Thursday, June 30, 2011

कार्लोस, डेविड और डायबिटीज़

इंटर-कॉन्टिनेंटल हैण्ड-बाल प्रतियोगिता में जब कार्लोस आठ गोल करता है तो रसोई में चाय बनाती अमीना के हाथ से चीनी ज्यादा पड़ जाती है.जब डेविड सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी का खिताब पाने विक्टरी-स्टैंड पर आता है तो बोतल में पेप्सी बाकी बची होने पर भी हडबडाहट में बोतल फेंक दी जाती है.जानते हैं क्यों? ताली बजाने के लिए. 
क्या यह उत्तेजना स्त्रियों के लिए नहीं रची जा सकती? 
रची जा सकती है. रची जा रही है. रची जाएगी. बस देखना यह है कि यह सब इसी दुनिया में संभव हो जाता है या फिर पुरुषों के हाथ से दुनिया फिसल जाने के बाद.हम भुलक्कड़ भी तो हैं. भूल जाते हैं कि कभी स्त्रियाँ अपना जीवन-साथी चुनने के लिए स्वयंबर रचाया करती थीं, जिसमे दूर-दूर के नर अपने पूरे ताम-झाम, लाव-लश्कर और टाट-कमंडल के साथ शिरकत किया करते थे.यदि ऐसा दौर फिर आ जाता है तो ज़िम्मेदारी किसकी होगी? कम से कम वेनेज़ुएला जैसे राष्ट्रों की तो हरगिज़ नहीं होगी. 
प्रेम को प्रतिद्वंदिता से बचा कर रखने की ज़िम्मेदारी आज के दौर की है. यह भूमिका कितनी ही कठिन सही, पर अतीत में निभाई गई है. वह भी काफी आसानी से. 
भौगोलिक  रूप से छोटे इन महान देशों के पास समय को सबक सिखाने के लिए काफी-कुछ है.उन्माद छोड़ कर किसी से कुछ भी सीखा जा सकता है.       

वेनेज़ुएला में पेड़ पर प्राकृतिक गर्मी से पकते रहे हैं फल

चलिए, पर्सिस खम्बाता,रीता फारिया या जीनत अमान को छोड़ दें.डायना हेडन,युक्ता मुखी और लारा दत्ता की बात करें. ये सौन्दर्य का ताज सर पर धारण करके अपने देश क्या लौटीं, देश में ब्यूटी कॉन्टेस्ट जीतने के कोचिंग सेंटर खुलने लगे.हर बड़े शहर में सुन्दरता निखारने वालों की बाढ़ सी आ गई, मानो दुनिया की रूपसियाँ वहां अपने चेहरे की लीपा-पोती दिखाने जमा होती हों.
नारी- व्यक्तित्व या महिला-जीवन शैली की जैसी झलक आपको वेनेज़ुएला में देखने को मिलती है, उसका दूर का भी वास्ता पार्लरों या सुन्दरता बढ़ाने वाले संस्थानों से नहीं है.वहां के सौन्दर्य-मानदंड भी नाप-तौल से ज्यादा जीवन में नई पीढ़ी को तृप्ति देने वाले हैं, सम्पूर्णता देने वाले हैं.बालपन से ही महिला अवस्थिति  को जैसा समादर वहां या उसी मानसिकता के अन्य देशों में मिलता देखा जाता है, वह हमारे जैसे विकास-शील देशों के लिए अभी दूर की कौड़ी है. वहां मनु और श्रद्धा को याद करने की ज़रुरत नहीं पड़ती. स्त्री-पुरुष कहने से ही तराजू के दो समान पलड़ों का अहसास हो जाता है.यह तो कमाल हमारे जैसे चंद देशों का ही है कि पुरुष अपना पराक्रम वज़न उठा कर दिखा सकता है और महिला को अपना शौर्य दिखाने के लिए सोलह श्रृंगार चाहिए. यह मानदंड किसी महिला के रचे तो हरगिज़ नहीं हो सकते. ज़रूर इन्हें किसी पुरुष ने ही सोचा होगा. और इनके माध्यम से महिलाओं के लिए ऐसा चक्रव्यूह रच दिया गया कि नारी ज़र्रा-ज़र्रा अपने को सजाती जाये तथा  पोर-पोर और भौंडी शख्सियत पाती जाय.जैसे किसी पुतले में खूबसूरती मिटाने का जादू पिरो दिया जाय.             

Tuesday, June 28, 2011

वेनेज़ुएला में यह फल पेड़ पर पका है

इस बात का कोई पुख्ता सबूत कहीं नहीं मिलता कि आदम ने हव्वा के हिस्से की रोटी कब खाली.इस बात के पुख्ता सबूत कई देशों में देखे जा सकते हैं, कि हव्वा की थाली खाली है और आदम का पेट फूला हुआ है.इतना ही नहीं, सबूत इस बात के भी मौजूद हैं कि हव्वा के चेहरे और आँखों पर पर्दा डाला गया है, ताकि वह इस भेदभाव को देख न सके.
अपनी बात के समर्थन में आज हम एक निहायत ही पोची और मामूली मिसाल देंगे. इतनी मामूली, कि शायद इस से कहीं कुछ भी सिद्ध न हो. पर यह ज़रूर सिद्ध होगा कि आदम सिद्ध निकला, और हव्वा बेचारी साध्वी. 
मुझे लग रहा है कि कुछ भी सिद्ध करने से पहले कम से कम यह भली-भांति तय कर लेना चाहिए कि आखिर कहा क्या जा रहा है? 
मैं इस वक्त केवल यह कह रहा हूँ कि कुछ मुल्कों में नारी, महिला या स्त्री को अभिव्यक्त होने से रोकने की कोशिशें लगातार हुई हैं.इस बात का खतरनाक पहलू यह है कि ऐसी कोशिशें अतीत का हिस्सा नहीं बन गईं, बल्कि अब भी बदस्तूर जारी हैं. 
दक्षिणी अमेरिका के वेनेज़ुएला ने पिछले सौ वर्षों में आयोजित विश्व-स्तरीय सौन्दर्य प्रतियोगिताओं में कितनी बार जीत या कामयाबी दर्ज की है, यह जानने की कोशिश करके देखिये. यदि आप किसी भी स्रोत से ऐसे आंकड़े खोज पाने में सफल हो जायेंगे तो आप कम से कम वेनेज़ुएला को उन देशों की फेहरिस्त से निकाल देंगे जिनमे हव्वा के हिस्से की रोटी आदम खा गया.      

Sunday, June 26, 2011

दक्षिणी अमेरिका ने मिठास का स्वाद लोगों को चखाया है

फल दो तरह से पकते हैं- एक तो पेड़ पर लगे-लगे ही वे पूर्ण परिपक्वता हासिल कर लेते हैं, और मीठे हो जाते हैं. दूसरे,उन्हें पेड़ से इस्तेमाल के कुछ पहले ही तोड़ लिया जाता है, और तब वे विभिन्न प्रकार कृत्रिम गर्मी देकर पकाए जाते हैं.पहली विधि में प्राकृतिक स्वाद और मिठास है, दूसरी विधि में खाने में जल्दी और पकने में देर का असमंजस है. 
सारी दुनिया जानती है कि मनु और श्रद्धा या आदम और हव्वा एक साथ, एक ही काल में इस धरती पर हुए थे.निश्चित रूप से जब उन्होंने दुनिया की शुरुआत की होगी तो किसी ने किसी के प्रति पक्षपात या विद्वेष मन में नहीं रखा होगा. वे समान संवेग की दो धाराओं की तरह दुनिया में आये थे.फिर कैसे, कब धीरे- धीरे ये होता चला गया कि दुनिया में आदम या मनु का राज है और श्रद्धा या हव्वा उसके रहमो-करम पर यहाँ जी रही है. उसे बताया जाता है कि उसे कब, क्या , कैसे करना है. और उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह आयोजक नहीं, कार्यान्वयक   बने.लेकिन यह सुखद है कि इसी धरती के कुछ हिस्सों में वही बुनियादी सोच अभी भी कायम है.वहां 'आदमयुग' का पक्षपात-पूर्ण बोलबाला अभी तक नहीं है. 
दक्षिणी अमेरिका के ज़्यादातर देश इसी सोच के पोषक हैं. अगले कुछ आलेखों में हम ऐसे ही देशों की इसी गरिमा-पूर्ण वृत्ति पर बात करेंगे.        

