Sunday, June 29, 2014

कुत्ता,तोता और मछली

उमस भरी दोपहर थी। तालाब के किनारे आम के पेड़ पर एक तोता बैठा कच्चे आम को कुतर रहा था। आम का एक छोटा सा टुकड़ा उसकी चोंच से नीचे गिरा। पेड़ के नीचे उनींदे से बैठे कुत्ते ने उस टुकङे को लपक लिया। कुत्ते को जैसे ही टुकड़े का खट्टा स्वाद आया उसने झट उछाल कर टुकड़ा तालाब की ओर फेंका जंहा उसे एक तैरती हुई मछली ने पकड़ लिया।
मछली उसे ज्यादा देर चूसती न रह सकी। उसके खट्टे-तीखे स्वाद के चलते मछली ने भी उसे झट से पानी में उगल दिया, जहां से वह फिर मिट्टी में जा मिला।
मिट्टी ने उसे देखते ही डाँटना शुरू किया-"क्यों रे अभागे, मैंने तेरी माँ की महीनों तक देखभाल करके, उसे उगाकर पेड़ बनाया, जिस पर तूने जन्म लिया। और तू किसी के काम न आकर उछलता-कूदता फ़िर मेरे पास चला आया?"
टुकड़ा बोला-"मैं क्या करूँ, मैं तो तोता, कुत्ता,मछली तीनों के मुंह में गया, पर तीनों ने ही मेरा अपमान करके वापस फेंक दिया।"
धरती कुपित होकर बोली-"अच्छा, उन स्वाद के दीवानों की ये मज़ाल, तुझे फेंक दिया? मैं तीनों को सजा दूँगी। आज से इन तीनों को कैद में रहना होगा।"
-"हमेशा?" टुकड़े ने चकित होकर पूछा।
-"अरे नहीं रे, इतनी सी बात के लिए उम्र-क़ैद थोड़े ही होती है! इन्हें हल्का-फुल्का कारावास मिलेगा।" धरती बोली।
उस दिन से आदमी का जब भी किसी को पालतू बनाने का दिल करता, वह प्राणियों में से कुत्ते के गले में पट्टा डालता,पंछियों में से तोते को पिंजरे में डालता,और जलचरों में से मछली को काँचघर में बंद कर के अपने घर ले आता। फिर इन्हें वही खाना मिलता जो आदमी खिलाता।
आदमी की क़ैद में सबसे ज्यादा यही तीनों देखे जाते।         
                          

Saturday, June 28, 2014

कोई अच्छा सा नाम तलाश कीजिये "स्टार" के लिए

हम फिल्म कलाकारों को "स्टार" कहते हैं।  स्टार माने सितारा, तारा, नक्षत्र, उल्का,ग्रह।
हम अब तक फिल्म कलाकारों को भी सितारा कहते आए हैं।
स्टार या सितारा हम उन्हेँ इसलिए कहते हैं क्योंकि वे अमूमन हमें केवल परदे पर ही दिखते रहे हैं, हक़ीक़त में उन्हें देखना या उनसे मिलना बहुत मुश्किल होता है। वे पब्लिक से बचते या छिपते रहे हैँ, और पब्लिक उनके कहीं होने की भनक मिलते ही उन्हें देखने दौड़ती रही है।
लेकिन अब ऐसा नहीं है। अब वे खुद लोगों के बीच आते हैं, अपने होने का विज्ञापन और प्रचार करते हैं। यहाँ तक कि अपनी फिल्म के बारे में लोगों के बीच हवा बनाने के लिए वे शहर-शहर प्रमोशन करते घूमते हैं।  कभी पोस्टर, कभी ट्रेलर तो कभी संगीत जारी करते हैं। बड़े रिलीज़ पर तो प्रेस कॉन्फ़्रेंस करने तक से नहीं चूकते, लोकप्रिय टीवी कार्यक्रमों के सेट पर जाते हैं, ताकि उस कार्यक्रम को देखने आई पब्लिक उन्हें देख ले।
ऐसे छल-छद्म से अपना चेहरा येन-केन-प्रकारेण लोगों को दिखा देना क्या उन्हेँ 'स्टार' स्टेटस देने लायक छोड़ता है? आप खुद फैसला कीजिये।  यदि आपको लगता है कि  इस तरह अपनी शक़्ल की मार्केटिंग करने वाले 'स्टार' कहने योग्य नहीं हैं, तो फिर इनके लिए कोई नया विशेषण या नाम सोचिये।                  

Thursday, June 26, 2014

क्या और कुछ नहीं करता?

ये एक बहुत पुराना लतीफ़ा है कि "कवि" युवक को जब विवाह के लिए लड़की वाले देखने आए तो उन्होंने वही चिरपरिचित सवाल किया- "लड़का क्या करता है?"
यह बताने पर कि वह कवि है, लड़की वालों ने कहा, तो क्या कविता लिखने के अलावा और कुछ भी नहीं करता?
लड़के की माँ ने तिलमिला कर जवाब दिया-"करता कैसे नहीं है जी, कविता लिखने के बाद सब से सुनने के लिए मिन्नतें करता है। जेबखर्च से बचा-बचा कर किताब के लिए कागज़ लाता है, टाइपिंग,प्रूफ़ रीडिंग,प्रिंटिंग, डिज़ाइनिंग,बाइंडिंग करता है, बेचता है, बाँटता है,कवि सम्मेलन करवाता है.…
लड़की ने सब सुनते ही तुरंत कहा -"मैं शादी के लिए तैयार हूँ, बस एक शर्त है, ये बाक़ी सब करें, बस कविता लिखना छोड़ दें, अपनी कविता की जगह दूसरों की कविता के लिए ये सब करेंगे तो इनकी कमाई से घर का ख़र्च आराम से चल जायेगा।"
लड़के और उसकी माँ को लड़की के समझदार, गुणवती और सुशील होने में कोइ संदेह न रहा।                

Wednesday, June 25, 2014

महँगाई तब घट जाएगी

देश और दुनिया का अर्थशास्त्र महँगाई बढ़ने के कारण और उसे रोकने के उपाय अपने-अपने तरीके से बताता है, लेकिन महँगाई तो उन सबके लिए भी होती है जिनका अर्थशास्त्र से कोई लेना-देना नहीं।  और मज़े की बात ये है कि महँगाई कम करने के कुछ उपाय आपके अपने पास भी हैँ, जैसे-
*आपको जो चीज़ नहीं चाहिए, उसे मत खरीदिए।  इससे बाजार में उसकी कीमत कम होगी क्योंकि उसकी मांग घट जाएगी।
*यदि आपके पास कुछ ऐसा है जिसे न तो आप काम में ले रहे हैँ, और न कभी लेंगे,उसे किसी ऐसे व्यक्ति को दे दीजिये, जिसे सचमुच वह चाहिए।
*न खराब होने वाली चीज़ें ज़रूरत से थोड़ी ज़्यादा खरीदिए, ताकि कुछ समय बाद जब वे महँगी हो जाएँ, तब आप उन्हें कम दर पर इस्तेमाल कर रहे होंगे।
*यदि आप नक़ल करने के शौक़ीन हैं, तो उनकी नक़ल कीजिये जो बहुत व्यस्त रहते हैं।
एक बात हमेशा ध्यान रखिये, दुनिया में ऐसा कोई नहीं है, जिसका अर्थशास्त्र से लेना-देना न हो। यह भी जान लें कि  उपर्युक्त सभी उपाय अल्पकालिक हैं।  इन्हें लम्बे समय तक नहीं चलाया जा सकता।               

Monday, June 23, 2014

कड़क नोट कजरारे कारे

कर की चोरी करत-करत भये
धन की बोरी भरत-भरत भये
कड़क नोट कजरारे कारे !
जा के बदरा बैरी ला रे
स्विस के ताले खोल के ला रे
थोड़े-थोड़े तोल के ला रे
गुपचुप ला या बोल के ला रे
कड़क नोट कजरारे कारे !
जनता का धन चरत-चरत भये
माल तिजोरी धरत-धरत भये
कड़क नोट कजरारे कारे !
श्याम-श्याम धन वापस ला रे
या मालिक का नाम बता रे
क्यों परदेस छिपा आया रे
क्या स्वदेश से हुई खता रे    
कड़क नोट कजरारे कारे !        

