सूरज उगता तो रोज़ है पर चुपचाप उग जाता है. उस से सोते हुए इंसान को जगाने के लिए कोई आहट नहीं होती. शहर में बहुत सारे लोगों को सुबह-सुबह काम पर जाना होता है. कोई अखबार बांटने जा रहा है तो कोई दूध बांटने. कोई स्कूल-कॉलेज के लिए तैयार होना चाहता है तो कोई जाने वालों को खाने का टिफिन देने के लिए उठना चाहता है. किसी की मिल उसे पुकारती है तो किसी के खेत. किसी को सुबह-सुबह भगवान का साक्षात्कार चाहिए तो किसी को सेहत के लिए ताज़ी हवा में दौड़ना है.
अब ये सब क्या अपने-अपने मोबाइल में अलार्म बजाएं?क्या उठने और न उठने की अनिश्चितता में आधी नींद सोयें? क्या अपने-अपने काम में लेट-लतीफ़ कहलाने का जोखिम उठायें?
सुबह छह बजे मस्जिद से अज़ान की मोहक आवाज़ आती है जो महल्ले भर में सुनाई देती है.उतनी ही सुबह मंदिर से निराली आवाज़ गूंजती है, जिसकी पहुँच दूर-दूर तक है. ये आवाजें हजारों लोगों को जागने का आह्वान करती हैं.
"कांकर- पाथर जोड़ कर मस्जिद लई चिनाय
ता चढ़ मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय?"
बरसों पहले कबीर न जाने क्यों ऐसा लिख गए? तो क्या अब कबीर बाबा को ख़ारिज करें?
उनका बस चलता तो वे रामानन्द के इस बुनकर शिष्य को जीते-जी ही खारिज कर देते। लेकिन कर नहीं सके, इस तथ्य में आशा की अमर किरण छिपी है।
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