Sunday, February 28, 2016

तर्क नहीं विचार

हिंदी फिल्मों में अपराध के चित्रण को लेकर भी लोग दो खेमों में बँटे हुए है।
कुछ लोग ये मानते हैं कि फ़िल्में लिखने वाले भी इसी समाज में रहते हैं, इसलिए जो कुछ समाज में हो रहा है, वही फिल्म के परदे पर भी आ रहा है।
किन्तु इसके विपरीत सोचने वालों की भी कमी नहीं है। वे कहते हैं कि कहीं भूले-भटके अपवाद स्वरुप कोई बर्बर घटना घट गयी तो फिल्म वाले उसे मिर्च-मसाला लगा कर इस तरह फ़िल्मा देते हैं कि फिर वही एक घटना जगह-जगह घटने के लिए अपराधियों को उकसाती है और देखते-देखते समाज में उसका इस तरह महिमा-मंडन हो जाता है, कि लोग उसे अपराध कम ,मनोरंजन ज़्यादा समझने लगते हैं।
बेहतर हो कि हम इस विषय पर तर्क करने की जगह इस पर सोचें !
क्या ये टिप्पणियाँ आपको सही लगती हैं?
१. नकारात्मकता ज़्यादा संक्रामक होती है।  फ़िल्मी मारपीट देख कर लाखों बच्चे उसी तरह से रिएक्ट करते देखे जा सकते हैं, किन्तु फिल्मों में दिखाई गयी प्रवचनात्मक अच्छाइयों का उतना असर नहीं होता।
२. आपसी संबंधों को सँवारने-बिगाड़ने में फिल्मों की खासी भूमिका है।
३. अधिकांश फिल्मकारों को आपके अच्छे-बुरे से सरोकार नहीं होता, वे तो नया और पहले दिखाए जा चुके से आगे का दिखाना चाहते हैं।
४. कलाकारों में एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ फिल्म दर फिल्म उनकी "विशिष्टता" में तड़का लगा देती है। वे विश्वसनीयता या सामाजिक प्रभाव के चक्कर में नहीं पड़ते। उनका लक्ष्य तो  'देखने वाले की नज़र में घर करना' होता है।            

Sunday, February 21, 2016

क्या फायदा?

मेरे एक मित्र ने मुझसे पूछा कि आजकल फिल्मों के नाम में दो बातें बहुत तेज़ी से दिखाई दे रही हैं-
१. हिंदी फिल्मों के नाम अंग्रेजी में आ रहे हैं,
२.एक ही फिल्म के नाम को २,३,४, क्रम डाल कर दोहराया जा रहा है।
उनका कहना था कि क्या हिंदी में "संज्ञाएँ" चुक गयीं ? अब नए नाम नहीं बचे?
यदि हिंदी में नए नाम ख़त्म नहीं हुए हैं तो ऐसा करने से उन्हें क्या फायदा है?
आइये जानते हैं कि उन्हें क्या फायदा है?
१. भारत में कुछ राज्य केवल हिन्दीभाषी हैं, कुछ हिंदी का कामचलाऊ ज्ञान रखते हैं, और इक्का-दुक्का ऐसे भी हैं जो हिंदी को अब भी मन से नहीं पसंद करते। लेकिन हिंदी फ़िल्में सभी जगह जाती हैं और देखी भी जाती हैं। ऐसे में कई फिल्मकारों को लगता है कि हिंदी की तुलना में अंग्रेजी नाम जल्दी लोगों का ध्यान खींच लेंगे। यदि हिंदी में ही "नए" नाम चुने जायेंगे तो हो सकता है कि अहिन्दी भाषी लोग उनसे अपरिचित भी हों। आपने देखा होगा कि अंग्रेजी में भी आसानी से न समझने वाला नाम होने पर उसके साथ हिंदी या फिर उसका अर्थ डाला जाता है। आज अधिकांश हिंदी फ़िल्में कई देशों में एक साथ रिलीज़ भी की जाती हैं। याद रखिये,फिल्मउद्योग किसी भाषा का स्कूल नहीं, उद्योग का मुनाफा-आधारित बाजार है।  
२.जब एक ही फिल्म का नाम दोहराया जाता है तो उसके पीछे पुराने नाम की "गुडविल" को भुनाने,पुरानी फिल्म के कथानक से उसका तारतम्य स्थापित कर देने, उसके नाम के पहले से हो चुके विज्ञापन का लाभ लेने जैसे कारण होते हैं। हमारा सेंसरबोर्ड भी एक निश्चित समय के बाद नाम को पुनः काम में लेने की अनुमति दे देता है। टाइटिल रजिस्ट्रेशन के नियम भी इसकी अनुमति देते हैं। एक अवधि के बाद कॉपीराइट भी समाप्त हो जाता है। इन कारणों से जनित आर्थिक पक्ष निर्माताओं को ऐसा करने के लिए प्रेरित करता है।
ऐसा मत समझिए कि इस बात के लिए हमारी-आपकी हिंदी की कोई कमी ज़िम्मेदार है!                 
   

