आपको कई ऐसी फ़िल्में याद होंगी जिनके कथानक तो ज्यादा अच्छे नहीं थे, पर वे अपनी नयनाभिराम फोटोग्राफी के कारण खूब चलीं.फोटोग्राफी का असर होता है. फोटोग्राफी रोते हुए को सुखी दर्शा सकती है. यह दुखी को प्रसन्नचित्त भी दर्शा देती है. सब कुछ इस पर निर्भर करता है कि कैमरा-एंगल कैसा रहा है.
हमारे देश में कैमरा जीतने वाले पर निशाना साधता है. उसे हारने वालों में कोई दिलचस्पी नहीं होती.उसका लक्ष्य तमगे, मालाएं और मुस्कानें होती हैं.उसे झल्लाहट,हताशा और हार में मज़ा नहीं आता. खेल के दौरान भी शायद उसकी प्राथमिकता 'शॉट' में उतनी नहीं होती जितनी खेलने वाले के वस्त्रों में होती है.बस, यहीं हम मात खा जाते हैं. खेल के बाद हारने वाले के बारे में हम यह नहीं सोच पाते कि कल यह दोबारा खेलेगा, तो कम से कम आज इसकी गलतियों या कमियों की चर्चा करलें. ब्राजील से यह सबक हमें मिलता ही है कि फ़ुटबाल में हारने वाले या हैण्ड-बाल में परास्त होने वाले के हाथ-पैरों की बेहतरी के बारे में सोचें न कि जीतने वालों की छाती के ही बारे में. खिलाड़ियों की खेल-शैली का विकास देश की ज़िम्मेदारी भी होती है क्योंकि वे सार्वजानिक मिल्कियत होते हैं.जीत के जश्न में नाचने वालों की तरह ही हार के बाद मीमांसा करने वालों की ज़रुरत को भी नज़र-अंदाज़ नहीं किया जा सकता. दक्षिण अमेरिकी देशों ने जो मुकाम हासिल किया है उसकी वजह भी है. वे केवल भाग्य के भरोसे कभी नहीं रहे.
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