Saturday, June 25, 2011

अभीतक कुछ नहीं बिगड़ा ज्यादा कहीं

कौन कहता है कि दुनिया बुरी है 
देखो ध्यान से 
कितना कुछ तो है अच्छा अभी तक 
नहीं कर देते नदी और तालाब
अपना पानी अपने बदन पर 
अपने घर के अहाते में  ही खर्च 
कहाँ करते हैं पेड़ 
झाड़ियों पर जानलेवा हमला? 
क्या लेते हैं फूल रिश्वत कभी? 
देखी है कभी भीख मांगती हुई चिड़िया?
संसार की सैंकड़ों नस्लों में से 
केवल एक के बिगड़ जाने से 
नहीं बिगड़ जाती सारी दुनिया. 
अब भी मधुशाला नहीं झूमती 
अब भी बोतल नहीं नाचती 
साकी नहीं डगमगाता अब भी 
एक वही तो बिगड़ा जो बचा बाकी.
अभी तक कुछ नहीं बिगड़ा ज्यादा कहीं.     

२०० वाँ पड़ाव- "लोग पत्थर फेंकते हैं "

एक नन्हे से पिल्ले ने,जिसने अभी कुछ महीने पहले ही दुनिया देखी थी,अपनी माँ से जाकर कहा-"लोग पत्थर फेंकते हैं". 
कुतिया क्रोध से तमतमा गई. बोली- उन्हें मेरे सामने आने दे, तेज़ दांतों से काट कर पैर चीर कर रख दूँगी. तू वहां मत जा, यहीं खेल. वे होते ही शरारती हैं. 
पिल्ला अचम्भे से बोला- ओह माँ, तुम कैसे सोचती हो? मैं तो गली के नुक्कड़ पर घूमने गया था. वहां मजदूर लड़के ट्रक से पत्थर खाली कर रहे हैं. वे पत्थर उठा-उठा कर नीचे सड़क पर फेंकते हैं. मैं तो खड़ा-खड़ा उनका पसीना देख रहा था. अब हमारी सड़क भी पक्की बन जाएगी. 
कुतिया ने इधर-उधर देखा और झुक कर पैर से कान खुजाने लगी. 
["पाज़िटिव थिंकिंग" या सकारात्मक चिंतन का संकेत करती यह 'लघुकथा' आपसे मेरी बातचीत की २००वी कड़ी है. मैं लगातार साथ चलने के लिए आपको बधाई देता हूँ और आगे के रास्ते के लिए खुद को हौसला भी देता हूँ.]       

Friday, June 24, 2011

देखभाल कर मक्खी निगलने की "कहानी"

एक बार न जाने कैसे एक मक्खी और खरगोश की दोस्ती हो गई. दोस्ती पूरी तरह बेमेल थी, मगर निभती रही. मक्खी सोचती, मेरा रंग काला है, इस सफ़ेद- झक्क प्राणी के साथ रहने से कुछ तो प्रतिष्ठा बढ़ेगी.उधर खरगोश सोचता, मैं कितना भी तेज़ दौड़ लूं पर उड़ तो नहीं पाता, यह उड़ लेती है, किसी दिन काम आयेगी. बस, ऐसे ही चलता रहा.  
एक दिन घूमता-घूमता एक टिड्डा वहां आ निकला. कुछ दिन से वह भी दोनों की दोस्ती देख ही रहा था. वह खरगोश से बोला- तुम्हें इतना साफ-सफ़ेद रंग कुदरत ने दिया है, दिन-भर ताज़ा हरी-हरी घास खाते हो, इस काली माई को साथ लिए घूमने में तुम्हें लज्जा नहीं आती?खरगोश टिड्डे का इशारा समझ गया, बोला- भाई, तुम उड़ लेते हो न, इसलिए उड़ान भरने की कीमत समझते नहीं हो.पर मैं तो उड़ नहीं पाता, इसलिए इस से कुछ मदद की आशा में बात कर लेता हूँ. 
अच्छा, यह बात है? टिड्डा बोला- अगर ऐसा है तो तुम मेरे घर आ जाया करो, हम साथ-साथ खेला करेंगे. मैं भी तो उड़ान भर लेता हूँ. 
खरगोश बोला- भाई, तुम बिलकुल हरे-हरे घास जैसे हो. तुम तो जानते ही हो, घास मेरा प्रिय भोजन है.तुम्हें देख कर दिन-भर मेरे मुंह में पानी आता रहेगा. यह सुन कर टिड्डा उड़ गया. 
उसके जाते ही मक्खी खरगोश की पीठ पर आ बैठी और बोली- ये चुगलखोर क्या कह रहा था तुमसे? खरगोश ने कहा- कह रहा था कि तुमसे दोस्ती तोड़ लूं.अच्छा, मक्खी आश्चर्य से बोली- देखो, यही थोड़ी देर पहले मुझसे कह रहा था कि मैं तुमसे दोस्ती तोड़ लूं. खरगोश ने उत्सुकता से पूछा- फिर तुमने क्या जवाब दिया? मक्खी बोली- क्या जवाब देती उस मक्कार को, मैंने कह दिया, तेरा स्वभाव खोटा है, तेरी-मेरी नहीं निभेगी. 
दोनों साथ-साथ घूमने निकल पड़े. थोड़ी दूर चले ही थे कि एक बिल्ली ने कहीं से निशाना तक कर खरगोश पर झपट्टा मारा. मक्खी झट से उड़ गई. बिल्ली खरगोश को मुंह में दबा कर झाड़ियों के पीछे जा ही रही थी कि घास में से टिड्डे ने देख लिया. वह मन ही मन बोला- देखो वह धूर्त मक्खी तो जान बचा कर भाग गई, इसके साथ मैं होता तो कम से कम बिल्ली को काट तो लेता.तभी टिड्डे ने सोचा, यह तो मैं अभी भी कर सकता हूँ. उसने पूरा जोर लगा कर बिल्ली की गर्दन पर काट लिया. बिल्ली दर्द से तिलमिला गई और चिल्लाई. मुंह खुलते ही खरगोश उसके चंगुल से निकल भागा. 
बिल्ली के जाते ही मक्खी फिर खरगोश के पास आई पर खरगोश उस से मुंह फेर कर टिड्डे के घर की ओर बढ़ गया.वह सोच रहा था- अनजाने में चाहें निगल भी जाएँ, पर देखभाल कर मक्खी कौन निगले?         

