Friday, January 30, 2015

अहिंसा की मौत ?

मृत्यु जीवन पर विराम है।  लेकिन जिस मौत से जीवन शुरू हो गया हो, वह मृत्यु नहीं हो सकती।  वह केवल महाप्रयाण है, केवल पारगमन।  
जीवन और मरण किसी के हाथ में नहीं है।  
अगर माचिस की तीली रगड़ खाकर जल उठे और राख हो जाए तो यह उस तीली की मृत्यु नहीं है। यह तो प्रकाश अथवा अग्नि के लिए वांछित सहज क्रिया है।  
यदि तीली अनंत काल तक सुरक्षित डिबिया में बंद में पड़ी रहे तो उसका बचे रहना शायद उसकी मौत है।  
अहिंसा का अर्थ है-प्रहारक, मारक,आतताई,विंध्वंसक दुरशक्तियों के विरुद्ध उन्हें भस्म कर देने वाली निस्सीम शांति से भरी सहज अवस्थिति।
अहिंसा की मौत नहीं हो सकती क्योंकि तथाकथित मृत्युकारक ये शक्तियां सीमित बल वाली हैं, जबकि अहिंसा अनंत बलशाली।  
आइये, अहिंसा का ध्यान करें, अहिंसा का मान करें।  हिंसा के मानमर्दन की यही स्वाभाविक प्रक्रिया है।        

Sunday, January 25, 2015

तंत्र तो तंत्र, गण भी

 गणतंत्र दिवस शुरू हो गया है।  कुछ घंटों के बाद राजपथ पर देश एक जीवंत हलचल का साक्षी बनेगा।  विश्व के सबसे शक्तिशाली देश के सर्वोच्च नागरिक बेहद खास मेहमान के रूप में आज की रात दिल्ली में हैं।  कहते हैं कि "जब घर में हों मेहमान तो कैसे नींद आये",लिहाज़ा देश जाग रहा है। आज देश की हर खास महफ़िल में रतजगा है।  आज आँखों-आँखों में यूँ ही रात गुज़र जाने वाली है।
कई लोग पद्म पुरस्कारों से खेल रहे हैं।  कब मिलेंगे, किसे मिलेंगे, की औपचारिक सूची अभी आई नहीं है लेकिन "उसे क्यों मिला, इसे क्यों नहीं, इसे देर से मिला, मैं तो नहीं लूँगा,मुझे तो काफी पहले मिल जाना चाहिए था, अरे, मुझे क्यों दे रहे हो भाई, मेरा नाम सूची में क्यों नहीं गया"सब तरह के जुमले तथाकथित बड़े और महान लोगों से देश सुन चुका है।
देश का संविधान लागू हुए पैंसठ साल बीत गए। इस लिहाज से संविधान भी हमारा "वरिष्ठ नागरिक"हो चुका है। लेकिन यह आज भी किसी को नहीं पता कि इस संविधान में धर्म और जाति के बारे में क्या लिखा है।कोई नहीं जानता कि आरक्षण देने के पीछे कौन सी भावना थी। किसी को इस बात से मतलब नहीं कि ये संविधान भाषा के सवाल पर क्या कहता है।
लेकिन फिर भी आज ये सब बातें करने का समय नहीं है।  आदमी कैसा भी हो, उसके मरे पर तो रोया ही जाता है। कितना भी निकम्मा,नाकारा या अयोग्य हो, उसके जन्म पर तो बधाई दी ही जाती है।
अमर रहे गणतंत्र हमारा !
आखिर गीता,कुरआन,बाइबल,रामायण जैसे ग्रन्थ रोज़ तो नहीं लिखे जाते। और ऐसे महान किसी ग्रन्थ को अपनाने का दिन, हो न हो खास ही होगा ! इस खास दिन की खास मंगलकामनाएं !                