Wednesday, February 17, 2016

खलनायक नहीं है कास्टिंग काउच [ 3 ]

आपको याद होगा कि वर्षों पहले तो शादियां भी लड़के-लड़की को एक दूसरे को दिखाए बिना तय हो जाती थीं। लेकिन उस समय भी समाज ने ये व्यवस्था की थी कि दावेदार की पूरी परख हो सके। शादी तय करवाने का काम "नाई" के जिम्मे था। जानते हैं क्यों? क्योंकि बदन मालिश के जरिये आपकी टोह ले लेने में वह सक्षम था, और उसकी पहुँच आपके शरीर के अंतरंग भागों तक थी। यह उसकी व्यावसायिक विशेषज्ञता थी।       
जिस तरह एक नेता को लाखों अलग-अलग धर्म, व्यवसाय, उम्र,आर्थिक स्थिति, भाषा ज्ञान, सांस्कृतिक मूल्य, शैक्षणिक समझ वाले लोगों से वोट लेना होता है वैसे ही अभिनेता को भी अलग-अलग तरह की मानसिकता वाले लोगों को प्रभावित करना होता है।
इसीलिये व्यावहारिक रूप से नेता एक ओर खादी के वस्त्र पहन कर लोगों से उन्नति की बात भी करते हैं,दूसरी ओर चोरी छिपे शराब की बोतलें भी बँटवाते हैं। उसी तरह अभिनेता को भी एक तरफ इंसानियत के दमदार डायलॉग बोलकर आपकी तालियाँ बटोरनी हैं, दूसरी तरफ प्रेम-सेक्स आकर्षण की बरसात करके आपकी छिपी भावनाओं को भी भड़काना है।
अभिनेता की इस "योग्यता" का पूर्व आकलन करने की मंशा रखने वाला विशेषज्ञ ही वस्तुतः कास्टिंग काउच है। आप सोचिये, यदि वह केवल सेक्स चाहने वाला व्यसनी ही हो, तो क्या बाजार में उसकी अपेक्षा पूर्ति के अन्य साधन कम हैं?
यही कारण है कि जब किसी मध्यमवर्गीय परिवार के बच्चे फिल्मों का रुख करने की चाहत रखते हैं तो उन्हें घरवालों द्वारा रोका जाता है। क्योंकि कई बार नकली कास्टिंग काउच आपके साथ धोखाधड़ी कर देते हैं।
आज एक अच्छी बात ये भी है कि टेक्नोलॉजी ने आपके इम्तहान को आसान बना दिया है। अब आप अपना "सब कुछ" बिना शारीरिक नुक्सान उठाये किसी के सामने प्रदर्शित कर सकते हैं। अपने अनावृत्त शरीर के छायांकन और वीडिओज़ के द्वारा आप बिना झिझक या संकोच के अपनी दावेदारी अपने पारखियों के सामने परोस सकते हैं। तो अब कास्टिंग काउच भी आभासी हैं, वर्चुअल हैं। अपने सपनों में रंग भरने के लिए अब आपको जोखिम उठाने की पहले जैसी ज़रूरत नहीं रही।              