Thursday, June 23, 2011

हम जानते हैं कि हम क्या हैं, पर यह नहीं जानते कि हम क्या हो सकते हैं

कहा जाता है कि यदि अपने बच्चों के सामने दूसरों के बच्चों की तारीफ करो तो अपने बच्चों में हीन-भावना आ जाती है. इसी तरह यदि अपनी बीबी के सामने दूसरे की बीबी की तारीफ़ करदो, तब तो क़यामत ही आ जाती है. मैं सोचता हूँ कि यह बात शायद देशों के मामले में भी लागू होती है. यदि हम लगातार दूसरे देश की तारीफ करें तो हमारी अपनी राष्ट्रीयता की भावना आहत हो जाती है.
इस बारे में लोगों की राय अलग-अलग हो सकती है, किन्तु मुझे यह भी लगता है कि श्रेष्ठ को श्रेष्ठ कहने की भावना का सम्मान तो सभी को करना ही चाहिए. यदि हम अपने बीबी-बच्चों को भी दूसरों की खूबी इस तरह सुनाएँ कि इस से उनका और भी बेहतर बनने का हौसला बढ़े, तो शायद वे भी बुरा न मानें. सबसे पहले तो मन से यह भ्रान्ति निकालना ज़रूरी है कि किसी एक की तारीफ करने का मतलब यह कदापि नहीं है कि बाकी सबकी हेठी की जा रही है.किसी एक समय में एक की तारीफ करके तो हम केवल उस व्यक्ति के किसी गुण विशेष पर टॉर्च डाल कर उसे समय-विशेष पर रेखांकित कर उभार रहे होते हैं. 
उदाहरण के लिए यदि आप गाँधी और अंबेडकर की बात करते हुए किसी बात पर  कहते हैं कि गाँधी इस विषय पर अंबेडकर से राय लेते थे तो इसका अर्थ यह कभी भी नहीं है कि गाँधी अंबेडकर की  तुलना में कम समझ रखते थे. बल्कि इसका सीधा-सादा मतलब यह है कि हम अंबेडकर की किसी क्षमता को रेखांकित कर रहे हैं. किसी के व्यक्तित्व के आयामों में बहुरंग खूबियाँ जोड़ने की कला हम इसी को तो कहते हैं. दूसरों के गुणों की इस पिंजाई से निकले तार हमारी अपनी क्षमता को बढ़ा दें, यही हमारा अभीष्ट होता है. सोचिये, यह भला किसी भी कोण से गलत कहाँ होता है?
हम यह जानते हैं कि हम क्या हैं, पर ऐसे प्रयोगों से हम क्या हो सकते हैं, यह भी तो आजमा कर देखें.       

Wednesday, June 22, 2011

आपके मानदंडों पर कैसे खरा उतरे अफ्रीका?

आप अमीर हैं या गरीब? इस प्रश्न के अलग-अलग मुल्कों में अलग-अलग उत्तर हैं. फिलहाल हम बात करें भारत की. सरकार ने एक रेखा खींच रखी है.इस रेखा के इस पार अमीरी रहती है, और उस पार गरीबी. संख्या पर मत जाइए- कोई से दो कागज़ ऐसे नहीं हैं, जो अमीरों या गरीबों की संख्या बराबर बता सकें. वैसे भी कागज़ का क्या है, उसकी ज़िन्दगी होती ही कितनी सी है? आज जिसे अखबार कहें, कल रद्दी कहलाता है. अखबार से ज्यादा 'औथेनटिक' तो नेता होते हैं.जो एक दिन नेता है, उसका बेटा, उसका पोता, उसका परपोता सब हमेशा  नेता ही होते हैं. तो अगर नेताओं की मानें,  तो हमें इस कठिन सवाल के दो 'सिंपल' उत्तर मिलते हैं.यदि सत्तापक्ष का नेता है तो वो कहेगा कि अमीर करोड़ों में हैं, गरीब ढूंढना पड़ेगा.यदि विपक्ष का नेता है, तो वो कहेगा- सब भूखे हैं, सब बेरोजगार हैं, किसी को पीने का पानी नहीं है, अमीरी किसे कहते हैं? 
आइये, हम अपने पैरों पर खड़े हो जाएँ और सवाल का उत्तर खुद ढूंढें.हमारे कर-अधिकारी जब आपकी मिल्कियत आंकते हैं, तो पूछते हैं कि आपके पास नकदी कितनी है? हीरे-जवाहरात कितने हैं, शेयर कितने हैं, कोठियां-बंगले कितने हैं, और कारें कितनी हैं?अब यदि आपमें कुछ कर गुजरने का माद्दा हो, तो कह दीजिये- जेवरात मेरे नहीं, पत्नी के हैं, शेयर मेरे नहीं बच्चों के नाम हैं, कोठियां मेरी नहीं, बाप-दादों की हैं, कारें मुझे नहीं, कुत्तों को घुमाने के लिए हैं, और नोट यहाँ नहीं, स्विटज़रलैंड में हैं,तो बस, हो गए आप गरीब. अब आराम से खादी के कपड़े पहन कर घूमिये.
यदि किसी के पास गगन-चुम्बी  अट्टालिकाएं न सही,  लम्बे-चौड़े बाग़-बगीचे हैं, हीरे-जवाहरात तन पर नहीं, ज़मीन में गढ़े हैं,उसकी अमीरी कैसे दिखेगी? अफ्रीकी देशों की खुशबू से कई दूसरे देश आबाद हैं.अफ्रीका के  पास छीनने का इतिहास न सही, बांटने का अतीत तो है ही.लुटाने की दरिया-दिली के भी आखिर कुछ तो नंबर होते ही होंगे?              

Friday, June 17, 2011

किसे कहते हैं मानव-सौन्दर्य अफ्रीका में

सौन्दर्य की अवधारणा देखने वाले की आँखों में दर्ज है. दुनिया की सबसे खूबसूरत वस्तु भी, हो सकता है कि कुछ लोगों को न रुचे. इसके विपरीत कोई साधारण सी वस्तु जो एक को रुचिकर न लगे, दूसरे को भा सकती है.शहर के किसी बड़े साड़ी शोरूम पर जाइये, देखिये कि एक-एक महिला ढेर की ढेर साड़ियाँ निकलवाकर उन्हें नापसंद करती जा रही है. जबकि वे सभी वहां बिकने के लिए ही हैं और बिकेंगी भी. तब एक के द्वारा खारिज वस्तु दूसरी नज़र को भा जाना स्वाभाविक ही है. यदि बात हम मानव-सौन्दर्य की करें तो बात में सैंकड़ों इन्द्र-धनुष घुल जाते हैं. सौन्दर्य-द्रष्टि के इतने रंग हो जाते हैं कि आसमान के तारे भी कम पड़ें. 
जिस देश में विवाह के लिए लड़की चुनते वक्त गोरे रंग को तरजीह दी जाती है, वहीँ सदियों से सांवले कृष्ण और राम को पूजा जाता है. ऐसे में समय ने न तो कोई रंग सुन्दर सिद्ध किया है और न कोई अंग.रोज़ कुआ खोदना है और रोज़ पानी पीना है. अर्थात सौन्दर्य की नई परिभाषा तभी बन जाती है जब कोई देखने वाली नज़र सामने  आती है.
फिर भी कुछ कबीलों के सौन्दर्य-मानक देखिये- कहीं-कहीं लम्बी गर्दन को सौन्दर्य की निशानी माना जाता है. वहां बचपन से ही लड़कियों के गले में वज़नदार धातु की माला पहना दी जाती है. फिर धीरे-धीरे उस माला में और कड़ियाँ बढाते जाते हैं, ठीक गले में पहनने वाले पट्टे की तरह,और उनके प्रभाव से गर्दन लम्बी होती जाती है. 'सुराहीदार' गर्दन शब्द शायद वहीँ से आया है. कहीं बड़ी आँखें सौन्दर्य का पर्याय मानी जाती हैं. ऐसे में आँखों को काजल के प्रयोग से और विस्तार दिया जाता है. कहीं-कहीं तो आँखों को चित्रकारी से इतना बढ़ा लिया जाता है कि मूल आँख तो उसके बीच में बीज की भांति नज़र आती है. 
बड़े होठ भी कहीं शोभा बढाते हैं. इन्हें चिमटी-नुमा वज़न लटका कर और बड़ा बनाया जाता है जहाँ ये मुंह से निकली जीभ की तरह बाहर तक लटके दीखते हैं और सौन्दर्य की देवियाँ अपने इस सौन्दर्य को शीशे में देख कर मुग्ध होकर शरमा जाती हैं.बड़े कानों ने भी रूप-रसिकों का ध्यान खींचा है. तरह-तरह के पत्थर या धातु के वजनी कुंडल लटका कर कान को नीचे तक फैलाया जाता है, ताकि चेहरा खूबसूरत दिखाई दे. 
अफ्रीका के कुछ देशों में गोरे और काले रंग को नहीं बल्कि चमकीले और फीके-सपाट रंग को सौन्दर्य का आधार माना जाता है. सुन्दर चमकता काला रंग चेहरे में चार-चाँद लगा देता है.उसके बीच से धवल दन्त-पंक्ति दूर से ही चमकती दिखाई देती है. 
शरीर की लम्बाई और ठिगनापन भी सौन्दर्य मानकों में शामिल हैं. अंगों का पुष्ट होना भी कुछ कबीलों में गर्व की बात है. जबकि पतली कमर, पतली कलाइयाँ या लम्बी-पतली अंगुलियाँ भी सौन्दर्य की सूची में दाखिल  हैं.लड़कों का सौन्दर्य भुजाओं पर फड़कती मछलियाँ और सीने पर उभरी पेशियाँ बढ़ाती हैं. कहीं बालों की लम्बाई को भी सौन्दर्य का मानक माना जाता है किन्तु कभी कहीं "बॉय-कट" विश्वसुन्दरी ताज पहन कर सामने आ जाती है. परंपरागत सौन्दर्य-मानकों को अंतर-राष्ट्रीय सौन्दर्य स्पर्धाओं में काफी परिवर्तित किया गया है. क्योंकि किसी देश में आँखों का छोटा होना या लोगों का ठिगना होना आम बात है. शायद यही कारन है कि सौन्दर्य के बड़े-बड़े खिताब लिए घूमने वाली स्त्रियाँ आज हमें अपने आस-पास की बस्ती में घूमने वाली कन्याओं से बहुत भिन्न नज़र नहीं आतीं. 
सच में, बड़ा कठिन है यह कह  पाना कि जो हम देख रहे हैं वह कितना कशिश भरा है.इसका जवाब तो आँखों की मदद से देखने वाला मन ही दे सकता है.                   

