Saturday, July 30, 2011

इस घबराहट में ईमानदारी है-अमेरिका

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा है कि अमेरिका पर क़र्ज़ का बोझ बेतहाशा बढ़ गया है.आइये, एक आम आदमी की तरह इस बात का मतलब जानें, और यह भी जानने की कोशिश करें कि इस वक्तव्य पर कौन सा देश क्या सोच रहा होगा. 
मूल रूप से  क़र्ज़ को लेकर हमारी अवधारणा हमारे वेद-वाक्यों व लोकोक्तियों में दर्ज है. सर्वाधिक लोकप्रिय कहावतें हैं- आज नकद, कल उधार. ऋण लेकर घी पीना[वैसे यह कहावत ऋण पर कुछ न कह कर घी की महिमा बखानती है],उधार प्रेम की कैंची है.चादर देख कर पैर पसारना. यह सभी उक्तियाँ क़र्ज़ विरोधी हैं, और आज तेज़ी से बदलते समय में अप्रासंगिक होती जा रही हैं.इसके उलट अमेरिकी व पश्चिम की सोच है- खर्च करना सीखो, तो कमाना भी आएगा. भविष्य तुम्हारा है, इस से थोड़ा सा लेकर अपना वर्तमान सुधार लो.
इस तरह क़र्ज़ की चिंता वही कर सकता है जो इसे वास्तविक 'चिंता' मान कर इसे ईमानदारी से चुकाने की नीयत रखता हो. ओबामा महोदय का आशय यही है कि "भविष्य" से जो ले लिया है उसे लौटाने के लिए "वर्तमान" का परिश्रम और बढ़ाओ.
यह ओबामा का कथन है. इसे दुनिया-भर में ध्यान से सुना जायेगा. लेकिन किसी के कुछ भी सोचने पर किसी की कोई पाबंदी नहीं है. आइये देखें- कौन क्या सोचने लगा होगा- 
किसी को नीचा दिखा कर कोई सुख से नहीं बैठ सकता- रूस. 
बाज़ारों पर हमारी मेहनत का कब्ज़ा है,किसी के 'आलस्य' का नहीं- चीन.
हमें केवल कुदरत हरा सकती है, और कोई नहीं, हम तो क़र्ज़ भी बीज के लिए लेते हैं,ब्रेड के लिए नहीं- जापान.
चलो उनका पैसा तो दूसरे भी नहीं लौटा रहे, हमारी क्या बिसात?-पाकिस्तान.
'रनर-अप' से "विनर" बनने के दिन नज़दीक आये-जर्मनी.
सूरज न्याय-प्रिय है, सबके लिए डूबता है- इंग्लैण्ड.
अपने खेत में तो अन्न भी है, जल भी और ज़मीन के जेवरात भी, क़र्ज़ लेने और देने वाले जाने- साउथ अफ्रीका.  
अब यूनान के बाद हम अकेले नहीं होंगे - फ्रांस  
पडौसी दुखी है, चैन से नहीं बैठा जा सकता- ब्राजील.
अभी तो दूर बज रहा है ढोल, नज़दीक आएगा तो देखा जायेगा-आस्ट्रेलिया.  
क्या किया जाये, कि संसार की निगाहें इसी तरफ उठी रहें-कनाडा. 
आया ऊँट पहाड़ के नीचे-भारत.            

Friday, July 29, 2011

यहीं मात खा जाते हैं हम ब्राजील, अर्जेंटीना और वेनेज़ुएला से

आपको कई ऐसी फ़िल्में याद होंगी जिनके कथानक तो ज्यादा अच्छे नहीं थे, पर वे अपनी नयनाभिराम फोटोग्राफी के कारण खूब चलीं.फोटोग्राफी का असर होता है. फोटोग्राफी रोते हुए को सुखी दर्शा सकती है. यह दुखी को प्रसन्नचित्त भी दर्शा देती है. सब कुछ इस पर निर्भर करता है कि कैमरा-एंगल कैसा रहा है. 
हमारे देश में कैमरा जीतने वाले पर निशाना साधता है. उसे हारने वालों में कोई दिलचस्पी नहीं होती.उसका लक्ष्य तमगे, मालाएं और मुस्कानें होती हैं.उसे झल्लाहट,हताशा और हार में मज़ा नहीं आता. खेल के दौरान भी शायद उसकी प्राथमिकता 'शॉट' में उतनी नहीं होती जितनी खेलने वाले के वस्त्रों में होती है.बस, यहीं हम मात खा जाते हैं. खेल के बाद हारने वाले के बारे में हम यह नहीं सोच पाते कि कल यह दोबारा खेलेगा, तो कम से कम आज इसकी गलतियों या कमियों की चर्चा करलें. ब्राजील से यह सबक हमें मिलता ही है कि फ़ुटबाल में हारने वाले या हैण्ड-बाल में परास्त होने वाले के हाथ-पैरों की बेहतरी के बारे में सोचें न कि जीतने वालों की छाती के ही बारे में. खिलाड़ियों की खेल-शैली का विकास देश की ज़िम्मेदारी भी होती है क्योंकि वे सार्वजानिक मिल्कियत होते हैं.जीत के जश्न में नाचने वालों की तरह ही हार के बाद मीमांसा करने वालों की ज़रुरत को भी नज़र-अंदाज़ नहीं किया जा सकता. दक्षिण अमेरिकी देशों ने जो मुकाम हासिल किया है उसकी वजह भी है. वे केवल भाग्य के भरोसे कभी नहीं रहे.              

Thursday, July 28, 2011

वैसे बुराई क्या है घोटालों में?

एक चुनाव आएगा. लोग साम-दाम-दंड-भेद से उसे जीतेंगें. एक सरकार बनेगी. वह तरह-तरह के "करों" से जनता से पैसा वसूलेगी. लोक-लुभावन योजनायें बना कर उस पैसे से पूरी की जाएँगी. बीच में छोटे से लेकर बड़े तक बहती गंगा में हाथ धोयेंगे. कभी-कभी मछलियों में कोई शार्क या व्हेल आ जाएगी, और गंगा पी जाएगी. थोड़े दिन हल्ला मचेगा, फिर सब शांत. 
आइये, आज इन शार्क या व्हेलों पर बात करें. क्या ये सब हाथ-पैर बाँध कर जेल में डाल देने लायक ही हैं? 
जी नहीं, इनमे सब तरह का स्टफ़ है. जीनियस भी हैं. पैसा खाने के साथ-साथ और कई क्षमताओं वाले लोग भी हैं. कई लोगों ने पैसा इसलिए चाट लिया, क्योंकि हमारे संविधान और कानून ने उस पर शहद लगा रखा था.कई लोगों ने सरकारी तिजोरियां इसलिए साफ़ कर डालीं, क्योंकि उन्हें सरकार में घुसाते वक्त कुछ लोगों ने उनकी जेबें साफ़ कर डालीं थीं. खैर, किसी भी नाजायज़ तरीके को सही ठहराना हमारा अभीष्ट नहीं है. न ही किसी 'गलत' का बचाव करना. हम केवल यह कह रहे हैं कि घोटाले इसलिए हुए चले जा रहे हैं, क्योंकि इनसे देश को कोई बड़ा नुक्सान नहीं हो रहा. जिन लोगों ने अरबों-खरबों हज़म कर लिए, वे न तो नोटों को खायेंगे और न इन्हें ओढेंगे-बिछायेंगे.केवल इधर-उधर छिपाएंगे, और पहरुओं के तितर-बितर हो जाने के बाद इन्हें उन्हीं कामों में लेंगे, जिनमे सरकार लेती. फर्क केवल यह है कि इनसे बनी मिल्कियत सरकारी न होकर 'निजी' होगी. निजी क्षेत्र ने सारे काम बुरे नहीं किये. और,और,और सरकार ने सारे काम अच्छे नहीं किये.    

जैसे नील आर्मस्ट्रोंग चन्द्रमा से मिले,वैसे ही मिला था मैं इनसे.