Saturday, January 24, 2015

कारोबार के अछूते क्षेत्र

कहा जाता है कि विश्व की बढ़ती जनसँख्या और ज्ञान के त्वरित फैलाव के चलते हर व्यवसाय में जबरदस्त स्पर्धा का माहौल है।  कई युवा उद्यमी जिंदगी की शुरुआत के बहुत से कीमती साल इसी उधेड़बुन में निकाल देते हैं कि वे क्या करें।
ऐसे में यदि आपको व्यवसाय के कुछ ऐसे क्षेत्र मिलें, जिनमें फिलहाल कोई स्पर्धा नहीं है तो सोचिये, आपको कितना सुकून मिले।
दुनिया भर में अभी लाखों लोग "रंग गोरा" करने के व्यवसाय में हैं। तरह-तरह के पाउडर,क्रीम,लोशन आदि बाज़ारों में हैं जो आपको गोरा बनाते हैं। इनके निर्माता और विक्रेता ही नहीं बल्कि  'त्वचा का रंग' सफ़ेद कर देने के सन्देश लिए कई मॉडल्स तक रोज़ी-रोटी कमा रहे हैं।
ज़रा सोचिये, क्या दुनिया के सारे लोगों को सफ़ेद या गोरा रंग ही पसंद है?
बिलकुल नहीं ! ये तो पुराने दिनों की उस सोच का परिणाम है जब सब जगह गोरे लोगों का ही बोलबाला था, उन्हीं का सर्वाधिक जगहों पर शासन था और वे ही दुनिया के भाग्य-नियंता माने जाते थे।  ये मन्त्र भी उन्हीं दिनों, उन्हीं लोगों का रचा-गढ़ा है, जिसकी खुमारी अलसाये वर्तमान पर भी बेवजह तारी है।
वास्तविकता तो ये है कि दुनियाभर की सौंदर्य प्रतियोगिताओं में औसतन पांच साल में एक बार गोरी महिलाएं शिखर पर चुनी जाती हैं । मर्दों में भी सांवला,गेंहुआ,गन्दुमी,पक्का रंग बेहद पसंदीदा है, खुद उन्हें भी और उनकी चाहने वाली महिलाओं को भी । कुछ मुल्कों की आबो-हवा में तो एकदम सफ़ेद त्वचा बीमारी का संकेत समझी जाती है।
तो ऐसे में ज़रा ये भी सोचिये, कि क्या कोई क्रीम-पाउडर-लोशन बदन के रंग को सांवला सलोना भी बना रहा है? क्यों नहीं आप इस दिशा में सोचते !
इतना ही नहीं, दुनिया भर के कई देश रंग-भेद के खिलाफ हैं।  वे आपके प्रयासों को तरह-तरह से रियायत, छूट,सब्सिडी आदि देने की सोच सकते हैं।  कई मार्केटिंग,प्रचार और विज्ञापन के लोग मन से आप के साथ जुड़ेंगे, नामी-गिरामी मॉडल्स भी ! इस रंग-रंगीली दुनिया में अकेला सफ़ेद रंग कोई राजा नहीं !        

Wednesday, January 21, 2015

उसने कहा है

भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि हिंदी में काम करना सर्वोच्च न्यायालय के लिए संभव नहीं है, क्योंकि माननीय न्यायाधीशों को इसके लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।
इस खबर पर कई तरह की प्रतिक्रिया सुनने-पढ़ने को मिली।
कुछ लोगों का कहना है कि अब इस पर कुछ नहीं कहा जाना चाहिए क्योंकि यह "उसने कहा है"
कुछ लोग मानते हैं कि यदि संविधान-सम्मत राजभाषा में काम करने के लिए न्यायाधीशों को बाध्य नहीं किया जा सकता तो डाक्टरों, लेखाकारों,इंजीनियरों, तकनीकी अफसरों को कैसे बाध्य किया जा सकता है।
यहाँ सवाल केवल यह है कि यदि किसी की अपनी क्षमता सीमित होने के कारण वह हिंदी में काम नहीं कर सकता तो "भाषिक उदारता"का हवाला देकर उसे छूट प्रदान की जा सकती है, किन्तु 'काम न कर सकने वाले' यदि हिंदी को अक्षम मान कर इसमें काम नहीं करने का ऐलान कर रहे हैं तो फिर कोई भी हिंदी में काम क्यों करे? सर्वोच्च न्यायालय तो "सर्वोच्च" है,वह सरकार को भी सलाह दे, कि हिंदी को पढ़ाने-सिखाने और संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने के प्रश्न पर समय,धन और शक्ति व्यय न की जाये। हिंदी पढ़ने-लिखने वाले कम से कम आरम्भ से ही यह जान तो जाएँ कि वे यदि "अक्षम"भाषा पर धन और परिश्रम व्यय करेंगे तो यह उन्हीं का जोखिम होगा।
भारतीयों को यह जानने का हक़ तो है ही, कि जिस भाषा में वे लड़ लेते हैं, उसमें फैसले नहीं हो सकते। जिसमें वे अपराध करते हैं उस भाषा में दंड नहीं दिया जा सकता।  जिस भाषा में वे रो लेते हैं, उसमें उन्हें चुप कराना संभव नहीं!              

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

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