Thursday, June 16, 2011

"घाना" और पत्रकारिता की पैनी नज़र

सारे अफ़्रीकी महा-द्वीप में पत्रकारिता की चुनौतियाँ बिखरी पड़ी हैं. दक्षिण अफ्रीका अपनी तमाम पत्रकारिता के प्रति जागरूकता के बावजूद प्रेस का सपाट लक्ष्य रहता आया है. 
पत्रकारिता की चुनौती किसी जगह तभी मुखरित होती है जब वहां 'जीवन' मुखरित न हो रहा हो, या कठिन रास्तों से गुज़र रहा हो. वर्ना सम्पन्नता तो विज्ञापन-बाज़ पत्रकारिता को जन्म देती है. 
घाना के 'द न्यू क्रूसेडिंग' को भारत द्वारा स्थापित प्रतिष्ठापूर्ण पुरस्कार दिया गया है. यह भी एक सच है कि सार्थक पत्रकारिता पुरस्कारों से न तो संचालित हुई है और न ही प्रभावित,फिर भी इस पुरस्कार से ख़बरों के खिलाड़ियों की हमारी परख कसौटी पर तो आई है. इस पुरस्कार पर किसी टीका-टिप्पणी की ज़रुरत इसलिए नहीं है कि हम अभी कम से कम विदेशी पुरस्कारों की पवित्रता पर अपने आंतरिक पुरस्कारों की भांति घोटालों का रंग चढ़ाने के दौर में नहीं पहुंचे हैं.
यह अच्छी बात है कि भारतीय समाचार जगत की ओर से विश्व-स्तरीय पुरस्कार की स्थापना हुई है. किन्तु दुःख इस बात का है कि औरों को पुरस्कृत करने की हमारी सदाशयता यह साबित नहीं कर रही कि हम पत्रकारिता के सर्वोच्च मूल्यों के पक्षधर हैं. आज हमारे अपने अखबारों और समाचार-चैनलों का हाल यह है कि हम किसी भी खबर पर किसी भी सुर की टिप्पणी सुन सकते हैं, केवल चैनल बदलने की देर है. राजनैतिक दलों से मोटा पॅकेज लेकर हमारे अखबार खुल्लम-खुल्ला उनके प्रवक्ता बन जाते हैं. पैसे लेकर छपने वाली ख़बरों में सत्यांश कितने प्रतिशत होता होगा, यह किसी गंभीर शोधार्थी की रूचि की बात हो सकती है. ऐसी ख़बरें केवल पत्रकारिता के मर्म को चोट पहुंचाने के प्रयत्न ही होते हैं. यह कभी पुरस्कृत नहीं हो सकते क्योंकि ये बड़े खतरनाक होते हैं. 
खुद हमारे देश की पत्रकारीय नीयत आज दाव पर लगी हुई है.हमारा ईमान जानता है कि हम क्या-क्या छाप रहे हैं, किसलिए छाप रहे हैं.
पर यह भी बेहद खतरनाक होगा कि हम सारे समाचार-जगत पर पक्षपात या व्यावसायिकता का आक्षेप जड़ दें. क्योंकि कई लोग अब भी जान हथेली पर लेकर दुनियां मैली होने से बचा रहे हैं. ऐसे लोगों की संख्या कितनी भी कम सही, जब तक "एक" भी है, उसे बचाया जाना चाहिए.         

Wednesday, June 15, 2011

तांबे का चाँद और चाँदी के नेता

आज सदी का सबसे लम्बा ग्रहण लग रहा है. इसमें चाँद तांबे जैसा दिखाई देगा. खगोल-शास्त्री कहते हैं कि यह कई देशों में, और बहुत देर तक दिखाई देगा. वे यह भी कह रहे हैं कि इस ग्रहण के अन्यान्य प्रभावों में एक प्रभाव राजनैतिक भी होगा. कहा जा रहा है कि राजनैतिक उथल-पुथल की आशंका है. कुछ लोग तो यहाँ तक कह रहे हैं कि इस ग्रहण के प्रभाव से सत्ता-पक्ष और निरंकुश हो जायेगा. पर एक बात समझ में नहीं आ रही कि कहाँ की सत्ता निरंकुश हो जाएगी? क्या जहाँ-जहां ये दिखाई देगा उन सब जगहों की? 
शायद ज्योतिषी- विद्वान ये नहीं जानते कि निरंकुश होने के लिए सत्ता सदी के सबसे बड़े ग्रहण की मोहताज़ नहीं है. निरंकुश हो जाना तो उसके बाएं-हाथ का खेल है. लगता है, ये ग्रहण नेताओं को बचाने आया है, ताकि उनके कर्मों को लोग ग्रहों और ग्रहणों का खेल मान लें. अब चाँद, तारों और नक्षत्रों का यही काम रह गया है कि दोनों हाथों से देश का धन लूटते नेताओं की कुंडलियों के अनुसार घूम कर चक्कर लगाते फिरें? नेता पहले धन लूटें, फिर विदेशों में माल छिपायें और फिर जनता को चौकन्ना करने वालों के साथ मार-पीट कर के उन्हें धमकाएं. और तब आसमान से चन्द्रमा, सूरज यह कहते प्रकट हों कि इन सब बेचारे नेताओं ने यह सब हमारी चाल के कारण किया है.जनता का ऐसा मार्गदर्शन करने वालों की जय.    

Tuesday, June 14, 2011

पूर्वजों,प्रकृति और परमेश्वर की कुछ कमियां[भाग-२]