Saturday, June 21, 2014

और खरगोश फिर हार गया कछुए से

खरगोश सुबह-सुबह तालाब के किनारे टहलने जा रहा था।  रास्ते में एक खेत से ताज़ा गाजर तोड़ कर वह उसे पानी से धो ही रहा था, कि इठलाती हुई एक बतख वहां आ गई।  दोनों में दोस्ती हो गयी।  बतख बोली- "लाओ, तुम्हारी गाजर का हलवा बना दूँ।"
हलवा तैयार हुआ तो बतख बोली- "जाओ, जल्दी से मुंह धोकर आओ, फिर हलवा खाना।"
खरगोश जब मुंह धोकर आया तो उसने बतख की केसरिया चोंच को देख कर मन ही मन सोचा, इसने ज़रूर पीछे से हलवा खाया है।
उसने तालाब के थाने में जाकर चोरी की रपट लिखा दी।  थानेदार मेंढक बतख को गिरफ्तार करने चला आया। जब वह बतख को पकड़ने लगा तो बतख ने कहा-"तुम्हारे पास क्या सबूत है कि  मैंने हलवा खाया है?"
खरगोश बोला-"तुम्हारी चोंच और पंजे हलवे से लाल हो गए हैं !"
बतख घबरा कर बोली-"मैंने हलवा नहीं खाया, मेरी चोंच और पंजे तो इसी रंग के हैं।"  
शोर सुन कर तालाब से कछुआ निकल आया।  जब उसे सारी बात का पता चला तो वह फ़ौरन बोल पड़ा-"थानेदार जी,मैं एक खेत से कपास लाया था, उसका मैंने नर्म सफ़ेद कोट सिलवाया था, जो चोरी हो गया।  लगता है इस खरगोश ने वही कोट पहना है,गिरफ़्तार कर लीजिये इसे।"
खरगोश के यह सुनते ही होश उड़ गए। हक्का-बक्का होकर बोला-"मैंने कोट नहीं पहना, मेरा रंग तो सफ़ेद ही है।"
कछुआ बोला -"कुछ भी हो, अब तुम पर बतख की मानहानि का मुकदमा चलेगा। चलो मेरे साथ।"
खरगोश ने तुरंत सभी से माफ़ी मांगी, और बोला-"कछुए भैया ने आज मुझे दूसरी बार हराया है।"

    
        

Wednesday, June 18, 2014

क्या आप भी आदतों के आदी हैं?

यदि कोई आपसे कहे कि आप आठ बजे खाने पर आइये।
कोई आपसे कहे कि फिल्म आठ बजे शुरू होगी, देखने आइये।
कोई आपसे कहे कि  आपकी परीक्षा आठ बजे से है।
कोई आपसे कहे कि मुख्यमंत्री आठ बजे आ रहे हैं, उनकी सभा में आइये।
कोई आपसे कहे कि  आपकी गाड़ी का डिपार्चर टाइम आठ बजे है।
इन प्रश्नों का उत्तर क्या है? क्या आप इन पाँचों जगह ठीक आठ बजे पहुँच जाएंगे?
शायद नहीं।  इनमें से कुछ जगह आप शायद साढ़े सात बजे ही पहुँच जाएँ, और हो सकता है कहीं आपको पहुँचते-पहुँचते दस भी बज जाएँ।
तो ये कौन तय करता है कि  हमें किसकी बात को कितनी गंभीरता से लेना है?
हम खुद।  और इसके लिए हम सब के पास एक दिमाग है, जो हमारे ये विभेद तय करता है कि हम किस बात से कितना हट सकते हैं।
हम सब के पास एक अदृश्य रस्सी भी है जो हम ऐसे समय दिमाग़ को दे देते हैं,दिमाग़ चाहे तो इस रस्सी से हमें उस बात से बाँध दे और चाहे तो एक सिरा हमसे बाँध कर दूसरा सिरा ढीला छोड़ दे।  यह ढील जितनी होगी, हम उस बात से उतना ही हट पाएंगे।
इसे हम "आदत" कहते हैं ।        

Monday, June 16, 2014

टक्कर महारानी से [शेष भाग]

अब कुदरत की असली परीक्षा थी।  इंसान से उसका कोई गुण छीन लेना आसान काम न था।  पहले तो यही तय करना टेढ़ी खीर थी कि आदमी का कौन सा गुण है और कौन सा दुर्गुण।  उसके गुण-अवगुण एक साथ मिल कर रहते थे।  कहीं गलती से भी प्रकृति माँ उसका कोई गुण छीनने की जगह अवगुण छीन लेती तो पासा उल्टा ही पड़ जाता न, यह तो उसे सजा देने के स्थान पर ईनाम देना हो जाता।
प्रकृति ने एक सुबह झील के किनारे हरे पेड़ों के नीचे सारे पशु-पक्षियों को इकठ्ठा किया और उनसे कहा कि वे इंसानों के कुछ गुण बताएं।
-"इंसान बहुत अच्छा गाता है, सुबह-सुबह उसका आलाप सुन कर मन झूमने लगता है" कोयल ने कहा।
-"रहने दे, रहने दे, मैं घरों के बाहर पेड़ों पर रहती हूँ, आदमी की कर्कश आवाज़ से सवेरे ही मुझे भागना पड़ता है" चिड़िया बोली।
तभी किसी की आवाज़ आई-"आदमी मेहनती बहुत है, खेतों में हल चलाता हुआ ढेरों अन्न उपजा देता है।"
-"लेकिन वह हल चलाते हुए हमारे बिल भी तो तोड़ देता है" चूहा मायूसी से बोला।
-"आदमी का सबसे बड़ा गुण तो ये है कि वह प्रकृति का मुकाबला करना जानता है।जब प्रकृति गर्मी में आग बरसाती है तो वह आराम से कूलर-पंखे चला कर पड़ा रहता है, कुदरत पानी बरसाए तो वह छतरी तान कर बाहर निकल आता है, ज़रा सर्दी पड़ी कि बैठा अलाव तपता है और गुनगुनाता है, बाढ़ भी आये तो नावों में बैठ कर तैरता घूमता है।" भालू बोला।
यह सुनते ही प्रकृति माँ को चक्कर आने लगे।  उसने सोचा- जो मनुष्य मुझसे टक्कर लेने की हिम्मत रखता है, उसका कोई गुण छीन कर मैं खतरा मोल क्यों लूँ ?
कुदरत ने सभा बर्ख़ास्त की और सभी को अपने-अपने काम पर जाने को कहा।         
   
    

टक्कर महारानी से?