ये "सितारे" कहलाते थे. ये सबको दीखते थे, किन्तु  सेल्युलाइड के रुपहले परदे पर. लेकिन मुझे इनसे आमने-सामने मिलने का अवसर मिला. कुछ से बातें भी हुईं. कुछ से मित्रता भी. मुझे यह भी पता है कि इनमे से कई अब जनता-जनार्दन की नज़रों से ओझल हो चुके हैं. कई कालातीत भी. लेकिन मैंने इन्हें इनकी सितारा हैसियत में ही देखा था, इसलिए मैं इन्हें आज भी उसी तरह याद करता हूँ, जिस तरह अपने पुराने दिनों को.
कीर्ति सिंह, फरियाल, सुजीत कुमार, जगदीश सदाना, सनम गोरखपुरी, रजा मुराद,आकाशराज,रूपेश कुमार, चन्द्र शेखर,और जुगनू से मेरा परिचय हुआ तब यह सक्रिय  थे.यद्यपि इनकी स्टार-वैल्यू कोई बहुत ज्यादा न थी. 
पद्मा खन्ना, आदित्य पंचोली, भीमसेन से में जब मिला तब ये चर्चित थे. 
राजेंद्र कुमार, रंधीर कपूर, ऋषि कपूर, जीतेंद्र, जयाप्रदा, जया भादुड़ी बच्चन,स्मिता पाटिल, हरमेश मल्होत्रा, वहीदा रहमान और ए आर रहमान को देखना अद्भुत अनुभव था. अभिषेक बच्चन से मैं तब मिला जब वे कोई सितारा नहीं थे बल्कि अपनी माताश्री जयाजी के साथ आये थे.राजेंद्र कुमार को मैं कभी नहीं भूल सकता क्योंकि उनके साथ मैंने कई लम्बी-लम्बी बैठकें की थीं. ईश्वर उन्हें थोड़ी उम्र और बख्शता तो शायद हम साथ-साथ काम भी करते. उनके पुत्र के लिए लिखी कहानी "निस्बत' को उन्होंने पसंद किया था. जिसमे खुद उनके लिए भी महत्त्व-पूर्ण भूमिका थी.         

Wednesday, July 27, 2011

अक्षरों के बदले सितारे लौटाने का सुख यूरोप का शगल है

सुबह भूले-बिसरे फ़िल्मी गीत आ रहे थे. नायिका गा रही थी- "कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन".दूसरे ही गीत ने जवाब दे डाला- "बड़े नासमझ हो,ये क्या चाहते हो". लेकिन यह सच है कि "लौटाने"का भी अपना सुख है. 
मैं जब भी कोई किताब पढ़ा करता था, तो उसके लेखक को अपनी 'प्रतिक्रिया' ज़रूर लौटाया करता था. लेकिन यहाँ अपनी एक कमजोरी भी आपको बता दूं ,मैं केवल अनजान लेखकों को ही प्रतिक्रिया देता था. अपने मित्रों और परिचित साहित्यकारों को मैंने प्रतिक्रिया कभी नहीं दी. मैं डरता था कि कहीं मैं इस तरह उनकी मित्रता या कृपा-पात्रता खो न दूं. आज उन लोगों को भी कुछ लौटाने का मन कर रहा है. ये सब वही लोग हैं, जिनसे मैं मिलता रहा, पर इनके 'लेखन' पर मौन रहा. इनमे से कई तो अब जीवित भी नहीं हैं. ऐसे में प्रतिक्रिया, यदि शब्दों में न देकर सितारों में दी जाये तो शायद ज्यादा कारगर होगा.वैसे ये रिवाज़ पश्चिम का है, पर अब पूरब- पश्चिम- उत्तर- दक्षिण में अंतर ही कहाँ है?तो मेरा साथ दीजिये, और मेरे इन वरिष्ठ और मित्र साहित्यकारों के लिए तालियाँ बजाइए. 
*फज़ल इमाम मल्लिक, आत्माराम, राम मनोहर त्रिपाठी, सतीश दुबे, हृदयेश, सत्य नारायण मिश्र, अमर सिंह वधान, भैरू लाल गर्ग, तेजेंद्र शर्मा, दामोदर खडसे, विश्वनाथ सचदेव,कुंदन सिंह परिहार, सुमन सरीन, रमेश बत्रा, अरविन्द, बलराम, वेदव्यास,नन्द भारद्वाज, सावित्री परमार, विनोद तिवारी, अवध नारायण मुद्गल, सुदीप, शुभा वर्मा, सुधा अरोरा, सविता बजाज, जीतेंद्र भाटिया, उमा शंकर मिश्र. 
* *शेरजंग गर्ग, पद्मा सचदेव, राजेंद्र गौतम, उर्मि कृष्ण,निदा फाजली, राजेंद्र अवस्थी, महाराज कृष्ण जैन, यादवेन्द्र शर्मा'चन्द्र', कन्हैयालाल नंदन,ज्ञान प्रकाश विवेक, मधुकांत, बालशौरि रेड्डी, जगदम्बा प्रसाद दीक्षित, सीताकांत महापात्र, 
* * *हरिशंकर परसाई,मृणाल पाण्डे,शरद जोशी, धीरेन्द्र अस्थाना, सूर्यबाला, मेहरुन्निसा परवेज़, विष्णु प्रभाकर, गिरिराज किशोर, ज्ञानरंजन,असगर वजाहत, गोविन्द मिश्र, विद्या निवास मिश्र, 
* * * * निर्मल वर्मा, इस्मत चुगताई, राजेंद्र यादव, चित्रा मुद्गल,मैत्रयी पुष्पा
* * * * * कृष्णा सोबती, डॉ.राही मासूम रजा,धर्मवीर भारती, हरिवंश राय बच्चन,कमलेश्वर,                 

Tuesday, July 26, 2011

स्वाति नक्षत्र में सीप के पहलू में गिरी ओस की बूँद की तरह टपकना पड़ता है "बॉस"की निगाहों में

अच्छा वर्कर बनना बहुत कठिन भी है, बहुत आसान भी. कई बार दिन-भर काम में गधे की तरह खटने वाले जांबाज़ वर्कर भी बॉस के सामने एक जम्हाई ले लेते हैं, और अपने तमाम कैरियर पर कालिख पुतवा लेते हैं. दूसरी तरफ कई बार दिन भर फली के दो टूक न करने वाले कर्मासुर लोग  "बॉस" के सामने पड़ने पर फाइलें लेकर थिरकते पाए जाते हैं, और 'प्रमोशनों' को प्राप्त होते हैं. इस तरह अच्छा वर्कर बनने के लिए काम जानना या करना नहीं, बल्कि बॉस की निगाह के 'रैम्प' पर सधी चाल से चलना आना चाहिए. यह सूत्र इतना अद्भुत और अलौकिक है की बॉस के सामने न होने पर भी काम करता है. 
पुरानी बात है. उन दिनों मैं एक विश्व-विद्यालय का प्रशासन और जनसंपर्क अधिकारी था. वहां एक समारोह में एक बड़े नेता आये. हमारे चांसलर कुछ अस्वस्थ होने के कारण उन नेता की चाल से चाल नहीं मिला पा रहे थे. अतः वे एक जगह रुक गए, और विद्यार्थियों द्वारा लगाईं गई चित्र-प्रदर्शनी का अवलोकन करवाने के लिए मुझे उन नेता को ले जाना पड़ा. मैं उनके साथ चलते हुए उन्हें बच्चों के काम की विशेषताओं और मेहनत  के बारे में बताता जा रहा था.वे तेज़ी से चलते जा रहे थे. रुक कर बच्चों से कोई बात न करने और काम को ध्यान से न देखने के कारण बच्चों में निराशा घर करती जा रही थी. मैं विद्यार्थियों के चेहरों से यह भांप रहा था. मैंने तभी नेता का ध्यान आकर्षित करने के लिए एक दीवार-चित्र के बारे में उन्हें बताया-यह देखिये, इसे बच्चों ने "इटली" मार्बल पर बड़ी मेहनत से बनाया है. मेरी तरकीब ने काम किया, वे आगे बढ़ जाने के बावजूद वापस लौटे, और उस चित्र को छू-छू कर देखने लगे. बच्चों को भी अच्छा लगा. 
अब एक राज़ की बात आपको भी बता दूं. काम मेरी तरकीब या बच्चों की मेहनत ने नहीं किया था, बल्कि "बॉस थ्योरी" ने किया था. अब आप समझ ही गए होंगे कि नेताजी कौन थे?बिलकुल ठीक पहचाना. हमारे प्रधान-मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह जी. अब बॉस आप पहचानिए.      

