चलिए, पर्सिस खम्बाता,रीता फारिया या जीनत अमान को छोड़ दें.डायना हेडन,युक्ता मुखी और लारा दत्ता की बात करें. ये सौन्दर्य का ताज सर पर धारण करके अपने देश क्या लौटीं, देश में ब्यूटी कॉन्टेस्ट जीतने के कोचिंग सेंटर खुलने लगे.हर बड़े शहर में सुन्दरता निखारने वालों की बाढ़ सी आ गई, मानो दुनिया की रूपसियाँ वहां अपने चेहरे की लीपा-पोती दिखाने जमा होती हों.
नारी- व्यक्तित्व या महिला-जीवन शैली की जैसी झलक आपको वेनेज़ुएला में देखने को मिलती है, उसका दूर का भी वास्ता पार्लरों या सुन्दरता बढ़ाने वाले संस्थानों से नहीं है.वहां के सौन्दर्य-मानदंड भी नाप-तौल से ज्यादा जीवन में नई पीढ़ी को तृप्ति देने वाले हैं, सम्पूर्णता देने वाले हैं.बालपन से ही महिला अवस्थिति को जैसा समादर वहां या उसी मानसिकता के अन्य देशों में मिलता देखा जाता है, वह हमारे जैसे विकास-शील देशों के लिए अभी दूर की कौड़ी है. वहां मनु और श्रद्धा को याद करने की ज़रुरत नहीं पड़ती. स्त्री-पुरुष कहने से ही तराजू के दो समान पलड़ों का अहसास हो जाता है.यह तो कमाल हमारे जैसे चंद देशों का ही है कि पुरुष अपना पराक्रम वज़न उठा कर दिखा सकता है और महिला को अपना शौर्य दिखाने के लिए सोलह श्रृंगार चाहिए. यह मानदंड किसी महिला के रचे तो हरगिज़ नहीं हो सकते. ज़रूर इन्हें किसी पुरुष ने ही सोचा होगा. और इनके माध्यम से महिलाओं के लिए ऐसा चक्रव्यूह रच दिया गया कि नारी ज़र्रा-ज़र्रा अपने को सजाती जाये तथा पोर-पोर और भौंडी शख्सियत पाती जाय.जैसे किसी पुतले में खूबसूरती मिटाने का जादू पिरो दिया जाय.
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