Friday, August 31, 2012

आज का सन्देश उन सबको समर्पित है, जो आज जन्मे हैं !

क्या आप बता सकते हैं कि  दुनिया में सबसे भला क्या है ?
वैसे तो दुनिया पल-पल बदलती रहती है, यहाँ सदा-सदा के लिए न कुछ बहुत अच्छा है, और न ही कुछ कम अच्छा ! आपने उस मशहूर शायर की दास्ताँ तो सुनी ही होगी जो दुनियां में चीज़ों के बदलने को कुछ इस तरह बयां करते हैं -
कल तक  हमारे आने पर जो महबूबा कहा करती थी कि-
"सबा से ये कह दो कि  कलियाँ बिछाए, वो देखो वो जाने बहार आ रहा है ",
 वही महबूबा अब कहती है -
"हवा उनसे कह दे कि  खाना पका लें, हमें तो सुबह से बुखार आ रहा है "
तो अब आप खुद ही देख लीजिये, कि  किस तरह बदल जाती हैं, बातें, ऋतुएं और उम्मीदें।
लेकिन फिर भी कुछ बातें ऐसी ज़रूर हैं, जो कभी नहीं बदलतीं। वे हमेशा सबसे भली ही रहती हैं। ऐसी ही एक बात है, दुनिया में जन्म लेना !वो दिन सचमुच एक मुबारक दिन होता है !

Wednesday, August 29, 2012

गंगा किनारे जाकर लाये अपने पिछवाड़े के पोखर का पानी !

   एक देश के बड़े नेता दूसरे देशों में जाते ही हैं। कभी कोई सम्मलेन होता है, कभी कोई आयोजन, तो कभी व्यक्तिगत निमंत्रण! वहां वे अन्य देशों के बड़े नेताओं और हस्तियों से भी मिलते हैं। उनके सम्मान में विभिन्न आयोजन भी होते हैं।
   जब वे वहां से लौटते हैं तो वहां की प्रेस और अन्य मीडिया द्वारा वहां की ख़बरें प्रसारित की जाती हैं, जिससे अपने देश के लोगों को पता चलता है कि  वहां उनका कैसी गर्मजोशी से स्वागत हुआ, उन्हें वहां कितनी अहमियत दी गयी, और उन्होंने वहां कैसा प्रभाव छोड़ा।
   ग्लोबल मीडिया  द्वारा दी गयी कवरेज ऐसे में महत्वपूर्ण भी होती है, और प्रामाणिक भी ,क्योंकि वही  पूरी यात्रा का संतुलित और निष्पक्ष विवरण जनता के  सामने रखती है।
   इधर पिछले कुछ वर्षों से यह देखा जा रहा है, कि  यात्रा पर जाने वाले नेतागण अपने साथ यात्रा में भारी-भरकम स्थानीय मीडिया  यहीं से लेकर जाते हैं। ऐसे में वहां से यात्रा की छवि भी वही आती है, जो नेताजी चाहें। क्योंकि वहां चाहे जितना भाव मिला हो, उनकी जेब में अपना मैनेज किया मीडिया, अपने चुने छायाकार, अपने साधे हुए स्तंभकार मौजूद रहते हैं। ऐसे में उनकी जो छवि बनती है, उसे विश्वसनीय नहीं माना जा सकता। यदि वे वहां कुछ महत्वपूर्ण करेंगे, तो ग्लोबल या वहां का लोकल मीडिया  उन्हें तवज्जो देगा ही ! वहां भी उनके आगे-पीछे वही चैनल घूमेंगे जो यहाँ उनकी आरती गाते हैं, तो जनता को सियाह-सफ़ेद कैसे पता चलेगा?

Tuesday, August 28, 2012

जानबूझ कर नहीं तोड़ा , टूट गया करीना से रिकार्ड !

   करीना कपूर ने एक रिकार्ड और तोड़ दिया।
   पिछले सौ सालों में ऐसा कभी नहीं हुआ कि  दो भाई, दो बहनें, या एक जोड़ा बहन भाई फिल्मों में आये हों, और ...छोटा या बाद में आने वाला पूर्व-वर्ती से बाज़ी  मार ले गया हो।
   राज कपूर के बाद जब शम्मी कपूर आये, तो वे उनसे इक्कीस नहीं, उन्नीस ही बन कर रहे। यही शशि कपूर ने किया, वे शम्मी से आगे कभी नहीं गए। संजना कपूर को कुणाल या करण  ने कभी पीछे नहीं छोड़ा।राजीव ने रणधीर  की सीमा नहीं लांघी।यह केवल इसी परिवार की बात नहीं है।
   बॉबी देओल सनी देओल से आगे नहीं गए। संजय कपूर ने अनिल कपूर की चादर छोटी नहीं सिद्ध की। तनूजा ने नूतन की बराबरी नहीं की। बबिता साधना से आगे नहीं निकलीं। देबू मुखर्जी जोय मुखर्जी को नहीं लांघ सके। रूपेश ने मुमताज़ और अतुल ने रति अग्निहोत्री से बड़ा नाम नहीं किया।रंधावा दारा सिंह से ऊपर नहीं निकले। सोहा अली  सैफ से आगे नहीं हैं। तेजस्विनी पद्मिनी कोल्हापुरे से ज्यादा लोकप्रिय नहीं हो सकीं। सिंपल कपाडिया ने डिम्पल वाली ऊंचाई नहीं छुई।विजेयता पंडित ने सुलक्षणा पंडित से ज्यादा नाम नहीं किया।
   करिश्मा बेहतरीन स्टार रहीं, इसमें कोई शक नहीं, लेकिन करीना को यह श्रेय देने में किसी को ऐतराज़ नहीं होना चाहिए, कि  यह रिकार्ड उनके नाम हो गया है।      

Monday, August 27, 2012

उन्मुक्त लड़के उन्नीस साल के !

   किसी ओलिम्पिक, कॉमनवेल्थ,एशियाई या अन्य अंतर्राष्ट्रीय खेल में हम जब खिलाड़ियों  की उम्र पर गौर करते हैं, तो हम पाते हैं कि  अन्य खिलाड़ी जहाँ सोलह, सत्रह, अठारह साल में अंतर-राष्ट्रीय ख्याति हासिल करने लग जाते हैं, वहीँ हमारे खिलाड़ियों की उम्र पच्चीस- छब्बीस से शुरू होती है। शायद हम बच्चों पर तो विश्वास नहीं ही करते, बड़ों को ज़रुरत से ज्यादा भरोसेमंद मानने के कायल हैं। हमारे यहाँ पच्चीस-तीस का होने पर ही ध्यान जाता है।
   लेकिन यह देखना अत्यंत सुखद है कि  अब हमारे बच्चे खुद इस पहेली को हल करने निकल पड़े हैं।वे खेल-दर-खेल और मुकाबला-दर-मुकाबला अपने को जोशो-खरोश से सिद्ध कर रहे हैं। हमारी युवा क्रिकेट टीम की हालिया कामयाबी इसी श्रंखला में एक आल्हादकारी पड़ाव है। ये खिलाड़ी भरपूर बधाई और प्रोत्साहन के हकदार हैं।
   हम अपने युवाओं के आगे आखिर कब तक गाते रहेंगे- "बड़े अच्छे लगते हैं ..."?
   अब हम पूरी विनम्रता से अपने बड़े खिलाड़ियों से भी कहना चाहेंगे कि  वे इन ताज़ी हवा के झोंकों को आगे  आने दें,अपने रुतबे, रसूख, पुरानी कामयाबियों का सहारा लेकर इनके रास्ते न रोकें।   

Sunday, August 26, 2012

बहुत दर्द भरा है एक दिन में दो शोक-गीत गा पाना !