Monday, July 25, 2011

गोपनीयता सकारात्मक है या नकारात्मक, इसका उत्तर ताशकंद, अमृतसर और राधेश्याम त्रिपाठी को पता है

भारत के दूसरे प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री रूस की यात्रा पर ताशकंद गए थे, और "ताशकंद" समझौते के बाद उनकी पार्थिव देह देश में वापस आई. क्या हुआ, कैसे हुआ, कब हुआ, क्यों हुआ, कोई नहीं जानता. साथ में जाने वाला प्रतिनिधि-मंडल और स्वास्थ्य-दल भी नहीं. "गोपनीयता" ने सब ढक लिया.पारदर्शिता प्रधान मंत्रियों के साथ जाने वाले "प्रेस"को भी चकमा दे गई. 
ऑपरेशन ब्लू-स्टार के समय स्वर्ण मंदिर परिसर में सेना के दाखिल होते समय "गोपनीयता" कुछ न ढक पाई. "पारदर्शिता" ने सब उजागर कर दिया. देश को बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी. कांग्रेस को और भी बड़ी. राजीव-संजय गाँधी को उस से भी बड़ी. सिख समुदाय को बड़ी से बड़ी, और इंसानियत को सबसे बड़ी. 
मुझे याद नहीं आ रहा, ये ताशकंद और अमृतसर के साथ राधेश्याम त्रिपाठी का नाम कहाँ से आ गया? यह शायद कोई 'टाइपो-ग्राफिकल'मिस्टेक हो सकती है. इस नाम का आदमी न तो ताशकंद गया था और न ही अमृतसर. हाँ, याद आया, इस नाम का मेरा एक मित्र था. वह कहा करता था कि चौरासी लाख योनियों के बाद मिला मानव-जन्म  तबादलों में जाया हो रहा है,सरकार अलग-अलग शहरों के अन्न-जल पर मेरा नाम लिखवा देती है.वह यह भी कहता था कि "गोपनीयता" किसी काम की चीज़ नहीं है, जब भी ट्रांसफर कैंसिल करवाने के लिए  किसी अफसर के हाथ-पैर जोड़ने जाता हूँ, सब को पता चल जाता है, "पारदर्शिता" भी किसी काम की चीज़ नहीं है, मेरे ट्रांसफर-ऑर्डर कब निकलते हैं, पता ही नहीं चलता. अब वह गोपनीयता और पारदर्शिता की दौड़ से बहुत दूर जा चुका है.अगली चौरासी-लाख योनियों तक अब कोई उसे तंग नहीं कर सकता.         

Sunday, July 24, 2011

जन्म दिन की शुभकामनाएं, happy birthday

किसी प्रतियोगिता में आपने देखा होगा कि जीतने वाले और हारने वाले में कई बार बहुत ही कम अंतर होता है. फिर भी "जीत" बिंदु पर खड़े होने का अपना महत्त्व है. इसी तरह सब दिन समान होने पर भी किसी ख़ास दिन का अपना ही महत्त्व है. यह दिन हमेशा यह याद दिलाता है कि माउंट- एवरेस्ट की ओर देखते समय हर एक की आरज़ू उनतीस हज़ार दो सौ फिट की ऊँचाई पर झंडा फहराने की होती है,उनतीस हज़ार एक सौ निन्यानवे फिट पर नहीं, जबकि वह भी उतना ही मुश्किल भरा काम है. 
इसी लिए हम जन्म-दिन को मनाते भी हैं और अपने जीवन के लिए एक अहम् शुरुआत का आरम्भ-बिंदु भी मानते हैं. यही याद दिलाने के लिए कहते हैं-जन्म दिन की शुभकामनाएं या हैप्पी बर्थडे     

अज़रबैजान का नाम भ्रष्टाचारी देशों में कैसे आ सकता है?

भ्रष्टाचार कोई भी कर सकता है. कोई देश भी. अगर एक शहर में सौ लोग भीख मांगें, और दूसरे उतने ही बड़े शहर में दो लोग भीख मांगें, तो कोई भी पहले शहर को 'भिखमंगा' करार देगा. मान लीजिये, थोड़ी और तहकीकात होती है, और यह पता चलता है कि पहले शहर में सौ लोगों ने एक वक्त का खाना मांगा था, दूसरे शहर में दो लोगों ने किसी से कार मांग ली. भीख का परिमाण पहले शहर में दस हज़ार रूपये रहा, और दूसरे शहर में दस लाख रहा. अब इस प्रश्न के कई उत्तर हैं, कि कौन सा शहर ज्यादा भिखमंगा है. थोड़ी देर के लिए हम 'भीख' को भ्रष्टाचार से बदल लें. 
पहले शहर में सौ लोगों ने किसी सरकारी दफ्तर में किसी का कोई छोटा-मोटा काम करके रिश्वत स्वरुप सौ-सौ रूपये मांग लिए. दूसरे शहर में दो लोगों ने किसी बड़े काम की दलाली में दो कारें मांग लीं.अब सांख्यिकी कार फिर आपको अलग-अलग तरह से समझा सकते हैं कि भ्रष्टाचार कहाँ ज्यादा रहा. 
एक चिड़िया से किसी ने पूछा- क्यों री, तू हर समय फुदकती हुई इधर से उधर कहाँ भागती फिरती है? तुझे कहाँ जाने की जल्दी रहती है? चिड़िया बोली- मैं अजगर होती तो कहीं नहीं जाती, पड़ी रहती एक जगह आराम से, 
 न मुझे किसी का डर होता और न ही मैं ज्यादा  देर भूखी रहती, जो भी यहाँ आता, उसे निगल जाती.
वार्तालाप सुन कर अजगर से न रहा गया. वह आलस्य छोड़ कर बोला- ज्यादा सती-सावित्री मत बन, मैं उसी को खा रहा हूँ, जो यहाँ आ रहा है, तू तो फुदक-फुदक कर चारों ओर का माल समेट कर निगल रही है.
भ्रष्टाचार के इन्द्रधनुष से कोई भी आँख कोई सा भी रंग देखने को आज़ाद है.     

Saturday, July 23, 2011

शिक्षा को उद्योग न मानने के पीछे चिली, वेनेज़ुएला, ब्राजील और अर्जेंटीना का फलसफा ज्यादा क्लासिक

वैसे तो शिक्षा को व्यापारिक या औद्योगिक कारोबार मानने में थोड़ी सी हिचक सारी दुनिया ने ही दिखाई, पर अमेरिका की बनिस्बत दक्षिणी अमेरिकी देशों का फलसफा ज्यादा 'दर्शन आधारित' है. यही कारण है कि वहां शिक्षा में आधुनिकता की तुलना में शास्त्रीयता का पुट ज़रा ज्यादा है. और इसी कारण दुनिया के अन्य देशों के विद्यार्थियों में अमेरिकी शिक्षा की ललक ज्यादा है. शास्त्रीयता तो वैसे भी समय से पीछे मानी  जाती है.
शास्त्रीयता का यह फलसफा इस तरह समझा जा सकता है. व्यापार या कारोबार में एक की  वस्तु दूसरे के स्वामित्व में जाती है,इसके एवज में पहले को दूसरे से धन प्राप्त होता है, जो प्रायः वस्तु की कीमत और मुनाफे का जोड़ होता है.
शिक्षा के मामले में "ज्ञान" एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को जब हस्तांतरित होता है तो स्थिति ज़रा अलग होती है. यहाँ पहला व्यक्ति दूसरे को ज्ञान देकर स्वयं ज्ञान से वंचित नहीं होता, बल्कि यह एक प्रकार से ज्ञान का विस्तार ही होता है. अतः यहाँ ज्ञान की पूरी कीमत और मुनाफे का जोड़ दूसरे से नहीं वसूला जा सकता. क्योंकि ज्ञान पहले के पास भी बना हुआ है, जबकि पहले मामले में वस्तु देकर पहला व्यक्ति पूरी तरह वस्तु से वंचित हो जाता है. 
हाँ, यहाँ पर शिक्षा या ज्ञान के विस्तार का मूल्य मुनाफे सहित अवश्य वसूला जा सकता है, जो मूल मूल्य से काफी कम होगा. इसीलिए कहा जाता है कि शिक्षा को बेचा नहीं जा सकता, बल्कि कुछ कीमत पर उसकी व्यवस्था की जा सकती है. 
दक्षिणी अमेरिकी देशों में इसी सोच ने शिक्षा को ज्यादा महंगा नहीं होने दिया, और परिणाम-स्वरुप इसी बात ने अन्य देशों के लोगों के लिए वहां की शिक्षा का आकर्षण अमेरिकी शिक्षा के बराबर नहीं होने दिया.     

