Monday, November 30, 2015

क्या हमें अपने से भी ज़्यादा भरोसा पाकिस्तान पर है?

भारत और पाकिस्तान के क्रिकेट खिलाड़ी आपस में मैच खेलें या नहीं?
इन दोनों देशों के बीच संभावित खेल को लेकर हमारा देश एक मत नहीं है। कुछ लोग मानते हैं कि खेल हो, और राजनीति या कूटनीति को खेल के मैदान से दूर रखा जाये।  जबकि कुछ लोग सोचते हैं कि यदि पाकिस्तान भारत के साथ दुश्मनी का व्यवहार करता है तो उसके साथ खेलने का क्या औचित्य? वहीं ऐसा विचार रखने वाले कुछ लोग भी हैं कि आज की दुश्मनी को मिटाने की जब कूटनीतिक कोशिशें हो रही हैं तो सौहार्द्र की एक कोशिश खेल के जरिये भी क्यों नहीं? खिलाड़ियों और खेल- प्रेमियों की राय यह है कि देशों की सरहद बांटना हुक्मरानों का काम है, मानवीय आधार पर खेल की भावना तो बनी ही रहे।
तात्पर्य यह है कि एक ही मुद्दे पर हम अलग-अलग राय रखते हैं और अपने-अपने हिसाब से एक्शन चाहते हैं।
तो क्या पाकिस्तान को हम एड़ी से चोटी तक "एक" ही मानते हैं? क्या वहां सत्ता, विपक्ष, अवाम, खेल प्रशासन और खिलाड़ी,सबका हम परस्पर जुड़ाव या एकजुटता मानते हैं?
क्या हमारे यहाँ जो सत्ता कहती है, विपक्ष, जनता, खेलसंघ, खिलाड़ी और खेलप्रेमी वही करते हैं?
यहाँ तो आधे से ज्यादा लोग ये शपथ खाए बैठे हैं कि जो केंद्र सरकार करे, उसका उल्टा बोलना है !चाहे वह जनता के स्पष्ट बहुमत से चुनी हुई बिना किसी जोड़गांठ, उठा-पटक,खींचतान वाली सरकार हो।
आखिर साठ साल तक खाया हुआ नमक भी तो कुछ वजन रखता है?  

     

Friday, November 27, 2015

           

युद्ध स्तर पर लड़ने की ज़रूरत है इस से

भारत की आज सबसे बड़ी समस्या शायद जनसंख्या का दबाव ही है। हम अपने सवा अरब देशवासियों पर बेशक गर्व करना न छोड़ें, किन्तु ये बात भी न भूलें कि  -
१. हमारी अधिकांश महत्वाकांक्षी परियोजनाएं बेतहाशा बढ़ते जनसंख्या दबाव के चलते संकट में पड़ जाती हैं।
२. विशाल जनसंख्या में एक बड़ा हिस्सा अनुत्पादक जनसंख्या का है, जो अर्थव्यवस्था पर भार की तरह है।
३. यदि हम "जनसंख्या किस्म" की बात करें तो इसमें निरंतर ह्रास हो रहा है क्योंकि वे लोग ही तेज़ी से बढ़ रहे हैं जो शिक्षा या प्रचार के दायरे में नहीं आ पाते।
४. संख्या नियंत्रण के लिए कुछ कड़े फैसले लिए बिना काम नहीं चलता,और कोई भी ऐसा फैसला विविध-सोच वाले देश में आसान नहीं होता।
५. यह सच है कि बेहद व्यापक हो चुकी "नशाखोरी" ने हमारी जनसंख्या के बड़े हिस्से को नाकारा बना छोड़ा है।
 ६.तथाकथित असहिष्णुता भी भीड़ की एक प्रवृत्ति है, और हर जगह, हर बात में भीड़ होना, जनसंख्या की ही देन है।     
७. हम बाहर से हमारे पास आये लोगों को अपना नहीं समझ पाते इससे वे हमारे पास तो हैं, पर हमारी मानसिक आयोजना में शामिल नहीं हैं।       

Thursday, November 26, 2015

प्रकृति मै ' म [ कहानी- अंतिम भाग (5) ]