   बहुत साल पहले की बात है, मुंबई के यशवंत राव चव्हाण सभागृह में एक कार्यक्रम हो रहा था। मैं उन दिनों मुंबई में ही रहता था, और माधुरी, फिल्मफेयर  आदि फिल्म पत्रिकाओं में लिखने, तथा फिल्म समीक्षाओं के लिए जाने के कारण फ़िल्मी और रंगमंच से जुड़े  कार्यक्रमों में भी  उपस्थित रहा करता था। कार्यक्रम शुरू होने से पहले मैं भीतर बैठा था, और अपने एक मित्र के आने की प्रतीक्षा में लगातार हॉल के दरवाज़े की ओर  देख रहा था। मुझे यह देख कर बड़ा आश्चर्य हो रहा था कि  दरवाज़े से जो भी दाखिल होता, वह उसी दिशा में एक बार सर झुका कर नमस्कार ज़रूर करता, जिस ओर  मैं बैठा था।
   जब मेरा मित्र आ गया और मेरी उद्विग्नता समाप्त हो गई, तब मैंने पलट कर अपने दूसरी ओर  देखा। यह देख कर मेरी ख़ुशी और अचम्भे का पारावार न रहा, कि  बिलकुल मेरे बगल वाली कुर्सी पर बेहतरीन चरित्र अभिनेता एके हंगल बैठे हैं। और तब मैं समझा कि  इतने अभिवादन उस ओर  क्यों बरस रहे थे। मैंने भी तत्परता से नमस्ते की, जबकि मैं काफी देर से वहीँ बैठा था, उस ओर पीठ फेरे। कई बड़े लोगों को विनम्रता से उस ओर  झुकते देखा।
   आज वे सभी लोग जहाँ भी होंगे, ज़रूर सोच रहे होंगे- "इतना सन्नाटा क्यों है भई ?"

Saturday, August 25, 2012

घर शिफ्ट कर लिया नील आर्मस्ट्रोंग ने !

     उन्होंने 1969 में चाँद पर कदम रख दिया था। चाँद, जिसे देखकर सुहागिनें करवाचौथ के दिन सदियों से अपना व्रत खोलती रहीं हैं, चाँद, जिसे देख कर ईद मनती है। उस तिलिस्म को वे हकीकत में बदल आये थे। अन्तरिक्ष उनका घर था।
   वही आर्मस्ट्रोंग 82 साल की आयु में दुनिया से अब न आने की बात कह गए। अपने अंतिम वर्षों में उन्होंने कोई रोग भी झेला। लम्बे समय तक जिस पत्नी का साथ रहा था, उस से मनमुटाव के चलते अब वे अपनी दूसरी पत्नी के साथ थे। एक अत्यंत महत्वाकांक्षी वैज्ञानिक होने के नाते उन्हें अपने परिवार और घरेलू मामलों के लिए ज्यादा समय नहीं मिलता था। यहाँ तक कि  एक बार आपदा के कारण उनका अपना घर तहस-नहस हो गया, और उन्हें दूसरा घर बनाना पड़ा। इस नए आशियाने के निर्माण की बागडोर पूरी तरह उनकी पत्नी ने ही संभाली, और उन पर यह आरोप भी लग गया कि  वे "अपने" परिवार के लिए महफूज़ और मज़बूत घर नहीं बना पायेंगे। घर नष्ट हो जाने के दिन बच्चों का  स्कूल से लौटने पर घर के बाहर पड़े फर्नीचर पर बैठना और पड़ौस में जाकर भोजन करना उन्हें भीतर तक झकझोर गया था। लेकिन बच्चों ने इस अपमान भरी आपदा की भरपाई उस दिन कर ली, जब उन्हें अपने "चाँद-विजयी" पिता के साथ दुनिया भर के सम्मान समारोहों में शिरकत करने का मौका मिला।
     खैर, उनके तलवों की स्पन्दन-भरी खलिश ने चाँद के बदन पर भी आज हलकी सी सुरसुरी तो ज़रूर छोड़ी होगी। अब वे अन्तरिक्ष के जिस नक्षत्र पर जा बैठे, अगर चाँद को पता चले, तो शायद वह हमें भी बताये ! 

दुनिया फरिश्तों से खाली नहीं होगी

     हमारा अतीत गवाह है कि  यह धरती पिशाचों से तो बार-बार खाली हुई है मगर फरिश्तों ने आना नहीं छोड़ा है।
     "एक आदमी सड़क के किनारे बड़े से ड्रम में पानी रख कर नहा रहा था। उसके हाथ में एक मग था, जिससे पानी निकाल-निकाल कर वह बदन पर डाल  रहा था।
      आदमी सड़क पर काम करने वाला कोई मजदूर था, उसे जल्दी में यह भी ध्यान नहीं रहता था कि  वह कभी मग को मिट्टी  में रख देता, कभी कीचड़ में। इस से पानी और भी गन्दा हो जाता था। पर वह बेखबर होकर उसी पानी से नहाता रहा।
      उस आदमी से थोड़ी ही दूरी पर एक बच्चा बैठा खेल रहा था। बच्चा खेल-खेल में न जाने कहाँ से एक नमक की डली जैसा पत्थर उठा लाया था और उसी से खेल रहा था।
     खेल-खेल में बच्चे ने वह सफ़ेद पत्थर पानी के ड्रम में डाल  दिया। वह फिटकरी थी। थोड़ी देर में पानी की गंदगी नीचे बैठ गई, और पानी साफ़ हो गया। "

Friday, August 24, 2012

अब न फीका न खट्टा, अब तो कड़वा है आम

     ये किसी लंगड़ा ,दसहरी, कलमी, राजापुरी, हापुस या तोतापुरी आम के स्वाद की बात नहीं हो रही।ये बात उस आम की है, जो आदमी के उदर में नहीं जाता, बल्कि उसके नाम के आगे लगता है।इसके लगने से आदमी "आम आदमी" कहलाता है।
     इस आम आदमी ने अब तक बहुत मज़े कर लिए। हमेशा हरेक की हमदर्दी इसी के साथ रहती है। ट्रेनें देर से चल रही हैं, बेचारा आम आदमी तकलीफ पा रहा है। मंहगाई बढ़ रही है, बेचारा आम आदमी पिस रहा है। बेकारी बढ़ रही है, बेचारा आम आदमी रोटी को मोहताज हो रहा है। शिक्षण संस्थाएं फीस बढ़ा रही हैं, आम आदमी की पढ़ाई मुहाल हो रही है।
     ये बात आपको 'जन-विरोधी' लग रही होगी? चलिए, इसे बंद कर देते हैं। दूसरी बात करें।
     कोई-कोई इस बात को लेकर उत्साहित है कि  अब जल्दी ही चुनाव आने वाले हैं। कुछ लोग आशान्वित हैं कि  लोग गरीबी, मंहगाई, भ्रष्टाचार, अव्यवस्था से पूरी तरह ऊब चुके हैं, वे अब तस्वीर बदल देंगे। कुछ लोग आशान्वित हैं कि  अपने इलाके में थोड़े नोट, थोड़ी मदिरा और थोड़े वादे बांटेंगे और कुर्सी फिर उनकी। भाई, वोटर कोई आसमान से उतरा हुआ फ़रिश्ता थोड़े ही है, आखिर है तो आम आदमी ही !  