Friday, July 22, 2011

दक्षिण अमेरिका में चलाई सायकल सायरा बानो ने



सन साठ के आस-पास एक ऐसा दौर था जब मशीनें , वाहन या श्रम केवल पुरुषों के जिम्मे थे. महिलाओं से इनका दूर-दूर का भी वास्ता नहीं था. महिलायें अगर पानी की बाल्टी भी उठायें तो फ़िल्मी नायक गाता था- गोरे हाथों पे ना ज़ुल्म करो, हाज़िर है ये बन्दा हुक्म करो. बस से उतरी नायिका अपना छोटा सा सूटकेस भी नहीं उठा पा रही है, और नायक उसे दिलासा दे रहा है- इतनी नाज़ुक न बनो.वाहन चलाना तो दूर की बात, अगर कोई आदमी चक्की पर आटा पिसवा कर सायकल पर ला रहा है तो घर के दरवाजे पर उसे उतरवाने के लिए सायकल का कैरियर खींचने को भी घर की महिला पडौसी के लड़के को बुलाने जाती थी. आप को खूब याद होगा, कि रेल या बस में सफ़र करने वाली महिलाओं का सामान उतरवाने के लिए raah  चलते पुरुषों की बाट देखी जाती थी.
फिर समय आगे चला. अपने आप को समय से आगे बताने वाली अत्याधुनिक नायिकाओं ने अपने को माडर्न  और फारवर्ड जताते हुए सायकल कुछ ऐसे अंदाज़ में चलाई जैसे आज की साधारण नारियां विमान, रेल या ट्रक चला रहीं हैं. आशा पारेख, सायरा बानो या शर्मीला टैगोर के गर्व से दुपट्टा हवा में लहराते हुए सायकल पर गीत गाने के कई द्रश्य उस पीढ़ी की स्मृतियों में आज भी कैद हैं.दुनिया के बड़े मुल्कों में जाकर विदेशी लोकेशनों पर उम्दा विदेशी सायकल पर गाना फिल्माना भी तब फिल्मकारों को उत्तेजना से भर देता था. दक्षिण अमेरिका के सागर तट आज शायद सायरा बानो को याद न रहे हों, पर उन्होंने कई लम्बे रास्तों पर टेक-रीटेक वहां दिए हैं. जॉय  मुखर्जी अब इन यादों पर मुस्करा भर सकते हैं. 

Thursday, July 21, 2011

कहें न कहें हम, छपते रहेंगे



नेताओं का एक बड़ा गुण यह होता है कि वे "कहते हैं".कोई भी समाचार-पत्र हो,न्यूज़-चैनल हो, या रेडिओ हो, आपको हर समय यह सुनने को मिलेगा- फलां नेता ने यह कहा, वह कहा. शब्द उनके मुंह से आठों पहर फूलों की तरह झरते ही रहते हैं. और मीडिया-कर्मी किसी कुशल माली की तरह झोली फैला कर यह फूल चुनते ही रहते हैं. [बाद में यही जनता को 'फूल' बनाने के काम भी आते हैं] खैर, जनता कौन सी कम है? एक ताज़ा सच्चा किस्सा सुनिए. 
मेरे एक मित्र की पत्नी एक कालेज में पढ़ाती हैं. वह क्लास लेने गई हुई थीं कि पीछे से घर की नौकरानी आई. घर पर ताला बंद था, मगर भीतर से जोर-जोर से पानी बहने की आवाज़ आ रही थी.इससे पहले कि बहती गंगा दरवाज़े से बाहर आती, नौकरानी ने मोबाइल पर मालकिन को इसकी सूचना देदी. टंकी खाली हो जाने के परिणाम मालकिन जानती थीं, अतः उन्होंने क्लास को भंग किया, बच्चों को छुट्टी दी, और अपना स्कूटर उठा कर घर की ओर दौड़ीं. हड़बड़ी में उन्हें यह भी ध्यान न रहा कि उनके स्कूटर की लाइट दिन-दहाड़े जलती आ रही है. वे आनन्-फानन में घर पहुँचीं, और उन्होंने नल बंद करके ही सांस ली.
अब उनका ध्यान उस छोटे से स्टिकर पर गया, जो उनके ही स्कूटर पर चिपका हुआ था. उस पर एक लोकप्रिय नेताजी की तस्वीर के साथ उनका दिया हुआ नारा लिखा हुआ था- 'पानी बचाओ, बिजली बचाओ, सबको पढाओ'.

Tuesday, July 19, 2011

चाची इन "फिनलैंड"



चाची का जवाब सुनने के बाद जब रात को मैं सो गया, मैंने सपने में फिनलैंड देखा. मैंने देखा कि चाची फिनलैंड में घूम रही हैं. वे एक बड़े से 'शोरूम' में घुस कर सैंडलों के लेटेस्ट डिजाइन छांट रहीं हैं.मुझे यह देख कर अचम्भा हुआ कि चाची उन लोगों से बात कैसे कर पा रही हैं? पर कुछ ध्यान से देखने पर मैंने पाया कि उन्हें बात करने की विशेष ज़रूरत पड़ नहीं रही.सेल्समैन उन्हें सैंडल छांटते देख रहा है और इंतज़ार कर रहा है कि वह कौन सा जोड़ा चुनती हैं. 
अपने चुने सैंडल पहनते ही चाची एकदम फिनलैंड की महिलाओं की तरह हो गईं, और उसी अंदाज़ में चलने लगीं. मुझे अब अपना सपना तोड़ देना पड़ा क्योंकि "हाई-हील" से चाची को कष्ट हो रहा था. 
सपना टूटते ही मैंने राहत की सांस ली और अपने को भारत के ही कानपुर शहर के एक मकान की छत पर पाया. आस-पास घर के सभी लोग सोये हुए थे, चाची भी. मैं आश्वस्त हो गया कि चाची फिनलैंड में नहीं हैं. 
क्या आप जानते हैं कि आखिर चाची को यह फिनलैंड का फितूर चढ़ा कैसे? कुछ दिन पहले वे अपने भाई के बेटे को एयरपोर्ट छोड़ने जा रहे चाचाजी के साथ कार में दिल्ली एयरपोर्ट चली गयीं. वहां एक हरे रंग के सुन्दर से जहाज को देख कर उन्हें जिज्ञासा हुई कि यह विमान कहाँ जा रहा है. भतीजे ने बताया कि यह 'फिनलैंड' जा रहा है. बस, चाची फिनलैंड की हो गईं. वो कहते हैं ना, कि गृहस्थों की तो "जो दिख जाये वो ही काशी".

Monday, July 18, 2011

कोई भी चीज़ जोड़ सकती है हमें किसी से भी



मेरी एक चाची थीं. एकदम घरेलू. उनके मुंह से मैंने कभी नमक-मिर्च या साग-सब्जी के अलावा और कोई बात नहीं सुनी. लेकिन एकदिन अचानक मैंने उनके सरोकारों में बड़ा बदलाव देखा. वे बात-बात पर 'फिनलैंड' का नाम ले रहीं थीं. वे बाज़ार से लौटीं, तो उनकी बेटी ने कहा- मम्मी, आप सैंडिल अच्छे नहीं लाई हो. वे बोलीं-अब मुझे तो जैसे मिले मैं ले आई, ये कोई फिनलैंड तो है नहीं कि पचास वैराइटी मिल जातीं.मुझे यह समझ में नहीं आया कि चाची ने फिनलैंड के बाज़ार कब देख लिए. कई बार उनके मुंह से इसी तरह फिनलैंड का नाम सुना. एकदिन पडौस से मिलकर लौट रहीं थीं, कि लड़के को रसोई में कोई काम करते देख बोल पड़ीं - अरे ज़रा रुक नहीं सकता, मैं क्या फिनलैंड चली गई थी जो अपने आप चाय बनाने लगा.आखिर उनके इस फिनलैंड प्रेम का राज़ भी खुला. गर्मियों की रात में हम सब सोने के लिए छत पर आ चुके थे. चाची चुपचाप लेटी तारों की ओर देख रही थीं,मैंने पूछा- चाची, आपको सबसे अच्छा देश कौन सा लगता है? उनके जवाब ने मुझे हिंदी का एक मशहूर मुहावरा याद दिला दिया. आप गैस कर सकते हैं, कौन सा होगा वह मुहावरा? 

Sunday, July 17, 2011

संयोग से बने चैम्पियनों के देश कभी नहीं रहे ब्राजील और अर्जेंटिना



एम् ऍफ़ हुसैन के जीवन में एक ऐसा अवसर भी आया था जब उन्होंने अपने सब चित्र फाड़ने चाहे थे. हाल ही में भारत में कुछ शोध कर चुके युवाओं ने अपनी डिग्रियां फाड़ डालीं. लाल बहादुर शास्त्री ने एक रेल दुर्घटना के बाद पद से इस्तीफा देना चाहा तो उसे फाड़ कर फैंक दिया गया. 
दूसरी तरफ भारत में ऐसे भी अवसर आये जब जनता ने किसी नेता के कपड़े फाड़ने चाहे, पर उसके सुरक्षा-कर्मियों ने उसे बचा लिया. किसी भी क्षेत्र में ऐसे अवसर आते हैं, जब निराशा-हताशा उपजती है. इस स्थिति को जीत लेना ही पराक्रम है. इसी से छवि बनती है. लेकिन छवियों को बनाने से कहीं ज्यादा मुश्किल काम होता है छवियों को बनाए रखना. 
ब्राज़ील और अर्जेंटीना जैसे देशों को खेल जगत में अपनी छवि सस्ते में नहीं मिली. ये देश बचपन से अपने रहवासियों को विजेता बनने का सपना दिखाते हैं. वह सपना, जिसे देखने के बाद इंसान का नींद से रिश्ता ही टूट जाये. सपनों को हकीकत में बदलने की कला दक्षिण अमेरिकी देशों में हवा में घुली है. 