मैडम बोलीं- गौरव, बेटा इस ग्रुप में अब बहुत बच्चे हो गए हैं, तुम कल से दोपहर वाले बैच में आया करो।
गौरव ने मुंह में भरा पानी पिचकारी की शक्ल में ऐसे उछाला जैसे नौसिखुए सिगरेट पीने वाले धुआं एक ओर मुंह करके उड़ाते हैं।  फिर धीरे से बोला- जी मैम !
कोच उसके कॉस्ट्यूम की ओर गहराई से देखती हुई झेंप कर रह गयी।
गौरव ने चुपचाप पास की बेंच पर रखा अपना तौलिया लेकर कंधे पर डाला और धीरे-धीरे वाशरूम की ओर बढ़ गया।
मैं  शायद सीढ़ियों की ओर नीचे होने के कारण ऊपर उन लोगों को दिखाई नहीं दिया था लेकिन उनकी आवाज़ मुझ तक साफ-साफ आ रही थी।
बच्चे गौरव को जाते हुए देखते रहे, तभी पीछे से पानी के बीच से अविनाश की आवाज़ आई,जो गौरव से कह रहा था- ... तुम अब ठड़े होने वाले वाशरूम में जाना ...टल से.... ठीट है डौरव ?
बच्चों ने देखा गौरव मुस्कराकर पलटा और फिर बब्बर शेर वाली चाल से चलता हुआ शान से भीतर चला गया।  कोच ने मुझे देख लिया था और वे अभिवादन कर मेरी ओर चली आयीं।
मैं बच्चों को अठखेलियां करते देख रहा था कि तैरते हुए अविनाश की आवाज़ आई- डुरुजी ....नमस्टार !
मैं सोच रहा था, हम तो नाम के शिक्षक हैं बाक़ी असली शिक्षिका तो प्रकृति है जो अपने तरीके से ज़िंदगी के सबक हम सबको सिखाती है।  [ समाप्त ]
[ "सुजाता" सितम्बर 2015 अंक में प्रकाशित ]    

प्रकृति मै ' म [ कहानी- भाग 4 ]

तभी लड़कियों के झुण्ड के बीच से अविनाश की तेज आवाज़ आई- ये बब्बर शेर है, बब्बर शेर ! देठो -देठो ...इस टे बाल ! चारों टरफ़ बाल ही बाल ...बब्बर शेर ...जंडल टा राजा !
बड़े सर को पास आया देख बच्चे संयत हो गए थे।  लड़कियां भी झुण्ड से तिरोहित होने लगी थीं।  सभी आगे बढ़ने लगे।
बच्चों ने भरपूर आनंद लिया पिकनिक का।  शाम गहराने से पहले ही बच्चों को अपने-अपने घर पहुंचा दिया गया।
अगले दिन अवकाश था लेकिन बच्चों की एक्स्ट्रा एक्टिविटीज़ चल रही थीं।  मैं अपने नियमित राउंड पर था।  पिछवाड़े के खेल मैदान के किनारे-किनारे चलता हुआ मैं स्वीमिंग पूल की ओर  जाने लगा।
विद्यालय का स्वीमिंग पूल तीन शिफ्टों में चलता था।  सुबह छोटे बच्चे आते थे जिनके लिए कॉमन व्यवस्था थी।  बारह वर्ष तक की आयु के लड़के-लड़कियां इसमें तैरना सीखते थे। बाद में दोपहर को लड़के और शाम को लड़कियां आती थीं। ये बड़ी कक्षाओं के लिए निर्धारित समय था।  पूल पर अलग-अलग दो वाशरूम और चेंजरूम बने हुए थे।  छोटे बच्चों और लड़कियों का एक वाशरूम था तथा बड़े लड़कों के लिए दूसरा।
मैं कल की सैर के विचारों में खोया धीरे-धीरे चलता हुआ स्वीमिंग पूल की सीढ़ियों तक आ गया।  सुबह की बच्चों वाली शिफ्ट चल रही थी।  कोच मैडम छोटे बच्चों को तैरना सिखा रही थीं। पिछले दिनों पड़ने वाली गर्मी और उमस के कारण बच्चों को ठन्डे पानी में अठखेलियां करना भा रहा था।
सीढ़ियों पर कदम रखते ही भीतर का कोलाहल सुनाई देने लगा।  शायद इस शिफ्ट में बच्चों की संख्या भी कुछ ज्यादा थी जिससे चहल-पहल भी बढ़ गयी थी।
तभी तो कमर में ट्यूब बांधकर हाथ-पैर मारते बच्चों को पूरी तरह से जगह भी नहीं मिल पा रही थी।  वे एक-दूसरे पर पानी की बौछारें उछालते जीवन के झंझावातों के लिए मानो अपने को तैयार करने की मीठी मुहिम में जुटे थे।  मुझे कोच मैडम की आवाज़ सुनाई दी।  वे एक लड़के को इशारे से पानी से बाहर आने को कह रही थीं। गौरव नाम का वह लड़का था तो बच्चों की इसी क्लास का, मगर शायद देर से पढ़ने या फेल हो जाने के कारण अपनी कक्षा के बच्चों से डील-डौल में ज़रा बड़ा लगता था।
गौरव अपने माथे पर छितराये भीगे बालों को हाथों से पीछे करता पानी निकल कर कोच के पास आने लगा।  उसके स्वीमिंग कॉस्ट्यूम से पानी की धार अब भी टपक रही थी।
[... जारी ]                