६. मुझे अकेलेपन से बिलकुल भी  डर नहीं लगता.मैं न तो इस स्थिति को दूर करने की कोशिश करता हूँ, और न ही इस से बचने की. दूसरे लोग इस बात को आसानी से इसलिए स्वीकार कर लेते हैं, क्योंकि मैं लेखन से जुड़ा हूँ,पर फिर भी मैं इसे एक कमी ही मानता हूँ कि आप अकेले हों और लोगों के बीच न जाना चाहें.
७. मैं बातचीत में बड़ों और बच्चों के बीच कोई विभेद न करके बच्चों को भी बराबर की अहमियत देता हूँ. मैं ऐसा इसलिए करता हूँ, क्योंकि मैं बच्चों को 'भविष्य का बड़ा' ही समझता हूँ, पर इसे मैं अपनी कमी इसलिए मानता हूँ कि हमें समय से पहले दुनियादारी की कठिन बातें उन्हें बता कर उनका बचपन छीनने का कोई हक़ नहीं है. शायद लोग ऐसा इसलिए करते होंगे कि वे बच्चों को मासूम, सच्चा, भोला और निष्पक्ष समझते हैं, और पेचीदा बातें न बता कर वे चाहते होंगे कि बच्चे कुछ समय तक  ऐसे ही बने रहें. पर मैं सोचता हूँ कि बच्चों की ये बातें सामयिक न होकर हमेशा रहें और बड़ों को भी ऐसा ही होना चाहिए,इसलिए ऐसी कोई सावधानी नहीं बरतता कि बच्चों से कुछ समय के लिए अलग बर्ताव किया जाये. 
"राम करे दुनिया के सारे बच्चे,बच्चे बने रहें. 
बड़े हुए तो ना जाने वे, फिर क्या-क्या हो जायेंगे"
८. सफाई के लिए मेरी अजीब सी संवेदन-शीलता भी मेरी एक कमी है. यह संवेदन-शीलता खाने के समय विशेष प्रभावी होती है. इसके कारण मैं खाने की मेज़ पर भी लोगों के साथ खाने से बचता हूँ. मैं अकेले और बिना बोले खाना पसंद करता हूँ. खाते समय जोर-जोर से खुले मुंह बातें करने वाले लोगों को तो मैं आसानी से सहन भी नहीं कर पाता . इस आदत की एक विचित्र बात यह है कि मैं जहाँ कुछ चीज़ों को नापसंद करता हूँ, वहीँ कुछ ऐसी चीज़ों से मुझे बिलकुल परेशानी नहीं होती जिन्हें दूसरे लोग नापसंद करते हैं. अतः लगता है कि यह शायद कुछ चीज़ों के लिए मेरी एलर्जी हो. एक सत्य घटना आपको सुनाता हूँ- 
एक बार मैं मुंबई में एक भीड़ भरे होटल में दोपहर का खाना खा रहा था. मेज़ पर मेरे सामने लगभग पचहत्तर साल के एक पारसी सज्जन खा रहे थे. उन्हें जोर से छींक आई और उनके दांतों की बत्तीसी निकल कर मेरी थाली से कई चीज़ों के छीटे उडाती दाल की कटोरी में गिरी. मेरे कपडे भी खराब हो गए. वे बहुत शर्मिंदा हुए और बार-बार माफ़ी मांगते हुए मुझसे दूसरी थाली मंगवा देने का आग्रह करते रहे. पर मैंने उन्हें शर्मिंदगी से बचाने के लिए उसी थाली में, वही भोजन पूरा किया और यह जताया, जैसे कुछ हुआ ही न हो. 
९. मेरा हास्य-बोध इतना जटिल है कि वह कई बार निष्प्रभावी या बिना समझा हुआ रह जाता है. इसके कारण मैं व्यक्तिगत रूप से लोगों से बात करने की तुलना में 'पब्लिक स्पीकिंग' में ज्यादा सहज महसूस करता हूँ. आजकल पब्लिक स्पीकिंग भी एक कमी ही है. मैं अच्छा श्रोता भी नहीं हूँ. बोलते समय दूसरों को ज्यादा मौका नहीं दे पाता. मेरा बेटा इस कमी को यह कह कर बहुत अच्छी तरह वर्णित करता है कि मैं दूसरों को निरुत्तर करने के लिए बोलता हूँ. 
१०. मुझमे जीवन के प्रति बहुत सकारात्मक नजरिया नहीं है. इस कारण मुझे विश्व के सभी लोगों के प्रति सहानुभूति होती है. यही कारण है कि क्रोध तत्व मुझमे लगभग अनुपस्थित है.किसी भी बात से कोई फर्क न पड़ने वालों को लोग पहले 'संत' कहते थे पर मुझे तो यह व्यक्तित्व की कमी ही लगती है.  मुझे गरीबों को देख कर लगता है कि बेचारे कैसे जी पाते होंगे? मध्यम-वर्ग को देख कर लगता है कि बेचारे सीमित संसाधनों में बेहतर जीवन-स्तर बनाए रखने में ही खर्च हो जाते  हैं.और उच्च वर्ग को देख कर लगता है कि बेचारों की सम्पन्नता किस काम की, जबकि नैतिक मूल्यों में तो कंगाल हो गए. फिर नैतिक बल वालों को देख कर लगता है कि अब बेचारों के पास धन तो टिकने से रहा. पहले मैं इसे कोई कमी नहीं मानता था, पर अब जब छोटे-छोटे बच्चों तक को इस भावना के साथ देखता हूँ तो लगता है कि यह एक गंभीर कमी है. दुनिया को हंसी-खुशी का मंच क्यों न माना जाये?        

Sunday, June 12, 2011

पूर्वजों, प्रकृति और परमेश्वर की कुछ कमियां

दुनिया या तो प्रकृति  ने बनाई है या फिर परमेश्वर ने.यदि इसे इंसान ने बनाया-संवारा है तो हम इसका श्रेय अपने पूर्वजों को दे सकते हैं.
लोग कहते हैं, और एक बार मैंने भी उनके सुर में सुर मिला कर कहा था कि लोग अपनी आत्म-कथाओं में अपने बारे में ईमानदारी से नहीं लिखते. आज मैं भी कुछ अपने बारे में ही कहने जा रहा हूँ. और बेबाकी से यह भी  कह रहा हूँ कि मैं अपनी कुछ कमियों के बारे में ही कहना चाहता हूँ. तो आप ही बताइये, हमें जिसने भी बनाया, ये कमियां उसी की तो हुईं? फिर इन्हें कहने में कैसा संकोच?लीजिये, मेरी दस कमियों के बारे में जानिए और मन ही मन यह आकलन भी कीजिये कि क्या ये कमियाँ  आप में भी हैं?
१. कहावत है कि 'हाथी के दांत- खाने के और दिखाने के और'. मेरी एक कमी यह है कि मैं हमेशा खाने वाले दांतों की बनिस्बत दिखाने वाले दांतों को तरजीह देता रहा हूँ.यह सिद्धांत मेरे अकेले को तो लाभ पहुंचाता है पर मेरे अन्य मिलने-जुलने वालों को नहीं, क्योंकि इस से उनके काम नहीं होते. मैंने हमेशा नौकरी में भी सजावटी जिम्मेदारियां लीं हैं, खाने-कमाने वाली नहीं. इस से मेरे मित्र नहीं बनते. प्रशंसक तो बन जाते हैं. क्योंकि लोगों की सामान्य धारणा ऐसी ही होती है कि वे 'भगत सिंह' को चाहते तो पूजने की हद तक हैं, पर यह नहीं चाहते कि भगत सिंह उनके घर में जन्म ले. मेरे कामों से वाह-वाही मिलती है, माल नहीं.
२.मैं बहुत से मामलों में अलग राय और द्रष्टिकोण रखता हूँ. पर उसे लोगों को या तो समझा नहीं पाता या इस की कोशिश नहीं करता.परिणाम यह होता है कि लोगों को मेरे बारे में गलत-फहमी बहुत आसानी से या ज़ल्दी हो जाती है. 
३. मैं लोगों से सम्बन्ध-व्यवहार इस आधार पर नहीं रखता कि वे मेरे साथ कैसा व्यवहार करते हैं, बल्कि इस आधार पर रखता हूँ कि वे मेरी नज़र में 'कैसे' हैं?उनका मूल्यांकन भी इसी आधार पर करता हूँ. यह नहीं कर पाता कि उन्होंने मेरे साथ अच्छा किया तो मैं भी उनके साथ अच्छा ही करूं. इस कारण मैंने अपने कई होने वाले मित्रों को खो दिया.दूसरी तरफ ऐसे कई लोग अब भी मेरे मित्र या मेरी 'गुड-बुक्स' के लोग हैं, जिन्होंने इसके लिए कभी कोशिश नहीं की. पर वे केवल इसलिए हैं, क्योंकि वे मेरी नज़र में अच्छे हैं. 
४. सामान्यतया सभी का व्यक्तित्व दो भागों में बटा होता है- शरीर और दिमाग. बुद्धिमानी इसी में है कि हम व्यक्ति के दिमाग को उसके शारीरिक-व्यक्तित्व से  ज्यादा वज़न दें.मैं इस तथ्य को जानते हुए भी दोनों को अहमियत दे डालता हूँ. मेरे मित्रों में बुद्धिमत्ता से ज्यादा आकर्षक दिखने वाले लोग भी अहमियत पाए हुए हैं. मुझे उनका साथ ज्यादा 'कम्फर्टेबल' लगता है.
५. मेरा विश्वास है कि आदमी को जो-कुछ  भी मिलता है, वो मेहनत और भाग्य दोनों के फलस्वरूप मिलता है.फिर भी मैं केवल उसी की क़द्र करता हूँ, जो मेहनत से मिलता है.जो चीज़ भाग्य से मिल जाय उसकी कीमत नहीं समझ पाता.यह भी नहीं सोच पाता कि जो चीज़ मुझे भाग्य से मिल गयी, वह भी तो किसी और की मेहनत का परिणाम हो सकती है? इस आदत ने मुझे बहुत पछतावा भी दिया है.                 