Saturday, July 16, 2011

मीडिया, सरकार, ज़माने और अक्षय कुमार को बधाई

किसी को मुबारकवाद देने से पहले उसे यह बताया जाता है कि यह बधाई क्यों दी जा रही है. कभी-कभी
'सरप्राइज़' देने के लिए बाद में बताया जाता है. पर अब इस रोजमर्रा की बात में सरप्राइज़ कैसा. 
तो मीडिया को इसलिए बधाई कि उसने कुछ भारी-भरकम शब्दों को इस्तेमाल कर-कर के जनता को उनका ऐसा अभ्यस्त बना दिया है कि वे आम बोलचाल के शब्द बन कर रह गए हैं. सरकार तो हमेशा से बधाई की पात्र रहती ही आई है.बहरहाल इस बार इसलिए बधाई कि उसकी नीतियों के चलते जनता दिनों-दिन बहादुर होती जा रही है. ज़माना भी बधाई का हक़दार है, क्योंकि कलियुग उम्मीद से कुछ अच्छा ही जा रहा है. अब बचे अक्षय कुमार, तो इस खिलाड़ी ने लोगों को खतरों से खेलना सिखाया है. 
मेरे पडौस में काफी दिन से एक मकान के बेसमेंट में कुछ काम चल रहा था. शायद कुछ बिजली-पानी के कनेक्शन का काम था. एक दिन महिलाओं को आपस में बातचीत करते देखा. आवाज़ स्वाभाविकतया काफी बुलंद थी, और आसपास वालों को भी आनंदित कर रही थी. एक महिला बोलीं- अब तो आपके अंडर-वर्ल्ड में काफी अच्छे कनेक्शन हो गए. उन्होंने पलट कर जवाब दिया- आप भी तो भू-माफिया हो गए. ज़ाहिर है कि उन्होंने कुछ दिन पहले एक प्लाट खरीदा था. 

उन सत्तर महिलाओं का क्या होगा?

क्षमा कीजिये, आलेख का शीर्षक ही गलत हो गया. कृपया इसे यों पढ़ें- उन सत्तर पुरुषों का क्या होगा? यदि किसी एक व्यक्ति पर भी संकट आता है तो लोग सरकार को विफल बताने लगते हैं, और स्तीफा मांगने लग जाते हैं. अब एक- दो नहीं, पूरे सत्तर व्यक्तियों पर संकट आया है. कौन उन्हें खाना देगा? कौन उनके लिए करवा-चौथ का व्रत रखेगा? कौन उनके लिए मंगल-सूत्र पहनेगा?  ये सत्तर लोग किसी विमान अपहरण में नहीं फंसे, अपने-अपने घर आराम से बैठे हैं. पर आखिर कब तक बैठेंगे? माँ, बाप, भाई, बहन आखिर कब तक इनका ध्यान रख सकते हैं? एक न एक दिन तो इन का संकट गहराना ही है.  सबसे बड़ी बात यह है कि यदि ये सत्तर व्यक्ति अकेले होते तो फिर भी किसी तरह इनकी अनदेखी करके इन्हें इनके हाल पर छोड़ा जा सकता था, किन्तु ये अकेले नहीं हैं. इनके साथ हर एक हज़ार में से सत्तर लोग और हैं. सोचिये, इस तरह एक सौ इक्कीस करोड़ में से कुल कितने पुरुष संकट में हैं. इनके लिए महिलाएं हैं ही नहीं. [हालाँकि कई लोग यह सोच कर भी खुश हो रहे होंगे कि चलो, कम से कम हर एक हज़ार में से सत्तर तो खुशनसीब रहेंगे]

Friday, July 15, 2011

prakriti chahti thee ki ham maun rahen,kuchh n kahen, kuchh n sunen.

कल जब मैं आपसे बात कर रहा था, जयपुर में बहुत तेज़ बरसात हुयी. राजस्थान में बरसात का होना किसी त्यौहार की तरह होता है. लिहाज़ा बरसात का बहता मंज़र देखने मैं भी खिड़की पर चला आया. इस से हुआ ये कि मैं जो आपसे बात कर रहा था वह अधूरी ही रह गई और परदे से ओझल भी हो गई.
बात के बीच में छूट जाने का मलाल, न जाने क्यों, आज नहीं हो रहा. क्योंकि वह बात ही कुछ ऐसी थी. मैं मुंबई के बम-धमाके पर कह रहा था. ईश्वर करे,ये बातें करने की ज़रुरत कभी ,कहीं, किसी को न पड़े. मैं नेताओं की वाचालता पर कह रहा था. मैं सरकार की चुप्पी पर कह रहा था.मैं मुल्क के रहनुमाओं की आपदा-अभ्यस्तता पर कह रहा था. वे जनता के दुःख सहने में सिद्धहस्त हैं. हाँ, अपने कष्टों पर वे कुछ भी कर सकते हैं, कुछ भी. 

Thursday, July 14, 2011

सा रे ग म प ध नी सा,सा नी ध प म ग रे सा

अगली सुबह फूलों और गुलदस्तों से शुरू हुयी. उसने इतनी सुबह फोन करने के लिए क्षमा मांगी और विनम्रता से कहा कि उसके दफ्तर के इलाके में फूल नहीं मिलते हैं, अतः मैं अपने साथ कुछ गुलदस्ते ले आऊँ, मुझे उनका भुगतान मिल जाएगा. 
दस बजते-बजते जैसे ही मैं अपने ऑफिस पहुंचा, उसका फोन आया कि मैं उनके जिन कुछ कर्मचारियों का सम्मान किया जाना है, उनके लिए 'प्रमाण-पत्र' बना कर फैक्स कर दूं.
जब उसका अगला फोन आया तो वह काफी हताश सा था, कह रहा था कि कार नहीं आ सकेगी, मैं टैक्सी कर के आ जाऊं. अगला फोन उसका और भी निराशा में आया. वह बोला- समारोह में 'बजट' की तंगी है, अतः मैं ज्यादा महंगे गुलदस्ते न लाकर एक माला ले आऊँ. 
अगली बार वह लगभग याचना कर रहा था. पूछ रहा था कि क्या मैं पुरस्कार स्वरुप बांटने के लिए अपनी पुस्तकों का एक सेट ला सकता हूँ? दो बजे उसने मुझे कार्यक्रम के देर से शुरू होने की सूचना दी, और तीन बजे फोन किया कि क्षेत्रीय प्रबंधक महोदय के अचानक टूर पर चले जाने के कारण कार्यक्रम रद्द किया गया है और वह रात को मुझे मेरे घर पर मिलेगा. 
मैं आज उसका नाम महादेवी, टंडन और निराला के साथ लिखने में गर्व महसूस करता हूँ. पर आपके सामने नहीं लिखूंगा, कहीं उसके गर्व को ठेस न लग जाये. 

indradhanush phone ka

अत्यधिक उत्साह से उसका फोन आया- मुझे महादेवी वर्मा बहुत पसंद हैं, पर उन्हें "छायावादी" क्यों कहते हैं? आप अपने भाषण में इस पर भी प्रकाश डालना. मैं उसके उत्साह को बनाये रखना चाहता था, इसलिए मैंने सहमति दे दी.कुछ ही देर बाद फोन फिर बजा. वह बोला- क्या आपके पास राजर्षि टंडन की जीवनी है? मेरे मना करने पर उसने जानना चाहा कि क्या वह मुंबई में कहीं मिल जाएगी? वह चाहता था कि मैं वह किताब उसके क्षेत्रीय प्रबंधक को भेंट करूँ.
एक घंटे बाद वह मुझसे पूछ रहा था कि क्या मैं अपने साथ हिंदी की सभी पत्र-पत्रिकाओं की सूची ला सकता हूँ? वह अबतक मुझसे एक घनिष्ठ मित्र की भांति खुल चुका था और मुझे सलाह दे रहा था कि मैं अपने सुनने वालों को 'प्रवीण' 'प्रबोध' और 'प्राग्य' परीक्षाओं के बारे में बताऊँ, क्योंकि वे सभी दक्षिण भारतीय हैं. अपने अगले फोन में उसने मुझे जानकारी दी कि ठीक साढ़े-तीन बजे मुझे लेने कार आ जाएगी, मैं तैयार रहूँ. उसे इस बात का शायद अहसास हो गया था कि रात काफी हो चुकी,  इसलिए अगला फोन उसने काफी संक्षिप्त किया.उसने फरमाइश की कि मैं वहां अपनी कविताओं के साथ महाकवि निराला की कुछ रचनाओं का पाठ भी करूँ. 

