Monday, March 7, 2016

अरे नहीं !

 मनोज कुमार पर एकरसता, टाइप्ड होने, या ग्रामीण पक्षधरता का लांछन नहीं लगाया जा सकता।  उनका तो शोर भी ख़ामोशी से हुआ है। ये संन्यासी तो दस नंबरी बनने से भी नहीं चूका। रोटी कपड़ा और मकान की चिंता में इसने बेईमान की जय भी बोली है। वो कौन थी, ये जानने के लिए गुमनाम होकर पूनम की रात में भटके हैं वे।
उनकी पहचान आदमी से लेकर इंसान तक यादगार रही, पूरब से लेकर पश्चिम तक।
उन्हें सम्मान देकर दादा साहेब फाल्के अवार्ड की जूरी ने कोई उपकार नहीं किया।
कोई कहता था कि उनकी क्रांति तक में लड़कियां उनके इर्द-गिर्द भीग कर नाचती हैं,तो कोई कहता था कि वे आदमी होकर भी आदमी से प्यार करते हैं।  उन्होंने कभी दो टके की नौकरी को लाखों के सावन पर भारी समझा तो कभी नौकरी न होने पर भी सोने-हीरे की अंगूठियां प्रेमिका को देने की ख़्वाहिश रखी।
उन्होंने गाँव के पनघट पर पनिहारियाँ भी देखीं, तो शहर की छोरियों के रंग भरे प्यार की तलाश में गाँव छोड़ कर शहर भी आये। सोना उगलती धरती छोड़ शहरी क्लर्क बाबू बन बैठे।
देश के नौजवानों को उनकी वो डाँट आज भी याद होगी-"धत तेरी ऐसी-तैसी, सूरत है लड़की जैसी, तंग पैन्ट पतली टांगें, लगती हैं सिगरेट जैसी",लड़के ही नहीं, उन्होंने लड़कियों की फैशन-परस्ती की भी जम कर खबर ली-"छोरी होके ये हज़ामत कराये?"
वे तो पत्थर के भी सनम रहे हैं। उनके भीतर का कलाकार फिल्मजगत की अमानत है। "कसमें-वादे- प्यार- वफ़ा, सब बातें हैं, बातों का क्या?" कहने वाले मनोज ने उसी शिद्द्त से ये भी ऐलान किया-"इन कसमों को, इन रस्मों को, इन रिश्ते-नातों को, मैं न भूलूंगा!"
                        

Friday, March 4, 2016

कुछ देर से

मनोज कुमार को दादासाहेब फाल्के पुरस्कार मिलना अच्छी बात है, वे इसके हक़दार भी हैं। बल्कि कुछ जानकारों का तो यहाँ तक मानना है कि उन्हें यह पुरस्कार कुछ देर से मिल रहा है, वस्तुतः देखा जाये तो शशि कपूर से पहले वे इसके अधिकारी थे।  
यदि उनके लम्बे फ़िल्मी कैरियर की तुलना शशि कपूर के फ़िल्मी सफर से की जाये तो सफल और सोद्देश्य फिल्मों की दृष्टि से वे शशि कपूर से इक्कीस ही साबित होते हैं।  
कहा जाता है कि हर सफल पुरुष के पीछे किसी महिला का हाथ होता है। ये बात यहाँ सौ प्रतिशत लागू होती है।शशि की पत्नी जेनिफर स्वयं एक बेहद सुलझी हुई अभिनेत्री थीं। वे फिल्म निर्मात्री भी थीं। उनके साथ शशि को अपने मूल्यांकन के जो अवसर सुलभ हुए वे घरेलू महिला शशि गोस्वामी से मनोज कुमार को उपलब्ध नहीं हुए।   यदि दोनों की फ़िल्मी महिलाओं की बात करें तो मनोज की जोड़ी नंदा, साधना, माला सिन्हा,आशा पारेख,सायरा बानो के साथ रही जो सभी काम से काम रखने वाली अभिनेत्रियां थीं।  उनकी व्यावसायिक सफलताओं, पुरस्कारों, अंतराष्ट्रीय पहचान या मार्केटिंग प्रमोशन आदि में कतई रूचि नहीं थी। इसके उलट शशि की जोड़ी शर्मिला टैगोर,रेखा, हेमा मालिनी,बबिता आदि के साथ रही जो परदे के अलावा भी एकाधिक कारणों से चर्चित अभिनेत्रियां थीं।  
बहरहाल गुमनाम, वो कौन थी, हिमालय की गोद में, दो बदन,पूनम की रात,आई मिलन की बेला,हरियाली और रास्ता के समय मनोज फ़िल्मी परदे के सबसे खूबसूरत नौजवानों में शुमार थे।  बाद में पूरब पश्चिम, उपकार, शोर, क्रांति, रोटी कपड़ा  और मकान आदि से उन्होंने उद्देश्यपरक फ़िल्मकार होने का संकेत दिया। किन्तु सच यह भी है कि क्लर्क जैसी फिल्मों तक आते-आते मनोज आत्ममुग्धता के शिकार कहे जाने लगे और अपने समकालीनों से अलग-थलग पड़ने लगे।  उनके परिवार के अन्य युवकों -उनके भाई तथा पुत्र के फिल्मों में सफल न होने का असर उनकी अपनी लोकप्रियता पर भी पड़ा। 
दादा साहेब फाल्के जैसे गरिमापूर्ण सर्वोच्च सम्मान के लिए वे किसी भी दृष्टि से हल्का चयन नहीं हैं।  उन्हें हार्दिक बधाई।               

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

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