१९७० में एक फिल्म आई थी-"चेतना"
इससे कुछ महत्वपूर्ण बातें जुड़ी थीं। इस में फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट, पुणे से गोल्ड मेडल लेकर निकली रेहाना सुल्तान पहली बार नायिका बनी थीं। इसे दौर की पहली 'बोल्ड' फिल्म कह कर प्रचारित किया गया था तथा इसके संवादों में शायद पहली ही बार किसी देह-व्यापार से जुड़े चरित्र ने दबंग होकर अपना औचित्य सिद्ध करने की चेष्टा की थी। इससे पहले के ऐसे चरित्र अपनी ही नज़रों में धरती के बोझ की तरह अवतरित हुए थे।
इसके बाद रेहाना सुल्तान की फिल्म 'दस्तक' आई और उन्हें इसके लिए अभिनय का प्रतिष्ठित "उर्वशी" पुरस्कार मिला। यह राजेंद्र सिंह बेदी की फिल्म थी जिसके नायक संजीव कुमार थे।
इसके बाद रेहाना की "तन तेरा मन मेरा, हारजीत, तन्हाई, सवेरा, मान जाइए,खोटे सिक्के, प्रेम परबत,बड़ा कबूतर, नवाब साहब, एजेंट विनोद, अभी तो जी लें, सज्जो रानी, अलबेली, दिल की राहें, चमेली, आज की राधा, निर्लज्ज, औरत खड़ी बाजार में" जैसी कई फिल्में आईं लेकिन फिल्म दर फिल्म वे रजतपट से ओझल होती चली गईं।
यहाँ यह कहना त्रासद है कि चेतना में जिस देह के नमक का स्वाद दर्शकों को चखा कर उनकी वाहवाही लूटी गई थी , उसी नमक के बोरे अगली फिल्मों में दर्शकों की पीठ पर लाद दिए गए। परिणामस्वरूप एक प्रतिभाशाली अभिनेत्री नमक की खारी झील में डूब गई।
अतिरेक एक "रिपल्सिव" फ़ोर्स है, ज़्यादा सूचनाएँ, बेशुमार तथ्य-उपलब्धता हमें 'अप टू डेट' बना दे, यह ज़रूरी नहीं। सुदूर किसी आंचलिक परिवेश की ढाणी में गुनगुनाती किसी पनिहारिन के कानों में चौबीस घंटे बजते लता मंगेशकर के स्वर उसे सुरीला नहीं बना पाएंगे। सुर की मिठास उसके अपने अंतरमन से गूंजे, तब ही बात बनेगी।
इससे कुछ महत्वपूर्ण बातें जुड़ी थीं। इस में फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट, पुणे से गोल्ड मेडल लेकर निकली रेहाना सुल्तान पहली बार नायिका बनी थीं। इसे दौर की पहली 'बोल्ड' फिल्म कह कर प्रचारित किया गया था तथा इसके संवादों में शायद पहली ही बार किसी देह-व्यापार से जुड़े चरित्र ने दबंग होकर अपना औचित्य सिद्ध करने की चेष्टा की थी। इससे पहले के ऐसे चरित्र अपनी ही नज़रों में धरती के बोझ की तरह अवतरित हुए थे।
इसके बाद रेहाना सुल्तान की फिल्म 'दस्तक' आई और उन्हें इसके लिए अभिनय का प्रतिष्ठित "उर्वशी" पुरस्कार मिला। यह राजेंद्र सिंह बेदी की फिल्म थी जिसके नायक संजीव कुमार थे।
इसके बाद रेहाना की "तन तेरा मन मेरा, हारजीत, तन्हाई, सवेरा, मान जाइए,खोटे सिक्के, प्रेम परबत,बड़ा कबूतर, नवाब साहब, एजेंट विनोद, अभी तो जी लें, सज्जो रानी, अलबेली, दिल की राहें, चमेली, आज की राधा, निर्लज्ज, औरत खड़ी बाजार में" जैसी कई फिल्में आईं लेकिन फिल्म दर फिल्म वे रजतपट से ओझल होती चली गईं।
यहाँ यह कहना त्रासद है कि चेतना में जिस देह के नमक का स्वाद दर्शकों को चखा कर उनकी वाहवाही लूटी गई थी , उसी नमक के बोरे अगली फिल्मों में दर्शकों की पीठ पर लाद दिए गए। परिणामस्वरूप एक प्रतिभाशाली अभिनेत्री नमक की खारी झील में डूब गई।
अतिरेक एक "रिपल्सिव" फ़ोर्स है, ज़्यादा सूचनाएँ, बेशुमार तथ्य-उपलब्धता हमें 'अप टू डेट' बना दे, यह ज़रूरी नहीं। सुदूर किसी आंचलिक परिवेश की ढाणी में गुनगुनाती किसी पनिहारिन के कानों में चौबीस घंटे बजते लता मंगेशकर के स्वर उसे सुरीला नहीं बना पाएंगे। सुर की मिठास उसके अपने अंतरमन से गूंजे, तब ही बात बनेगी।
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