Wednesday, November 30, 2011

किसी देश की सामाजिक बैलेंस-शीट में समझदारी "एसेट" है या 'इनोसेंस' को एसेट कहा जाय?

एक दिन दूधवाले को कोई काम होने से वह दूध देने न आ सका. उसने अपने ग्यारह साल के बेटे को दूध देने भेज दिया. मैंने केवल बच्चे से कुछ बात करने के शिष्टाचार और परिहास के नाते उस से पूछ लिया- आज दूध में कितना पानी मिला कर लाया? लड़का स्वाभाविक रूप से बोल पड़ा- आधा दूध और आधा पानी. सब हँस पड़े. अगले दिन मैंने यह बात अपने दूधवाले को सुनाई, तो वह झेंपते हुए बोला- जी, वह तो बच्चा है, उसे कुछ मालूम नहीं रहता.
एक दिन एक बस में जाते हुए एक महिला ने जब अपने बच्चे के लिए आधा टिकट माँगा, तो कंडक्टर ने उस से बच्चे की उम्र पूछी. महिला को पता था कि आठ साल के बच्चे का पूरा टिकट लगने लगता है, इसलिए वह बोली- साढ़े सात साल. बच्चा तपाक से बोल पड़ा- क्या मम्मी, आपभी,आपने  केवल नौ रुपये के लिए मेरी उम्र एक साल घटादी. सब हँस पड़े.
एक कवि ने कहा है- "चाँद सितारे  छू लेने दो,  नन्हे-नन्हे  हाथों  को
                                चार किताबें पढ़ कर ये भी, हम जैसे हो जायेंगे"
२०११ की जनगणना के नतीजे आ गए हैं. बच्चों की संख्या लगभग २० से २५ प्रतिशत के बीच है.
क्या माना जाय? मानव संसाधन, जिसमें हम दुनिया में दूसरे नंबर पर हैं, वह भी हमारे पास एक-चौथाई ही शुद्ध है?
                                 बच्चो जब तक भी रह पाओ,बच्चे, तब तक बने रहो
                                 तुम भी बड़े हुए तो इस दुनिया को कौन सम्हालेगा ?

Monday, November 28, 2011

अच्छा, तो ये था महंगाई पर लम्बी और रहस्यमयी चुप्पी का राज?

जिस तरह रेल की पटरी में सामानांतर  चलती दो धाराएँ होती हैं, ठीक उसी तरह भारतीय संसद में भी दो धाराएँ, एक सत्ता-पक्ष और दूसरा विपक्ष, होती हैं.
रेल की पटरी पर रेल दौड़ जाती है, संसद थमी हुई है. रुकावट के लिए खेद किसी को नहीं है.
विपक्ष को तो खेद क्यों होगा, उसी ने तो रेल रोकी हुई है. सत्ता-पक्ष को खेद इसलिए नहीं है, क्योंकि उसके पास जाने को कोई गंतव्य नहीं है. टाइम पास करना है, संसद चला कर करें या संसद रुकवा कर, कोई फर्क नहीं पड़ता.
आम आदमी को फ़िलहाल यह पता नहीं चल पा रहा कि एफ डी आई से  उसे क्या नुकसान होगा और अभी उसे क्या फायदा हो रहा है.
कुछ दिन पहले हम जोर-शोर से "ग्लोबल" हो रहे थे. दुनिया हमें जेब में आती नज़र आने लगी थी. विदेशी वस्तुओं की गुणवत्ता और किस्में हमें लुभाने लगी थी. अपने शहरों को हम विश्व-स्तरीय बनाने का सपना देखने लगे थे. बाज़ार बनना और बाज़ार बनाना हमें रास आने लगा था. महाशक्ति बनने की उम्मीदें हमारा सर गर्व से ऊंचा करने लगी थीं.
फिर अचानक ऐसा क्या हो गया कि हम अपने पुराने दिनों को याद करके अपनी चाल वापस लेने लगे?
क्या हम ग्लोबल होने से डर गए? क्या हमारे छोटे व्यापारी की गद्दी हिल गई? गुणवत्ता, स्पर्धा और विकास की हमारी महत्वाकांक्षा कहाँ गई?
शायद हमें अपनी सरकार की नीयत पर संदेह हो गया? शायद हम समझ गए कि सरकार बेतहाशा महंगाई बढ़ा कर, और उस पर कोई कार्यवाही न करके हमसे क्या चाह रही थी?
क्या हमने सरकार का सारा प्लान चौपट  कर दिया?क्या हम ज़रा जल्दी जाग गए?सरकार दबे पाँव रात में हमारे घर में कूदी ही थी कि हमने बत्ती जला दी.सरकार का सारा खेल बिगड़ गया.      

