Sunday, August 31, 2014

मनुष्यता का अर्थशास्त्र

जिस तरह संपन्न देशों में हर व्यक्ति को सामाजिक सुरक्षा कोड दिया जाता है, यदि उसी तरह हर व्यक्ति का मूल्य-मूल्यांकन [वैल्यू डिटरमिनेशन] करके उसे इंगित किया जा सके तो इससे किसी भी देश की केवल जनसंख्या के स्थान पर उस देश की जनसंख्या की गुणवत्ता और उसकी कुल जन-सम्पदा का वास्तविक मूल्य जाना जा सकता है। यह लगभग प्रति व्यक्ति आय और सकल राष्ट्रीय आय की तरह ही होगा, किन्तु इस गणना से किसी देश की जनसंख्या  का वास्तविक महत्व जाना जा सकेगा। इसके लिए देश के नागरिकों की उम्र,शिक्षा,आय,व्यय,संपत्ति,ज्ञान,कौशल,व्यवसाय आदि को आधार बनाया जा सकता है।अभी देखा जाता है कि कुछ देशों के नागरिकों की तो सब जगह मांग बनी रहती है जबकि कुछ देशों से अवांछित शरणार्थियों के रूप में जनसंख्या का पलायन होता है। इस व्यवस्था से कई लाभ होंगे-
-किसी देश की ताकत या महत्व का वास्तविक आकलन हो सकेगा, केवल जनसंख्या आधारित आंकड़ा पर्याप्त नहीं हो पाता।
-एक देश से दूसरे के बीच गुणवत्ता-पूर्ण जन-विनिमय हो सकेगा।
-"ब्रेन-ड्रेन" पर नियंत्रण किया जा सकेगा।
-यह देश के भीतर भी नागरिकों के लिए विकास व उन्नति का एक अभिप्रेरक कारक होगा।
-विकासशील देश जन-मूल्य चुका कर भी वांछित जनशक्ति का आयात कर सकेंगे। इसी तरह वे जन-सम्पदा बेच भी सकेंगे।
-अत्यंत कम जनसंख्या वाले संपन्न देश भी वांछित जन -शक्ति खरीद सकेंगे।
-व्यक्तित्व का भू-मंडलीकरण होगा।                   

Wednesday, August 27, 2014

मैंने चाहा कि बता दूँ मैं हक़ीक़त अपनी, तूने लेकिन न मेरा राज़.…

मार्ग का मतलब है रास्ता
दर्शक का मतलब है देखने वाला
हिंदी बहुत आसान और स्पष्ट भाषा है, सहज, सरल।  इसमें न तो क्लिष्टता है,न ही किसी किस्म का दुराव-छिपाव।
कुछ लोग दर्शक से तात्पर्य "दिखाने वाला"भी समझ लेते हैं।  यह कैसे संभव है?
यदि हिंदी की प्रगतिशीलता के अंतर्गत शब्द गढ़ने का प्रयत्न भी किया जाए, तो दिखाने वाले के लिए 'दिखावक' या 'दर्शावक' जैसा कुछ होना चाहिए।
'मार्गदर्शी' भी ऐसा ही है।
अब ये तो सब टाइम-टाइम की बात है।  जब खाप पंचायत का ज़ोर बढ़ा तो लोग एम्पायर को भी 'खेलपंच'कहने लगे।
हाँ,अब अगर सरकारी अफसर बनने वाले बच्चे न्यूयॉर्क की किसी बिल्डिंग को "खेलपंच राज्य भवन"कहने लगें तो दोष हिंदी का थोड़े ही माना जाना चाहिए।        

तय करें कि आप चेतन हैं या भगत?

