी तस्वीरें उतारी जा सकती हैं. इनके बारे में मीडिया में खूब लिखा जा सकता है. इनकी चिरौरी-बिनती करने के लिए हवन-यज्ञ किये जा सकते हैं. इनके चाल-चलन पर छींटा-कशी की जा सकती है, लेकिन इन्हें पकड़ा नहीं जा सकता. सब थानों की अपनी-अपनी सीमा होती है,सब जगह की अपनी-अपनी पुलिस होती है. ऐसा नहीं है कि कोई भी हथकड़ी लेकर जाये और इन्हें धर ले.
ये नौ चाहे जिसकी जन्म-कुंडली बदल दें, इनकी चाल नहीं बदली जा सकती. 
आपका अनुमान बिलकुल सही है. बात नौ ग्रहों की ही की जा रही है. 
हम सब ग्लोबल-वार्मिंग को लेकर परेशान थे कि इन्होंने कुपित होकर ग्लोब को ठंडा कर दिया. हम भाप बन कर उड़ते पानी से पेड़-पौधों के सूखने की चिंता में थे कि इन्होंने आसमान से बर्फ की झड़ी लगा दी. हम एक-दो-तीन गिन रहे थे कि इन्होंने माइनस दस-बीस-तीस का राग छेड़ दिया.
क्या माना जाय?क्या मानव की करनी से ईश्वर का अपनी बनाई दुनिया के प्रति उत्साह ठंडा हो गया?        

Thursday, February 2, 2012

सत्ताधीशों के हुकुम की गुलाम- सांख्यिकी अर्थात स्टेटिस्टिक्स

एक राजा था. उसकी प्रजा में सौ आदमी थे. राजा के महल में अपार दौलत थी. खजाने में बेशकीमती हीरे-जवाहरात से लेकर असंख्य स्वर्ण-मुद्राएँ भरी थीं. प्रजा के पास कुछ न था. जो कुछ पैदावार खेतों में होती, राजा लगान में ले लेता. वक्त पड़ने पर लोग महल में आकर हाथ फैलाते और शासन से उधार लेते.यह उधार कभी चुकने में नहीं आता. 
घूमते-घूमते एक दिन एक फ़कीर उधर आ निकला. उसकी भेंट राजा से भी हुई. फकीर राजा से बोला- आपके राज्य में गरीबी बहुत है. प्रजा के पास रोटी कपड़ा मकान की भी माकूल व्यवस्था नहीं है. यह सुन कर राजा क्रोध से तमतमा गया. बोला- क्या बात करते हो ? मेरे राज्य में हर आदमी करोड़पति है.फकीर मुंह बाये देखता रहा. राजा ने उसे समझाया- मेरे खजाने में सौ करोड़ से ज्यादा मुद्राएँ प्रति वर्ष आती हैं. राज्य की कुल जनसँख्या है- सौ. तो राज्य की प्रति व्यक्ति आय करोड़ से ज्यादा हुई या नहीं. फकीर राजा का लोहा मान गया और जोर-जोर से राजा की जय बोलने लगा. 
कहानी ख़त्म होते ही फकीर चला गया और एक दिन भारत के प्रधान मंत्री के सपने में आया. प्रधान मंत्री ठीक से सो नहीं पा रहे थे, अपने देशवासियों की गरीबी की चिंता उन्हें हो रही थी.वैसे ऐसी चिंता उन्हें कभी होती नहीं थी पर ज़ल्दी ही चुनाव होने वाले थे, इसलिए उन्हें गरीबी की नहीं, बल्कि गरीबी के असर की चिंता थी. फकीर उनके सपने में था ही, फकीर ने न जाने कैसा मंत्र पढ़ा कि थोड़ी देर में सपने में प्रधान मंत्री की जय-जय कार होने लगी. देश के हर भिखारी  के कटोरे में तरेपन-तरेपन हज़ार रूपये दिखने लगे.     

Wednesday, February 1, 2012

आजकल कोई होता नहीं है पर वो था

आजकल कोई तटस्थ या निष्पक्ष नहीं होता. किसी अपवाद की बात हम न करें, क्योंकि अपवाद तो अपवाद ही होते हैं, मुश्किल से मिलते हैं. लोग किसी न किसी तरफ होते हैं. कोई धर्म से संचालित है, कोई जाति से, कोई समाज से, कोई परिवार से. और कुछ नहीं तो पैसे या स्वार्थ से ही संचालित हैं लोग. उधर बोलेंगे जिधर स्वार्थ होगा. सांसदों से कभी भी पूछिए- क्या तुम्हारा भत्ता चौगुना बढ़ना चाहिए, फ़ौरन बोलेंगे- हाँ, और वह भी एक स्वर से, बिना किसी अपवाद के. सरकारी कर्मचारियों से पूछिए- क्या तुम्हें हर साल प्रमोशन और तुम्हारे सारे घर को पेंशन मिले? उनका उत्तर 'हाँ' में ही होगा. ऐसा कहीं कोई मुश्किल से ही मिलेगा जो यह कहे कि वेतन योग्यता और काम के हिसाब से ही मिलना चाहिए. 
आज मुझे एक ऐसा व्यक्ति मिला जो बिलकुल निष्पक्ष था. उसके आगे राजा और रंक में कोई भेद नहीं था.वह गोरे और काले में कोई भेद नहीं मानता था. अमीर-गरीब की अवधारणा से भी वह नावाकिफ था. सच पूछा जाये तो वह व्यक्ति भी नहीं था. उसका नाम था समय. 
आप सोचेंगे कि समय मुझे आज ही मिला हो, ऐसा कैसे हो सकता है? 
वास्तव में मेरा ध्यान आज ही इस बात पर गया कि समय कितना समदर्शी है. सब पर चौबीस घंटे का दिन लेकर ही गुजरता है. इतना बराबर का बंटवारा आज भला और किसका है? जो लोग महा-आलसी हैं, हर काम को घिसट-घिसट कर करते हैं, उन्हें भी समय दिन में चौबीस घंटे ही देता है और जो फ़टाफ़ट सारा काम झटपट निपटाते  हैं, उन्हें  भी पूरे चौबीस घंटे दे देता है.समय जैसी निष्पक्षता सब को क्यों नहीं आती?    

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...