प्रकृति मै ' म [ कहानी-भाग 3 ]

 एक बड़े घुमावदार रास्ते के बाद बने पिंजरे के सामने किलकारियां भर-भर के लड़के खुश हो रहे थे।  कुछ-एक तो हाथ हिला-हिला कर सीटियां मार रहे थे।  पिंजरे के सामने के रास्ते के पार एक पीपल के पेड़ के नीचे कुछ लड़कियां जमा हो गयी थीं।
मैं उस ओर देखता हुआ कुछ बड़े-बड़े डग भरता हुआ बढ़ने लगा।  मैंने देखा, लड़कियां पिंजरे के पास नहीं आ रही थीं बल्कि दूर पेड़ के नीचे झुण्ड में खड़ी मुंह फेर कर हंस रही थीं।  वे इशारे में एक दूसरी को दिखा कर हँसतीं और उस ओर  से मुंह घुमा लेतीं। आखिर ऐसा कौन सा जानवर था जिसे देख कर लड़के इतने प्रफुल्लित हो रहे हैं और लड़कियां शरमाकर इस तरह दूर हट रही हैं?
मैंने कदम कुछ और तेज़ कर दिए।  तभी मेरा माथा ठनका-कहीं ऐसा तो नहीं कि  पिंजरे में कोई जोड़ा रतिक्रिया कर रहा हो।  जानवर में इतनी समझ थोड़े ही होती है कि वह भीड़ और एकांत के बीच फर्क कर सके।  मुझे कुत्तों या गाय-बैलों के ऐसे कई सार्वजनिक दृश्य याद थे जब मैंने उनकी ऐसी अवस्था में उन्हें देख कर लड़कों को खुश होते और लड़कियों को मुंह छिपा कर चुपचाप वहां से गुज़रते देखा था। तो क्या इस अवस्था के छोटे बच्चे भी ऐसे दृश्यों से आनंदित होने लगे? ये क्या होता जा रहा है, मैं सोच में डूबा उस ओर बढ़ा।
मेरा आश्चर्य वहां पहुँच कर और भी बढ़ गया, क्योंकि वहां ऐसा कुछ भी नहीं था। वह तो बब्बर शेर का पिंजरा  था। बचपन में सुनी कई कहानियों के आधार पर लड़के जंगल के राजा का इस्तकबाल खुश होकर, सीटियां और किलकारियां भर के कर रहे थे और वह शान से अपने दर्शकों को देखता हुआ इधर से उधर पिंजरे में टहल रहा था।  लड़कों की ख़ुशी जायज़ थी।
लेकिन लड़कियों का शरमाना और मुंह छिपा कर हंसना मेरी समझ में बिलकुल नहीं आया।  क्या वे शेर से डर रही थीं? क्या जंगल का राजा उन्हें उत्साह-उल्लास से नहीं भर रहा था? आखिर क्या बात थी?
[... जारी ]        

प्रकृति मै ' म [ कहानी- भाग 2 ]