कोई भी एक साथ चेतन और भगत नहीं हो सकता।  यदि आप चेतन हैं, अर्थात जड़ नहीं हैं, तो आप किसी की कही बात आँख बंद करके नहीं मान लेंगे।  आप अपनी चेतना में उसका तथ्यात्मक निरूपण करेंगे, और उसके आधार पर फैसला करेंगे।
यदि आप भगत हैं, अर्थात किसी के अन्धानुयायी हैं तो सोच-विचार से आपका कोई लेना-देना नहीं।  आपका आका, या जिसके आप भक्त हैं, वही आपका भाग्य-विधाता है।जो उसने कहा है, वही मानिए और जो उसे भाये वही कीजिये।
फ़िलहाल तो आपको यह तय करना है कि  आप साईं बाबा को भगवान मानें या नहीं !
उसके बाद यदि समय मिले तो बाकी बातों पर भी विचार कर लीजिये- मसलन, कहाँ घर लेंगे,बच्चों को कहाँ पढ़ाएंगे, अपनी बचत कौन से बैंक में रखेंगे, कार लेंगे या फ़िलहाल दोपहिया से काम चलेगा, शाहरुख़, आमिर,ऋतिक वगैरह को थियेटर में देखेंगे या टीवी पर, मिल्खा को भारतरत्न दिलाना चाहेंगे या मैरीकॉम को, क्रिकेट खेलेंगे या कबड्डी, दिल्ली- संसद की मानेंगे या धर्मसंसद की।        

Sunday, August 24, 2014

"कार्टिलेज एज"

यह समय "कार्टिलेज" समय कहा जा रहा है।  क्योंकि यह समय सख्त इंसानियत पर कोमल मुलम्मे का नहीं है।  यह कोमल इंसानियत पर कार्टिलेज जैसे अर्धसख्त आवरण का समय है।  कुछ लोग कोमल इंसानियत को लिजलिजी मनुष्यता भी कह रहे हैं।  उधर कुछ लोग मुलम्मे को पूर्ण सख़्त मानते हुए इसे 'बोन'समय भी कहते दिख रहे हैं।  उनका तात्पर्य अस्थि-समय से है।
यह सब कहाँ हो रहा है, और ये है क्या? इसका मतलब क्या है, और इस से होगा क्या? यही जानना चाहते हैं न आप?
कोई कह रहा है कि अब विश्व युद्ध हो ही जायेगा।  कोई-कोई कह रहा है कि विश्व युद्ध होने की आशंका एक अर्ध-उजागर सत्य है।  यह सम्भावना न तो पारदर्शी है, और न अपारदर्शी।
इसमें से सत्य की चंद रश्मियाँ निकलती ज़रूर दिखती हैं, किन्तु उनकी प्रखरता संदिग्ध है।
घिनौने घोंघे की तरह सब हो रहा है।  घोंघा सागर में नहा कर भी मटमैला ही रहता है।वह भैंस के दूध की भांति धवल नहीं हो सकता।  उसे होना भी क्यों है? उसका न कुछ बनेगा न ही बिगड़ेगा।
कहा न, ये कार्टिलेज समय है।       

Friday, August 22, 2014

रस्ते में हो गई शाम

"रस्ते में हो गई शाम" संस्मरणों की श्रृंखला है, जिसके अगले भाग में आप पढ़ेंगे कुछ पलों की शेयरिंग - निर्मल वर्मा, विद्या निवास मिश्र,अज़गर वज़ाहत,मेहरुन्निसा परवेज़,सूर्यबाला,चित्रा मुद्गल,राजेंद्र यादव, कमलेश्वर, तेजेन्द्र शर्मा, धीरेन्द्र अस्थाना,अरविन्द,मधुदीप, धनञ्जय कुमार, दामोदर खडसे,दुर्गा प्रसाद अग्रवाल, आलोक श्रीवास्तव, नन्द भारद्वाज,वेदव्यास, गोविंद माथुर, प्रेमचंद गांधी …
"कुछ लोग जीवन में इस तरह मिलते हैं कि घंटों साथ बैठ कर जैसे अलाव तापें और करें बातें।
कुछ इस तरह भी, कि माचिस की जलती तीली के क्षणिक उजास में आप देख लें किसी को "-प्रबोध कुमार गोविल          