Thursday, August 23, 2012

बच्चों से क्षमा-याचना सहित

अब लगभग हर विद्यालय में बच्चों को कंप्यूटर ज्ञान दिया जा रहा है, चाहे कुछ व्यावहारिक कठिनाइयाँ हों। पर्यावरण भी पढ़ाया जा रहा है।
   मुझे लगता है कि  अब हमें मनोविज्ञान को भी एक अनिवार्य विषय बनाना होगा। बच्चों से क्षमा-याचना सहित मैं यह कह  रहा हूँ, क्योंकि मैंने स्कूल जाते बच्चों के भारी-भरकम बैग को देखा है।अंग्रेजी सबको पढ़नी ही चाहिए, कानून का ज्ञान भी ज़रूरी सा हो गया है।
   मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ, कि  आने वाले समय में आरक्षण के कारण परेशानियाँ आने ही वाली हैं। न जानने वालों को काम करने हैं, जानने वालों को दफ्तरों से बाहर रहना है। ज्यादा जानने वालों को कम पैसे में काम करना है, जातियों के आधार पर ...
  छोड़िये , थोड़े में बात करें तो - सब कुछ "निराधार" चलना है। बच्चों से माफ़ी इसीलिए तो मांगनी है कि आज़ादी के पैंसठ साल बाद हम उन्हें ये परिवेश दे रहे हैं।   

Wednesday, August 22, 2012

विज्ञापनों का असर

     कुछ दिनों पहले तक राजस्थान में टीवी पर बहुत सारे विज्ञापन रोज़ दिन में कई बार आ रहे थे। इन विज्ञापनों का सुर कहता था कि  पानी की एक-एक बूँद कीमती है और इसे हर तरह बचाया जाना चाहिए।
     सुबह ब्रश करने के लिए वाश-बेसिन के नल की जगह मग में पानी लेने की बात की जा रही थी। कार को धोने की जगह गीले कपड़े  से पोंछने की सलाह थी। मटके में रात के बचे पानी से सुबह आटा गूंधने और पौधे सींचने की गुज़ारिश थी।
     ये सब विज्ञापन आसमान ने भी देखे और बादलों ने भी। शायद बादलों को ये नागवार गुज़रा कि  उनके होते हुए इंसान पानी को भी ऐसा मोहताज हो जाए। एक रात वे जम कर क्या बरसे कि  सुबह शहर-वासियों ने सड़कों के किनारे पानी में उलटी हुई कारें और ट्रक देखे। खाली पड़े बांधों और तालाबों  पर पानी की चादरें चलती देखीं। घर के भीतर सुबह की चाय देने मम्मी को तैर कर आते देखा। चौड़ी-चौड़ी सड़कों को पानी के चाक़ू से दो-फाड़ होते देखा और बच्चों ने अपने-अपने स्कूलों के गेट पर ताले लटके देखे।
      कुछ तो है विज्ञापनों में, हमारे सितारे इनके करोड़ों रूपये ऐसे ही नहीं लेते।
      वैसे चाहें तो हमारी सभी पार्टियों के नेता-गण भी अपनी-अपनी पीठ ठोक  सकते हैं, क्योंकि चंद दिनों पहले वे भी कैमरों के सामने वृष्टि-यज्ञ कर-कर के जनता, यानी  अपने वोटरों को रिझा रहे थे। हाँ, सरकार की  अलबत्ता चांदी ही चांदी रही, क्योंकि उसे तो राहत बांटनी थी, चाहे सूखा राहत हो या फिर बाढ़ राहत। और यह तो हमारे शास्त्रों में लिखा है कि  "बांटने" में सुख है !    

Tuesday, August 21, 2012

इसलिए लौटते हैं युग !

     कई बार आश्चर्य होता है कि  समय के साथ-साथ बीत चुके युग कालांतर में वापस क्यों लौट आते हैं? क्या ब्रह्म-शक्ति के पास युगों के डिजाइन सीमित हैं ?
     यह तो नहीं कहा जा सकता कि  युग-वापसी क्यों होती है, लेकिन यह आसानी से कहा जा सकता है कि  हमारे इतिहास का एक युग जल्दी ही वापस आने वाला है। आपने पढ़ा-सुना होगा कि  एक समय ऐसा भी था, जब लिखने का कोई साधन नहीं हुआ करता था। छपने का तो कोई प्रश्न ही नहीं।
     उस समय के हमारे कवि अपनी रचनाएं मन ही मन गुनगुना कर कंठस्थ कर लेते थे, और वे रचनाएँ यदि सुनने वालों को पसंद आतीं, तो वे भी बार-बार सुनाने का आग्रह करते हुए उन्हें याद कर लेते थे। इस तरह अच्छी रचनाएं समाज में कवि के न रहने के बाद भी बनी रह जाती थीं। वे फिर किसी किताब या कंप्यूटर में न रह कर लोगों की स्मृति और जुबां पर सवार होकर अपना अस्तित्व कायम रखती थीं।
     फिर आया दूसरा युग, जिसमें लिखने, छपने के साथ-साथ तरह-तरह के संसाधनों से उन्हें सुरक्षित रखने की अपार संभावनाएं आईं।
     अब सुनिए कुछ ताज़ा घटनाएं। एक शिक्षण संस्थान ने अपने यहाँ चयन के लिए कुछ विद्वानों को आमंत्रित किया। विद्वान-गण  अपनी भारी-भरकम डिग्रियों और प्रकाशित पोथियों को लेकर हाज़िर हुए। साक्षात्कार के दौरान विद्वत-जनों से उनकी किताबों में दर्ज सामग्री पर चंद सवाल किये गए। विद्वान-गण  बगलें झाँकने लगे। वे सामग्री के बाबत तो कुछ बता न सके, यह भी नहीं बता पाए कि  उन्होंने सामग्री कहाँ-कहाँ से अपनी पोटली में भरी है।
     विवश होकर उनका ज्ञान जांचने आये सज्जनों को कहना पड़ा- अच्छा, केवल वे बातें कहिये, जो आपको जुबानी याद हैं। अर्थात उनका अपना वही ज्ञान माना गया जो उन्हें याद था। 

Sunday, August 19, 2012

ईद के मुबारक मौके पर मुझे बहुत सारे लोग बहुत याद आ रहे हैं

वाजिद साहब बिलकुल हमारे पडौसी थे, उनका पूरा परिवार -पप्पी, सन्नी विशेष रूप से, मेरे पहली क्लास के मित्र निजाम, और मुन्ना,  मेरे मित्र शमसुद्दीन,इस्माइल,इब्राहीम, अताउल्ला, रशीद,हनीफ,  नौकरी शुरू करने के दिनों के मित्र परवेज़, जावेद, इम्तियाज़,खुर्शीद साहब, अबरार साहब,आफरीदी जी, ...सूची बहुत लम्बी है, पर मैं आपके साथ ही ईद मना रहा हूँ ...आज सुबह से ही दो लोग और  मेरे साथ हैं- मेरे उपन्यास "रेत  होते रिश्ते " का नायक शाबान और  आने वाले उपन्यास [नाम नहीं बताऊंगा अभी ] का नायक किन्जान ! और मैं याद कर रहा हूँ अपने आदर्श उपन्यासकार डॉ.राही मासूम रज़ा साहब को भी। ईद मुबारक !  