Wednesday, June 8, 2011

किसकी खाल मोटी,अफ़्रीकी गैंडे की या भारतीय?

तसवीरें दो तरह की होती हैं. एक शौकिया छायाकारों द्वारा उतारी गई और दूसरी पर्यटन विभाग द्वारा मार्केटिंग अभियान के अंतर्गत प्रस्तुत की गई. शौकिया छायाकार यकीनन फनकार होते हैं. वे मेहनत करते हैं.अपने हुनर को समय देते हैं. और वन्य जीवों की एक से एक नायाब तसवीरें निकाल कर लाते हैं.पर्यटन विभाग के छायाकार सरकारी होते हैं. अग्रिम राशि लेकर दफ्तर से निकलते हैं और मोटी रकम बाद में मिलनी तय होती है, फिर जानवर तसवीर में कैसा आता है, यह खुद उसकी[जानवर की] निजी स्मार्टनेस पर निर्भर है. 
आपको याद होगा कि चंद सालों पहले हर विदेशी वस्तु अच्छी हुआ करती थी, वन्य प्राणी भी.उस समय हम यदि भारतीय गैंडे को भी देखते थे तो वह हमें अफ़्रीकी गैंडे की तुलना में फीका, डल, दुबला और नर्वस दिखाई देता था. किन्तु अब हम सब जान चुके हैं कि वह कैमरों की क्वालिटी का कमाल होता था.अब भारत में भी उस गुणवत्ता के कैमरे होने लगे हैं, तो वन्य-प्राणी भी चपल, चंचल और तंदुरुस्त दिखने लगे हैं. अब ऐसे सवाल अहमियत नहीं रखते कि अफ़्रीकी जंगलों में विचरने वाले हाथियों की नस्ल बेहतर है या भारतीय वनों में? यहाँ तक कि डिस्कवरी चैनल  पर भी कई अजीबो-गरीब द्रश्य देखते वक्त आपको यह महसूस होता रहता है कि यह छायांकन भारत के किसी हिस्से का भी हो सकता है. 
लेकिन एक बात में हमने अपनी मौलिकता अभी तक नहीं खोई है. "यहाँ शिकार करना मना है" या "यहाँ मछली पकड़ना अपराध है" या फिर "वन्य प्राणियों को नुक्सान पहुँचाने पर जुर्माना किया जायेगा" जैसे जुमले अब भी केवल हमारी ही धरोहर हैं.चार-टके के मुनाफे के लिए लाखों के शेर मार लाना कोई हमसे सीखे.इस मामले में हमारी खाल का कोई सानी नहीं. असल में पशुओं के प्रति क्रूरता का भाव हमें किसी भी तरह उद्वेलित करता ही नहीं. शायद इसका कारण यह हो कि हम पूजा करते वक्त अपने ईश्वरों को भी "मृगछाला" लपेटे देखते ही रहे हैं. हमारे गजपति-गणपति चूहे पर बैठ कर विचरते हैं. कृष्ण के मोर-मुकुट की शोभा को जीवंत करने के लिए हम राष्ट्रीय पक्षी मोर को जहरीला दाना डाल देते हैं. बालों में पंख सजाने के लिए कितने ही लोटन कबूतर मारने में हमें कोई गुरेज़ नहीं. वाहन तो अक्सर सभी देवी-देवताओं के जंगल से ही आते हैं. आखिर वन्य-प्राणियों की सुरक्षा हम करें भी तो कैसे? क्या इनके लिए अपने देवताओं को पैदल कर दें?          

Tuesday, June 7, 2011

शुतुरमुर्ग मोर से ज्यादा भा रहा है सत्तानवीसों को

शुतुरमुर्ग जितना बड़ा होता है, उसका सर उतना ही छोटा. और यह कहावत है कि जितना सर उतनी बुद्धि. इसी लिए शुतुरमुर्ग को अपने जिस्म से ज्यादा चिंता अपने सर की होती है. कहते हैं कि जब आंधी आती है तो वह केवल अपना सर रेत में छिपा लेता है, और अपने को सुरक्षित समझने लगता है.इस बार भ्रष्टाचार के विरोध की आंधी आई तो दिल्ली की सल्तनत ने सोचा, बस अपना सर, यानी कि  दिल्ली को बचा लो और बाकी देश को भूल जाओ.लिहाज़ा बाबा रामदेव को दिल्ली की सीमाओं से बाहर निकाल कर सरकार अपने को सुरक्षित समझने लगी.    इस तरह एक बार फिर "रक्कासा सी नाची दिल्ली". इसी दिल्ली के राज में रोज़ शेर भी मर रहे हैं और मोर भी. अर्थात जंगल का राजा भी और बागों का राजा भी. 
थोड़े दिन पहले जब एक समुदाय द्वारा इकट्ठे होकर रेल की पटरियां उखाड़ी जा रही थी तब सरकार को उधर देखने की फुर्सत भी नहीं थी क्योंकि तब सारी रेलें रोक कर बंगाल की कुर्सी का इंतजाम किया जा रहा था. पर अब सरकार को तुरंत एक घंटे में ही एक्शन लेना पड़ा. दूसरी तरफ कुछ लोगों का यह कहना भी अचंभित करने वाला है कि चुने हुए लोगों को इस तरह भीड़ की बातें नहीं माननी चाहिए. शायद वे यह भूल गए कि यह भीड़ वही है जिसके सामने दंडवत करने का मौसम हर पांच साल बाद आता है. 

