Saturday, April 11, 2015

मुनाफ़ा ही मुनाफ़ा

यह दिलचस्प है कि  इस मुद्दे पर भी लोग एकमत नहीं हैं। कुछ लोग कहते हैं कि  किसी भी समाज के लिए अमीर लोग लाभदायक हैं। और इसी बात पर कुछ लोगों का मानना है कि गरीब लोग ही समाज को मज़बूती देते हैं। आइये देखें, क्यों कहते हैं लोग ऐसा?-
अमीर लोग रोज़गार बढ़ाएंगे क्योंकि वे हर काम खुद नहीं कर सकेंगे लेकिन उन्हें हर काम चाहिए।  वे ज़्यादा उपभोग करेंगे जिससे अधिक उपभोग की प्रवृति बढ़ेगी जो कालांतर में उत्पादन बढ़ाएगी।वे संस्कृति से बंधकर नहीं रहना चाहेंगे, जिससे विकास के नए आयाम सुलभ होंगे।   
इसी तरह गरीब लोग उपभोग सीमित करेंगे जिससे बचत बढ़ेगी, और अर्थव्यवस्था में धन आसानी से सुलभ रहेगा। वे रोज़गार की चाह में रहेंगे जिससे विकासात्मक गतिविधियाँ बढ़ेंगी। उनकी सन्तुष्टिकारक मानसिकता समाज में संतुष्टि का स्तर बढ़ाएगी, जो किसी भी आर्थिक प्रक्रिया का अंतिम उत्पाद है।  वे संस्कृति सहेजने में रूचि लेंगे।
देखा आपने? देश में कोई गरीब हो या अमीर, देश के पौ बारह हैं। अर्थात मुनाफ़ा ही मुनाफ़ा।    
  

Tuesday, April 7, 2015

तो एक साधारण "भारतीय" किसे कहेंगे ?

आइये, देखें, कि हम अर्थात साधारण भारतीय कैसे हैं?
आज हमारा बैरोमीटर है इतिहास !
-आप कैकेयी और कौशल्या में से किसे ज़्यादा पसंद करते हैं?
-आप की नज़र में अर्जुन और एकलव्य में से कौन ज़्यादा श्रेष्ठ है?
-आप गौतम और आम्रपाली में से किससे ज़्यादा प्रभावित हैं?
-आप रवीन्द्र नाथ टैगोर और राजेश खन्ना में से किसका जीवन देश के लिए ज़्यादा उपयोगी मानते हैं?
-क्या आप भारत के नक़्शे के उस भाग के किसी भी एक शहर या गाँव का नाम बता सकते हैं, जो भारत-पाक के बीच विवादास्पद बताया जाता है?  

Friday, April 3, 2015

अब सवाल सिर्फ मात्रा का,किस्म का नहीं !

 अभी कोई ज़्यादा समय नहीं गुज़रा है जब हम भारतवासियों में "विदेशी" को लेकर ज़बरदस्त क्रेज़ था। हम हर बात में अपने को उनसे कमतर आंकते थे।  एक हीनभावना हमारी जड़ों में गहरे तक पैठी हुई थी। हम उनके हर माल, हर अदा, हर जलवे और हर जादू को ललचाई नज़रों से देखते थे। और हकीकत ये है, कि हम केवल ऐसा सोचते ही नहीं थे, बल्कि कई मामलों में ऐसा था ही।
हमारे कुछ दूरदर्शी नेताओं ने हमारी इस बेचारगी को भांपा।  इनमें केवल राजनैतिक नेता ही नहीं, सामाजिक,आर्थिक, वैज्ञानिक सोच वाले नेता भी शामिल थे।  इन सबके प्रयासों से एक मुहिम छिड़ी, और हर बात में विदेशी नक़ल, विदेश की बराबरी,विश्वस्तर से होड़ का सिलसिला शुरू हो गया।
नतीजा ये हुआ कि हमारा हर काम,सौ में से एक,उनके बराबर होने लगा।  सौ में से एक डॉक्टर,सौ में से एक इंजीनियर,सौ में से एक अर्थशास्त्री, सौ में से एक शिक्षक, सौ में से एक वकील,सौ में से एक व्यापारी विश्व-स्तरीय हो गया।
इस बात से इतना लाभ तो ज़रूर हुआ कि हमलोग हर बाहरी चीज़ को ही सब कुछ समझने की अपनी मानसिकता से उबरने लगे। लेकिन फ़िलहाल इसका एक नुकसान भी होता दिख रहा है।अब हम बाहर की किसी भी चीज़ को देखते ही तुरंत उसके मुकाबले पर उतर आते हैं और अपनी "सौ में एक"उपलब्धि को उसके समकक्ष रख कर झूमने लगते हैं। हम भूल जाते हैं कि जो सुविधा वे अपने "सब" लोगों को दे रहे हैं वही हम केवल सौ में एक भारतीय को दे पाते हैं।  इस तरह अभी हमें बहुत काम करना है, चाहे वह किस्म का नहीं, बेशक मात्रा का ही हो।  और किस्म में भी अभी गुंजाइश है।   
           

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

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