स्वाद और संबंधों का खाता [ अंतिम भाग]

अब अपनी सूची के उन मित्रों की बात करें, जिनके नाम के सामने आपने किसी न किसी खाद्य वस्तु का नाम लिखा है। खाने की जो वस्तुएं आपने चुनी हैं, उनकी कीमत तो आपको मालूम होगी ही। उनका स्वाद कैसा है, यह आपकी अपनी निजी पसंद से तय होगा। जो चीज़ आपको स्वादिष्ट लगती है, उसका दर्ज़ा अच्छा ही मानिये, चाहे औरों को वह कैसी भी लगती हो।
     सबसे पहले उस मित्र के नाम पर नज़र डालिए, जिसके खाते में आपने सबसे महँगी वस्तु लिख दी है। सतर्क रहिये, उसकी और आपकी दोस्ती पक्की नहीं है, यह दोस्ती कभी भी टूट सकती है। इस से ज्यादा उम्मीद भी मत रखिये।
     जिस मित्र के नाम के आगे आपकी सबसे स्वादिष्ट वस्तु दर्ज है, उस मित्र से अकेले में मिलने से बचिए। उस से जब भी मिलें, सब से साथ मिलिए। कोशिश कीजिये कि  आप चाहे अकेले हों, वह अपने अन्य मित्रों के साथ हो। डरिये मत, ऐसा-वैसा कुछ भी नहीं है, यह केवल दोस्ती पक्की होने का नुस्खा है।
     यदि आपने उगने वाली चीज़, जैसे फल या सब्जी किसी मित्र के नाम के आगे लिख दी है, उस मित्र के प्रति ज्यादा संवेदन-शील रहिये, उसे आपकी मदद की ज़रुरत है। शहद या दही अगर आपने लिखा है, तो उस मित्र के लिए दुआ कीजिये, शायद उसकी तबियत खराब होने वाली है।
     चाकलेट या ड्राई-फ्रूट आपने लिखा ही नहीं होगा,यदि लिख दिया है तो यह दोस्ती ऐसी है, जिसके लिए आपको कुछ नहीं करना, जो भी करेगा, सामने वाला ही करेगा।
     अब देखिये, ऐसा ही है न ?
     यदि ऐसा नहीं हो रहा और सब कुछ उल्टा-पुल्टा जा रहा है, तो एक बार चैक कीजिये, कहीं गलती से आपने मित्रों की सूची में मेरा नाम तो नहीं डाल दिया ?

स्वाद और संबंधों का खाता खोलिए और देखिये अपने मित्रों की फितरत

कुछ दिन पहले हमने अपने मित्रों की एक सूची बनाई थी, जिसमें दस नाम थे। फिर दस ऐसी चीज़ों के नाम लिखे थे, जो खाने के काम आती हैं। फिर हम मन ही मन खाने की चीज़ें अपने मित्रों को बांटने बैठे थे, और इस प्रक्रिया में हमारे दिल की बहुत बड़ी, संजीदा और दायित्व-पूर्ण भूमिका थी। आइये, देखें कि  क्या किया दिल ने, और दिमाग इसके लिए दिल की क्या 'रेटिंग' तय करता है।
     सबसे पहले अपने उन कुछ बेचारे मित्रों की बात करें, जिन्हें दिल ने कुछ नहीं परोसा, और उनके नाम के आगे [-] लगा दिया।
   यदि ऐसा मित्र कोई नहीं है तो आप कभी भी अपनी सुविधानुसार अपनी 'ओबेसिटी'अर्थात मोटापे की जांच करवाइए। आगे-पीछे कभी न कभी आप इसकी चपेट में आयेंगे ही।
     यदि ऐसा मित्र केवल एक है, तो उस से और ज्यादा मिलने का मौका कभी न कभी निकालते रहिये। कालांतर में यह आपका अच्छा दोस्त सिद्ध होने वाला है।
     यदि ऐसे मित्र दो हैं, तो सावधान, उनसे कभी भी ऐसे समय मत मिलिए, जब वे दोनों साथ में हों। आपको हाइपरटेंशन होने का खतरा हो सकता है।
     यदि ऐसे मित्रों की संख्या तीन है, तो हमेशा उनसे बात करते समय 'हम' के स्थान पर "मैं" का प्रयोग कीजिये।
     यदि ऐसे मित्रों की संख्या इस से ज्यादा है, तो आप कंजूस हैं। मित्रों को मित्र बनाए रखने के कुछ उपाय कीजिये, वर्ना धीरे-धीरे आत्म-केन्द्रित अर्थात सेल्फ-सेंटर्ड यानि इन्ट्रोवर्ट होते जायेंगे। [शेष कल, और यह कल यथा-संभव कल ही आएगा ] 

Friday, August 17, 2012

इतिहास बदलने की अनुमति है [सात ]

[ मंच पर काल प्रहरी, जिजीविषा और सभी बच्चे डर से बेहोश पड़े हैं। तभी दीवार की गिरी ईंट वाली जगह से तेज़ प्रकाश के साथ एक महिला की आवाज़ आती है ]
आवाज़ - अरे, भय से सब अचेत हो गए।उठो, उठो बच्चो, उठो बहन, तुम भी बच्चों की तरह डर  गईं? और काल प्रहरी जी आप भी, आपको तो बहादुर होना चाहिए !
[ एक-एक करके सब आँखें खोलते हुए उठते हैं, और आश्चर्य से आवाज़ की दिशा में देखते हैं।
पहरेदार  - कौन हो तुम ? ईंट क्यों गिराई ? ठहरो मैं आता हूँ।
आवाज़ - तुम मुझे नहीं पहचानोगे, मैं कौशल्या हूँ, कौशल्या ...राम की माता, अयोध्या की रानी।
सभी - प्रणाम, प्रणाम मांजी, प्रणाम रानी साहिबा, ढोक महारानी जी, नमस्ते आंटी ...
जिजीविषा - अरे, आप ! ये मैं क्या देख रही हूँ ? बच्चो देखो हमें किसके दर्शन हुए ...
करुणा  - दर्शन कहाँ हुए ? केवल आवाज़ ही तो आ रही है।
आवाज़ - बच्चो तुम्हारी बातें सुन कर मुझसे परलोक में भी रहा नहीं गया, तुम ममता को बचाने की बात कर रहे थे न? मैं भी तुम्हारे साथ हूँ।
बच्चे - [ख़ुशी से चिल्लाते हैं] ये ...ममता बचाओ मंच जिंदाबाद !
आवाज़ - तुम्हें  मालूम है, मुझे अपनी आँखों से अपने पुत्र को चौदह साल के लिए जंगल में जाते हुए देखना पड़ा और मैं कुछ न कर सकी।
करुणा - आपने कुछ क्यों नहीं किया ? आप महारानी थीं, आवाज़ उठा सकती थीं, आपकी बात सुनी जाती।
विस्मय - आप बड़ी भी थीं, वो बड़े लोगों की बात माने जाने का ज़माना था ..
आवाज़ - मेरे पति महाराज दशरथ ने कैकेयी को वचन दिया था, इसलिए वे तो असहाय थे, कैकेयी ने अपने पुत्र को राजा बनाने की मांग रख दी ...
विस्मय - इसमें तो कुछ गलत नहीं है, हर माँ अपने पुत्र की तरक्की चाहती ही है।
आवाज़ - लेकिन साथ में उसने मेरे पुत्र के लिए वनवास मांग लिया, मैं कुछ न कर सकी।
करुना - आपको करना चाहिए था, आपसे पूछे बिना आपके बेटे को सौतेली माँ जंगल में कैसे भेज सकती है?
[तभी दौड़ कर काल प्रहरी ईंट उठा कर वापस दीवार में लगा देता है, आवाज़ बंद हो जाती है ]
जिजीविषा - देखा बच्चो तुमने, एक माँ ने अपने बेटे को अपनी आँखों से दूर कर दिया, केवल इसलिए, कि  बच्चा अपने पिता का दिया वचन पूरा कर सके।
विस्मय - इसमें बच्चे की क्या गलती, ये तो पिता की गलती है।
जिजीविषा - हाँ,यही तो मैं कहना चाहती हूँ, कई बार माँ की ममता में कमी नहीं होती, किन्तु परिस्थिति ही ऐसी  बन जाती है कि  माँ को ममता का गला घोटना ही पड़ता है।
बच्चे - नहीं .. नहीं हम ऐसा नहीं होने देंगे, ममता बचाओ मंच जिंदाबाद ..  

