एक समय था जब जंगल में सूरज से, गांवों में मुर्गे से और शहरों में अखबार से सुबह होती थी. यदि आप अखबार न पढ़ें तो ऐसा लगता था कि जैसे आपने सुबह ब्रश नहीं किया. अखबार के साथ थोड़ी देर बैठ लिए तो ऐसा लगता था कि आप अप-टू-डेट हैं.आप ज़माने के साथ कदम मिला कर चल रहे हैं.
आज अखबार तकनीकी रूप से अन्तरिक्ष में विचर रहे हैं. कोई अखबार ऐसा नहीं होगा जिसे हर माह दो-चार पुरस्कारों से न नवाज़ा जाता हो.लेकिन जब सुबह आप इन्हें पढ़ कर उठें तो आपकी जानकारी में राइ-रत्ती इजाफा शायद न हो. बस अपने आप को दिलासा दे लीजिये कि आपने अखबारासन कर लिया.
पूरे पेज के विज्ञापन को पढ़ जाइये, आपको यह नहीं पता चलेगा कि यह किस शहर की किस चीज़ की नुमाइंदगी है.उद्घाटनों के विज्ञापन आपको यह नहीं बता पाएंगे कि कौन आ रहा है, किस की तस्वीर झांसे के लिए है.समाचार पढ़ेंगे तो आपको खुद अंदाज़ा लगाना होगा कि क्या हुआ होगा.किसी नेता का वक्तव्य पढ़ेंगे तो डरते-डरते पढ़िए क्योंकि कल का अखबार यह कहने वाला है कि इन्होने ऐसा नहीं कहा था. यहाँ तक कि शोक-सन्देश भी पढ़ेंगे तो वहां मरने वाले के परिजनों का दुःख नहीं छलकता दिखेगा, बल्कि जीने वालों के प्रतिष्ठानों के लम्बे-चौड़े नाम विज्ञापन-स्वरुप दिखेंगे. और तो और संपादकों के नाम तक भी आपको किसी मोबाइल-वैन पर सवार दिखेंगे.यदि मालिकों के बच्चों का ही नाम संपादकों के रूप में है तब तो वह पत्थर की तरह अटल दिखेगा, अन्यथा कोई संपादक मुश्किल से ही साल-भर पुराना हो पाता हो.कहीं- कहीं तो मालिक- सम्पादक इतने चपल हैं कि अखबार के समाचारों, विज्ञापनों, लेखों, कहानियों, कविताओं, लघु-कथाओं, क्षणिकाओं, चित्रों तक पर उनका ही नाम दिखेगा. खाली समय में वे कार्टूनों की प्रैक्टिस भी कर रहे होते हैं.अब वह खाली समय उन्हें मिलता कैसे और कब होगा, यह आप सोचिये.
@डरते-डरते पढ़िए क्योंकि कल का अखबार यह कहने वाला है कि इन्होने ऐसा नहीं कहा था.
ReplyDeleteहमें तो वक्तव्य का पता ही तब लगता है जब खंडन जारी होता है।
aapne beemari pahchaanlee hai, ab nidan kee sambhavnayen aur zyada ho gai hain.
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