Thursday, February 23, 2012

थोड़ी देर और ठहर [ भाग-दो]

     विक्रमादित्य की आत्मा संजीदगी से मुझसे पूछ रही थी- क्या आप किसी मिस्टर  कबीर को जानते हैं?
मैं हैरान रह गया. मेरी जेब का सफ़ेद चूहा अब ज़ोर-ज़ोर से हँस रहा था.यदि मैंने अपनी सीट-बेल्ट अभी तक बाँध कर न रखी होती तो मैं सचमुच डर से उछल पड़ता. चूहा भला क्यों हँस रहा है? ये है कौन?
     चूहा बोलने लगा.उसने बाकायदा अपना परिचय दिया, लेकिन मुझे नहीं, उस विक्रमादित्य की आत्मा को, जो मेरी जेब में रखे सिंहासन से निकल कर चूहे के पास आई थी. चूहा ज़ोर-ज़ोर से बोल रहा था- "काँकर-पाथर जोड़ के, मस्जिद लई चिनाय,ता चढ़ मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ..."मुझे लगा कि चूहे की आवाज़ सुन कर अभी कोई एयर-होस्टेस आ जाएगी, और फ्लाइट में तहलका मच जायेगा. मुझे यह भी डर था कि आसपास काफी सारे हज-यात्री बैठे थे जो चूहे की बात पर भड़क सकते थे. चूहा झूम-झूम कर मस्ती में बोले जा रहा था, जैसे किसी कार्निवाल में दर्शकों को जुटाना चाहता हो. इतना ही नहीं, बल्कि उसने विक्रमादित्य की आत्मा को मेरा परिचय भी दे डाला. वह लगातार मेरा मज़ाक उड़ा रहा था.कहने लगा-" ये ज़नाब कबीर के हिमायती ही नहीं, बल्कि उसके बड़े फैन रहे हैं, जिस कबीर ने मंदिर-मस्जिद का जम कर मज़ाक उड़ाया. हकीकत ये है कि आज सुबह-सुबह भी ये मस्जिद में अज़ान की आवाज़ सुन कर ही जागे हैं.इनका मोबाइल अलार्म नहीं बजा सका था, क्योंकि उसमें चार्ज कम था. यदि मस्जिद की वह आवाज़ नहीं होती, तो आज इनकी ये फ्लाइट मिस  हो सकती थी.इसी आवाज़ को सुन कर शहर के अखबार और दूध बेचने वाले लड़के अपना बिस्तर छोड़ कर जागे थे..."
     मैंने घबरा कर अपनी जेब पर हाथ मारा और चूहे को जेब के भीतर कर दिया. आत्मा भी सिंहासन की ओर दौड़ी. चूहा चुप तो हो गया था पर उसके दो दांत मेरी हथेली पर लग गए थे, जिन से खरोंच आ जाने से थोड़ा खून रिस रहा था. थोड़ी देर पहले कानों में लगाने के लिए एयर-होस्टेस ने जो रुई दी थी वह अभी भी मेरे पास थी. मैंने उसी से खून पौंछा और रुई को  डस्टबिन में डाल दिया.मेरे करीब बैठा लड़का यह सब नहीं देख पाया क्योंकि वह अपना टीवी चलता छोड़ कर ही टॉयलेट जाने के लिए केबिन में चला गया था. मैंने एकांत का फायदा उठा कर सामने पड़ी जूठे नाश्ते की ट्रे से एक बिस्कुट का टुकड़ा लेकर जेब में चूहे के लिए डाल दिया. आत्मा को भोजन देने के लिए तांत्रिक ने मुझे मना किया था,क्योंकि उसका सिंहासन रत्न-जड़ित था. 
     मैंने मन ही मन निश्चय किया कि अमेरिका  से लौटने के बाद मैं कबीर पर एक बड़ा आलेख लिखूंगा. 
     जहाज अब भी समुद्र पर से उड़ रहा था. धूप और शोख हो चली थी. आगे के केबिन से निकल कर एयर-होस्टेस हाथ में गर्म भाप उड़ाती ट्रे लेकर सामने से गुजरी तो चिकन-सूप की एक बाउल मैंने भी उठाली.लड़का अब सिगरेट पीने लगा था. गर्म सूप की चम्मच मैंने होठों से लगाई ही थी कि मेरी जेब से एक कंकर जैसी चीज़ बंदूख की गोली की तरह निकल कर लड़के के हाथ पर लगी. उसके हाथ से सिगरेट छूटते-छूटते बची, और वह अकबका कर दूसरी ओर देखने लगा. [जारी...]   

No comments:

Post a Comment

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...