Thursday, August 16, 2012

केवल हँसना पर्याप्त नहीं है

अक्सर यह कहा जाता है कि  सभी को दिन में दो-तीन बार खुल कर हँसना अवश्य चाहिए। हंसने से पेशियों का व्यायाम होता है। इसी कारण शहरों में तो इंस्टेंट लाभ के लिए ढेरों लाफ्टर-क्लब काम कर रहे हैं। टीवी पर कई चैनल ऐसे कार्यक्रम लगातार दे रहे हैं, जिनमें बेबात के हँसते लोग दिखाए जाते हैं। किसी-किसी कार्यक्रम में तो खिजाने की हद तक आप बड़े-बड़े फ़िल्मी सितारों को खिलखिलाते देख सकते हैं, बशर्ते आप देख पायें। हँसना अच्छी बात है। जिंदगी में हंसी के पल बने रहें, यह कौन नहीं चाहता?
   लेकिन इस हंसने-हंसाने का एक पहलू और है। हंसी आपके लिए व्यायाम तभी है जब यह आपको आनंदित करते हुए किसी कारण से हो। यदि हम बेमकसद-बेमतलब हँसते हैं तो यह नकली हंसी हमें कोई लाभ नहीं पहुंचाती। लेकिन इस मामले में हम लोग खुशनसीब हैं, कि  हमारे यहाँ बड़े-बड़े पदों पर "कार्टून-जेनिक" लोग स्थापित हैं और रोज़ के अखबार में हमें हंसने की पर्याप्त वज़ह मिल ही जाती है।
   हाँ,आज हंसी आसानी से नहीं आ पाएगी क्योंकि स्वतंत्रता दिवस की छुट्टी होने से अखबार आये नहीं हैं।
     

Wednesday, August 15, 2012

इतिहास बदलने की अनुमति है [छह ]

जिजीविषा - लेकिन विस्मय, तुम यह भी तो सोचो कि दूसरों की प्राण-रक्षा के लिए अपनों का बलिदान करना भी तो एक महान काम है।
सभी बच्चों का सम्मिलित स्वर - नहीं - नहीं, ममता बचाओ मंच जिंदाबाद !
[बच्चे शोर करने लगते हैं। काल प्रहरी उन्हें शांत करने की कोशिश करता है ]
पहरेदार  - शोर मत करो, शांत हो जाओ, शांत ...
लड़का - यहाँ शोर करने से क्या फर्क पड़ेगा ? सब मुर्दे ...
पहरेदार  - [मुंह पर अंगुली रख कर ] चुप !यह इतिहास की दीवार है, यहाँ सब खामोशी से सो रहे हैं, चुप रहो,
जिजीविषा - अच्छा बच्चो, मेरी बात सुनो, हम सब मिल कर ममता को बचाने का काम करेंगे। पर पहले हम यह पता लगायेंगे कि  अपने देश के होने वाले राजा को बचाने के लिए पन्ना ने खुद के बेटे की बलि देने का जो काम किया वह सही था या गलत !
बच्चों का स्वर - कैसे ..कैसे, कैसे पता लगायेंगे ?
[तभी दीवार से एक ईंट गिरती है, और लाल रोशनी दिखाई देने लगती है। काल प्रहरी चिल्लाता हुआ इधर-उधर भागने लगता है। भगदड़ मच जाती है। जिजीविषा और बच्चे भी गिरते- पड़ते भागते हैं। चारों ओर  "बचाओ-बचाओ" की आवाजें गूंजने लगती हैं। ] 

इतिहास बदलने की अनुमति है [पांच]

पहरेदार  - हाँ- हाँ, जाओ, तुम्हें न्याय मांगना है तो कोर्ट-कचहरी में जाओ, यह तो इतिहास की दीवार है, यह तो पवित्र स्थान है।
लड़का- क्या कहा ? यह इतिहास की दीवार है?
पहरेदार  - हाँ
लड़का- अरे, यह तो और भी अच्छा है। हमें इतिहास से भी शिकायत है।
जिजीविषा - अच्छा-अच्छा तुम पहले करुणा  को बोलने दो। बोलो करुणा !
करुणा  - मैं करुणा  हूँ, मेरा मन बहुत करुण  है। मुझसे किसी का दुःख बिलकुल नहीं देखा जाता। जब से मैंने सुना है कि  एक 'माँ ' ने एक राजकुमार को बचाने के लिए अपने खुद के बेटे की कुर्बानी देदी, मैं एक दिन भी सो नहीं सकी हूँ। मेरे सपनों में रह-रह कर वही बालक आता है ...
लड़का - सो नहीं सकी तो सपने कैसे आते हैं ?
जिजीविषा - चुप रहो, उसे बोलने दो।
करुणा  - वह बालक, बेचारा अभागा, जिसे खुद उसकी माँ ने मरने के लिए छोड़ दिया। आखिर उस माँ की ममता को क्या हुआ ?
[बच्चों में सुगबुगाहट होती है। फिर नारों की आवाज़ आती है- हम सब एक हैं, अपना हक़ लेकर रहेंगे, ममता बचाओ मंच जिंदाबाद !]
जिजीविषा - शांत, शांत, बच्चो शांति रखो,जिसे बोलना है वह खड़ा होकर बोले। और एक साथ नहीं, एक-एक करके बोलो। हाँ हाँ बोलो, पहले अपना नाम बताओ,
[एक लड़का खड़ा होता है ]
लड़का - मेरा नाम विस्मय है।
जिजीविषा - कहो, क्या कहना चाहते हो ?
विस्मय - मुझे तो इस बात पर आश्चर्य है कि  क्या कोई माँ ऐसा भी कर सकती है ? हमारे इतिहास के अध्यापक  ने बताया कि  पन्ना नाम की एक औरत ने एक राजा के लड़के को बचाने के लिए अपने खुद के पुत्र चन्दन की बलि चढ़ा दी। और इस से भी बड़ा आश्चर्य यह है कि  उस महिला को महान मान कर आज तक उसके गुण गाये जा रहे हैं, और बेचारे चन्दन को कोई याद नहीं करता।
[बच्चों में कोलाहल जैसा वार्तालाप शुरू हो जाता है। ] 

Tuesday, August 14, 2012

इतिहास बदलने की अनुमति है [चार]

[बच्चे नारे लगाते हुए बढ़ते आ रहे हैं, और काल प्रहरी उन्हें रोकने की कोशिश कर रहा है]
पहरेदार - अरे,अरे ये क्या। तुम लोग कहाँ आ रहे हो? ठहरो, दीवार को मत छूना , कौन हो तुम लोग ? कहाँ
                   जाते हो ...
बच्चे -        अपना हक़ लेकर रहेंगे , अपना हक़ लेकर रहेंगे ..
पहरेदार  - अरे पर किस से लेकर रहोगे , तुम हो कौन ?
जिजीविषा - बच्चो, एक मिनट ठहरो, तुम सब यहाँ आराम से बैठ जाओ, देखो, हम यहाँ एक सभा करेंगे, सभा
                   यानी एक बैठक  ... तुम सब उसमें अपनी बात कहना ...
[धीरे-धीरे शोर कमज़ोर पड़ जाता है,बच्चे एक-दूसरे  को देखते हुए बैठने लगते हैं। दो बच्चे बैनर पकड़ कर पीछे खड़े हो जाते हैं। काल प्रहरी और जिजीविषा भी सामने बैठ जाते हैं। ]
जिजीविषा - हाँ, अब शांति से बताओ बच्चो, तुम क्या कहना चाहते हो ? एक-एक करके ..
पहरेदार  -पर ये दीवार मत छूना...
जिजीविषा - ओ हो कालू, बच्चों को बोलने दो। बीच में मत टोको।
[एक लड़की खड़ी होकर बोलने लगती है]
जिजीविषा - पहले अपना नाम बताओ,
लड़की -       मेरा नाम करुणा  है
[बीच में एक लड़के की आवाज़ आती है ]
लड़का -      झूठ, इसका नाम कैरी है।
जिजीविषा - अच्छा-अच्छा उसे बोलने दो,
करुणा  -     हम सबने मिल कर यह मंच बनाया है। इसमें हम ममता को बचाने के लिए काम करेंगे।
जिजीविषा - ममता, कौन ममता, कहाँ है ममता ? उसे क्या हुआ है, कौन सी है ममता ! ममता खड़ी हो जाओ
                   बहन ...
[ बच्चों में हलचल होती है ]
करुणा  -     ममता कोई नहीं है। मैं तो उस ममता की बात कर रही हूँ, माँ की ममता, माँ -बाप की ममता ...
जिजीविषा - अच्छा-अच्छा , तो तुम लोग माँ-बाप की ममता को बचाने की बात कर रहे हो ? सच है तुम्हारी
                   बात एकदम ठीक है।[खड़ी होकर ] ममता तो आजकल बिलकुल ख़त्म होती जा रही है आज
                   सबको अपनी-अपनी जिंदगी की चिंता है बस, सबको अपने आराम की पड़ी है, धन दौलत जोड़ने  की पड़ी है,
                   पैसे की  पड़ी है। ममता पर तो कोई ध्यान ही नहीं दे रहा।
लड़का -       [खड़ा होकर] अरे यह दीदी तो हमारी तरफ ही हैं,ये तो वही बात कह रही हैं जो हम कहते हैं, फिर हम किस से न्याय मांगेंगे ? चलो यहाँ से ...