स्कूल के प्रिंसिपल के छुट्टी पर होने के कारण  मैं कार्यवाहक के रूप में उनका काम देख रहा था, इसलिए रविवार को बच्चों के साथ यहाँ भी चला आया था।  मुझे पता था कि  बारह वर्ष तक के बच्चों का वहां आधा टिकट ही लगा करता था, इसलिए विद्यालय स्तर पर कन्सेशन की व्यवस्था की कोई ज़रूरत वैसे भी नहीं थी।
पिछले दिनों शहर के कुछ स्कूलों में छेड़छाड़ व दुष्कर्म की घटनाएँ अख़बारों में उछल जाने से मैं अपनी जिम्मेदारी अधिक मानकर बच्चों के साथ चला आया था।  मैं कुछ ही दिन के लिए नया-नया प्रिंसिपल बना था इसलिए मैंने सचेत रहने की कोशिश की।  कहते हैं न कि नया मुल्ला कुछ ज्यादा ही अल्लाह-अल्लाह करता है।
टिकट लेने के बाद बच्चे अपने-अपने झुण्ड में जानवरों को देखने में मशगूल हो गए।  हाथी , जिराफ़,ऊँट,शुतुरमुर्ग, दरियाई घोड़ा, बारहसिंघा, गेंडा , घोड़ा , जंगली भैंसा, ज़ेबरा, शेर, बाघ, रीछ,लकड़बग्घा .....एक न ख़त्म होने वाला सिलसिला था।  बच्चे अपने-अपने तरीके से निसर्ग-प्राणियों के बंदी जीवन का आनंद ले रहे थे।  लड़कों की रूचि जहाँ चिम्पांजी की उछलकूद और भालू की शरारतों में थी, वहीँ लड़कियां हरिणों के सौंदर्य और रंग-बिरंगे पंछियों की कलाबाजियों में डूबी थीं।  अविनाश या तो अकेला होता या फिर लड़कियों की जिज्ञासा को शांत करता, उनको नई-नई जानकारी देता, उनके झुण्ड में दिखाई देता। दूसरे दोनों अध्यापक, जिनमें एक महिला थी,अपनी बातों में मगन पीछे-पीछे चले आ  रहे थे।  किताबों से दूर एक दिन की तफ़रीह मानो उन्हें भी सुहा रही थी।
मुझ पर आनंद लेने से अधिक, बच्चों का दायित्वपूर्ण अभिभावक होने का नशा तारी था।  इसलिए मैं पशुओं से अधिक बच्चों के कार्यकलाप और उनकी बातों पर भी सतर्कता से नज़र रखे चल रहा था।  मेरी वरिष्ठता दोनों अध्यापकों को भी जैसे मुझसे दूर-दूर रखे हुए थी।
जब पिंजरों के बीच दूरी अधिक होने पर बच्चे गलियारों और ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चलते तो उनकी बातें भी बहती धारा की तरह तेज़ और घुमावदार हो जातीं। हँसी -मज़ाक छींटाकशी बढ़ जाते।  आगे बढ़ जाने वाले लोग किसी पेड़ की छाँव में ठहर कर पीछे आने वालों का इंतज़ार करते।
तभी आगे कुछ दूरी पर कुछ हलचल सुनाई दी।
[ .... जारी ]          

प्रकृति मै 'म [ कहानी ]

अरे सर, रुटना रुटना ...अविनाश दौड़ता-चिल्लाता आया।
-क्या हुआ? मैं पीछे देख कर चौंका।
-सर, टन्सेसन मिलेडा।
-अरे कन्सेशन ऐसे नहीं मिलता।  मैंने लापरवाही से कहा।
-तो टेसे मिलटा है?
-उसके लिए प्रिंसिपल को सिगनेचर करने पड़ते हैं। मैंने समझाया।
-तो टर दो, आप ही तो हो।
-अरे बेटा, उस पर स्कूल की सील लगानी पड़ती है। मैं बोला।
-तो लडाडो न सर।
-सील यहाँ नहीं लाये। मैंने बताया।
-ट्यों नहीं लाये?
-चुप ! अब मुझे गुस्सा आ गया था।
-तो ठरीदो सबटे फुल टिटट ... अविनाश अब धीरे से बुदबुदा कर चुपचाप पीछे खड़ा हो गया।
मैं 'ज़ू' के मुख्यद्वार के पास बने बुकिंग कार्यालय की खिड़की पर जाकर स्कूली बच्चों के लिए टिकट लेने लगा। तब तक दो-दो, चार-चार के झुण्ड में बाकी बच्चे भी आकर इकट्ठे होने लगे थे।  चिड़ियों की तरह उनकी चहचहाने की आवाज़ें गूँज रही थीं।
ये सभी शहर के एक नामी पब्लिक स्कूल के नौ से बारह वर्ष की आयु के बच्चे थे जिन्हें दो-तीन अध्यापकों के साथ रविवार के दिन शहर का चिड़ियाघर दिखाने के लिए पिकनिक पर लाया गया था।  बच्चों में लड़के और लड़कियां दोनों थे, जो स्कूल बस से उतरने के बाद अपनी-अपनी मित्र-मण्डली में बंटे अध्यापकों के पीछे-पीछे आ रहे थे।
अविनाश विद्यालय का होनहार-समझदार बच्चा था, किन्तु तुतलाकर बोलने की आदत के कारण साथी लड़के उसका खूब मज़ाक बनाया करते थे।  यही कारण था कि वह साथियों से कटता था और ज्यादा समय या तो अकेला रहता था या फिर लड़कियों के साथ।  मजे की बात यह, कि लड़कियां उसे पसंद करती थीं और अपने साथ उसे रख कर खुश होती थीं क्योंकि एक तो वह बहुत सहयोगी भावना वाला था, दूसरे बुद्धिमान होने से उनका सलाहकार भी बना रहता था।  यों वह उम्र में बारह से कुछ ज्यादा ही रहा होगा।  अविनाश ने ही खुद आगे बढ़कर विद्यार्थियों को वहां कन्सेशन मिलने की बात  बताई थी।
[... जारी ]                  