खलनायक नहीं है कास्टिंग काउच [ 2 ]

फिल्म निर्माण करोड़ों रूपये का खेल है।  ऐसे में लेखक / निर्देशक / निर्माता / फाइनेंसर सभी की आशाओं पर खरा उतरने का काम एक कलाकार को करना पड़ता है।  उस कलाकार को जो व्यक्ति या एजेंसी आपके पास लेकर आये , उसे भी पूरा हक़ है कि वह उसकी विशेषताओं, योग्यताओं, सीमाओं की पूरी जानकारी रखे।बल्कि यह उसका कर्त्तव्य है, क्योंकि सही काम के लिए सही समय पर सही व्यक्ति देना उनके व्यवसाय का हिस्सा है। उन्हें इसी का पैसा मिलता है।
आप कहेंगे कि बॉलीवुड का सेंसरबोर्ड तो सम्भोग दृश्यों को पास नहीं करता तो ऐसे में कलाकार से कोई पहले ऐसी अपेक्षा क्यों रखे कि वह सेक्स में लिप्त हो ?
ये जानिये-
चाहें फिल्म में यौन संसर्ग के सीधे दृश्य दिखाए न जाते हों, अंतरंग दृश्यों की शूटिंग अवश्य होती है,और बाद में संपादन से इनका वांछित व अनुज्ञा-प्राप्त भाग ले लिया जाता है। इस से कलाकारों के अभिनय और लुक्स में स्वाभाविकता आती है। कई बार प्रेक्टिस या रिहर्सल में खुले तौर पर आपका सहयोग मिलने से आपके और साथी कलाकार के दृश्य भी जीवंत बन पाते हैं।
ये सत्य है कि यदि कलाकार वास्तविक जीवन में रूढ़िवादी या नैतिकता को लेकर संकुचित सोच वाला होगा तो वह कितना भी अभिनय-प्रवण हो, अंतरंग संबंधों में स्वाभाविकता नहीं ला पायेगा [ अपवाद हो सकते हैं] और अंतरंगता फिल्म की जान होती है। कई बार कलाकारों की 'केमिस्ट्री' साधारण फिल्म को भी असरदार बना ले जाती है। कलाकार फिल्म को जीवंत बना ले जाने के लिए कितनी मेहनत करते हैं, वजन घटाते-बढ़ाते हैं, प्रशिक्षण लेते हैं, नृत्य, ड्राइविंग,स्वीमिंग या फाइट सीखते हैं, तो केवल इस एक पक्ष के लिए दकियानूसी कैसे हो सकते हैं? शराब नोशी की भूमिका करने से पहले यदि एकाध बार पी कर देख लें, तो इसमें क्या हर्ज़ है ?
हो सकता है कि आयुष्मान खुराना का वास्ता किसी कास्टिंग काउच से इसीलिए पड़ा हो कि उन्हें भविष्य में 'विकी डोनर' जैसी फिल्म करनी थी।
आइटम नंबर के लिए किसी मल्लिका शेरावत, राखी सावंत,सनी लियॉन जैसी अभिनेत्री की सिफारिश करने वाले कास्टिंग डायरेक्टर को उनकी स्ट्रेंथ पता तो होनी चाहिए !
[... जारी ]
 
    

खलनायक नहीं हैं कास्टिंग काउच !