Wednesday, July 13, 2011

जब वह उन्नीस साल का हुआ, उसने तय कर लिया कि वह शारीरिक यातनाओं से डर कर राष्ट्रभाषा से दूर नहीं जायेगा. वह अपना शहर छोड़ कर मुंबई आ गया. यहाँ उसकी मेहनत रंग लाई और वह एक दक्षिण-भारतीय बैंक में हिंदी अधिकारी बन गया. अपने सहकारियों की उदासीनता और अधिकारियों की उपेक्षा के बावजूद उसने अपने दफ्तर में एक दिन हिंदी-दिवस मनाया. जानते हैं कैसे? 
उसने मुझे फोन किया कि अगले दिन मैं "मुख्य-अतिथि" के रूप में उसके कार्यालय आऊं.मेरे स्वीकृति दे देने के बाद वह बेहद खुश और उत्साहित हो गया. रात को आठ बजे मेरी उस से बात हुयी, और अगले दिन शाम चार बजे मुझे उसके दफ्तर पहुंचना था. बीच में बीस घंटे का समय था. इन बीस घंटों में मेरे पास उसके चौदह फोन आये. क्या-क्या कहा उसने,आप कल्पना कर सकते हैं? चलिए, कल मैं आपको बताता हूँ उसके फोन की पूरी कॉल-डिटेल्स.

Tuesday, July 12, 2011

महीयसी महादेवी, पुरुषोत्तम दास टंडन,महाप्राण निराला और वो 
जब वह कक्षा सात में पढ़ता था तो एक दिन अपनी डायरी में ग़ालिब के एक शेर की एक लाइन लिख लेने पर उसे कक्षा से बाहर निकाल दिया गया. इसलिए, कि वह लाइन उसने हिंदी में लिख ली थी, तमिल में नहीं. कक्षा ग्यारह में उसने स्कूल में भारत माता की जय हिंदी में बोल कर पीठ पर डंडा खाया. 
कल हम उसी की  बात करेंगे.आज आप सोचिये, कि वह कैसा होगा, कौन होगा, कहाँ होगा? 

Monday, July 11, 2011

no man can serve two masters

really it is very difficult to serve two masters, but if your masters are two "languages" then its o.k.you can manage any how. language is the dress of thought. it is our thoughts which keep us awake. it is better to bend than to break. it is better not to be than to be unhappy. thoughts keep us awake, but indolence is the sleep of mind. if the blind leads the blind, both shall fall into the ditch. he who begins many things finishes nothing. he travels fastest who travels alone. but at the same time happiness is not perfected until it is shared. still "kahna padta hai"

Wednesday, July 6, 2011

आपका भी मान कभी लगा है दाव पर,अरे, सम्मानित हुए हैं?

कनुप्रिया, सूरज का सातवां घोड़ा और गुनाहों का देवता जैसी किताबों के लेखक और 'धर्मयुग' जैसी पत्रिका के तीन दशक तक सम्पादक रहे डा. धर्मवीर भारती से एक बार मैंने पूछा- आप देश की सबसे बड़ी हिंदी पत्रिका के इतने समय सम्पादक रहे, लेकिन इतने साल में उस पत्रिका में न कभी आपकी कोई रचना छपी, और न ही कोई तस्वीर? यहाँ तक कि आपका नाम भी बारीक अक्षरों में केवल एक जगह छपता था,वह भी इसलिए, कि प्रकाशकीय घोषणा के नियमों में यह आवश्यक है. आपके भीतर का लेखक आपके भीतर के सम्पादक का लाभ उठाने के लिए ललचाता नहीं था? 
भारती जी बोले- हलवाई अपनी बनाई मिठाई शायद ही कभी स्वाद से खा पाता है.किसान को भी आपने अपने ही खेत से मूली-गाज़र तोड़ कर खाते नहीं देखा होगा. वास्तव में सर्जक अपने सृजन का भोग कर ही नहीं सकता. यदि कहीं कोई ऐसा करता है, तो या तो सृजन झूठा है, या सर्जक. ऐसी पत्रिका भी उस रसोई के समान होती है जिसमे भूखे बच्चों के सामने पहले माँ खुद थाली भर कर बैठ जाये. 
आज आपको ऐसी असंख्य पत्रिकाएं मिलेंगी जिनके अधिकाँश अंकों के कवर-पृष्ठ पर संपादकों की  अपनी न्यूज़ और अपनी ही तस्वीर होती है. न्यूज़ भी क्या, वे कहीं न कहीं, किसी न किसी से सम्मानित हो रहे होते हैं. कुछ सेवा-निवृत्त अफसर और बीत चुके नेता भी सम्मान करने में इतने सिद्ध-हस्त हो चले हैं, कि जैसे क्रिकेटर विकेट चटका कर रिकार्ड बनाते हैं, ये सम्मान कर के रिकार्ड बनाते हैं. 
कुछ समय पहले मेरे पास एक वयोवृद्ध प्रकाशक-सम्पादक का फोन आया कि अमुक अवसर पर आप फलां धर्मशाला में पधारिये, आपके हाथों हम कुछ लोगों का सम्मान करायेंगे. 
मैंने जानना चाहा, वे कौन लोग हैं, कहाँ से आ रहे हैं, आपने उन्हें कैसे चुना है, आप उनके सम्मान में उन्हें क्या देंगे? 
मेरे सवालों से वे एकाएक तिलमिला गए. उन्हें मेरा इतना जानना भला नहीं लगा. वे तो मुझे आदेश दे रहे थे और अपेक्षा रखते थे कि मैं सर के बल चल कर आऊंगा, ताकि उनकी पत्रिका में मेरी तस्वीर छपे. वे बौखलाए से बोले- सब लोकल हैं, और हम इन्हें दें क्या, ये वर्षों से पत्रिका का चंदा तो देते नहीं, मुफ्त में पढ़ रहे हैं. हम अपने प्रकाशन की किताबों का एक-एक सेट उन्हें दे- देंगे. आप तो बस आकर 'सालों' को एक शाल ओढ़ा देना.
मैंने कहा- ऐसे लोगों को ओढ़ाने-पहनाने की क्या ज़रुरत है,घूमने दो ऐसे ही.
[खुदा का शुक्र है कि मैंने यह मन ही मन कहा, उन तक मेरी आवाज़ नहीं पहुंची, और न मैं ही पहुंचा उनके समारोह में]  
    

Monday, July 4, 2011

१५ मिनट का "अखबारासन"अर्थात स्व-हिपनोटिज्म

एक समय था जब जंगल में सूरज से, गांवों में मुर्गे से और शहरों में अखबार से सुबह होती थी. यदि आप अखबार न पढ़ें तो ऐसा लगता था कि जैसे आपने सुबह ब्रश नहीं किया. अखबार के साथ थोड़ी देर बैठ लिए तो ऐसा लगता था कि आप अप-टू-डेट हैं.आप ज़माने के साथ कदम मिला कर चल रहे हैं. 
आज अखबार तकनीकी रूप से अन्तरिक्ष में विचर रहे हैं. कोई अखबार  ऐसा नहीं होगा जिसे हर माह दो-चार पुरस्कारों से न नवाज़ा जाता हो.लेकिन जब सुबह आप इन्हें पढ़ कर उठें तो आपकी जानकारी में राइ-रत्ती इजाफा शायद न हो. बस अपने आप को दिलासा दे लीजिये कि आपने अखबारासन कर लिया. 
पूरे पेज के विज्ञापन को पढ़ जाइये, आपको यह नहीं पता चलेगा कि यह किस शहर की किस चीज़ की नुमाइंदगी है.उद्घाटनों  के विज्ञापन आपको यह नहीं बता पाएंगे कि कौन आ रहा है, किस की तस्वीर झांसे के लिए है.समाचार पढ़ेंगे तो आपको खुद अंदाज़ा लगाना होगा कि क्या हुआ होगा.किसी नेता का वक्तव्य पढ़ेंगे तो डरते-डरते पढ़िए क्योंकि कल का अखबार यह कहने वाला है कि इन्होने ऐसा नहीं कहा था. यहाँ तक कि शोक-सन्देश भी पढ़ेंगे तो वहां मरने वाले के परिजनों का दुःख नहीं छलकता दिखेगा, बल्कि जीने वालों के प्रतिष्ठानों के लम्बे-चौड़े नाम विज्ञापन-स्वरुप दिखेंगे. और तो और संपादकों के नाम  तक भी आपको किसी मोबाइल-वैन पर सवार दिखेंगे.यदि मालिकों के बच्चों का ही नाम संपादकों के रूप में है तब तो वह पत्थर की तरह अटल दिखेगा, अन्यथा कोई संपादक मुश्किल से ही साल-भर पुराना हो पाता हो.कहीं- कहीं तो मालिक- सम्पादक इतने चपल हैं कि अखबार के समाचारों, विज्ञापनों, लेखों, कहानियों, कविताओं, लघु-कथाओं, क्षणिकाओं, चित्रों तक पर उनका ही नाम दिखेगा. खाली समय में वे कार्टूनों की प्रैक्टिस भी कर रहे होते हैं.अब वह खाली समय उन्हें मिलता कैसे और कब होगा, यह आप सोचिये.          