Thursday, August 21, 2014

तारे आइने में

बशीर बद्र ने कहा है- "मैं तमाम तारे तोड़ कर उन्हें मुफलिसों में बाँट दूँ, बस एक रात को आसमां का निज़ाम दो मेरे हाथ में "
शायद इसी से प्रेरणा लेकर मास कम्युनिकेशन और फिल्म स्टडीज़ के एक युवा अध्यापक ने कुछ सितारे तोड़ कर अपने छात्रों में बाँट दिए, और उन्हें असाइनमेंट के रूप में बॉलीवुड के "कपूरों" के बीच बाँटने को कहा।आइये देखें, छात्रों ने कैसे किया ये बंटवारा !
- शक्ति कपूर, तुषार कपूर,राजीव कपूर, करण कपूर,कुणाल कपूर, सोनम कपूर,रणधीर कपूर,संजय कपूर, [*]
-पिंचू कपूर, नीतू कपूर, संजना कपूर, कमल कपूर,शशि कपूर,श्रद्धा कपूर,करिश्मा कपूर,[* *] 
-शाहिद कपूर,एकता कपूर, करीना कपूर, पृथ्वीराज कपूर,रणबीर कपूर,[* * *]
-पंकज कपूर, जेनिफ़र कपूर, अनिल कपूर,विद्या बालन कपूर,शम्मी कपूर,[* * * *]
-ऋषि कपूर ,श्री देवी कपूर, राज कपूर,[* * * * *]          

Wednesday, August 20, 2014

आपकी बात तो सही है पर.…

उत्तर प्रदेश, बिहार, असम और कुछ हिस्सों में भारी वर्षा से पिछले दिनों तबाही हुई। बाढ़ के हालात अब भी बने हुए हैं।
धरती प्यासी थी, अम्बर ने जल बरसा दिया। क्या अनहोनी हुई?
लेकिन आसमान जब पृथ्वी को तोहफा देने आया, तब अगवानी की व्यवस्था तो हमारी थी न ?हमने क्या किया?
अभी मैं ट्विटर पर देख रहा था, किसी ने कहा- यदि ऐसी बाढ़ पाकिस्तान में आई होती तो मुंबई की फ़िल्मी दुनिया में डोनेशन देने की प्रतियोगिता शुरू हो गई होती।
मैं सोच रहा हूँ,कि किसी के ऐसा बयान देने के पीछे क्या बात हो सकती है?
-शायद वह इस बात से नाराज़ हों कि हम लोग दूसरों की मदद तो कर देते हैं, पर अपनों की नहीं करते।
-भारत की फिल्म नगरी पाकिस्तान से वाहवाही लूटने को बेताब रहती है।
-बॉलीवुड से मौजूदा पांच-पांच सांसद और ढेरों भूतपूर्व सांसद हैं,वे कुछ करते क्यों नहीं?
-बाढ़ में जाए पाकिस्तान?
शायद उन्हें मालूम नहीं कि बॉलीवुड के "सौ करोड़ क्लब","दो सौ करोड़ क्लब" कमाने के हैं,बांटने के नहीं!          

 
  