लीजिये,नई परिभाषा से भी वरिष्ठ नागरिक हुई हमारी आज़ादी

भारत के स्वतंत्रता पर्व पर सभी को भाव-भरी शुभकामनायें! आज़ादी की जो उम्र हो चली है, उस उम्र में भारत में एक नागरिक को वरिष्ठ नागरिक कहा जाने लगता है। वरिष्ठ नागरिक माने- सेवा से निवृत्ति, पेंशन पर अधिकार, कतारों में तरजीह, बैंक जमा पर ज्यादा ब्याज और राजनीति के मैदान में चपल-चंचल-नटखटपन।
   कभी-कभी लगता है कि राजनेताओं और फिल्मवालों को हम लोग जितना शक्ति-संपन्न समझ लेते हैं, वास्तव में वे उतने होते नहीं हैं। देशमुख बीमार थे, गुर्दे और लीवर ख़राब थे, देश के श्रेष्ठ डाक्टरों की निगरानी में थे, बेटा रितेश, जो फिल्म-स्टार है, तीमारदारी में तो लगा ही था, अपने अंग दान देने की पेशकश भी कर चुका  था,साथ में था, देश की आज़ादी का पर्व सामने था, जिस पर सरकार बड़े-बड़े काम मुल्तवी कर देती है, इस सब के बावजूद चले गए।
   कल शाम को मैं अपने कमरे में बैठा एक पत्रिका पढ़ रहा था, कि  मुझसे दस फिट की दूरी पर रखे फ्रिज से एक बन्दर आम निकाल कर मुझे दिखाता हुआ आराम से चला गया। सबको 'आज़ादी' मुबारक! 

उसने दुनिया बदल ली

"तरुंस वर्ल्ड " एक अच्छा ब्लॉग था। मैं कभी-कभी उस पर जाता था। तरुण की कविताओं में बारीक उदासी रची रहती थी। अमेरिका में रहने वाला वह लड़का बेहद बुद्धिमान दिखाई देता था।
   उसकी रचनाओं के भाव-पक्ष को देख कर कोई नहीं कह सकता था कि  वह पेशे से सॉफ्टवेयर इंजिनीयर  होगा। उसकी एक कविता से दुःख टपक रहा था। मैंने उस पर टिप्पणी  भी की थी कि तुम्हारे चेहरे में दुःख छिपा दीखता है, इसे किसी सुख से ढक लो। वह हरियाणा का रहने वाला था।
   यह कोई ज्यादा पुरानी  बात नहीं है,अभी कुछ समय पहले तक तो अपने ब्लॉग पर वह सक्रिय था। लेकिन मैं उसके लिए "था"क्यों कहे जा रहा हूँ ?
   मैं चुप हो जाता हूँ। दो मिनट का मौन आप भी रख लीजिये। उसकी आत्मा को शांति मिलेगी। हाँ, उसने वर्ल्ड यानी दुनिया बदल ली।
   उसने अपने परिचय,अपने महागमन के कारण और वसीयत में कहा है-
          "मैं छिपाना जानता  तो जग मुझे साधू समझता, मेरा  दुश्मन बन गया है छल रहित व्यवहार मेरा"     

Monday, August 13, 2012

कभी-कभी सरल मित्र भी पूछते हैं कठिन सवाल

कल मैं मित्रता और परिचय के बीच के अंतर पर एक छोटा सा प्रयोग कर रहा था, तभी पिट्सबर्ग, अमेरिका से मेरे बेहद आत्मीय और गहरे मित्र ने मुझसे सवाल पूछा कि कल कब आएगा। सन्दर्भ भी बतादूँ, मैं यह कह रहा था कि  मैं आज किये जा रहे प्रयोग का उत्तर या स्पष्टीकरण "कल" दूंगा। अगर वे यह सवाल नहीं पूछते, तो शायद 'कल' आज आ जाता।
   लेकिन अब मैं सतर्क हो गया हूँ, अगर स्मार्ट इंडियन भी मेरे इस प्रयोग में दिलचस्पी ले रहे हैं, तो अब मुझे अपनी बात पर थोड़ा और गहराई से, अच्छी तरह जांच करके ही टिप्पणी करनी होगी।
   दरअसल मित्रता और खाद्य पदार्थों का कोई सीधा सम्बन्ध होता नहीं, लेकिन संबंधों और स्वाद की तासीर कभी-कभी आश्चर्यजनक रूप से एक सी होती है। यह मैं आपको बताऊंगा, लेकिन थोड़े दिन रुक कर। मैं फिल्म वालों की तरह अपनी नई किताब 'थोड़ी देर और ठहर' का प्रमोशन नहीं कर रहा। कहा न, अपने उत्तर की प्रामाणिकता  को एक बार और जांचने की दृष्टि से थोड़ा  समय ले रहा हूँ। 

Sunday, August 12, 2012

कभी देखिये ऐसी तुलना करके भी

 कभी जब आपके पास समय हो, अपने मित्रों में से दस सबसे अच्छे मित्रों की सूची बना लीजिये.
   मैं जानता हूँ कि आप में से कई लोग इस बात को पचा नहीं पा रहे.आज की दुनिया में दस मित्र ? यही सोच रहे हैं न आप ? लेकिन हम गहरे मित्रों की बात छोड़ दें , साधारण संबंधों वाले मित्र, परिचित, सहयोगी, सहकर्मी, पडौसी आदि तो होते ही हैं.बस उन्हीं में से दस नामों की सूची बना लीजिये.इन्हें एक से दस तक अपनी पसंद से क्रमांक दे दीजिये.
   अब इस सूची को उठा कर रख दीजिये. कुछ समय या कुछ दिनों में आपको याद भी नहीं रहेगा कि आपने सूची में किन नामों को रखा था. याद रहे भी, तो कोई बात नहीं, यह कोई महत्त्वपूर्ण बात नहीं है.
   अब एक और सूची बनाइये.इस सूची में आपको दस खाने की चीज़ों के नाम लिखने हैं.ये चीज़ें कुछ भी हो सकती हैं-फल, मिठाई, सब्जी, स्नेक्स, मेवा, जूस, अन्य कोई भी खाद्य पदार्थ.
   अब आपको थोडा समय देना है.मित्रों के नामों में से एक नाम देखिये, और उस पर एक मिनट तक सोचिये. फिर वस्तुओं की सूची में से कोई भी एक चीज़ उस मित्र के नाम के आगे लिख दीजिये.हो सकता है कि उस नाम के आगे आप उन वस्तुओं में से कुछ न लिखना चाहें.ऐसी स्थिति में उस मित्र के नाम के सामने डेश (-)लगा दीजिये.अब इसी तरह दूसरे नाम पर सोचिये. क्या आपकी सूची में कोई ऐसी वस्तु है जो आप इनके नाम के आगे लिखना चाहें ? है, तो लिख दीजिये, अन्यथा वही (-) लगा दीजिये.इसी तरह दसों नामों पर विचार कर लीजिये. यह ध्यान रखें कि एक बार लिख लेने के बाद इनमें कोई परिवर्तन न करें.
   कल हम आपको बताते हैं कि यह आपने क्या किया ?     
        

