सन साठ के आस-पास एक ऐसा दौर था जब मशीनें , वाहन या श्रम केवल पुरुषों के जिम्मे थे. महिलाओं से इनका दूर-दूर का भी वास्ता नहीं था. महिलायें अगर पानी की बाल्टी भी उठायें तो फ़िल्मी नायक गाता था- गोरे हाथों पे ना ज़ुल्म करो, हाज़िर है ये बन्दा हुक्म करो. बस से उतरी नायिका अपना छोटा सा सूटकेस भी नहीं उठा पा रही है, और नायक उसे दिलासा दे रहा है- इतनी नाज़ुक न बनो.वाहन चलाना तो दूर की बात, अगर कोई आदमी चक्की पर आटा पिसवा कर सायकल पर ला रहा है तो घर के दरवाजे पर उसे उतरवाने के लिए सायकल का कैरियर खींचने को भी घर की महिला पडौसी के लड़के को बुलाने जाती थी. आप को खूब याद होगा, कि रेल या बस में सफ़र करने वाली महिलाओं का सामान उतरवाने के लिए raah चलते पुरुषों की बाट देखी जाती थी.
फिर समय आगे चला. अपने आप को समय से आगे बताने वाली अत्याधुनिक नायिकाओं ने अपने को माडर्न और फारवर्ड जताते हुए सायकल कुछ ऐसे अंदाज़ में चलाई जैसे आज की साधारण नारियां विमान, रेल या ट्रक चला रहीं हैं. आशा पारेख, सायरा बानो या शर्मीला टैगोर के गर्व से दुपट्टा हवा में लहराते हुए सायकल पर गीत गाने के कई द्रश्य उस पीढ़ी की स्मृतियों में आज भी कैद हैं.दुनिया के बड़े मुल्कों में जाकर विदेशी लोकेशनों पर उम्दा विदेशी सायकल पर गाना फिल्माना भी तब फिल्मकारों को उत्तेजना से भर देता था. दक्षिण अमेरिका के सागर तट आज शायद सायरा बानो को याद न रहे हों, पर उन्होंने कई लम्बे रास्तों पर टेक-रीटेक वहां दिए हैं. जॉय मुखर्जी अब इन यादों पर मुस्करा भर सकते हैं.
yeh post bahut pasand aai.old pictures ke scene aankho ke saamne aa gaye.
ReplyDeletepurani filmen, purane sitare aur purani baaten ham
ReplyDelete-aap kee smritiyon ke sath hi to jagmagaate hain.dhanywad, ise pasand karne ke liye.