आम तौर पर वह पृथ्वी की हलचल देख कर प्रफ़ुल्लित हुआ करती थी, लेकिन एक दिन कुदरत मनुष्य और दूसरे जीवों के उत्पात से आज़िज़ आ गई।  तंग होकर एक दिन उसने मन ही मन एक बेहद कठोर फैसला ले डाला।  कुदरत ने सोचा कि वह धरती के हर जीव से उसका कोई न कोई एक गुण वापस ले लेगी।  जब सोच ही लिया तो फिर देर कैसी?  झटपट अमल की तैयारी भी होने लगी।
सबसे पहले बारी आई शेर की।  कुदरत ने उसे उसकी अकड़ ठिकाने लगाने के लिए सज़ा देने का निश्चय किया, उसकी अकड़ छीन ली गई।  शान से जंगल में घूम कर किसी का भी शिकार करके ताज़ा माँस खाने वाले वनराज अब सिर झुका कर सर्कस और फिल्म-शूटिंग में काम करने के लिए ट्रेनिंग लेने लगे। दहाड़ने पर कोड़े फटकारे जाते।  यहाँ तक कि कई बाग़-बगीचों में तो उनकी निगरानी के लिए कुत्ते तक तैनात कर दिए गए।
फिर बारी आई मगरमच्छ की।  ये जनाब भी अजीब थे, जल-थल दोनों को अपनी जागीर समझते थे।  गर्मियों में ठन्डे पानी के भीतर और सर्दियों में गुलाबी धूप में रेत पर आराम फरमाते।  कुदरत ने रौद्र रूप लिया और लगी उनकी मिल्कियत छीनने। जब वे पानी में होते तो तेज़ सुनामी लहरों से ज़मीन पर फेंक दिए जाते,ज़मीन पर खेतों में मटरगश्ती कर रहे होते तो कुदरत ऐसा दुर्भिक्ष लाती कि सूखी ज़मीन की तपती दरारों में सांस लेना दूभर हो जाये।
कुदरत की कोप दृष्टि फिर मोर पर भी पड़ी।  कुदरत ने उसकी पीठ पर बीस किलो पंख लादे और सरकंडे जैसे बड़े-बड़े पैर बना दिए।  सारी ऊंची उड़ान भूल कर महाशय वन में ही नाचते रह गए।
इस तरह एक-एक करके प्रकृति-माँ ने सबके छक्के छुड़ा दिए।
अब बारी आई इंसान की।  [जारी]              

Sunday, June 15, 2014

आप भी रोक सकते हैं बुढ़ापे को

सुबह-सुबह पार्क में एक युवक जॉगिंग करता हुआ भागा जा रहा था कि  उसकी निगाह सड़क के किनारे चुपचाप बैठे एक बूढ़े पर पड़ी। युवक ने सीखा हुआ था कि जब जो काम करो, वही करो, और उसी में पूरा ध्यान दो, लिहाज़ा वह अपने रास्ते चक्कर काटता रहा।
हर चक्कर में उसका ध्यान बूढ़े पर जाता। युवक सोचता रहा कि आख़िर बूढ़े में ऐसी कौन सी बात है जो युवक का ध्यान खींच रही है। और तब युवक ने गौर किया कि बूढ़ा लगातार हँस रहा है।
युवक जब जॉगिंग कर चुका तब हाँफता हुआ बूढ़े के पास आया और उससे बोला-"देख रहा हूँ कि आप लगातार हँसे जा रहे हैं, आप अपने बारे में कुछ बताइये"
बूढ़ा बोला-"मेरा जन्म लगभग सत्तर साल पहले एक ऐसे मुल्क में हुआ जो अब नहीं है।"
-"कहाँ गया?" युवक ने जिज्ञासा प्रकट की।
-"अपने समीप के एक बड़े देश में मिल गया" बूढ़ा बोला।
-"ये तो अच्छी बात है, आप हँसे क्यों जा रहे हैं?" युवक ने बातचीत को नया मोड़ देना चाहा।
-"मैं जब छोटा सा था तो स्कूल में मेरी टीचर कहती थी,कि अपने देश से प्रेम करो, जब देश नहीं रहेगा, तो हम कैसे रहेंगे? किन्तु अब देश नहीं है, फिर भी मैं हूँ।"बूढ़े ने अपने हँसने का कारण बताया।
युवक ने सिर खुजाते हुए कहा-"हाँ,अपवादस्वरूप आपके साथ ऐसा हो गया है, पर फिर भी अब लगातार हँसते चले जाने से भी क्या हासिल?"
बूढ़ा बोला-"बुढ़ापे में दिमाग कमज़ोर हो जाता है,तब आदमी के हंसने-रोने पर उसका नियन्त्रण नहीं रहता" और यह कह कर बूढ़ा ज़ोर-ज़ोर से हिचकियाँ लेकर रोने लगा।
युवक ने बेचैन होते हुए कहा-"अरे, अब रोने की क्या बात है?"
सुबकते हुए बूढ़ा बोला-"तुम इसलिए दौड़ रहे थे न, कि बुढ़ापे से दूर रहो?" कह कर वह फिर खिलखिला कर हंस पड़ा।
अब वे दोनों दोस्त बन चुके थे।  
                

बधाई

ये उन दिनों की बात है जब न तो पुल हुआ करते थे, और न ही नावें।  कहीं भी पानी होने का मतलब था दुनिया की दीवार।  जो इधर है,  इधर रहेगा और जो उधर है, वह उस पार ही रहेगा।
जो बरसाती नदी-नाले हुआ करते थे, वे भी बस्तियों को बाँट दिया करते थे, और जब बरसात का मौसम बीतने पर वहां पानी उतरता, तो ज़मीन दिखती और आवागमन शुरू होता।
लोग उन दिनों पानी से बहुत त्रस्त रहते थे, और चाहते थे कि पानी बीत जाए, रीत जाए।
लोग पानी को मारा करते थे।  कोई पानी की सतह पर पत्थर फेंकता, तो कोई डंडे से उसे पीटता।  कोई गन्दा हो जाता, तो सब उस पर पानी फेंकते। वह खुद भी अपनी गंदगी उतार-उतार कर पानी में फेंका करता।
आखिर एक दिन परेशान होकर पानी ने एक आपात बैठक की।  जगह-जगह का पानी इकट्ठा हुआ।  पानी ने कुछ अहम फैसले लिए, ताकि उसकी वक़त बनी रहे।
पानी ने तय किया कि वह अब केवल दरिया-समन्दरों, तालाब-पोखरों, गड्ढों-नालों में ही नहीं रहेगा, बल्कि इंसान के साथ कंधे से कन्धा मिला कर उसके अपने बीच भी रहेगा।
वह इंसान की आँखों में रहेगा, उसके खून में रहेगा, उसकी दाल-रोटी में रहेगा,उसके घर में रहेगा।
उधर इंसान ने पानी के रुख में बदलाव देखा तो उसने भी सोचा कि वह अब पानी के साथ प्रेम से रहेगा। पानी जहाँ बहना चाहेगा, इंसान उसके उतरने की बददुआ नहीं करेगा, बल्कि उसकी मौज़ों की रवानी का सम्मान करके उसे बहता रहने देगा, और उस पर पुल बना लेगा, या फिर उस पर खूबसूरत बज़रे तैरा देगा,कश्तियाँ उतार देगा, मस्तूलों वाले जहाज बहा देगा। इतना ही नहीं,उसने सोचा कि वह बरखा का स्वागत गाकर किया करेगा।
कहते हैं कि मिट्टी पानी के बीच ऐसा प्यार पनपा कि धरती गर्भवती हो गई, और उसके गर्भ में एक दिन एक ऐसा जलाशय जन्मा, जिसमें दुनिया के सारे सागरों से तीन गुना पानी है।

                    

"फादर्स डे" की ओट में पिता

पिता 
एक शामियाना 
आंधी-तूफ़ान-धूप से बचाने वाला 
एक दरख़्त 
छाया-छत और बीज देने वाला 
एक रिश्ता 
सपनों तक पहुँचने की सीढ़ियाँ देने वाला 
एक रिले-धावक 
पूर्वजों से लिया हुआ, संतति को सौंप देने वाला
अपने छोड़े हुए तीर की पावती पाने को आसमान में आँखें गढ़ाए बैठा 
प्रतीक्षारत नक्शानवीस !