Tuesday, August 19, 2014

गरीब

कुछ लोग गरीब हैं।  दुनिया के हर कौने में गरीब हैं, कहीं कम कहीं ज्यादा।  गरीब की परिभाषा पर दुनिया एक मत नहीं है।  कहीं गरीबी को आय से जोड़ा जाता है तो कहीं खर्च से।
गरीब कौन हैं?क्यों हैं? कैसे हैं? यह सब विधिवत अध्ययन की चीज़ें हैं।
कुछ समय पूर्व एक गाँव में बाढ़ आई।  एक किसान के बाड़े में दो भैसें बंधी हुई थीं।  बाढ़ की अफरा-तफरी में गाँव खाली होने लगा।  भैसों की किसे परवाह होनी थी, सब अपनी जान बचा कर भाग रहे थे।  थोड़ी ही देर में गाँव में सन्नाटा हो गया।  रस्सी से बंधी होने के कारण भैंसें कहीं न जा सकीं।  पानी चढ़ता रहा।  जब भैसों की ऊंचाई से भी ऊपर निकल गया तो कुछ देर भैसों ने ज़मीन से ऊपर उठ कर तैरने की चेष्टा की।  सब जानते हैं कि भैसें पानी में तैर कर आनंदित होती हैं।  लेकिन कुछ देर बाद थकान और अचम्भे के कारण भैसों का आनंद हताशा और डर में बदलने लगा।उनके तैरने या हिल-डुल सकने की जद बस उतनी ही थी, जितनी रस्सी की लम्बाई। अलबत्ता बहते पानी में दिशा अवश्य दोनों की तितर-बितर हो रही।
घंटों बीत गए थे।भूख के तेवर भी उत्पाती थे।
कुछ देर बाद एक हरे पेड़ की डाली पानी में बहते-बहते एक भैंस के मुंह के नज़दीक अटक गई।
अब दोनों भैसों की आर्थिक, शारीरिक, और दैवी स्थिति में विराट अंतर था।         

इतिहास क्यों पढ़ते हैं लोग?

कुछ दिन पहले भ्रमण पर जाते एक ग्रुप को शुभकामनायें देते-देते मेरे मुंह से सहसा निकल गया- "वहां की कुछ अच्छी पिक्चर्स लाना।"  बी.एस सी. प्रथम वर्ष में पढ़ने वाली, मेरे मित्र की सुपुत्री ने एक पल अजीब सी नज़र से देखा- मानो, वह मेरी कही बात को समझने की कोशिश कर रही हो। मुझे भी लगा कि शायद वह मेरी बात समझ नहीं पाई।  तभी एकाएक वह बोली- "ओह पिक्स? ज़रूर अंकल !"
वे लोग तो चले गए, किन्तु मुझे बैठे-बैठे याद आया, कि कुछ वर्ष पहले बच्चे ये जानते थे कि पिक्चर एक शब्द है और पिक्स उसका संक्षेप।
मुझे ठीक से याद है , उससे कुछ और पहले के बच्चे अच्छी तरह जानते थे कि फोटो, तस्वीर, चित्र, पिक्चर सब एक ही हैं।
तो अपनी याददाश्त की टॉर्च को इतिहास की ओर फेंकिए, कभी-कभी जितना पीछे जाते जायेंगे, लगेगा जैसे उजाला बढ़ रहा है।
लेकिन ये सब एकदम चुपचाप कीजियेगा,  गली ने नुक्कड़ पर जाने के लिए स्कूटी निकालते किसी बच्चे से ये मत कहियेगा कि आपके दादाजी, दो घंटे में पांच मील पैदल चल लेते थे।  वह आप को यह कह कर फ़ौरन नीचा दिखा देगा कि "अंकल,मैं तो दो घंटे में मुंबई से अहमदाबाद चला जाऊंगा, बुलेट ट्रेन आने दीजिये !"और शायद आप सोचते रह जाएँ कि इसके लिए इसके पिता को कितना पैसा छोड़ना चाहिए? तिलिस्मी भविष्य में "घुटना बदलना" कोई बच्चों का खेल थोड़े ही रह जायेगा? अलबत्ता,ये भी हो सकता है कि तब हस्पतालों के प्रवेश द्वार पर बोर्ड लगे हों-"इट्स फ्री"      