"कास्टिंग काउच" उसे कहा जाता है जो पेशे से तो फिल्मों में भूमिका दिलाने का काम करता है परन्तु वह काम चाहने वाले आशार्थियों से खुद या किसी अन्य के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनवा लेना चाहता है। फिल्मों में वैसे तो 'कास्टिंग डायरेक्टर' या जूनियर कलाकारों के सम्बन्ध में 'एक्स्ट्रा आर्टिस्ट सप्लायर' होते हैं, जो फिल्म निर्माता से कलाकारों को मिलवाने और उन्हें समय पर उपलब्ध कराने का काम करते हैं, किन्तु यदि ये लोग चयन में शारीरिक सम्बन्ध को भी ले आते हैं तो इन्हें "कास्टिंग काउच" कहा जाता है जो एक घिनौना काम माना जाता है। समय-समय पर कई लोगों पर कास्टिंग काउच होने के आरोप लगते रहे हैं।
अभिनेता शक्ति कपूर,निर्माता महेश भट्ट जैसे नामी-गिरामी लोग भी ऐसे आरोप झेल चुके हैं।  कुछ समय पहले अभिनेत्री कंगना रनोट और अभिनेता आयुष्मान खुराना ने भी कभी ऐसे लोगों के संपर्क में आने की बात स्वीकारी थी।
बॉलीवुड में हाल में आया ये शब्द वस्तुतः हॉलीवुड से ही आया है किन्तु आपको ये जान कर आश्चर्य होगा कि वहां कास्टिंग काउच खलनायक या अनैतिक काम करने वाला नहीं माना जाता, बल्कि ये काम उसकी विशेषज्ञता का ही एक हिस्सा है।
देश कोई भी हो, फिल्मों की सफलता-असफलता में "सेक्स" की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। वास्तव में फिल्म काल्पनिक कथाक्रम में मनोरंजन के साथ शरीर प्रदर्शन का व्यापार ही है जिसे वास्तविकता के आभास के साथ परोसा जाता है। यही कारण है कि कई साल पहले फिल्मों में काम करना निम्नकोटि का काम माना जाता था।  
ऐसे में कलाकारों की मांग-पूर्ति करने वाले व्यक्ति को कलाकार की मानसिकता की पूरी रेंज पता होना एक व्यावसायिक अपेक्षा है। कलाकार चुनने वाला व्यक्ति आशार्थी को अपने "माल"की तरह मानता है, जिसे उसे खपाना है, क्योंकि यही उसकी आमदनी का जरिया है।
ये ठीक वैसा ही है जैसे एक डाक्टर जब अपने मरीज़ की जाँच करने के लिए उसे निर्वस्त्र करता है तो वह रोगी का शीलहरण नहीं कर रहा होता, बल्कि रोग के निदान से पहले उसके बारे में जान रहा होता है।
एक बड़े भोज में हलवाई जब भोजन परोसने से पहले उसे "चख" कर देखता है तो उसका उद्देश्य आपके भोजन को जूठा करना नहीं होता, बल्कि वह ये जानना चाहता है कि सबको पसंद आने वाला स्वाद बन गया है या नहीं। यह उसकी विशेषज्ञता है, उसके पेशे की मांग है।
[ जारी ...]                