Friday, August 10, 2012

शिंदे, जया और गंभीरता

 शिंदे ने कल राज्य सभा में माफ़ी मांगी.माफ़ी आम तौर पर कोई तब मांगता है जब वह गलती करे.इसका अर्थ यह हुआ कि शिंदे ने अपनी गलती मानी.गलती आमतौर पर कोई तब मानता है जब उसने वास्तव में गलती की हो.बिना गलती किये जबरन माफ़ी मंगवाने की बात तो केवल पुलिस विभाग में हो सकती है. राज्य सभा पुलिस विभाग नहीं है.इसका अर्थ यह हुआ कि शिंदे ने माना कि उन्होंने वास्तव में गलती की है.
   बात असम की हो रही थी, जया जी ने बीच में कुछ कहना चाहा. इस पर शिंदे ने उदगार व्यक्त किये कि "यह गंभीर मामला है, यह कोई फिल्म की बात नहीं है."
   इसका अर्थ यह हुआ कि शिंदे के मुताबिक़ जया को केवल फिल्म के मामलों पर बोलना चाहिए. जया ने फिल्मों में काम किया है, इसलिए वे केवल  फिल्मों की विशेषज्ञ हैं.शिंदे ने फिल्मों में काम नहीं किया इसलिए वे सब मामलों पर बोल सकते हैं. फिल्म के अलावा बाकी सब मामलों के विशेषज्ञ शिंदे हैं. और गंभीर मामलों पर बोलने का अधिकार तो केवल शिंदे को है.
   खैर, अब बात उतनी गंभीर नहीं है क्योंकि शिंदे ने माफ़ी मांग ली है अर्थात उगल कर निगल लिया है, माने थूक कर...आपको याद होगा कि कुछ दिनों पहले इन्हीं शिंदे जी का नाम देश के उपराष्ट्रपति पद के लिए भी उछला था.लेकिन कई मुहावरों के चलते ऐसा नहीं हो पाया. कौन से मुहावरे ? यह तो आप सोचिये.
   खुदा नाखून नहीं देता, उस्तरा हर किसी के हाथ में आ जाये तो...ओले पहले ही पड़ गए...आदिआदि     

Thursday, August 9, 2012

तीन दिन का अनशन किसका क्या बिगाड़ेगा ?

आज शहीद दिवस है. यदि जिन शहीदों की याद  में यह दिवस मनाया जाता है ,वे आज होते तो ज़रूर सोचते कि हमें मान और जान बचाना न आया ! योजनाबद्ध शहादत किसको और कब रिझाती है ,देखना होगा .हमारा यह मतलब नहीं हैं कि लोग प्राण त्यागने को तत्पर हो जाएँ ,हमारा मतलब तो यह है कि संचार की सुगमता के इस युग में एक दूसरे की बात एक दूसरे  तक और किसी तरीके से क्यों न पहुंचे ? हम राम और गाँधी जैसे नामों को हा-हुल्लड़ का पर्याय बना कर ही छोड़ेंगे ? 

हिंसा को आम करने की कोशिशें

लगता है कि कुछ चीज़ें अब किसी के बस में नहीं रह गईं हैं.महिलाओं से  कहा जा रहा है कि वे पुरुषों की ऐसी वैसी टिप्पणियों पर ध्यान 'न' देना सीखें. पुलिस सम्पन्न लोगों से कह रही है कि अपनी कीमती चीज़ों की सुरक्षा वे अपने साधनों से करें.क्या यह असामाजिकता का सार्वजानिक स्वीकार नहीं है ? कहीं ऐसा तो नहीं ,कि हम सभ्यता से ऊब गए हैं ?    अमेरिका में यदि ऐसी घटनाओं पर राष्ट्र ध्वज आधा झुकाया जा सकता है तो यह सम्मान और सरोकार को सलाम करना ही है .

Wednesday, August 8, 2012

बहुत अच्छा लगा अजित गुप्ता जी का विचार

पिछले कुछ दिनों से मुझे महसूस हो रहा था कि हम जो भी कुछ कर रहे हैं वह किसी और को तो क्या,खुद अपने को भी आनंद नहीं दे रहा. कभी हम अन्ना की हौसला अफजाई कर रहे थे , तो एक दिन पता चला कि अन्ना अपने मिशन को छोड़ बैठे.कभी लगा , कि चलो इंतज़ार के लम्बे वर्ष बीते, अब आडवानी जी देश के आसमान में कोई नया रंग भरेंगे , तो पता चला कि आडवानी जी तो खुद चुके सो चुके कांग्रेस को भी बीता करार दे गए .उधर सुना कि सोनिया जी चुनाव नहीं लड़ेंगी. लोग मुकाबला देखने को तैयार थे ,कि मुलायम और मायावती जी साथसाथ खाने बैठ गए. नितीश जी ललकारने लगे कि न मैं खुद खाऊँ न मोदी को खाने दूं. राहुल ने कहा कि बड़ी कुर्सी को तैयार हूँ , तो लोग पूछने लगे कि छोटी पे क्या किया ?महामहिम के लिए ब्रेक के बाद ख़बरें नहीं , बल्कि ख़बरों के बाद ब्रेक है.
ऐसे में अजित गुप्ता जी ने जब कहा कि किसी अवस्था के बाद तो जीवन उद्देश्यहीन भी होना चाहिए, तो लगा कि इस से हमें ही नहीं देश को भी सुकून मिला होगा.    

Tuesday, August 7, 2012

यह इस बात का प्रमाण है कि सब कुछ नहीं बिगड़ा

  जिस तरह एक भीड़ भरे  होटल में खाना खाते समय आपको हर वक्त इस बात के लिए चौकन्ना रहना पड़ता है कि आप पूरा भोजन अच्छी तरह खाकर ही उठें,अन्यथा आपके उठते  ही कोई दूसरा आपकी जगह बैठ जाएगा,ठीक उसी तरह आजकल किसी भी ओहदे पर आपका कार्यकाल भी होता है.आप कितने ही कुशल या सक्षम  हों, लोग आपकी सेवानिवृत्ति के लिए तत्पर रहते ही हैं,उन्हें लगता है कि आपकी बारी ख़त्म , अब उनकी बारी है.
   ऐसे में श्री हामिद अंसारी का दुबारा उपराष्ट्रपति चुना जाना उन दिनों की याद  ताज़ा करता है जब देश में राजेंद्र प्रसाद और राधाकृष्णन जैसे लोग पदों की शोभा होते थे.अन्सारीजी का भावभीना स्वागत .

Monday, August 6, 2012

जैसे पतझड़ में पेड़ से पत्ते गिरते हैं

जब पेड़ से पत्तों के गिरने का समय आ जाता है तो पत्ते गिरते हैं और कोई पत्ते गिरने का कारण किसी से नहीं पूछता.
   बड़े ,बच्चों को यह कह कर नहीं डपटते कि ज़रूर तुमने पेड़ों को खींचा होगा इसी से पत्ते झड़  रहे हैं .माली पर यह लांछन नहीं लगता कि तुमने ज़रूर गलत खाद दी होगी , क्योंकि सब जानते हैं कि यह मौसम है ही पतझड़ का .
   इसी तरह हर पांच साल बाद तरह -तरह के मुखार्विन्दों से बयान टपकने का मौसम भी आता है . भान्ति भान्ति के लोक नायक लोक का पुनः सामना करने से पहले अलग -अलग आलाप लेते हैं .इन सुरों से किसी को पता नहीं चलता कि ऊँट किस करवट बैठेगा, हाँ , यह ज़रूर पता चलता है कि ऊँट किसी भी करवट बैठे , ये सब ज़रूर उसी की बगल में आ बैठेंगे और सत्ता- आरती गायेंगे. गज़ब के गवय्ये .    