   

Sunday, July 3, 2011

माना कि सारी दुनिया ईश्वर ने ही बनाई है,पर मुझे ना-पसंद हैं ये

मैं आपको आज कुछ ऐसी चीज़ों के बारे में बता रहा हूँ, जो मुझे बिलकुल भी पसंद नहीं हैं. अगर आपको पसंद हों तो मुझे माफ़ कर दें. 
१. भिन्डी, अरबी, कटहल  या ऐसी ही कुछ और सब्जियों से निकला चिपचिपा गाढा द्रव पदार्थ. 
२. धागा,इलास्टिक,रबर-बैंड आदि ऐसी चीज़ें जो कच्चे बंधन का प्रतीक हैं. 
३. महिलाओं से छेड़-छाड़ या उन पर अभद्र टिप्पणियां 
४. बच्चों में वयस्कों या प्रौढ़ों जैसी वार्तालाप- शैली 
५. चिकित्सालयों का कचरा 
६. भ्रष्ट-व्यवहार 
७. अनुपयुक्त यानी 'अनसूटेबल' जूते 
८. ठूंस-ठूंस कर खाने और खिलाने वाले 
९. अति-अनुभवी लोगों की बदन-भाषा [बॉडी लैंग्वेज़] 
१०. समय-बद्धता का अभाव   

कहानी सबको रोज़गार की

अच्छा मौसम था तो सारे जानवर एक बरगद के नीचे इकट्ठे हो गए. देखते-देखते भीड़ सभा में बदल गई. सभी से कुछ न कुछ बोलने को कहा गया. 
शुरुआत घोड़े ने की. बोला- हम सब खाने, सोने और लड़ने के अलावा कुछ नहीं करते. इंसान को देखो, उसके पास ढेरों काम हैं. उसका समय कितनी आसानी से कट जाता है. हम दिन भर बैठे ऊंघते हैं और सूर्योदय से ही सूर्यास्त का इंतज़ार करते हैं. 
बात दमदार थी, सबको ठीक लगी. यह तय किया गया कि कल से सब अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार कुछ भी काम करेंगे. 
अगली सुबह जंगल में कर्म-युद्ध का बिगुल बजाती हुई उगी.
पक्षियों ने सोचा, हम दिन भर ज़मीन पर दाना चुगते हैं, जहाँ कुत्ते-बिल्लियों के आक्रमण का भय होता है. क्यों न हम सब मिल कर दानों को पहाड़ की ऊंची छोटी पर पहुंचा दें जहाँ हम सिर्फ उड़ कर पहुँच सकें, और कोई भी नहीं. वे इस काम में जुट गए. 
मछलियाँ भी सुबह से ही काई और मिट्टी से तालाब की चार-दिवारी बनाने में जुट गईं,ताकि अन्य कोई पशु-पक्षी पानी के आस-पास न आ सके. 
चूहे और खरगोश ने मित्रों के साथ मिलकर अपने भोजन को बिलों में घसीटना शुरू कर दिया, ताकि अन्य प्राणियों की पहुँच से वह बच सके. घास-पात सब ज़मीन के नीचे जाने लगा. 
अब घोड़े का माथा ठनका. उसे अपने सुझाव का परिणाम समझ में आया. देखते-देखते घास, दाना, पानी सब पहुँच से दूर जाने लगा. फाकाकशी की नौबत आ गई. 
आखिर सभा फिर हुई. घोड़े ने मांग की कि भोजन-पानी को जंगल की सामूहिक संपत्ति घोषित किया जाये, और इसे वापस यथास्थान लाया जाय. 
इतना ही नहीं, इसके लिए भी कड़े कदम उठाये गए कि भविष्य में फिर कोई ऐसा न कर पाए. प्रस्ताव पारित किया गया कि इंसानों की नक़ल को जंगल-विरोधी गतिविधि माना जायेगा. घास,पात,दाना,पानी की जमाखोरी को घोर-अपराध का दर्ज़ा दिया जायेगा. ऐसा करने वालों को रोकने के लिए थोड़ी-थोड़ी दूर पर वन-थाने बनाए जायेंगे.इस काम में लिप्त, पकड़े गए लोगों को सज़ा देने के लिए कोर्ट-कचहरियाँ बनाई जाएँगी. मार-पीट से घायल होने वाले और मिलावट से बीमार पड़ने वालों के इलाज़ के लिए कदम-कदम पर अस्पताल बनाए जायेंगे. कोने-कोने में विद्यालय खोले जायेंगे जिनमें  आने  वाली नस्लों को इन करतूतों से दूर रहने की शिक्षा दी जाएगी.इंसानों की छाया से भी जंगल की सुरक्षा करने के लिए ज़िम्मेदार जानवरों की एक समिति का गठन किया गया.      

Saturday, July 2, 2011

कहानी "नई उम्र की नई फसल"की

एक पेड़ चुपचाप उदास खड़ा था. कहीं से उड़ कर एक तोता आया और उसकी डाल पर बैठ कर उस से बातें करने लगा. तोता बोला- क्या बात है, तुम आज बहुत गुमसुम दिखाई देते हो? सब खैरियत तो है? 
पेड़ बोला- क्या बताऊँ, आज मुझे अपने-आप पर ही शर्म आ रही है. मुझे अपने जीवन पर पछतावा हो रहा है. 
अरे क्यों? तोता हैरानी से बोला. 
अब तुम खुद ही देखो, मैंने अपने बदन से सब चरवाहों  को लकड़ी देदी. इस लकड़ी से लाठी बना कर ये दिन भर अपने पशु-मवेशियों को पीटते रहते हैं, मुझे बड़ा बुरा लगता है, पेड़ ने कहा. 
तोता बोला- इसमें तुम्हारा क्या कसूर? तुमने तो बल्कि अनुशासन रखने के लिए अपना बलिदान ही दिया है. जो मवेशी गलती करेंगे, वे सजा तो भुगतेंगे ही. और यदि वे अकारण भी मार खाते हैं तो गलती चरवाहे की है, तुम्हारी कैसे हुई. 
पेड़ को कुछ तसल्ली हुई. उसने अपने पत्तों को और फैला कर तोते पर छाया कर दी. जिस शाखा पर तोता बैठा था उसे भी पेड़ धीरे-धीरे सहलाने लगा, जिससे आराम मिलने से तोते को नींद आ गई. तोता सो गया. थोड़ी देर में एक सांप ने पेड़ पर चढ़ कर तोते को डस लिया.तोता निढाल हो गया. 
पेड़ अब फिर उदास खड़ा था, और सोच रहा था, सिर्फ कर्म से क्या होता है, अपना-अपना भाग्य भी तो है. 
अचानक तेज़ी से आंधी चलने लगी. पेड़ ने सोचा- देखो, दुनिया में अभी कुछ तो दीन-धर्म बाक़ी है, कुछ भी अनर्थ होता है तो प्रकृति कुपित होकर रोष अवश्य प्रकट करती है. 
तोता शायद सांप के डसने से बेहोश ही हुआ था, मरा नहीं था. चमत्कार यह हुआ की  वह कुछ हिल-डुल कर फिर उठ बैठा.वह आंधी से बचने के लिए किसी दीवार की सुरक्षित खोह ढूँढने को उड़ चला. जाते-जाते उसने पेड़ के चरमराने की आवाज़ सुनी. पेड़ गिरने लगा था. 
तोता सुरक्षित जगह पहुँच चुका था, और वहां बैठा सोच रहा था - पेड़ ठीक कहता था. उसे अवश्य जानवरों की " हाय"लगी, और उसके प्राण-पखेरू उड़ कर रहे. 
पर तभी तोते ने देखा- गिरते हुए पेड़ के असंख्य फूलों से छोटे-छोटे बीज मिट्टी में गिरने लगे हैं, अगले मौसम में पेड़ों की नई फसल उगाने के लिए.       