Tuesday, February 9, 2016

भटकते कोलम्बस

ये बात उस समय की है जब मैं मुंबई में था और अपनी कुछ कहानियों के सिलसिले में कभी-कभी फिल्म निर्माताओं से मिला करता था। मेरा एक मित्र परवेज़ ये मुलाकातें तय करवा देता था जो मेरे साथ ही रहा करता था।
एक दिन एक बड़े निर्माता से मिलना तय हुआ, जिनकी पत्नी भी उस समय बेहद मशहूर फिल्मस्टार थीं।  मैं अकेला ही उनके दिए समय पर उनके दफ्तर में मिलने पहुंचा। कुछ देर की साधारण बातचीत के बाद वे मुझे अपने घर साथ चलने के लिए कहने लगे। उनकी कार दरवाजे पर लगी थी,उन्होंने मुझसे गाड़ी में बैठने के लिए कहा और स्वयं दफ्तर के लोगों को कुछ समझाने लगे। गाड़ी में ड्राइवर था,मैं पीछे बैठने लगा। ड्राइवर ने जैसे ही नज़र पीछे घुमाई, और नमस्कार करने की मुद्रा में मुंह उठाया,मैं चौंक गया। लड़का बेहद स्मार्ट [ बल्कि खूबसूरत भी कह दूँ] और संभ्रांत था। मुझे लगा, उनका बेटा या परिवार का ही कोई सदस्य न हो। ख़ैर , वे बगल में एक छोटा सा बैग दबाये आये और मेरे साथ बैठ गए। गाड़ी चल पड़ी।
उनके बँगले पर पहुँचते ही गाड़ी की आवाज़ सुनकर एक दरबान लड़के ने दरवाज़ा खोला, कार रुकते ही एक और लड़के ने भीतर से आकर उनके हाथ से बैग पकड़ा। ड्रॉइंग रूम में मुझे बैठने का इशारा करके वे भीतर चले गए। एक लड़का तुरंत पानी लेकर आया और जाते-जाते धीरे से पूछ गया कि 'चाय में चीनी लेंगे न?'
अब मैं ड्राइवर लड़के की बात भूल गया था क्योंकि दरबान,बैग लेने वाला, और पानी लाने वाला लड़का भी उसी की तरह स्मार्ट, खूबसूरत, काम में तत्पर शायद बड़े घरों के ही लड़के थे।
मुझे प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ दामोदर खडसे की कहानी " भटकते कोलम्बस " याद हो आई जिसमें अपनी दुनिया ढूंढते बेरोज़गार युवाओं का मार्मिक चित्रण है।
थोड़ी देर के लिए मैं ये भी भुला बैठा कि मैं अपनी कहानी सुनाने यहाँ आया हूँ।                     

Thursday, February 4, 2016

"पिंजरा तोड़"

कुछ विश्वविद्यालयों की छात्राओं  के एक अनूठे अभियान की खबर इन दिनों मीडिया में आ रही है। वे शिक्षण संस्थानों के छात्रावासों में अपने दैनिक क्रियाकलापों पर लगाई गई पाबंदियों को लेकर नाखुश हैं, और इन्हें जेल सरीखा बताकर इनसे निजात चाहती हैं।
समय-समय पर महिला-सुरक्षा के नाम पर की गई सख़्ती को लेकर उन्होंने महिला-आयोग को एक नाराज़गी भरी रिपोर्ट भी भेजी है। उनका कहना है कि सुरक्षित रहने के लिए आज़ादी का बलिदान कर देना समस्या का समाधान नहीं है।
इस मुद्दे पर स्त्री-पुरुष मानसिकता के बीच खासा विवाद है।
पुरुषवादी सोच के लोग कहते हैं-
जहाँ खतरा है वहां हम न जाएँ। यदि चोर-उचक्के घर में आते हैं तो कांटेदार बाढ़ और समुचित पहरा लगाएं।यदि रात में जानवरों का खतरा है तो हम दिन छिपने पर घर लौट आएं। यदि हमारी कोई पोशाक आततायियों को हिंसा के लिए उकसाती है तो उसे न पहनें। अजनबी या संदिग्ध लोगों से मेलजोल न बढ़ाएं।
लेकिन महिलाओं को ये, या इनमें कुछ बातें अपमानजनक लगती हैं। उनका मन कहता है कि यदि कहीं खतरा है तो हम छिपने की जगह खतरे को नष्ट करने का प्रयास क्यों न करें?  हमें पहरे में बैठाने की जगह समाज, कानून व सरकारें हमलावरों को कैद करने की जुगत क्यों न करें? कांटेदार बाढ़ अपने पर लगाने की जगह जानवरों पर क्यों न लगाई जाये? किसी पोशाक को गन्दा कहने की जगह देखने वालों की नज़रों को गन्दी क्यों न कहें? अभिभावक शाम होते ही लड़कों को ये कहते हुए क्यों न घर में ही रोकें-"कहाँ जा रहे हो? क्या करोगे? किससे  मिलना है? दिन में क्यों नहीं मिले?"
अब आप खुद ही सोचिये-कौन सही है, कौन गलत?
"यानी आतंकियों के लिए सारा जहान और हमारे लिए पिंजरा?"         

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...