Wednesday, November 25, 2015

तब क्या होगा?

आज हमारे पास टीवी देखने के लिए ढेर सारे चैनल्स हैं। इनमें बहुत विविधता भी है। कहा जाता है कि आप जो कुछ देखना चाहें वही उपलब्ध है। मनोरंजन की दुनिया में यह उपलब्धि ही है।
लेकिन यह भी सत्य है कि आज मनोरंजन के ये स्टेज भी विचारधाराओं से ग्रसित हैं।
यदि आपका प्रवेश इन अलग-अलग चैनल्स में अबाधित है तो ये आपके लिए ज्ञान और स्वस्थ मनोरंजन का जरिया हो सकते हैं। आप अपने मूड और समय के मुताबिक मनमाफिक कार्यक्रम देख सकते हैं।
लेकिन अगर आपको मितव्ययता के कारण इनमें से अपनी पसंद के चंद चैनल्स चुनने के लिए कहा जायेगा, तो एक आशंका है। यदि आपने समाचार चैनलों का चयन सावधानी से नहीं किया तो हो सकता है कि आप जबरन एकतरफ़ा सोच के शिकार बना दिए जाएँ।
बड़ी संख्या में समाचार चैनल्स आज आपके लिए  'ब्रेनवाश' करने की कोशिश करने वाले आक्रामक हमलावर बनते जा रहे हैं।  कुछ तो ऐसे हैं कि जिन्हें देखते हुए आपको ये साफ लगेगा कि  यदि आपने इनकी बात नहीं मानी तो इनके प्रस्तुतकर्ता परदे से निकल कर आपसे झगड़ा करने लगेंगे।
देश में फैलती सहिष्णुता-असहिष्णुता की रस्साकशी में इनकी भूमिका कितनी है, ये नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।
            

Monday, November 23, 2015

सहिष्णुता या असहिष्णुता आपके अपने भीतर है !

हवा न चले तो पतंग नहीं उड़ती, पतंग बेचने वाले भी मायूस हो जाते हैं।
हवा चले तो पतंग लहराती है। पतंगें उड़ें तो पेंच लड़ते हैं।
पेंच लड़ें, तो एक पतंग कटती है, एक काटती है।
कटने वाला मायूस,काटने वाले के मज़े।
हमेशा एक की ही पतंग कटे तो वह उड़ाना छोड़ देगा।
काटने वाले के मज़े भी ख़त्म! अकेला उड़ाता रहा तो ऊब कर वह भी उतार लेगा।
अतः मज़ा पेंच लड़ाने में ही है, हारने-जीतने में नहीं।
जीत जाएँ तो आनंद उठाइये, हार जाएँ तो जीतने का इंतज़ार कीजिये।
 
 


     
    