Sunday, August 5, 2012

तकनीक की दादागिरी

अच्छी और प्रभावी तकनीक की पहचान यह है कि वह अपनाई जाये, शायद यही कारण है कि अब आप तकनीक को नहीं चुनते बल्कि तकनीक आपको चुनती है. कल्पना कीजिये कि आप बैठे हुए खीर खा रहे हैं, और एक बिल्ली बैठी लगातार आपको घूर रही है. आप जानते हैं, और सब जानते हैं कि क्यों ? आजकल ब्रांडेड तकनीक  इसी बिल्ली की तरह व्यवहार कर रही है.आप कोई ज़रा सी भी गलती करें- कुछ गिरा दें , कहीं उठ कर चले जाएँ ,बस बिल्ली अपना काम कर लेगी. शुक्र है,अभी "बिल्ली " इतनी विकसित नहीं है कि खीर आपके हाथ से छीन ले . ओह,अभी भविष्य बाकी  है .         

Saturday, August 4, 2012

ये मेरी ही गलती थी

हम दो दिशाओं से आगे बढ़ने के रास्ते पाते हैं - एक तकनीक से और दूसरा भावना से. यदि दोनों में संतुलन रहे तो गति सहज- सुगम हो जाती है. इस तराजू का इस्तेमाल मुझे कभी ठीक से नहीं आया. मैं ने तकनीक की हमेशा अनदेखी की और भावना को सर्वोपरि समझा. कभी-कभी मेरा यही असंतुलन आपसे बातचीत करने में व्यवधान बनता है.मैं तकनीक को साथ नहीं लेता और भावना से कहता हूँ की वह मुझे गंतव्य तक ले चले .बस यहीं हमारे बीच संवाद अंतराल आ जाता है.भावना को भी आखिर कोई माध्यम तो चाहिये.  

Thursday, August 2, 2012

इतिहास बदलने की अनुमति है [तीन]

[दीवार में एक छेद  दिख रहा है, जिस से लगता है कि  एक ईंट वहां से निकल कर गिर पड़ी है। बेहोश पड़ी जिजीविषा के मुंह पर पानी के छींटे मार रहा कालप्रहरी पलट कर वहां देखता है, फिर
जिजीविषा को वहीँ छोड़ कर तेज़ी से दीवार की ओर  भागता है। वह ईंट को हाथ में उठा लेता है
और उसे फिर से उसकी जगह पर रखने की कोशिश करता है। इतने में ही दीवार के पीछे से हंसने
की आवाज़ आती है]
पहरेदार  - कौन है ? कौन है वहां...
आवाज़-      मुझे नहीं पहचाना ? पहचानेगा भी कैसे, मुझे तूने देखा ही कहाँ है? जब मैं जिंदा था, तब तू पैदा भी  
                   नहीं हुआ था। अब मैं मर चुका हूँ ...
पहरेदार  - मर चुके हो तो बाहर क्यों निकल रहे हो ...चलो, चलो अन्दर।
                  [इतने में ही जिजीविषा जाग जाती है, और जोर जोर से 'कालू' 'कालू' चिल्लाने लगती है।
पहरेदार  - कालू? ये कालू कौन है? किसे पुकार रही हो तुम !
जिजीविषा- तुम्हें, और किसे !
पहरेदार  - मुझे? पर तुमसे किसने कहा कि  मेरा नाम कालू है। मैं कालप्रहरी  हूँ ...
जिजीविषा- कितना बड़ा नाम है- मैं तो तुम्हें ...
पहरेदार  - अरे पर तुम यहाँ रुकीं क्यों? तुम्हें कोई देख लेता तो ?
जिजीविषा- ओ हो, तुम्हीं तो कह रहे थे कि  यहाँ बरसों से कोई नहीं आता...अरे हाँ, उसका क्या हुआ ? वो कौन  
                  आया था यहाँ ? जिसने ईंट गिरा कर यहाँ लाल रोशनी कर दी थी ...
पहरेदार  - लगता है वह आत्मा तो शांत हो कर वापस चली गई ..तुम वैसे ही डर कर बेहोश हो गईं थीं।           [मंच पर तभी कुछ बच्चों का प्रवेश होता है। वे नारे लगाते हुए आ रहे हैं। उन्होंने हाथ में एक बड़ा
सा बैनर उठा रखा है, जिस पर लिखा है- "ममता बचाओ मंच", तेज़ शोर के साथ नारों की आवाजें
आ रही हैं- अपना हक़ लेकर रहेंगे ...अपना हक़ लेकर रहेंगे ...कालप्रहरी  दौड़कर बच्चों को रोकने
की कोशिश करता है, ]... 

Wednesday, August 1, 2012

महान चरवाहे और निकम्मी भेड़ें

अलीगढ़  को कोलकाता  से दावत मिली है। ममता बैनर्जी ने तीन सौ एकड़ ज़मीन अलीगढ़ मुस्लिम विश्व विद्यालय का परिसर बंगाल में बनाने के लिए दी है।
   शिक्षा तो खैर ठीक है, कोई भी कहीं भी ले सकता है। एमआईटी तक अपनी शिक्षा ओपन लर्निंग से विश्व भर में दे रहा है। उसके लिए उपजाऊ दिमाग चाहिए, उपजाऊ महँगी ज़मीन नहीं।
   तो क्या कोलकाता का ऑफर यूँही है?
   कल्पना कीजिये, कि  इसकी जगह यदि बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय का परिसर वहां बन जाए, तो क्या  उच्च शिक्षा पोषित होगी ? नहीं, तब नहीं होगी। आदमी-आदमी की बात होती है, संस्था-संस्था की बात होती है, जगह-जगह की बात होती है और नीयत-नीयत की बात होती है। 

बंदरबांट का नाम क्यों बदनाम करें, आदमी भी तो ऐसे ही बाँट रहे हैं।

जब  हमारा संविधान बन रहा था, तब एक सर्वोच्च संवैधानिक पद की कल्पना की गई। इसे 'राष्ट्रपति' कहा गया। कल्पना यह थी कि  सरकार कभी भी शत-प्रतिशत बहुमत लेकर नहीं बनेगी, इसलिए जो लोग सरकार के साथ न होकर विपक्ष में होंगे, उनके उठाये मुद्दों पर भी तटस्थ दृष्टिकोण रखने वाला सर्वमान्य, सक्षम, विद्वान व्यक्ति इस गरिमा-पूर्ण पद को सुशोभित करे। हो सकता है कि इस पद पर स्थापित व्यक्ति अपनी सीमाओं के चलते सर्वस्वीकार्य न हो सके। ऐसे में आसन की निष्पक्ष-पूर्णता के लिए एक उपराष्ट्रपति की कल्पना भी की गई। यह सोचा गया कि  यदि राष्ट्रपति सर्वमान्य न आ सके तो संतुलन के लिए उपराष्ट्रपति अलग विचारधारा को भी प्रश्रय दे सकेगा। इस तरह यह दोनों सर्वोपरि पद सरकार को एक अनुशासित दिशा-निर्देश दे सकेंगे।
   शायद यह कभी किसी ने नहीं सोचा होगा कि  पलंग पर विश्राम करती सरकार अपनी पीठ के नीचे से एक गद्दी निकाल कर सिरहाने लगा लेगी।
   मर जाने के बाद दुनिया में वापस लौटने का ऑप्शन तो है नहीं, तो अब हमारे संविधान निर्माता यह कैसे देखें कि  वे क्या चाहते थे, और क्या हो गया।   

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...