Monday, August 18, 2014

सैर- सपाटा

 अलमस्त लहराकर बोलने की हमारी चाहत हमसे कई शब्द फ़िज़ूल बुलवाती है। घर-वर,खाना-खूना, रोटी-शोटी,मार-काट जैसे हज़ारों शब्द-प्रयोग हम रात-दिन कहते-सुनते हैं।
इनमें कई बार सार्थक संगत शब्द भी होते हैं, तो कई बार निरर्थक दुमछल्ले भी।
क्या आपने कभी सोचा है कि "सैर-सपाटा" हम क्यों बोलते हैं? सैर का सपाटे से क्या लेना-देना !
यह शब्द हिंदी को [हिंदी की पूर्ववर्ती भाषाओँ को] गणित ने दिया है।
चौंक गए न ?
आइये देखें-कैसे !
जब हम रोज़ाना में अपने घर में होते हैं तो तन-मन-धन से घर में होते हैं। हम जैसे चाहते हैं,वैसे रहते हैं।जो खाना है, खाते हैं, जो चाहते हैं पहनते हैं, जैसे चाहें रहते हैं।
घूमने-फिरने या भ्रमण के लिए निकलते ही कुछ परिवर्तन होते हैं।
हमें नई जगह की फ़िज़ा और औपचारिकता के तहत वस्त्र पहनने पड़ते हैं। जहाँ कुछ खर्च नहीं हो रहा था या कम हो रहा था, अब बढ़ जाता है। शरीर को कुछ आनंद मिलते हैं तो कुछ कष्ट।  मन और मूड भी बदल जाते हैं। खान-पान तो खैर बदलता ही है,घर में परहेज़ करने वाले बाहर चटखारे लेते देखे जा सकते हैं।
इन सारे परिवर्तनों का एक ग्राफ बना लीजिये। आप देखेंगे कि जमा पैसा घट गया है,खान-पान का अनुशासन घट गया है। मन का आनंद बढ़ गया है।  अर्थात तन-मन-धन का "गणित" हिल गया है। इस ग्राफ में कुछ घट कर नीचे गया है, और कुछ बढ़ कर ऊपर आ गया है। इस ग्राफ की लहर जैसी रेखा पहले से कहीं "सपाट" हो गई है।
सैर से यही सपाटा तो करके लौटते हैं आप !
                  

Sunday, August 17, 2014

कबड्डी-कबड्डी-कबड्डी

अच्छा लगता है कबड्डी जैसे खेल का लोकप्रिय होना। इस पर बड़े-बड़े लोगों का ध्यान जाना। इसके लिए सुविधाएँ जुटाने की मुहिम का शुरू होना। खिलाड़ियों को मान-सम्मान और धन मिलना, मीडिया में उनका रंग उड़ना।
क्या आप जानते हैं-
क्रिकेट जैसे खेल में एक टीम के बल्ले और दूसरी टीम की गेंद के बीच जंग होती है। बैडमिंटन या टेनिस जैसे खेल में दोनों ओर के बल्ले एक गेंद या शटल कॉक पर प्रहार करते हैं। फ़ुटबाल में दोनों दल एक बॉल के लिए झगड़ते हैं। बास्केटबॉल, हॉकी में भी निर्धारित स्थान तक बॉल का सफर होता है।  शतरंज में दो दिमाग झगड़ने के लिए मोहरों का सहारा लेते हैं, लेकिन कबड्डी जैसे खेलों में खिलाड़ियों के शरीर हारजीत का फैसला करते हैं।
इस तरह कुश्ती, मुक्केबाजी,तैराकी और कबड्डी केवल बदन के खेल हैं।
यहाँ भी कुश्ती-मुक्केबाजी में एक दूसरे के शरीर को परे हटाया जाता है, तैराकी में पानी में अकेले रहते हुए पानी को हटाया जाता है, किन्तु कबड्डी में विपक्षी के बदन को अपनी ओर खींच कर रोका जाता है। तो हुआ या नहीं ये प्यार-भरा खेल? ये खेल बढ़ा तो मोहब्बत का सन्देश ही देगा।  चाहे दो शख़्स हों, दो दल हों, दो समाज हों, या दो देश !      
           