 

Saturday, June 14, 2014

दिन आये मधुर सुहाने - "मोरा गोरा रंग लैले, मोहे श्याम रंग.… "

लोग गोरे रंग पे कितना ही गुमान करें, कभी न कभी ऐसा समय आ ही जाता है, जब सब श्याम रंग, अर्थात काले रंग पे रीझ जाएँ।
किसी ने कभी सोचा भी न होगा कि कभी इतने रंग-बिरंगे दिन आएंगे,जब सब "काला" हो जाय !
तो वे दिन आ गए।
आज जिसे देखो, उसी की नज़र काले पर है।
नगर-नगर डगर-डगर लोग गा रहे हैं-"आरे कारे बदरा, लारे जा के नीर"
"छा जा री कालिमा चहुँ ओर, चली मत जइयो कहूँ और "
आखिर सरकार ने जस्टिस शाह की अध्यक्षता में विशेष जाँच दल का गठन कर ही दिया, जो अब विदेशों में भारतीय काले धन का पता लगाएगा। माननीय न्यायाधीश महोदय ने इस दल की एक बैठक आयोजित भी कर ली है और काले धन को देश में वापस लाने का रोडमैप तैयार करना भी शुरू कर दिया है।
इस कदम से कई बड़े-बड़े खुलासे होंगे।
-सब जानेंगे कि जब रिज़र्व बैंक ने हरे, नीले, गुलाबी नोट छापे थे तो ये काले कैसे हो गए ?
-सब देखेंगे कि जब इन नोटों के मालिक यहाँ खुले घूम रहे हैं तो ये नोट वहां जाकर क्यों कैद हो गए?
-सब देखेंगे कि यहाँ जिन करोड़ों किसानों ने खेतों में हल चलाये, जिन करोड़ों मज़दूरों ने कारखानों में मशीनें चलाईं,आंच पे उनकी रोटी काली कैसे हो गई? उनके बच्चों के सपने काले कैसे हो गए?      
   

भारत गोल क्यों नहीं?

ये सवाल आपको भी मथ रहा होगा कि जब दुनिया के तमाम देश फुटबॉल को लेकर दुनिया को गुँजाये हुए हैं तो हम चुप क्यों हैं? क्या हमारे जाँबाज़ नौजवानों में ग्यारह भी ऐसे नहीं हैं जो खेल के मैदान पर सूरज सी बॉल को नचा सकें?
आपको पता है, कुछ लोग इसके लिए भी प्रधान मंत्री को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं।  उनका कहना है कि  मोदीजी ने "पैर" छूने को मना किया था, फिर हमारे खिलाड़ी बॉल को पाँव कैसे छुआते?  

Friday, June 13, 2014

फिल्मों में प्रवेश का आसान रास्ता

महानगर में एक अभिनय संस्थान खुला।  फिल्मों का क्रेज़ तो है ही, लिहाज़ा बहुत से युवाओं ने प्रवेश भी ले लिया।  शुरू हो गई ट्रेनिंग।  इंस्टीट्यूट ने बड़े-बड़े दावे किये कि  वे अभिनय के गुर सिखाने के साथ-साथ फिल्मों में एंट्री पाने के रास्ते भी बताएँगे।
रोज़ क्लास लगती, बड़े-बड़े नामी लोग प्रशिक्षण देने आते।  प्रशिक्षणार्थियों को अपना भविष्य सुनहरा नज़र आने लगता।
प्रशिक्षक ने एक युवक से पूछा- तुम्हारे पिता की हाइट कितनी है? "पिता की हाइट से इन्हें क्या मतलब?" सोचते हुए युवक ने पिता की ऊंचाई बतादी।
दूसरे युवक से उन्होंने पूछा- तुम्हारे पिता डांस कैसा करते है? "अरे, पिता की उम्र कोई डांस करने की है" यह सोच कर हैरान होते युवक ने कहा- वे शादी-ब्याह में नाच लेते हैं।
तीसरे युवक से उन्होंने पूछा-तुम्हारे पिता कराटे या कुंगफू तो जानते ही होंगे।  युवक शरमा कर बोला- कभी उन पर हमला करके देखा नहीं।
ट्रेनर ने चौथे लड़के से पूछा - तुम्हारी मम्मी जब घर छोड़ने की धमकी देती हैं तो तुम्हारे डैडी इमोशनल होकर उन्हें कैसे मनाते हैं?
अब लड़कों से रहा नहीं गया, उनके सब्र का बाँध टूट गया।  सब एक साथ बोल पड़े-"सर, आप एक्टिंग हमसे करवाएंगे या हमारे पापा से?"
-"बिलकुल ठीक, हम आपके डैडी को ही स्टार बनाएंगे" ट्रेनर ने कहा। वह बोला- "आपके पापा स्टार बन जायेंगे तो आप भी 'स्टार सन' बन जायेंगे,फिर आपको लॉन्च करना आसान हो जायेगा, आप ऑटोमेटिक हीरो बन जायेंगे।"          

Thursday, June 12, 2014

चुटकी भर नमक का स्वाद और झील नमक की

१९७० में एक फिल्म आई थी-"चेतना"
इससे कुछ महत्वपूर्ण बातें जुड़ी थीं। इस में फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट, पुणे से गोल्ड मेडल लेकर निकली रेहाना सुल्तान पहली बार नायिका बनी थीं। इसे दौर की पहली 'बोल्ड' फिल्म कह कर प्रचारित किया गया था तथा इसके संवादों में शायद पहली ही बार किसी देह-व्यापार से जुड़े चरित्र ने दबंग होकर अपना औचित्य सिद्ध करने की चेष्टा की थी।  इससे पहले के ऐसे चरित्र अपनी ही नज़रों में धरती के बोझ की तरह अवतरित हुए थे।
इसके बाद रेहाना सुल्तान की फिल्म 'दस्तक' आई और उन्हें इसके लिए अभिनय का प्रतिष्ठित "उर्वशी" पुरस्कार मिला।  यह राजेंद्र सिंह बेदी की फिल्म थी जिसके नायक संजीव कुमार थे।
इसके बाद रेहाना की "तन तेरा मन मेरा, हारजीत, तन्हाई, सवेरा, मान जाइए,खोटे सिक्के, प्रेम परबत,बड़ा कबूतर, नवाब साहब, एजेंट विनोद, अभी तो जी लें, सज्जो रानी, अलबेली, दिल की राहें, चमेली, आज की राधा, निर्लज्ज, औरत खड़ी बाजार में" जैसी कई फिल्में आईं लेकिन फिल्म दर फिल्म वे रजतपट से ओझल होती चली गईं।
यहाँ यह कहना त्रासद है कि  चेतना में जिस देह के नमक का स्वाद दर्शकों को चखा कर उनकी वाहवाही लूटी गई थी , उसी नमक के बोरे अगली फिल्मों में दर्शकों की पीठ पर लाद दिए गए। परिणामस्वरूप एक प्रतिभाशाली अभिनेत्री नमक की खारी झील में डूब गई।
अतिरेक एक "रिपल्सिव" फ़ोर्स है, ज़्यादा सूचनाएँ, बेशुमार तथ्य-उपलब्धता हमें 'अप टू डेट' बना दे, यह ज़रूरी नहीं। सुदूर किसी आंचलिक परिवेश की ढाणी में गुनगुनाती किसी पनिहारिन के कानों में चौबीस घंटे बजते लता मंगेशकर के स्वर उसे सुरीला नहीं बना पाएंगे।  सुर की मिठास उसके अपने अंतरमन से गूंजे, तब ही बात बनेगी।                       

