एक समय था जब जीवन के किसी भी क्षेत्र के बारे में बात करते समय कहा जाता था कि "इस में राजनीति नहीं", अर्थात राजनीति केवल राजनीति में ही होती थी। खेल,साहित्य,शिक्षा,फिल्म, विज्ञान,कला आदि क्षेत्रों में इसका प्रवेश वर्जित था।
लेकिन आज ठीक इसका उल्टा है। आप बिना राजनीति के आज किसी से, किसी भी मुद्दे पर बात कर ही नहीं सकते। आप चाहे कर भी लें ,पर सामने वाला आपकी बात को बिना राजनीतिक परिप्रेक्ष्य के ग्रहण कर ही नहीं पायेगा।
इसका कारण बहुत स्वाभाविक है।
आज़ादी के आधी सदी बाद तक हमारे यहाँ एक ही सोच की सत्ता रही। उसके बाद का समय उथल-पुथल का रहा। कभी तू, कभी मैं। ऐसे-ऐसे अजीबोगरीब गठजोड़ होते रहे जो किसी नौटंकी से भी ज़्यादा मनोरंजक होते थे। एक दूसरे को गरियाते-लतियाते चुनाव लड़ते, और बाद में एक-दूसरे से गले मिल कर कुर्सी पर आसीन हो जाते। सालों बाद देश में जनता ने करीने से किसी एक विचार को केंद्रीय सत्ता सौंपी।
हर समय समाज या देश में मूलतः दो वर्ग होते हैं- "हैव्स और हेवनॉट्स" यानी एक, जिस के पास है और दूसरा, जिसके पास नहीं है। वैचारिकता के परिवर्तन से जिनके पास था, उनसे खिसक कर दूसरे के पास जाने लगा।
अब सावन के अंधे की भांति एक वर्ग को अपनी हरियाली की आदत है, वह दूसरे वर्ग को फलते-फूलते देख कर सहन नहीं कर पाता और बात-बेबात "असहिष्णुता"राग आलापता है। यह नहीं समझ पाता कि ये तथाकथित असहिष्णुता उसकी अपनी ही है।
हाँ, एक लम्बा-चौड़ा तीसरा वर्ग भी है, जो पहले भी खा रहा था, अब भी खा रहा है। चलिए, फ़िलहाल उसके वाशिंदों को सामान्य आदमी नहीं मानते।
लेकिन आज ठीक इसका उल्टा है। आप बिना राजनीति के आज किसी से, किसी भी मुद्दे पर बात कर ही नहीं सकते। आप चाहे कर भी लें ,पर सामने वाला आपकी बात को बिना राजनीतिक परिप्रेक्ष्य के ग्रहण कर ही नहीं पायेगा।
इसका कारण बहुत स्वाभाविक है।
आज़ादी के आधी सदी बाद तक हमारे यहाँ एक ही सोच की सत्ता रही। उसके बाद का समय उथल-पुथल का रहा। कभी तू, कभी मैं। ऐसे-ऐसे अजीबोगरीब गठजोड़ होते रहे जो किसी नौटंकी से भी ज़्यादा मनोरंजक होते थे। एक दूसरे को गरियाते-लतियाते चुनाव लड़ते, और बाद में एक-दूसरे से गले मिल कर कुर्सी पर आसीन हो जाते। सालों बाद देश में जनता ने करीने से किसी एक विचार को केंद्रीय सत्ता सौंपी।
हर समय समाज या देश में मूलतः दो वर्ग होते हैं- "हैव्स और हेवनॉट्स" यानी एक, जिस के पास है और दूसरा, जिसके पास नहीं है। वैचारिकता के परिवर्तन से जिनके पास था, उनसे खिसक कर दूसरे के पास जाने लगा।
अब सावन के अंधे की भांति एक वर्ग को अपनी हरियाली की आदत है, वह दूसरे वर्ग को फलते-फूलते देख कर सहन नहीं कर पाता और बात-बेबात "असहिष्णुता"राग आलापता है। यह नहीं समझ पाता कि ये तथाकथित असहिष्णुता उसकी अपनी ही है।
हाँ, एक लम्बा-चौड़ा तीसरा वर्ग भी है, जो पहले भी खा रहा था, अब भी खा रहा है। चलिए, फ़िलहाल उसके वाशिंदों को सामान्य आदमी नहीं मानते।
अब सब सिद्धान्त तो ताक पर रख दिए गए हैं, और निम्न स्तर की सोच इन लोगों पर हावी हो गयी है , इसलिए जनता को बरगलाया जा रहा है , लगता है देश की साहित्यिक प्रतिभायें भी अब कुंठित मानसिकता से घिर गयी हैं और यही चिंतनीय है
ReplyDeleteAisa samay shayad beech-beech me aata hoga? Aabhaar.
ReplyDelete