आभासी तारतम्य

कभी-कभी महिलाएं इसे "निगरानी" भी समझ लेती हैं, किन्तु वस्तुतः यह निगरानी से ज्यादा "हिफाज़त"का भाव है, जिसके तहत घर से बाहर जाने वाली लड़की-महिला से घरवाले आभासी संपर्क बनाये रखना चाहते हैं।  "कॉलेज तो पांच बजे छूट गया था, अब सात बजे हैं" या "कहीं जाना था तो फोन क्यों नहीं किया? और "जाना क्यों था?" आदि जुमलों में प्रथम दृष्टया कड़े अनुशासन का भाव दिखाई देता है, किन्तु यह रोक-टोक  से ज्यादा 'चिंता' की अभिव्यक्ति है। निश्चित ही कुछ महिलाएं इसे चिंता से ज्यादा "चाय-खाने के लिए प्रतीक्षा रत पुरुषों की उतावली भरी प्रतीक्षा" भी मानती हैं, जो कि कभी-कभी ये होती भी है।
लड़कों के साथ ये नहीं होता। कॉलेज पांच बजे छूटा तो रात ग्यारह बजे तक कहाँ थे-साथ में कौन-कौन था- क्या कर रहे थे- फोन क्यों नहीं किया?,यह सब लड़कों से नहीं पूछा जाता।
इस लापरवाही के चलते कहीं कोई ऊँच-नीच हो जाती है, तो पहले मनमोहन जिम्मेदार थे, अब मोदी जी हैं।
लोकतंत्र ऐसे नहीं चलते।  बच्चे सालभर पहले पढ़ते हैं, फिर जाकर तीन घंटे का इम्तहान देते हैं। सरकारों से दो-बात पूछने से पहले अपना-अपना साक्षात्कार सब कर लें तो शायद समस्याएं आधी रह जाएँ।
लेकिन ये किसी भी दृष्टि से सरकार या प्रशासन को क्लीनचिट या रिबेट देना नहीं है, केवल उसके काम में जन-सहयोग का आह्वान !   
   

Friday, August 15, 2014

अधूरे जुमले

जरुरी नहीं, कि महान लोगों की हर बात महान ही हो।  कई बार वो ऐसी बात कर जाते हैं कि आपको झुंझलाहट होने लगे।
अब देखिये- गांधीजी ये तो कह गए कि यदि कोई तुम्हारे एक गाल पर चाँटा मार दे तो दूसरा भी उसके आगे कर दो, पर यह बता कर नहीं गए कि यदि वह दूसरे गाल पर भी चाँटा मार दे तो क्या करना है।
इसी तरह महाकवि कबीर ने यह फ़रमान तो जारी कर दिया कि निंदक नियरे राखिये, पर यह नहीं बता कर गए कि यदि चारों तरफ निंदक ही निंदक जमा हो जाएँ तो क्या करें।
एक राजा अपने राज को ठीक से संभाल नहीं पा रहा था, तो जनता ने ज़ोर लगा कर उसका तख्ता पलट दिया। दूसरा राजा आ गया।
पहले राजा ने सोचा, चलो अब विश्राम ही कर लें,किन्तु राजा के दरबारियों के सामने समस्या आ गई कि अब क्या करें। कुछ करके थके तो थे नहीं, सो विश्राम क्या करते।  उन्हें कुछ बुद्धिवानों ने समझाया- अरे, पहले स्तुति करते थे तो अब निंदा करो।
दरबारी बोले-लेकिन यदि नया राजा कोई गलती नहीं करे तो?
बुद्धिवानों ने समझाया-अरे मूर्खो, कुछ पढ़े-लिखे हो या नहीं? राजा बोले तो कहना-"देखो, ऑक्सीजन भीतर ले रहा है, और कार्बन डाई ऑक्साइड बाहर छोड़ रहा है।
एक दरबारी बोल पड़ा- और यदि वह चुप रहे तो?
बुद्धिवान ने कहा-तब कहना -"ये भी पहले वाले राजा जैसा, ये भी पहले वाले राजा जैसा!"        