Sunday, June 5, 2011

अपने ढोल पर अपनी थाप

कुछ दिन पहले मेरे एक पाठक का पत्र आया [आजकल पत्र नहीं आते, पर छोटी जगहों के बड़े लोग अब भी कभी-कभी लिखते हैं] कि मुझे बहुत पढ़ लेने के बाद भी वे मेरे बारे में यह नहीं जान पाए हैं कि निजी ज़िन्दगी में मेरी उपलब्धियां क्या हैं? 
यदि इसमें किसी की रूचि हो सकती है तो मुझे कहने में क्या संकोच? मैं आज आपको अपने जीवन की दस उपलब्धियां, मेरे पसंद-क्रमानुसार बताता हूँ, लेकिन इसे यह मत कहियेगा-"अपने ढोल पर अपनी थाप".कभी-कभी पाठकों के लिए 'कहना पड़ता है'.क्रम दस से एक है, अर्थात उल्टा. 
१०. मुझे अपने कैरियर में भारत के एक ऐसे गाँव,जिसमे बिजली और पानी की भी व्यवस्था नहीं थी, कच्चे रस्ते से पैदल सूखी नदी  पार करके बस्ती तक जाना होता था,से लेकर भारत के सबसे बड़े नगरों की सबसे आलीशान कॉलोनियों में वातानुकूलित दफ्तरों में काम करने का मौका मिला, जहाँ जाने-माने अरबपतियों से लेकर फ़िल्मी सितारों तक से आसानी से मिलना-जुलना हो जाता था. 
९. मुझे मुंबई में  अमिताभ बच्चन के आवास 'प्रतीक्षा' में उनके पिता श्री हरिवंश राय बच्चन पर लिखने के कारण जाने का अवसर मिला जिसमे जया बच्चन और अभिषेक बच्चन से मिलने का अवसर भी मिला. 
८.मुझे अपने जीवन के तमाम अवसर ज्यादा मेहनत के बिना प्राप्त हुए, यहाँ तक कि अपने आवास के निर्माण तक के लिए मेरा श्रम नगण्य है. मुझे परिजनों से सहयोग मिला. 
७. मुझे देश के दो जाने-माने विश्व-विद्यालयों में प्रतिष्ठा-पूर्ण स्थान सहज-संयोग से प्राप्त हुए. 
६. मुझे उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का बड़ा पुरस्कार बिना आवेदन किये अथवा बिना कोई अनुशंसा करवाए अकस्मात् प्राप्त हुआ .
५. मैंने अपने कैरियर में बारह ऐसे क्षेत्रों में लगातार काम किया जिनमे से किसी एक को भी लोग अपना पूरा कैरियर बना लेते हैं. इनमे किसी भी क्षेत्र को असफल होकर छोड़ने की ज़रुरत कभी महसूस नहीं की.[ ये क्षेत्र हैं- बैंकिंग, पत्रकारिता, विज्ञापन, संपादन, सृजनात्मक लेखन, प्रशासन, अध्यापन, प्रबंधन, सतर्कता, राजनैतिक जागरूकता, समाज सेवा, सरकारी राज्य-स्तरीय कार्यक्रमों का समन्वयन. ] 
४. मैंने एक बार भारतीय प्रबंध संस्थान[आइआइएम] में प्रवेश लेना चाहा  था,किन्तु सामानांतर दूसरा अवसर मिलने के कारण मैं उस से जुड़ नहीं सका था, परन्तु मुझे बच्चों के माध्यम से उस से निकटता से जुड़ने का मौका मिला. 
३. मुझे फिल्म-स्टार व प्रोड्यूसर राजेंद्र कुमार ने अपने पुत्र कुमार गौरव के लिए लिखने हेतु अपने आवास पर आमंत्रित किया.
२. मुंबई में रहते हुए बिना किसी संपर्क या अनुशंसा के दिल्ली के एक प्रकाशक ने मेरी ६ पुस्तकों का प्रकाशन किया. [केवल अखबारों में छपी कहानियों के आधार पर] 
१. मुझे लम्बे समय तक दुनिया के सबसे बड़े देश में रहने का अवसर मिला, जो कि कभी मेरे पिता का भी सपना था. [वे विश्व के एक महान लेखक की पुस्तक का भारतीय छात्रों के लिए रूपांतरण कर रहे थे.]       

Saturday, June 4, 2011

वाद कमीज़ उतारें या पहनें पर रामदेवजी कहाँ हैं?

थोड़ी देर पहले मैंने साम्यवाद और पूंजीवाद का अंतर बताने के लिए जो उदाहरण दिया था, वह मेरे एक मित्र को समझ में नहीं आया. मैं उसे थोड़ा विस्तार से बता ही रहा था कि मेरे मोबाइल पर सन्देश आया- बाबा रामदेव को सरकार ने लापता कर दिया है, अतः विरोध प्रकट करने के लिए बुद्धि-शुद्धि यज्ञ करें.मैं असमंजस में पड़ गया.
मैंने जो उदाहरण दिया था, उसके अनुसार एक पेड़ के नीचे मंहगी ब्रांडेड कमीज़ पहन कर एक लड़का बैठा है. पूंजीवाद के अनुसार वह संतुष्ट और सम्पन्न है. लड़के को गर्मी लग रही है और कमीज़ नई होने से थोड़ी असुविधा भी हो रही है, साम्यवाद कहता है कि वह उसे उतार फेंके[समाजवाद कहता है कि उतार कर करीने से रख दे] पर पूंजीवाद कहता है कि वह पंखा,कूलर या एसी  का इंतजाम करले.
अब रामदेव जी के समाचार से इस बात को जोड़ देना वक्त का तकाजा है. बाबा रामदेव के सत्याग्रह से सरकार को गर्मी लगी. सरकार के पास भी तात्कालिक रूप से तीन विकल्प थे. पहला, सरकार उनकी बात मानते हुए भ्रष्टाचार को उखाड़ फेंके या कम से कम उस दिशा में कोई कदम उठाती दिखाई दे.दूसरा विकल्प यह था कि वह रामदेवजी, अन्ना हजारे आदिको साथ लेकर इस देशव्यापी समस्या को जड़ से मिटाने के लिए कोई दीर्घकालीन कार्य-योजना बनाने की दिशा में बढे. तीसरा विकल्प यह था कि आधी रात को उनको तितर-बितर करने के लिए आंसू-गैस लेकर हमला कर दे और उन्हें जबरन उठा कर उनके समर्थकों की नज़र से ओझल करने के लिए इधर-उधर करती रहे. कौन सा विकल्प किस वाद के तहत आता है, यह तो कुछ साल बाद तय होगा जब देश के विश्व-विद्यालय अपनी बोर्ड ऑफ़ स्टडीज़ की बैठकों में ऐसे विकल्पों को मंज़ूर करके इनके "वाद" निर्धारित कर देंगे, पर अभी रामदेवजी को तो ढूंढो. सरकार भीड़ से नहीं डरती. डरती है तो भीड़ के नेता से.        

अफ्रीका में साम्यवाद क्यों नहीं फैलता?

क्यों नहीं फैलता अफ्रीका में साम्यवाद, इस प्रश्न के कई उत्तर हैं. सबसे प्रासंगिक उत्तर जो इस समय ग्राह्य हो सकता है, वह है- "क्योंकि वह कहीं नहीं फैलता". लेकिन इस उत्तर से साम्यवादी विचारधारा के लोग संतुष्ट नहीं होंगे.यदि वे सचमुच साम्यवादी हैं तो उन्हें होना भी नहीं चाहिए. क्योंकि साम्यवाद की ही एक परिभाषा यह भी है कि वह अंतिम रूप से सामाजिक ढांचे से कभी संतुष्ट न हो. किसी भी समाज के लिए अपनी स्थिति से संतुष्ट होना उसके विकास और बेहतरी के प्रयत्नों का पटाक्षेप है. और ऐसी स्थिति कहीं भी, कभी भी काल्पनिक ही होनी चाहिए, वास्तविक नहीं. 
कुछ लोग यह सवाल भी उठा सकते हैं कि वह क्यों फैले? वास्तव में वह जब भी फैला, जहाँ भी फैला, इसलिए फैला क्योंकि वह पूँजी को भगवान नहीं मानता.पूँजी मंदिर तो हो सकती है पर ईश्वर नहीं.मंदिर और ईश्वर एक बात नहीं है. लाखों लोग मंदिर जाते हैं पर वे ईश्वर के करीब भी नहीं फटकते. दूसरी तरफ, कुछ लोग ईश्वर का साक्षात्कार कर लेते हैं पर वे मंदिर जाने का समय नहीं निकाल पाते. साध्य और साधन में फर्क है ही, और वह हमेशा रहेगा.
एक बार शहर से काफी दूर एक संस्थान ने मुझे किसी कार्यक्रम में भाषण देने के लिए आमंत्रित किया. मैं घर से निकलने में लेट हो गया, पर मेरे ड्राइवर ने बड़ी कुशलता से तेज़ गाड़ी चलाकर मुझे समय पर पहुंचा दिया. मैंने उसकी हौसला अफज़ाई के लिए उस से कहा-असली 'चीफ गेस्ट' तो तू है, यदि तू मुझे नहीं लाता तो मैं समय पर आ ही नहीं पाता.वह तपाक से बोला- सर, मैं यहाँ आ भी जाता तो यहाँ आकर करता क्या? और आप न आते तो मुझे बुलाता कौन? 
साध्य और साधन का अंतर तो है ही. 
अफ्रीका में साम्यवाद न फैलने का कारण यही है कि वहां की जीवन-शैली में साम्यवाद के अंतिम लक्ष्य के तत्व पहले से ही मौजूद हैं. हम पहले वहां कुछ समय के लिए पूंजीवाद पहुंचा दें, फिर शायद कभी वे भी प्रतीक्षा करें कि साम्यवाद कब आएगा? 
एक पेड़ की छाँव में बैठे लड़के के तन पर यदि महँगी ब्रांडेड कमीज़ है तो पूंजीवाद उसे संतुष्ट मानेगा, पर यदि कमीज़ से असुविधा महसूस करके लड़का उसे उतार फेंके, तो साम्यवाद उसे संतुष्ट मानेगा. 
तो अफ़्रीकी जीवन-शैली में साम्यवाद आकर क्या करे?        