Wednesday, June 11, 2014

इन्हीं की तरह

शहर का वह चौराहा अक्सर सुनसान रहता था क्योंकि वह कुछ बाहरी जगह थी, जहाँ यातायात के साधन कुछ कम आते थे। वहीँ एक किनारे बने छोटे से मंदिर के बाहर दो भिखारी रहते थे। शरीर से अपंग लाचार भिखारी थे, सो रहना क्या, दिन भर में जो कुछ मिल गया, पेट में डाला, मंदिर के पिछवाड़े लगे नल से पानी पिया, और पड़े रहे।
एक वृद्धा अक्सर सुबह के समय मंदिर आया करती थी।  वह आरती करती और कुछ थोड़ा बहुत प्रसाद उन दोनों के आगे डाल कर अपने रास्ते चली जाती।
एक दिन बुढ़िया उन दोनों के आगे प्रसाद का दौना रख ही रही थी, कि  उनकी बदबू, गंदगी और आलस्य से खिन्न होकर बोल पड़ी- "अरे, पानी का नल पास में लगा है, और कुछ नहीं करते तो कम से कम हाथ-मुंह तो धो लिया करो।"
एक भिखारी बोल पड़ा- "माँ,एक दिन मैं नहाया था, उस दिन मैंने देखा कि  मेरे पास एक मक्खी भी नहीं फटकी।  जबकि रोज़ सैंकड़ों मक्खियाँ यहाँ मेरे तन पर भिनभिना कर गंदगी से अपना भोजन पाती हैं। तब मैंने सोचा,क्या मुझे किसी का भोजन छीन कर उसे दरबदर करने का अधिकार है?"
वृद्ध महिला अब सोच रही थी कि शायद शहरवासी भी इन्हीं की तरह सोच पाते तो ये भिखारी काहे को बनते।               

बीस साल बाद

अपने स्कूल में बैठी वे दोनों छोटी लड़कियां बड़े ध्यान से सुन रही थीं, उनका टीचर बता रहा था कि आप गले में हीरे का हार पहन सकते हैं, और यदि न चाहें तो न भी पहन सकते हैं।
टीचर ने कहा- "यदि आप हार नहीं पहनते तो अपने मन में सोचिये, कि जिस धरती पर हम चल रहे हैं,उसके गर्भ में तो हज़ारों हीरे दबे पड़े हैं, इन्हें गले में क्या लटकाना ? लेकिन यदि आप हीरे का हार पहनते हैं तो सोचिये- वाह ! अद्भुत ! मेरे गले का हार कितना लाजवाब और कीमती है।" [ अर्थात दोनों स्थितियों में सुखी और संतुष्ट रहिये]
संयोग देखिये, कि एक लड़की ने हार पहन लिया और दूसरी ने नहीं पहना।
बीस साल गुज़र गए।
पहली लड़की जिस गाँव में रहती थी वह अब एक शहर बन चुका था। वहां सुनारों की कई दुकानें थीं।  पास ही एक बढ़ई ज्वैलरी के खूबसूरत बक्से बनाता था। एक लोहार ने सांकलें बनाने की छोटी सी दुकान खोल ली थी। नज़दीक ही एक तालों की फैक्ट्री थी।  दवा-दारु के लिए छोटे-बड़े क्लिनिक खुल गए थे। पास ही पुलिस थाना था।  एक सेंटर में बच्चे सुरक्षाकर्मी बनने की ट्रेनिंग लेते थे।  बैंक खुल गए थे जो पैसा भी देते थे और गहने रेहन भी रखते थे।  लड़के-लड़कियाँ ज्वैलरी डिज़ाइनिंग सीखते थे।  गाड़ी -घोड़े दिनभर दौड़ते थे, सड़कें चौड़ी हो गई थीं, प्रदूषण मिटाने को बाग़-बगीचे लगा दिए गए थे।रोजगार के लिए आसपास के गाँवों से लोग वहां आते थे।
दूसरी लड़की जिस गाँव में रहती थी, वहां का पर्यावरण बड़ा सुहाना था।  पर्वत, जंगल, झरने, हरियाली सबका मन मोहते थे। वहां की सादगी और आबो-हवा दूर-दूर तक प्रसिद्ध थी। गाँव में शांति का वास था, लोग रोज़गार के लिए आसपास चले गए थे।                       
  

Tuesday, June 10, 2014

जिस धरती पर आप चल रहे हैं, उसमें आप के क़दमों तले हज़ारों हीरे बिखरे पड़े हैं, ये सोच कर आपको गर्व नहीं होता?

आपको हीरे का हार पहनना है, तो पहन लीजिये।
जहाँ जायेंगे, इसे सुरक्षित रखने के लिए एक मज़बूत बॉक्स साथ में रखिये।  कोई बॉक्स खोल न ले, एक मज़बूत सा ताला ज़रूर ले लें। हाँ,कोई बॉक्स ही उठा कर  ले जा सकता है, एक लोहे की चेन आपके पास होनी ही चाहिए।  गले से कोई इसे खींच ले गया तो मुसीबत होगी,गले पर चोट-खरोंच न आ जाये, फर्स्ट-एड का कुछ सामान आपके पास होना निरापद रहेगा।  ऐसे में एक सहायक या रक्षक आपके साथ हो तो बेहतर है। रक्षक निहत्था हुआ तो क्या कर लेगा? उसे एक रिवॉल्वर या बंदूख ज़रूर ले दें। लेकिन रक्षक खुद कहीं लालच में आकर भक्षक न बन जाए, उसका पुलिस वेरिफिकेशन करवा लें। यदि आप इन बातों में यकीन करते हैं, तो सोच लीजिये कि इतना कीमती हार पहनने पर कुछ लोग आपको नज़र ज़रूर लगा देंगे।  इसका इलाज़ आपको करके रखना है।
यदि आपको लगता है कि यह सब बड़ा झंझट है तो आपके पास एक विकल्प और भी है।  आप हार न पहनें।
          

ईर्ष्या मित्र

मित्र कई तरह के होते हैं।  बचपन के मित्र, स्कूल के मित्र, खेल के मित्र, भ्रमण के मित्र, ऑफिस के मित्र, मोहल्ले के मित्र, पार्क में जॉगिंग के मित्र, आदि-आदि।
मुंबई में तो ट्रेन मित्र भी होते हैं।  फिर यदि आपकी कोई हॉबी है तो उसके भी मित्र बन जाते हैं।  लिखने वालों के लेखक मित्र, प्रकाशक मित्र, संपादक मित्र भी होते हैं।  कुछ न करने वालों के काम कराने के लिए नेता मित्र होते हैं।  व्यापार मित्र होते हैं।
कहने की ज़रूरत नहीं, बॉय और गर्ल फ्रेंड्स भी होते हैं, पुरुष और महिला मित्र भी।
लेकिन आपको यह जान कर हैरानी होगी कि मनोवैज्ञानिकों के अनुसार सबसे ज़्यादा टिकाऊ और गर्मजोशी भरी मित्रता "ईर्ष्या मित्रों" के बीच होती है।
यह दोस्ती दोनों ओर से बड़ी शिद्दत से निभाई जाती है, क्योंकि इसमें मित्रों द्वारा एक दूसरे को नीचा  दिखाने का रोमांच छिपा होता है।  यह मित्रता लम्बी चलती है।
मेरे एक परिचित परिवार ने अपने पारिवारिक मित्र को सपरिवार खाने पर बुलाया।  विशेष व्यंजन के तौर पर पराँठों का कार्यक्रम बना।  आलू,गोभी,मूली,प्याज़,पनीर के परांठे बनाये गए।  मेज़बान महिला इतनी अभिभूत थीं कि  बार-बार इस बात का ज़िक्र करतीं-पाँच तरह के पराँठे, पाँच तरह के परांठे।
मेहमान महिला भला क्यों हार मानतीं ? लिहाज़ा अगले सप्ताह का भोज-निमंत्रण उनकी ओर से भी दे दिया गया।  जब वे लोग खाने पर आये तो देखा- आलू,गोभी,मूली,प्याज़,पनीर की कचौड़ियाँ तो बनी ही हैं, विशेष रूप से चुकंदर की लज़ीज़ कचौड़ियाँ भी हैं। और इस तरह इन मित्र ने जीत का परचम लहरा दिया।
माइंड इट, ये बात मैं नहीं कह रहा कि ईर्ष्या-मित्रता महिलाओं पर ज़्यादा फ़बती है।            