Wednesday, August 6, 2014

प्राण निकल गए

ऐसा बहुत ही कम होता है जब आपकी खींची लकीर आपसे बड़ी हो जाये।  मक़बूल फ़िदा हुसैन की सबसे मशहूर पेंटिंग के सामने खड़े होकर भी आप दांतों तले अंगुली तभी दबाते हैं, जब आपको बताया जाये कि ये हुसैन साहब का शाहकार है।
लेकिन दुनिया भर के करोड़ों बच्चे जब साबू और चाचा चौधरी को देखते हैं तो उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं होती कि इनके "चाचा" कौन हैं ? अर्थात इन्हें किसने बनाया है।
ऐसा करिश्मा तभी हो पाता है जब रचने वाले ने रचना में प्राण भरे हों।
हम-आप भले ही यह सोच कर उदास हो लें कि प्राण अब नहीं रहे, बच्चे तो उदास हो ही नहीं सकते, जब तक उनके बिल्लू,चाची,साबू और चाचा चौधरी उनके साथ हों। और वे हमेशा रहेंगे। उनके प्राण कभी नहीं निकल सकते।
शायद प्राण को मालूम था कि किसी के दिल से बचपन कभी नहीं जाता।  इसीलिए उन्होंने बचपन के इर्द-गिर्द लकीरें खींचीं।
मैं जब रज़िया सुल्तान फिल्म देख रहा था, तो अपने मन में सोच रहा था कि हेमा मालिनी [रज़िया] कभी किसी मुसीबत में नहीं पड़ सकती, क्योंकि उसके साथ उसका "साबू" है।          

Tuesday, August 5, 2014

पहिये का खून

वो हज़ारों सालों तक धरती के भीतर पड़ा सड़ता रहा, मगर किसी ने भी उस पर ध्यान न दिया।  बल्कि धरती पर जो कुछ भी अवांछित, बेकार, और मैला होता वो सब जाकर उसी में मिल जाता। उसकी न किसी को ज़रुरत होती, और न याद ही आती।
इंसान तब अपने पैरों से चलता था। और पैरों में खून होता था। तो उसकी क्या ज़रुरत?
लेकिन पहिये का अविष्कार हो जाने के बाद इंसान को अपने पैरों से नापी दूरियाँ छोटी लगने लगीं। इंसान जहाँ अपनी बिसात हो, पैरों से जाता,और उसके आगे पहिये से।
कुछ समय बाद इंसान को लगा, कि पहिये में भी पैरों की मानिंद खून हो, तो और आगे तेज़ी से जाया जा सकता है।और तब धरती के नीचे दबे इस पेट्रोल की उसे याद आई। ये ही पहिये का खून बन गया।
खून सस्ता थोड़े ही होता है? न इंसान का और न पहिये का। लिहाज़ा इसके दाम बढ़ते गए।
अब इसके दाम रोज़ बढ़ते हैं।  कुछ लोग ये ही सोच के खुश होते हैं कि चलो,ये बेतहाशा दुर्लभ और कीमती हो गया तो इंसान दूर के ढोल बजाना छोड़ आसपास की सुधि लेना भी शुरू करेगा।
मगर बहुत से लोग इस बात से चिंतित भी रहते हैं कि पेट्रोल पहुँच से दूर हो गया तो कहीं हम वापस "कुए के मेंढक" न बन जाएँ।                

Sunday, August 3, 2014

साहित्य के अच्छे दिन- एक साक्षात्कार !

जब ये पूछा पार्टी, क्यों हारी ये जंग?
बोलीं सब बतलाऊँगी,लिख दूंगी एक छंद!

कैसे हो गए रोज़-रोज़, घोटाले चहुँ ओर?
बोलीं, कविता में कहूँ, कौन-कौन था चोर!

कौन विरोधी से मिला, कौन आपके साथ?
-ग़ज़ल कहूँगी एक दिन, होगा परदा फ़ाश !

जमाखोर भरते रहे, कौन तिजोरी माल?
-सबका सुनना एक दिन, लघुकथा में हाल!