जब क्रिस्टीना कंकनाप्पा ने पहने सोफिया लॉरेन के सेंडिल

हमारे धर्म-ग्रंथों में ऐसा उल्लेख मिलता है कि एक बार हनुमान ने सूर्य को निगल लिया था. तब चारों ओर अन्धकार छा गया. अन्धकार छा जाना स्वाभाविक है क्योंकि संसार को उजाला, उष्मा और ऊर्जा देने वाला स्रोत सूर्य ही है. जब सूर्य को निगल लिया गया तो ज़ाहिर है कि विश्व के सभी देश अँधेरे में डूब गए होंगे, क्योंकि सूर्य अकेला विश्व के सभी देशों की शक्ति का स्रोत है. लेकिन विश्व के अन्य देशों के इतिहास में न तो इस अँधेरे का कहीं उल्लेख मिलता है और न ही अस्तित्व . इसी आधार पर हम कह सकते हैं कि हमारी सभ्यता [सूर्य को निगल लेने की भी] सबसे पुरानी है.हमारी सभ्यता आज तक इसीलिए जीवित और टिकाऊ है क्योंकि हमारे धर्म-ग्रंथों में यह बातें सप्रमाण लिखी हुई मौजूद हैं.और हमारा कोई भी अनुसंधान या शोध हमारे धर्म-ग्रंथों को लांघ कर कभी नहीं जाता, कहीं नहीं जाता. यूं हम बीच-बीच में शौकिया तौर पर करेंट अफेयर्स की बातें भी कर लेते हैं. 
तो एक करेंट अफेयर यह है कि कुछ दिनों पूर्व एक काफी पुरानी विश्व-सुंदरी क्रिस्टीना कंकनाप्पा ने एक और अति-पूर्व विश्व- सुंदरी सोफिया लॉरेन के सेंडल पहन कर कैटवाक  किया. इतनी वृद्ध विश्व-सुंदरी के सेंडल अब कोई नए फैशन के तो होंगे नहीं. ज्यादा महंगे भी होने से रहे, क्योंकि महंगाई हमेशा बढती है, घटती नहीं.क्रिस्टीना सोफिया से कई साल छोटी सही, पर अब कोई युवा नहीं होंगी, क्योंकि वे भी अस्सी के दशक की विश्व-सुंदरी हैं. वे क्यों कैटवाक करेंगी? और करेंगी भी तो अपनी खुद की चप्पल पहन कर क्यों नहीं? 
बात समझ में नहीं आती. परन्तु इस पर अविश्वास भी नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह खबर एक अखबार में छपी थी. और तुर्रा ये, कि यह खबर उस अखबार में छपी थी जिसके मुखपृष्ठ पर बड़े-बड़े अक्षरों में छपा था-  भारत का सबसे प्रामाणिक अखबार.कोई झूठी बात भला क्यों छापेगा ?अखबार  के लिए तो जैसी कनिमोझी वैसी क्रिस्टीना.    

Thursday, June 2, 2011

केन्या, ज़िम्बाब्वे और साऊथ अफ्रीका को क्रिकेट में कौन लाया?

एक मकान की छत पर विचारों में तल्लीन एक व्यक्ति टहल रहा था. तभी उसके ठीक सामने कुछ दूरी पर एक बड़ा सा पत्थर तेज़ी से आकर गिरा. व्यक्ति ने क्रोध से तमतमाकर चिल्लाते हुए कहा- ये पत्थर यहाँ कौन लाया? 
संयोग से उसी समय आकाश से कुछ देवदूत गुज़र रहे थे. आवाज़ सुन कर एक देवदूत बोल पड़ा- इसे तुम्हारे पड़ौसी बच्चे की शरारत यहाँ लाई.आदमी ने चौंक कर ऊपर देखा. तभी दूसरा देवदूत बोल पड़ा- इसे पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति यहाँ लाई. आदमी हैरान होकर कुछ कहता, इस से पहले ही तीसरा देवदूत चिल्लाया- इसे खुद तुम्हारी शरारत यहाँ लाई, तुम बच्चों को गली में खेलने जो नहीं देते? 
यह सब सुनकर व्यक्ति गुस्से से पागल हो गया. वह उन देवदूतों को श्राप देने के से अंदाज़ में बोला- तुम में से जिसकी भी बात गलत हो, वही आकर ज़मीन पर गिरे. पर ज़मीन पर कोई नहीं गिरा. 
तो ज़िम्बाब्वे, केन्या और साऊथ अफ्रीका को क्रिकेट में क्रिकेट का "पूंजीवाद" लाया. खेलों का भौगोलिक "साम्राज्यवाद" लाया. वहां के खिलंदड़े युवाओं के जुनून का "समाजवाद" लाया. एशिया, ऑस्ट्रेलिया, यूरोप महा-द्वीपों से अमेरिका की दिशा में बढ़ी क्रिकेट-ज्वर की लहर का "साम्यवाद" लाया, और विश्व-मीडिया का "बाजारवाद" लाया.
यदि ज़मीन पर अगले कुछ सालों में कोई देवदूत नहीं गिरा, तो शायद हम ज़ल्दी ही अमेरिका को भी विश्व-क्रिकेट में देखें.   

Wednesday, June 1, 2011

अफ्रीका ,आफरीदी ,अफ़सोस, अफरा-तफरी

'सबकी' 'साऊथ''सचमुच'और 'शाहिद' इन चारों शब्दों को ध्यान से देखिये और फिर ऊपर के शीर्षक के चारों शब्दों के साथ इनका मैच मिलाइए. जैसे उदाहरण के लिए यदि आप समझते हैं कि अफ़सोस के साथ 'सचमुच' लगना चाहिए, तो लिखिए-सचमुच अफ़सोस. 
हमारे प्रधानमंत्री ने कहा है कि यह 'सचमुच अफ़सोस' की बात है कि बाबा रामदेव लोगों को योग सिखाते-सिखाते अचानक अपना कुलयोग लाखों के पार ले गए. क्षमा कीजिये, प्रधानमंत्री के यह शब्द नहीं थे, यह तो मेरी भाषा में उनकी बात का भावार्थ है. उनका कहना तो यह था कि सचमुच अफ़सोस की बात है कि लोगों की नब्ज़ पहचानने वाले रामदेव सरकार का नजरिया नहीं पहचान पा रहे.उधर अन्ना तो पहले से ही हजारे हैं. एक अखबार ने तो आज लिख भी दिया कि अब दिल्ली में "अन्ना हजारों" हैं. वैसे पुरानी कहावत तो यह है कि बिल्लियाँ दो हो जाने से फायदा हमेशा बन्दर को होता रहा है. फिर भी कोई जंतर-मंतर में बार-बार मंतर फूंकेगा तो भूत कभी न कभी तो भागेगा ही न? सो अफरा-तफरी मचनी स्वाभाविक है, वह भी सबकी. 
हमारे देश के लोग क्रिकेटरों को सर-आँखों पर बैठाते  हैं.वे धोनी और आफरीदी में भी कोई फर्क नहीं करते. पर आफत की बात तो यह है कि आफरीदी अफ्रीका के नहीं, पाकिस्तान के स्टार हैं. इसलिए हमारी जनता का उनसे प्रेम केवल अफसाना बन कर रह जाता है, कभी हकीकत नहीं बनता. अब आप समझ गए होंगे कि अफ्रीका में साम्यवाद क्यों नहीं आता? खैर, अभी हमारी पहली प्राथमिकता अन्ना और बाबा हैं. प्रधानमंत्री दोनों को साथ लेकर प्रयास करें तो तिहाड़ पर मंजिलें चढ़ते-चढ़ते कुतुबमीनार को टक्कर दे सकती हैं, बशर्ते तिहाड़ में मंजिलें चढाने का काम आदर्श सोसाइटी के कर्णधारों को न दिया जाये.       

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...