Sunday, November 27, 2011

हे ईश्वर,उन्हें शक्ति देना कि वे बिना बात लड़ सकें

हर खेल को शुरू होने के लिए एक सीटी अर्थात व्हिसिल चाहिए. हर मैच को शुरू होने के लिए दो टीमें चाहिए. पर अगर कोई पहलवान अपनी ही नाक तोड़ना चाहे, तो उसे केवल एक मक्खी चाहिए.
लेकिन अगर कोई देश लड़ना चाहे, तो उसे मुद्दा चाहिए. अगर कोई कारगर मुद्दा न हो तो फिर कोई ज़मीन चाहिए. ज़मीन अगर अपनी हो तो लड़ाई में मज़ा नहीं आता. ज़मीन दूसरे की हो तो भी खतरा बना रहता है, न जाने दूसरे के पास क्या हथियार हो?
सबसे मज़ेदार लड़ाई तो तब होती है जब ज़मीन तीसरे की हो. और अगर तीसरा कम शक्तिशाली हो, तब तो सोने पर सुहागा. लड़ने की हुड़क भी पूरी, और लड़ाई में जीत भी पक्की.
पर यहाँ भी एक पेच तो है. कम शक्तिशाली भला लड़ाई छेड़ने का खतरा मोल ही क्यों लेगा? तो यहाँ भी उसे उकसाने के लिए कुछ न कुछ तो करना ही  पड़ेगा.
कहते हैं कि एक आदमी लड़ने में बहुत पारंगत था. रोज किसी न किसी बात पर किसी न किसी से लड़ लेता था. आखिर लोगों ने उस से बचने का रास्ता निकाला. उसकी बीवी से कहा कि रात को सोने के लिए इसकी खाट खेत में ऐसी जगह डालना,जहाँ दूर-दूर तक कोई न हो. बीवी ने ऐसा ही किया. जब वह अकेला पड़ा-पड़ा आसमान को तक रहा था, अचानक उसे आकाश में तारों का झुण्ड दिखाई दिया. वह पत्नी से बोला- यह तारों का झुण्ड सा क्या है? पत्नी बोली- यह आकाश गंगा है, यहाँ रोज़ इन्द्र के हाथी पानी पीने के लिए आते हैं. बस, आदमी का पारा चढ़ गया, बोला- तूने हाथियों के रास्ते में खाट  डालदी, कोई हाथी यहाँ गिर गया तो? बस, उसकी लड़ाई शुरू.
आदमी ही नहीं, ऐसा देश भी करते हैं.
भारत में एक कार्यक्रम में शिरकत करने तिब्बत से दलाई लामा आरहे हैं.जब चीन को यह खबर मिली, तो उसने भारत से कहा- इस कार्यक्रम को रद्द करो.
भारत ने कहा- नहीं.    

Saturday, November 26, 2011

इस चेन को कौन तोड़ेगा?