"प्यारा" से तुक मिलाने को बेचारा "मारा" गया

जिस तरह हम घर में बगीचा, क्यारी या किचन-गार्डन बना कर अपने चारों ओर फूल व हरियाली खिला लेते हैं, ठीक वैसे ही, यदि हम थोड़ा प्रयास करें तो अपने इर्द-गिर्द रिश्तों, संबंधों या परिचय के फूल भी खिला सकते हैं. यकीन कीजिये, इसमें उम्र भी आड़े नहीं आती और कुछ खर्च भी नहीं होता. केवल हमें अपने आप को अपने चारों ओर के लोगों के लिए सुलभ या हाज़िर बनाना पड़ता है. उन्हें यह आभास देना होता है कि आप पूरी रूचि तथा जीवन्तता से लोगों से जुड़ने को उत्सुक हैं. इसका सबसे सुगम उपाय है- अपने को छोटे-मोटे हास-परिहास के लिए तैयार रखना. 
कई लोग अपनी छवि को एक अद्रश्य कम्यून में इस तरह बंद रखते हैं कि धीरे-धीरे स्वतः ही सब उनसे दूर होने लगते हैं. वे न तो किसी से मज़ाक करते हैं, और न ही किसी का किया मज़ाक सहते हैं. लोग उन्हें कठिन मानने लग जाते हैं. 
ज़्यादातर बड़ी उम्र में ही आपको साथ की आवश्यकता होती है. युवावस्था में तो काम भी ढेरों होते हैं और मित्र-मण्डली भी. एक दिन टीवी पर गाना आ रहा था- "गोरी तेरा गाँव बड़ा प्यारा, मैं तो गया मारा". पास ही बैठी बुजुर्ग बुआजी भी सुन रही थीं.वे एकाएक बोलीं- बेटा, मुझे एक बात समझ में नहीं आई, 'जब इसे गाँव प्यारा लगा तो ये मारा क्यों गया?' कमरे में बैठे सभी लोग हंस पड़े. इस पर सभी ने बुआजी को अपनी-अपनी तरह जवाब दिया. वे बेहद खुश हुईं. ऐसा कई दिन बाद हुआ था कि वे 'सेंटर ऑफ़ अट्रेक्शन' बनीं. सब उनसे हंसी-मज़ाक करते उन्हीं से बात जो  कर रहे थे.बुजुर्गों को यही तो चाहिए. यदि वे यह धारणा बना कर बैठ जातीं,कि फ़िल्मी गाने तो युवाओं का शगल है, इनसे हमारा क्या लेना-देना, तो बैठी रहतीं अकेले.
इसके बाद वे कई दिन तक बच्चों के निशाने पर रहीं. कभी कोई भी गाना आ रहा होता- बच्चे उनसे पूछते- बुआजी, ये गाना समझ में आ गया आपको? वे समझ जातीं कि सब ठिठोली कर रहे हैं, और इस से आनंदित हो जातीं. उनका मकसद पूरा हो गया, सबका ध्यान खींचने और सबसे दो बोल बोलने का.       

Friday, July 1, 2011

अपनी जगह से न हटने की प्रवृत्ति दक्षिण अमेरिका में ज्यादा

अपने जन्म-स्थान को लेकर लगाव तो कमोवेश सभी में होता है, किन्तु कुछ लोग इसी जगह को अपने जीवन की धुरी मान लेते हैं, और इससे ज्यादा दूर जाने में असुविधा महसूस करते हैं. जबकि कुछ लोग सारी दुनिया को चारों ओर से देखना चाहते हैं.इतना ही नहीं, बल्कि लोगों की मनोवृत्ति में एक अंतर और है. कुछ लोग अपनी जगह के अच्छे-बुरे से पूरी तरह विमुख होते हैं, उन्हें इस बात में कुछ खास दिलचस्पी नहीं होती कि कहाँ क्या हो रहा है,जबकि कुछ लोग अपनी जगह से दूर जाकर भी उसके प्रति पूरी तरह सजग और संवेदनशील होते हैं. भारत के राजस्थान प्रान्त के रहवासियों ने तो अमेरिका में जाकर और वहां बस कर भी "राना"जैसी संस्था बनाई है जो न केवल वहां राजस्थान-वासियों को संगठित रखे हुए है, बल्कि वहां के लोगों की गतिविधियों को भी यहाँ पहुंचा कर लोगों में उस भू-भाग के प्रति रूचि जाग्रत कर रही है. 
जबकि इसी देश में आपको ऐसे भी बहुसंख्य लोग मिलेंगे जो अपने जन्म-स्थान से पांच किलोमीटर दूर तबादला हो जाने पर नौकरी छोड़ने तक को तैयार हो जाते हैं. ऐसे लोगों का अधिकांश समय, पैसा और शक्ति इसी बात में खर्च होती है कि किस तरह सिफारिश,रिश्वत और दबदबे से आजीवन अपनी जगह ही बने रहा जाय
लेकिन दक्षिण अमेरिकी देशों में अपने देश या शहर से ज्यादा दूर न जाने का कारण बिलकुल दूसरा है.वहां सम्पन्नता, कार्य और जीवन की हलचल हर अंचल में इस तरह से उपलब्ध है कि लोगों को पलायन की ज़रुरत महसूस नहीं होती. 
जगह-जगह पर पर्यटन के लिए घूमते सैलानियों से बात कर के देखिये, यह दिलचस्प तथ्य आपके सामने आएगा कि उनमे यूरोप,चीन, जापान या अमेरिका के लोगों की संख्या जितनी है उनके मुकाबले दक्षिण अमेरिका या फिर सुदूर एशियाई देशों की संख्या अपेक्षाकृत काफी कम है. हाँ, एक अपवाद को यहाँ रेखांकित करना ज़रूरी है. चीनी लोगों में जो लोग आपको मिलेंगे वे केवल पर्यटन के लिए आये लोग नहीं होंगे बल्कि उनमे आपको उद्यमिता की वजह  से घूमते लोगों की अच्छी-खासी तादाद मिलेगी.      

क्या ज्यादा आगे बढ़ जाना पीछे रह जाना भी है?

कहने को तो भारत एशियाई महाद्वीप का एक राष्ट्र है, किन्तु एक बात में यह दो-दो महाद्वीपों से समानता रखता है. 
भारत पूरब-पश्चिम में उस शिद्दत से नहीं बँटा हुआ जिस तरह उत्तर-दक्षिण में. मैं जानता हूँ कि यदि यह बात मैं किसी प्रत्यक्ष समूह-चर्चा में कह रहा होता तो निश्चित ही मेरी सर्विस पर मुझे 'स्मैश' का सामना करना पड़ता.पर यहाँ एकतरफा वक्तव्य में मैं आसानी से कह सकता हूँ कि उत्तर भारत और दक्षिण भारत दो अलग-अलग संस्कृतियाँ हैं. जबकि पूरब और पश्चिम भारत एक ही देश के  दो विविधता पूर्ण हिस्से हैं.ये दोनों केवल मुहावरे में ही विपरीत ध्रुव हैं. 
अमेरिका भी भौगोलिक रूप से दो महा-द्वीपों में विभक्त है. और दोनों हिस्से दो महाद्वीप हैं. इन दोनों हिस्सों की जब आप तुलना करेंगे तो आपको दो संस्कृतियों की झलक मिलेगी. दिलचस्प तथ्य यह है कि आप के लिए यह तय कर पाना बहुत मुश्किल होगा कि आधुनिकता अथवा उत्तर-आधुनिकता के मानदंडों पर कौन सा भाग आगे है. 
एक बार एक सज्जन मुझसे बोले कि दक्षिण भारत में घूमने पर ऐसा लगता है कि वहां व्यवस्था अभी बनी हुई है जबकि उत्तर भारत में ऐसा लगता है कि सब कुछ बिगड़ गया है. 
ये लीजिये, अब तय कीजिये कि दोनों हिस्सों में से कौन सा आगे है?
अर्थात एक जगह तो सब जैसा था वैसा ही अब-तक बना हुआ है, पर दूसरी जगह जो था वह बीत कर अब अस्त-व्यस्त नया है. यानि कि यह आगे निकल गया. या फिर स्वीकार कीजिये कि संस्कृति उलटी भी चलती है. 
दक्षिणी अमेरिका के देश "चिली"की विरासत में आपको यदि कहीं यूनानी शास्त्रीयता के दर्शन होते हैं तो आप इसका मूल्यांकन कैसे करेंगे?इसे न्यूयार्क के मुकाबले 'पिछड़ा' कह कर, या फिर एक ऐसा देश कह कर जिसका बटुआ अभी तक चोरी नहीं हुआ.     

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

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