Monday, June 9, 2014

मक़बूल फ़िदा हुसैन साहब की पुण्यतिथि पर

पढ़िए दो कवितायेँ -हुसैन साहब की


रेम्ब्रां के चित्रों की दरारें                                
                                                                 
                                                                 
मुझे पता है                                          
रेम्ब्रां के चित्रों की दरारें
जिनके भूरे रंग मुझमें
जल उठते हैं।
मैं कांपता नहीं
हालाँकि पथरीली राहों से
गुज़रे हुए मेरे जूते
ज़मीन में गहरे धंसे हुए हैं
लेकिन टर्नर के चित्र के पानी में
बहता रेशमी सूरज
मेरे कानों में तीखी गूँज भर देता है।

जीन व जीना बुकशेल्फ 

.... मैं
रेम्ब्रां की तस्वीरों के रख़नों से
खूब वाकिफ हूँ
जिनके भूरे रंग
मेरे अंदर जलते हैं
मैं नहीं लरजता
अगरचे
गर्दआलूदा जूते
ज़मीन में धंसे हुए हैं
लेकिन
नदी में बहता हुआ रेशमी सूरज
मुझे लरज कर अन्दाम कर देता है।

कैसी लगीं? हिट हैं?     

Sunday, June 8, 2014

कैसा लगा?

भारतीय प्रधान मंत्री के कुछ विदेश दौरों की जानकारी सार्वजनिक हो गई है।  वे जहाँ-जहाँ जायेंगे, वहां के बारे में विस्तार से यथासमय ख़बरें आएँगी ही कि उनका क्या कार्यक्रम है, क्या प्रयोजन है, क्या संभावनाएं हैं, क्या आशंकाएं हैं, आदि-आदि।
एक बात जिस पर सबका ध्यान गया है वह उनके विदेश में हिंदी बोलने को लेकर है।आइये देखें कि इस फैसले पर जन-सामान्य की प्रतिक्रियाएं क्या कह रही हैं?
-ये वर्षों से वांछित, वर्षों से प्रतीक्षित फैसला है।
-ये देश का गौरव बढ़ाएगा।
-ये प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व को "वैश्विक" नहीं बनने देगा।
-इसका पश्चिम में स्वागत नहीं होगा।
-ये एक आत्म -सम्मान वाले देश के राष्ट्रीय नेता की छवि प्रतिपादित करेगा।
-इससे वार्ताओं की गंभीरता और स्वीकार्यता प्रभावित होगी।
-ये दुनिया के दूसरे सबसे बड़े देश के स्वाभिमान के चलते होना ही चाहिए।
-क्या फ़र्क पड़ता है ?
-इसकी जितनी तारीफ़ की जाये, कम है।                

Saturday, June 7, 2014

किसी दूर के राही से पूछते हैं कि वहां से हमारा भारत कैसा दिखाई देता है? चलिए पिट्सबर्ग से अनुराग जी बताइये-

  कभी अंतरिक्ष में उड़ते राकेश शर्मा से तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने पूछा था कि वहां से भारत कैसा दिखाई देता है ? राकेशजी ने बिना एक पल भी गंवाए अद्भुत हाज़िरजवाबी से कहा-"सारे जहाँ से अच्छा !"
भारत ने पिछले दिनों फिर एक नया चोला बदला है। आइये, पता लगाएं, कि इन दिनों ये कैसा दिखता है ?
कौन बताएगा ?    

आप अखिलेश्वर बाबू को जानते हैं ? अरे वही अखिल्या, जो चार साल की उम्र में गाँव से मुंबई भाग गया था !

किसी गाँव से कोई चार साल का बच्चा मुंबई नहीं भागता। चार साल का बच्चा पॉटी करने भी जाता है तो पहले अपनी माँ की ओर देखता है।
लेकिन अगर माँ न हो तो ?
तब चार तो क्या, चौदह साल का बच्चा भी डरता है कि जब भूख लगेगी तो क्या होगा।
ये बात अलग है कि यही बच्चा जब चालीस साल का हो जाता है तो ऐसा सोचने लग जाता है कि माँ यदि दीर्घायु हो गई तो इसे कहाँ रखेंगे ?
लेकिन अखिल्या भाग गया।  कहाँ गया, कैसे गया, किसके साथ गया, ये कोई नहीं जानता, पर इतना सब जानते हैं कि मशहूर फिल्म निर्देशक अखिलेश्वर बाबू मुंबई से ही आये हैं।
सब जानते हैं कि  आसपास के दर्जनों गाँवों की भीड़ जिस फिल्म की शूटिंग देखने आई हुई है, उसके निर्माता अखिलेश्वर बाबू ही हैं।  तभी न सारे अखबार इस खबर से भरे पड़े हैं।
सरकार और फिल्म सेंसर बोर्ड ने तो ये कहा था कि किसी औरत को सती हो जाने के लिए प्रेरित करने वाली फिल्म को पास नहीं करेंगे। "सती" होने का अर्थ है - किसी आदमी के मर जाने पर उसकी औरत का उसके साथ ज़िंदा जल जाना।
अखिलेश्वर बाबू की फिल्म किसी औरत को सती  होने के लिए उकसाएगी नहीं, बल्कि उन लोगों की अच्छी तरह खबर लेगी, जो किसी औरत को इस जघन्य आत्महत्या के लिए उकसाते हैं।
अखिल्या अपनी माँ को दहकती लपटों के बीच ज़िंदा जलते न देखता तो भला गाँव से भागता क्यों?

"खाली हाथ वाली अम्मा" में आप पढ़ेंगे मेरी कहानी-"अखिलेश्वर बाबू"           

Friday, June 6, 2014

"खाली हाथ वाली अम्मा"

 मोनिका प्रकाशन, जयपुर से शीघ्र प्रकाशित होने वाली किताब "खाली हाथ वाली अम्मा" में कुल सोलह कहानियां हैं।  
समाज की कुछ प्रवृत्तियों को अब "बीते दिनों" की बात मान कर मैंने उनपर केंद्रित अपनी कुछ तत्कालीन कहानियों को अपने जेहन से हटा दिया था। लेकिन नवनीत हिंदी डाइजेस्ट में छत्तीस साल पहले प्रकाशित कहानी 'खाली हाथ वाली अम्मा' को अतीत की जुगाली करते हुए दोबारा पढ़ने पर मुझे लगा कि समाज के लिबास से वह बदबू अभी गई नहीं है जो औरत को किसी परिवार से धन खींचने का अस्त्र मानने की "दहेज़" जैसी कुत्सित मानसिकता को अभी तक जीवित रखे हुए है।
हम किन्हीं माँ-बाप से उनकी बिटिया अपना वंश चलाने के लिए अपने सब परिजनों को साथ लेकर गाजे-बाजे के साथ नाचते-गाते हुए अपने घर ले तो आते हैं, लेकिन हम चाहते हैं कि बिटिया के माँ-बाप अपनी सारी  जमापूंजी इस अवसर पर हमें सौंप कर जीवनभर के लिए हमारे सामने हाथ जोड़कर खड़े हो जाएँ। मतलब सीधे-सीधे हम अपने बेटे को बेचने खुले बाजार में निकल पड़ते हैं।
सरिता पत्रिका ने भी तीस साल पहले उनके यहाँ छपी मेरी एक कहानी "बहू बेटी" को तीस साल के अंतराल के बाद कुछ समय पूर्व दोबारा छापा। क्योंकि हम अभी तक अपनी और दूसरे की बेटी के बीच का अंतर नहीं भूल पाये हैं। हम अपनी बेटी को लेकर तो समय के साथ प्रगतिशील हो गए पर बहू को लेकर हम आज भी उतने ही दक़ियानूसी हैं जितने पहले कभी भी थे।     
इन दोनों कहानियों के अभीष्ट और प्रासंगिकता को मैं समाप्त नहीं मान पाया। मेरी इस किताब में ताज़ा कहानियों के साथ इन पुरानी कहानियों को भी आप पढ़ेंगे।                