Thursday, November 19, 2015

ये भी है नए समय की एक विशेषता

एक समय था जब जीवन के किसी भी क्षेत्र के बारे में बात करते समय कहा जाता था कि "इस में राजनीति नहीं", अर्थात राजनीति केवल राजनीति में ही होती थी। खेल,साहित्य,शिक्षा,फिल्म, विज्ञान,कला आदि क्षेत्रों में इसका प्रवेश वर्जित था।
लेकिन आज ठीक इसका उल्टा है। आप बिना राजनीति के आज किसी से, किसी भी मुद्दे पर बात कर ही नहीं सकते।  आप चाहे कर भी लें ,पर सामने वाला आपकी बात को बिना राजनीतिक परिप्रेक्ष्य के ग्रहण कर ही नहीं पायेगा।
इसका कारण बहुत स्वाभाविक है।
आज़ादी के आधी सदी बाद तक हमारे यहाँ एक ही सोच की सत्ता रही। उसके बाद का समय उथल-पुथल का रहा। कभी तू, कभी मैं। ऐसे-ऐसे अजीबोगरीब गठजोड़ होते रहे जो किसी नौटंकी से भी ज़्यादा मनोरंजक होते थे। एक दूसरे को गरियाते-लतियाते चुनाव लड़ते, और बाद में एक-दूसरे से गले मिल कर कुर्सी पर आसीन हो जाते। सालों बाद देश में जनता ने करीने से किसी एक विचार को केंद्रीय सत्ता सौंपी।
हर समय समाज या देश में मूलतः दो वर्ग होते हैं- "हैव्स और हेवनॉट्स" यानी एक, जिस के पास है और दूसरा, जिसके पास नहीं है। वैचारिकता के परिवर्तन से जिनके पास था, उनसे खिसक कर दूसरे के पास जाने लगा।  
अब सावन के अंधे की भांति एक वर्ग को अपनी हरियाली की आदत है, वह दूसरे वर्ग को फलते-फूलते देख कर सहन नहीं कर पाता और बात-बेबात "असहिष्णुता"राग आलापता है। यह नहीं समझ पाता कि ये तथाकथित असहिष्णुता उसकी अपनी ही है।
हाँ, एक लम्बा-चौड़ा तीसरा वर्ग भी है, जो पहले भी खा रहा था, अब भी खा रहा है। चलिए, फ़िलहाल उसके वाशिंदों को सामान्य आदमी नहीं मानते।   
                  

आपभी नाप सकते हैं असहिष्णुता

आजकल भारत में असहिष्णुता पर एक खास किस्म की बहस चल रही है। इस बहस में हिस्सा लेने के लिए मीडिया के विभिन्न चैनलों पर उन लोगों को आमंत्रित किया जाता है, जो किसी भी मुद्दे पर सहिष्णु नहीं हों। क्योंकि यदि वे सहिष्णु होंगे तो वे चर्चा के दौरान मुंह भी नहीं खोल पाएंगे। असहिष्णु लोगों द्वारा तेज़ आवाज़ में, जल्दी-जल्दी इस तरह चर्चा करनी होती है कि एक बार शुरू होने पर किसी के भी रोके से आप न रुकें,और केवल मुद्दे की बात को छोड़ कर बाकी सब कुछ बिना रुके कहते रह सकें।आप इतने तन्मय होकर चीखें कि आपके सामने से माइक अथवा कैमरा हटा लिए जाने का भी आप पर असर न हो। सहिष्णु लोगों को यह अभ्यास नहीं होता।
आइये देखें, कि असहिष्णुता कैसे लायी जाती है, और कितनी?
आजकल प्रचलित परम्परा के अनुसार किसी भी समाचार चैनल के पास प्रति दस मिनट में से आठ मिनट विज्ञापनों के लिए तथा दो मिनट समाचारों के लिए उपलब्ध होते हैं।  कर्णभेदी मधुर पार्श्वसंगीत के साथ चैनल के पहचान चित्र-जंजाल और बोधवाक्य के लिए तीस-चालीस सैकंड का समय भी इन्हीं दो मिनट में से निकालना होता है। क्योंकि आठ मिनट के विज्ञापन तो वैसे भी साढ़े आठ मिनट ले लेते हैं।
अब आपको दो मिनट में पिच्चासी ख़बरों का रसास्वादन कराया जाना है, स्टार्ट ....
१. बॉलीवुड की मशहूर आयटम गर्ल ने किया जुहू-बीच पर डांस
२. नाचीं हरी चुनरी में
३. दुपट्टा था हल्का पीला
४. 'क' दल के एक नेता ने दिया विवादास्पद बयान
५. साक्षात्कार में कहा- हम नहीं देखते नचनियां का नाच
६. 'ख' दल के प्रवक्ता ने इसे नृत्यकला का अपमान बताया
७. सुदूर प्रान्त की राजधानी में एक राजनर्तकी ने कुपित होकर लौटाया उन्हें मिला सम्मान
८. राजनर्तकी के समर्थन में उतरे मृदंग वादक
९. 'ग' दल ने शहर के मुख्य मार्गों से नगर कोतवाल की कोठी तक कलाकारों के साथ मार्च-पास्ट किया
१०. शहर के मशहूर कालेज में इस असहिष्णुता पर राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित
११. 'घ'दल ने की इस मुद्दे पर सरकार के इस्तीफ़े की मांग
बस, इसके बाद आपने टीवी ऑफ़ कर दिया। तो आपकी असहिष्णुता हुई-"सौ प्रतिशत"[आप राष्ट्र की रंग-रंगीली हलचल को सह नहीं न पाये!]
                    

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...