दुनिया या तो प्रकृति ने बनाई है या फिर परमेश्वर ने.यदि इसे इंसान ने बनाया-संवारा है तो हम इसका श्रेय अपने पूर्वजों को दे सकते हैं.
लोग कहते हैं, और एक बार मैंने भी उनके सुर में सुर मिला कर कहा था कि लोग अपनी आत्म-कथाओं में अपने बारे में ईमानदारी से नहीं लिखते. आज मैं भी कुछ अपने बारे में ही कहने जा रहा हूँ. और बेबाकी से यह भी कह रहा हूँ कि मैं अपनी कुछ कमियों के बारे में ही कहना चाहता हूँ. तो आप ही बताइये, हमें जिसने भी बनाया, ये कमियां उसी की तो हुईं? फिर इन्हें कहने में कैसा संकोच?लीजिये, मेरी दस कमियों के बारे में जानिए और मन ही मन यह आकलन भी कीजिये कि क्या ये कमियाँ आप में भी हैं?
१. कहावत है कि 'हाथी के दांत- खाने के और दिखाने के और'. मेरी एक कमी यह है कि मैं हमेशा खाने वाले दांतों की बनिस्बत दिखाने वाले दांतों को तरजीह देता रहा हूँ.यह सिद्धांत मेरे अकेले को तो लाभ पहुंचाता है पर मेरे अन्य मिलने-जुलने वालों को नहीं, क्योंकि इस से उनके काम नहीं होते. मैंने हमेशा नौकरी में भी सजावटी जिम्मेदारियां लीं हैं, खाने-कमाने वाली नहीं. इस से मेरे मित्र नहीं बनते. प्रशंसक तो बन जाते हैं. क्योंकि लोगों की सामान्य धारणा ऐसी ही होती है कि वे 'भगत सिंह' को चाहते तो पूजने की हद तक हैं, पर यह नहीं चाहते कि भगत सिंह उनके घर में जन्म ले. मेरे कामों से वाह-वाही मिलती है, माल नहीं.
२.मैं बहुत से मामलों में अलग राय और द्रष्टिकोण रखता हूँ. पर उसे लोगों को या तो समझा नहीं पाता या इस की कोशिश नहीं करता.परिणाम यह होता है कि लोगों को मेरे बारे में गलत-फहमी बहुत आसानी से या ज़ल्दी हो जाती है.
३. मैं लोगों से सम्बन्ध-व्यवहार इस आधार पर नहीं रखता कि वे मेरे साथ कैसा व्यवहार करते हैं, बल्कि इस आधार पर रखता हूँ कि वे मेरी नज़र में 'कैसे' हैं?उनका मूल्यांकन भी इसी आधार पर करता हूँ. यह नहीं कर पाता कि उन्होंने मेरे साथ अच्छा किया तो मैं भी उनके साथ अच्छा ही करूं. इस कारण मैंने अपने कई होने वाले मित्रों को खो दिया.दूसरी तरफ ऐसे कई लोग अब भी मेरे मित्र या मेरी 'गुड-बुक्स' के लोग हैं, जिन्होंने इसके लिए कभी कोशिश नहीं की. पर वे केवल इसलिए हैं, क्योंकि वे मेरी नज़र में अच्छे हैं.
४. सामान्यतया सभी का व्यक्तित्व दो भागों में बटा होता है- शरीर और दिमाग. बुद्धिमानी इसी में है कि हम व्यक्ति के दिमाग को उसके शारीरिक-व्यक्तित्व से ज्यादा वज़न दें.मैं इस तथ्य को जानते हुए भी दोनों को अहमियत दे डालता हूँ. मेरे मित्रों में बुद्धिमत्ता से ज्यादा आकर्षक दिखने वाले लोग भी अहमियत पाए हुए हैं. मुझे उनका साथ ज्यादा 'कम्फर्टेबल' लगता है.
५. मेरा विश्वास है कि आदमी को जो-कुछ भी मिलता है, वो मेहनत और भाग्य दोनों के फलस्वरूप मिलता है.फिर भी मैं केवल उसी की क़द्र करता हूँ, जो मेहनत से मिलता है.जो चीज़ भाग्य से मिल जाय उसकी कीमत नहीं समझ पाता.यह भी नहीं सोच पाता कि जो चीज़ मुझे भाग्य से मिल गयी, वह भी तो किसी और की मेहनत का परिणाम हो सकती है? इस आदत ने मुझे बहुत पछतावा भी दिया है.
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