Thursday, June 5, 2014

अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र जिस पर चिंतित , भारत की वो छोटी सी बात

 महिलाओं के प्रति हिंसा, प्रताड़ना और अपराध का मीडिया में छा जाना क्या ज़ाहिर करता है ? आइये देखें-
१. कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिन पर बेवज़ह अनर्गल बोल कर भी अखबारी सुर्ख़ियों में रहा जा सकता है, और यह प्रचार विज्ञापनों की वर्तमान दरों से बहुत सस्ता है।
२. महिलाओं के बढ़ते ज्ञान, शक्ति और अधिकार सम्पन्नता से पुरुष-समाज बौखलाया हुआ है। यद्यपि, अपने महिला-आक्रमणों में ये वर्ग महिलाओं का उपयोग भी कर रहा है।
३. मौजूदा क़ानून के विदोहन के लिए राजनैतिक रूप से लोहा गर्म देख कर बरसों पुराने हिसाब-किताब भी चुकाए जा रहे हैं।
४. कई महीनों तक चले चुनाव-संग्राम में प्रचुर सामग्री मिलते रहने के बाद, मीडिया के सामने "जगह ज्यादा, मसाला कम" का संकट है।
५. सत्ता परिवर्तन ताज़ा-ताज़ा है, इसलिए "तिल का ताड़" बनाने में सिद्धहस्त कई "भूतपूर्व-ठाले"अद्भुत रूप से सक्रिय हैं। उन्हें ये फुलटाइम जॉब रास आ रहा है।
५. कहते हैं-"ख़ाली दिमाग शैतान का घर" और इस समय तख़्ता-उलट के बाद खाली दिमागों का बोलबाला है। लेकिन ऐसा नहीं है कि समस्या कम गंभीर है, इससे युद्ध-स्तर पर लड़ा तो जाना ही चाहिए।                  

Wednesday, June 4, 2014

प्रभामंडल लाभ तो पहुंचाएगा ही !

आप एक कारखाने में काम कर रहे मज़दूर को बुलाइये, और उसे एक दिन के लिए काम से छुट्टी देकर एक हज़ार रूपये दे दीजिये।  फिर उससे कहिये कि यह राशि उसके वेतन के अलावा है। वह बाजार जाए और जो चाहे खरीदे।
अब एक ऐसे व्यक्ति को उसके कार्यस्थल से बुलाइये जिसका दैनिक वेतन एक हज़ार रूपये है।उससे कहिये, ये लो तुम्हारा आज का वेतन, बाजार जाकर कुछ भी खरीद सकते हो।
क्या आपको लगता है कि उन दोनों की खरीदारी में कुछ मौलिक अंतर होगा?
अवश्य होगा।  पहला व्यक्ति उस वस्तु पर ध्यान देगा जो उसकी 'नेसेसिटी' से अधिक उसकी इच्छा या आकाँक्षा में है।  जबकि दूसरा व्यक्ति अपनी रोजाना की ज़रूरतों पर ध्यान केंद्रित करेगा।
बस इसीलिए कहा जाता है कि नेता अपने पुत्रों-पुत्रियों को राजनीति में स्थापित करने के लिए अपनी जगह न सौंपें।
उनकी जगह उन्होंने बनाई है, ये ख़ैरात में नहीं मिली।  इससे वो आएगा, जो चाहिए।  जबकि उनके परिजनों को तोहफ़े की तरह वह स्थान मिल गया।  वे अपने प्रभाव को न कमाए गए धन की तरह खर्च करेंगे।
सच ये भी है कि किसी नेता के परिजन अपने कैरियर के लिए कुछ तो करेंगे।  नेता का प्रभामंडल उसमें प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष लाभ तो पहुंचाएगा ही,बशर्ते वह हो।
            
    

Tuesday, June 3, 2014

ये मत पढ़िए, न तो आपको समझ में आएगा, और न ही अच्छा लगेगा

फिल्मों में, टीवी पर, अख़बारों में शराब के विज्ञापनों पर पाबन्दी है।  जब कोई भी हीरो, शुक्र है कि हीरोइनें बहुत कम,परदे पर शराब पीते दिखाए जाते हैं तो वहां लिखा हुआ आता है कि यह हानिकारक है।  किन्तु शराब की दुकानों पर गहमा-गहमी और भीड़ बदस्तूर जारी है।  ऐसा ही तम्बाकू उत्पादों, सिगरेट बीड़ी आदि के साथ भी है।  ये कितना सुन्दर और स्वस्थ तरीका है किसी समस्या के हल का? इसमें किसी की हानि नहीं है- न पीने वाले की, और न बेचने वाले की।  प्रशासन और शासन भी अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर लेते हैं।
शायद कुछ दिन बाद मीडिया में दुष्कर्म के समाचारों के साथ भी यह लिखना अनिवार्य कर दिया जाएगा कि "इसे पढ़ना उचित नहीं है, यह सम्मान-विरोधी है।"
रोज के समाचारों में जब देश-विदेश में स्मैक, चरस, अफीम, गांजा,हेरोइन, ब्राउनशुगर आदि पकड़े जाने, इनकी तस्करी होने के चर्चे आते हैं, तो युवा लोग और विद्यार्थी सोचते हैं कि करोड़ों रूपये का ये व्यापार सरकारें खुद क्यों नहीं करतीं?
नशे के आदी हो चुके छात्र कहते हैं कि नशा किसमें नहीं है? क्या किताबों में नहीं? पैसे में नहीं ? सत्ता में नहीं ?संबंधों में नहीं ?शोहरत में नहीं ?
मैं जानता हूँ कि आपको अच्छा नहीं लग रहा।  लेकिन मैं और कर ही क्या सकता हूँ,आपको चेताने के सिवा, मैंने तो पहले ही कह दिया था कि मत पढ़िए। क्योंकि लिखना शुरू करते समय खुद मुझे भी पता नहीं था कि मैं क्या कहने वाला हूँ।   
लेकिन गलती आपकी भी तो नहीं, आपको ये पढ़ना ही था, क्योंकि ये मेरी १०००वीं पोस्ट है।          

Monday, June 2, 2014

आइस क्रीम से ज़्यादा ठंडी,कचौरियों से ज़्यादा गर्म यादें!