मँहगाई बढ़ती रही, फूला भ्रष्टाचार !
-रुकिए बनने दीजिये, मुझे कहानीकार

इतना कहिये पॉलिटिक्स, अच्छी या खराब?
-बाबा थोड़ा ठहरिये, पढ़ लेना "किताब" !


Saturday, August 2, 2014

पढ़ा लिखा कलियुग !

लोग करें बदनाम व्यर्थ ही कलियुग को देखो
त्रेता- द्वापर-सतयुग से ये कैसे कम ? देखो !
त्रेता ने उठवाई सीता, रंगे रक्त से हाथ राम ने
द्वापर में हत्या करवाई कंसराज ने कर्म कांड से
हुए फैसले चीरहरण से, जुआ खेलकर राज चले
अब तो बस "किताब" से भैया, लगी-बुझी का खेल चले! 

डॉ राधाकृष्णन,वी वी गिरी और मार्गरेट अल्वा

मुझे याद है, बचपन में एक बार राष्ट्रपति भवन में जाना हुआ तब वहां डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन रहते थे।
हमें बैठा दिया गया, और फिर एक व्यक्ति ने आकर हमारी क्लास ली।  हमें औपचारिकताओं के "डूज़ एंड डोंट्स" समझाए गए।
कुछ देर बाद एक विशाल दरवाजे से राष्ट्रपति महोदय आये,तो ऐसा लगा, मानो कुछ लोगों द्वारा उनका कोई चित्र झांकी की तरह धीमी गति से हमारे बीच लाया गया हो।  कुछ देर के वार्तालाप के बाद मुलाक़ात का पटाक्षेप हो गया।
मन में एक अनजान सा जो भय समा गया था, वह तिरोहित हुआ, और हम बाहर आये।
लगभग ऐसा ही अनुभव कुछ साल बाद उस समय भी हुआ, जब वराहगिरि वेंकटगिरि राष्ट्रपति थे।
आज यह वाक़या इसलिए याद आ गया, क्योंकि राजभवन में राज्यपाल श्रीमती मार्गरेट अल्वा को सुनते हुए कुछ बातों का अंतर मुखर होकर दिमाग में आया।
डॉ राधाकृष्णन को देखकर हमें लगा था कि जैसे हमारे साथ-साथ राष्ट्रपति भवन की औपचारिकताओं से वे भी असहज हैं और चारों ओर फैले बेशकीमती इंफ्रास्ट्रक्चर के तामझाम से संगत बैठाने की मुहिम का तनाव वे भी झेल रहे हैं। ऐसा लगता था जैसे कोई ज़बरदस्त लोक है, जिसमें रहने के योग्य उन्हें, या उसमें घुसने के योग्य हमें, बनना है। वहां हम क्या करेंगे, क्या खाएंगे-पिएंगे, इसका इल्म न हमें है, और न उन्हें।
राज्यपाल महोदया के साथ ऐसा लगा,जैसे हम उनके घर में हैं।  वे हमें जिस तरह बैठाना चाहती हैं, बैठा रही हैं, जो खिलाना चाहती हैं, या हम खाना चाहते हैं,खिला रही हैं, जो ठीक नहीं हो रहा, उस पर टिप्पणी कर रही हैं ।
राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के समय भी वहां परोसे जाने वाले भोजन या अल्पाहार पर उनकी छाप दिखाई देती थी।
यह आलेख महिला-विमर्श के अंतर्गत नहीं है, यह बीतते समय का मूल्यांकन भी नहीं है,यह भावातिरेक में की गई बीते बचपन की स्मृति-खोरी भी नहीं है। पर फिर भी एक बात आपसे संकोच सहित बांटना चाहता हूँ।
बचपन में मैं सोचा करता था कि यदि राष्ट्रपति को खुजाल हुई तो वह कैसे खुजायेंगे, उन्हें छींक आ गई तो वे क्या करेंगे, यदि उन्हें खांसी आई तो डेकोरम का क्या होगा?                      

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...