मेरी कहानी "चिड़िया अपनी शर्तों पर झंझावात चाहती थी" में मैंने एक ज़ेड श्रेणी सुरक्षा-प्राप्त गवर्नर के भाषण का ज़िक़्र किया है।
कहानी में नहीं, बल्कि हकीकत में इस भाषण के बाद हुए भोज में मैंने एक ऐसे नेता के साथ एक ही मेज़ पर खाना खाया जिनकी आवाज़ से आइसक्रीम खाते हुए भाप और गर्मागर्म कचौड़ियाँ खाते हुए बर्फ़ गिर रही थी। वे ऐसे लोगों के ख़िलाफ़ उफ़न रहे थे, जो चौबीस घंटे बंदूक धारियों के साये में चलते हैं। मैं उनके साहस को रक्तचाप के रोगी के चटनी खाने की तरह डरते-डरते खा रहा था।
वे तब राज्य विधानसभा में विपक्ष में थे।  बात मुंबई की है।
आज उनके उस साहस और हिम्मत का पटाक्षेप सड़क पर किसी दुर्घटना ने कर दिया।  मेरे पास तमाम दूसरे लोगों की तरह एक ही विकल्प है- मैं श्री गोपीनाथ मुण्डे को श्रद्धांजलि अर्पित करूँ !  
          

यह संभव नहीं है, व्यावहारिक भी नहीं, लेकिन एक दिन होगा, करना पड़ेगा

कम से कम भारत में तो "चिकित्सा-सुविधा" को व्यापार के दायरे से हटाना ही होगा।  यदि एक डॉक्टर मरीज़ को सामने देख कर पहले  इस बात पर विचार करे कि "मैंने डॉक्टर बनने के लिए क्या खर्च किया है" या कि मरीज़ की जेब का वज़न कितना है, या फिर बीमा कम्पनी इसे क्या-क्या सुविधा दे रही है, डॉक्टर की छवि, मरीज़ की सेहत और समाज के ढाँचे के लिए अच्छा नहीं है।
यहाँ कुछ बिज़नस-माइंडेड डॉक्टर तर्क देते हैं कि यदि मरीज़ की जेब पर बोझ नहीं पड़े, और बीमा-कंपनी हमें पैसा दे दे, तो क्या नुक़सान है।
नुक़सान ये है, कि बीमा-कंपनी भी व्यापारिक कम्पनी है, यदि वह किसी को अवांछित देगी, तो वह समाज से "अवांछित" समेटेगी भी। कुछ युवा और उत्साही डॉक्टर, कुछ वरिष्ठ भी, यहाँ तर्क देते हैं, कि कम्पनी तो फिर भी समेटेगी, चाहे हम कम लें,या ज्यादा। नहीं, सच यही है कि यदि कम्पनी पर आपको अवांछित देने का दबाव बनेगा, तो वह अपनी नैतिक ज़िम्मेदारियों की अनदेखी भी ज्यादा करेगी।
अब हम जहाँ पहुँच गए हैं, वहां चिकित्सा-व्यवस्था के सरकारी अधिग्रहण की नहीं, तो कम से कम निजी क्षेत्र पर प्रभावी अंकुश की जरुरत तो है ही।
सच तो ये है कि जिस समाज से नैतिक मूल्य झर जाते हैं, वहां कठिनाइयाँ बढ़ तो जाती ही हैं।              

बेस्वाद मांस का टुकड़ा

मांस का बेस्वाद टुकड़ा, खाली हाथ वाली अम्मा, अखिलेश्वर बाबू, ये नाम उन्होंने रख दिया था, अम्मा, आखेट, आदि मेरी उन कहानियों के शीर्षक हैं जो १९८५ में छपी थीं।  "मांस का बेस्वाद टुकड़ा" एक उपन्यासिका है, जिसे कुछ अन्य कहानियों के साथ "बेस्वाद मांस का टुकड़ा" शीर्षक किताब में छापा गया।
मुझसे आज भी कोई-कोई ये पूछ लेता है कि बेस्वाद मांस और बेस्वाद टुकड़े में फर्क क्या है?
उत्तर में मैं कहता हूँ कि यदि कोई फाइवस्टार शेफ़ ख़ास मेहमानों के लिए कोई लज़ीज़ डिश तैयार कर रहा होगा तो वह पहली प्लेट पूरी फेंक देगा, किन्तु दूसरी प्लेट में से सिर्फ़ एक टुकड़ा ही फेंकेगा।
मुझे ख़ुशी है कि कई लोग इस एकेडमिक एक्सप्लेनेशन से संतुष्ट भी हो जाते हैं।  कुछ शाकाहारी किस्म के लोग समूचे विवाद को ही तिरस्कार से देखते हैं।  कुछ लज़ीज़ खाने के शौक़ीन लोग हर विवाद में मेरे साथ होते हैं। उन्हें दोनों स्थितियाँ मंज़ूर होती हैं।
कुछ ऐसे लोग भी होते हैं, जिन्होंने जीवन में कभी न कभी "मधुशाला" पढ़ी होती है और वे जानते हैं कि इसके कवि हरिवंशराय बच्चन मदिरापान नहीं करते थे। कुछ लोग जानते हैं कि बॉम्बे का नाम मुंबई हो जाने के बाद भी ख्वाज़ा अहमद अब्बास की "बम्बई रात की बाँहों में" का नाम बदला नहीं है।   
मुझे याद आया, छुट्टियाँ चल रही हैं, और इन दिनों कुछ बच्चे भी इस ब्लॉग पर आते हैं। बच्चो,गली में दोस्तों के साथ क्रिकेट खेलते हुए तुमने देखा होगा कि एक आदमी साइकिल पर "चक्कू -छुरियाँ तेज़ करालो" की आवाज़ लगता हुआ गली-गली घूमा करता है।  गृहणियाँ पुराने चाक़ू-छुरी, जो काटते-काटते भौंथरे हो जाते हैं, उस आदमी के पास ले आती हैं, और वह उन्हें घिस कर फिर से पैना कर देता है।  लिखने वाले भी अपनी भौंथरी कलम इसी तरह पैनाया करते हैं।              

Sunday, June 1, 2014

एक चिट्ठी ऑस्ट्रेलिया-वासियों के नाम

आदरणीय ऑस्ट्रेलिया - वासी गण,
नमस्कार !
मैं पहले ही कुछ बातों के लिए आपसे क्षमा मांग लूँ, पहली तो इसलिए कि आपसे अत्यंत नाज़ुक आभासी पहचान होते हुए भी मैंने आपको चिट्ठी लिख दी।जबकि आजकल न तो चिट्ठी लिखने का कोई चलन है और न ही इसका जवाब आने की गारंटी।
दूसरा, हम भारतीयों की आदत होती है कि किसी से कोई काम पड़ने पर ही चिट्ठी लिखते हैं।  और किसी को भी कोई काम बताने में हम संकोच नहीं करते। हमारे ज़्यादातर काम चिट्ठियों के सहारे ही होते हैं।
तीसरी बात ये है कि हम लोगों के पास समय की कोई कमी नहीं होती और हम समय काटने के लिए चिट्ठी लिखने को आज भी सबसे सस्ता, सुन्दर और सहज कारण मानते हैं।
अब मैं अपनी चिट्ठी की मुख्य इबारत पर आता हूँ। वैसे मैं आपको बतादूं कि चिट्ठियों में हम लोग इतनी जल्दी मुद्दे पर नहीं आते।
खैर, तो समाचार ये है कि मुझे आपकी मदद चाहिए। मैं चाहता हूँ कि ज़ेनिन नाम की एक महिला यदि आपको वहां कहीं दिखे, तो आप उसे मेरा नमस्कार कह दें। मैं उसकी कुछ पहचान बतादूँ , ताकि आप उसे पहचान लें, वह बहुत भली और इंडिया के बारे में दिलचस्पी रखने वाली महिला है।
वह मेरी एक कहानी "ये नाम उन्होंने रख दिया था" की नायिका है।  शेष शुभ ! आपका आभार !        
पुनश्च- मेरी कहानी "ये नाम उन्होंने रख दिया था"आप मेरी किताब "खाली हाथ वाली अम्मा" में पढ़ेंगे !

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...