रुपया लगातार गिर रहा है. इसका अर्थ या व्याख्या अर्थशास्त्र में चाहे जो हो, भारतीय  समाजशास्त्र में इसकी व्याख्या निराशा का माहौल बना रही है. हर भारतीय के मानस में यह ख्याल आ रहा है कि जिसके लिए हमेशा से हम 'गिरते' चले जा रहे हैं, वह खुद भी गिर रहा है?
यदि एक दूसरे के लिए गिरते चले जाने की यह चेन ऐसे ही चलती रही, तो आखिर हम कौन से रसातल में पहुंचेंगे? क्या कोई रास्ता है जो इस गिरावट को थामे?
रास्ता है.
रास्ता यही है, कि पहले हम अपने-आप को थामें.आज हम अपने हर कार्य को आर्थिक सार्थकता  के दायरे में ही घसीट कर ले गए हैं. हम अपने काम के स्तर,गुणवत्ता, आवश्यकता, उपयोगिता आदि को भूल कर केवल 'मौद्रिक' लाभ या लाभदायकता के पैमाने से ही हर चीज़ को आंकने लगे हैं.ज्ञान से हमें कोई लेना-देना नहीं,  हम वह पढ़ना चाहते हैं, जो हमें ऊंचा आर्थिक पॅकेज दिला सके.हमारे बड़े और आधुनिक सुविधा संपन्न हस्पताल  खांसी-जुकाम के मरीज़ को कैंसर के मरीज़ से ज्यादा महत्त्व देने को तैयार हो जाते हैं, अगर वह पैसे वाला हो. हमारा मीडिया जनता पर बरसों से पड़ रही मंहगाई की मार को नज़रंदाज़ करके नेता को पड़े एक थप्पड़ पर अपने कैमरे साध देता है.
पहले हम उठें, शायद हमारे राष्ट्रीय जीवन की गुणवत्ता फिर रूपये को उठाने पर भी ध्यान दे.
लक्ष्मी के चरणों में अगर हम अपना  अच्छा-बुरा भूल कर लोटते रहेंगे तो आखिर कभी तो हमें उठाने को  लक्ष्मी भी झुकेगी ही न ?  

Friday, November 25, 2011

हरिश्चंद्र, मोहन दास और प्रणब मुखर्जी के 'अनुभूत' प्रयोग

यदि हमें किसी को यह समझाना हो कि 'सच' किसे कहते हैं,तो हम बहुत आसानी से समझा सकते हैं."सच झूठ का विलोम है जो तब बोला जाता है जब और कोई चारा न हो". यह कभी-कभी स्वतः ही बुल जाता है जबकि झूठ सायास बोलना पड़ता है. हर इन्सान की एक अंतरात्मा होती है, जिसके फलस्वरूप यह सत्य  कभी-कभी स्वयं मुंह से निकल जाता है. भारत के हर न्यायालय में 'सत्यमेव जयते' लिखा होने से प्राय यह मान लिया जाता है कि यह जीतता होगा, किन्तु इस मान्यता की सत्यता का कोई ठोस आधार नहीं है.
हरिश्चंद्र ने सत्य बोला था, जिसके कारण वह 'सत्यवादी' कहलाये. महात्मा मोहनदास करमचंद गाँधी ने सत्य के कुछ अनुभूत प्रयोग किये.
प्रणब मुखर्जी दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र  के वित्त मंत्री होने के कारण व्यस्त रहते हैं, किन्तु उनसे भी अकस्मात सच बुल ही गया.अकस्मात किसी से भी, कुछ भी हो सकता है. अन्ना हजारे के मुख  से भी शरद पवार के थप्पड़ पड़ने की शर्मनाक-निंदनीय घटना के बाद एक बार तो यही निकला-'एक ही".
सत्ताधारी पार्टी के 'स्टीयरिंग व्हील' पर बैठे नेता मनमोहन सिंह के मुख से कभी कुछ नहीं निकलता, लेकिन प्रणब मुखर्जी के मुंह से निकल गया. आखिर  वह बोल ही पड़े- 'यह देश न जाने किधर जा रहा है?
गाँधी ने कहा था कि यदि कोई तुम्हारे एक गाल पर थप्पड़ मारे तो तुम अपना दूसरा गाल भी उसके आगे कर दो.देखें, अब गाँधी की  प्रासंगिकता कितनी बची है?   

Thursday, November 24, 2011

हो न हो बात कुछ और है, महारानी पद्मिनी की याद किसी को क्यों आएगी?

हमेशा की तरह एक राजा था. एक रानी भी थी.
रानी ने राजा से कहा- मुझे सजने-सँवरने का सामान मंगवा दो.
सामान आ गया. रानी ने देखा तो बोली- इसमें आइना तो है ही नहीं?
राजा ने मुस्करा कर कहा- ज़रा खिड़की से मुंह बाहर निकाल कर तो देखो.
रानी ने बाहर झाँका तो दंग रह गई,बाहर खिड़की के चारों ओर शीशे ही शीशे लगे थे. हर शीशे में रानी का चेहरा जगमगा रहा था. रानी ख़ुशी से लाल हो गई.
अब रानी ने श्रृंगारदान खोला और लगी सँवरने.
ये क्या? चेहरे का पाउडर तो बिलकुल खड़िया मिट्टी जैसा था.रानी ने तुरंत बिंदी निकाल कर देखी, बिंदी क्या थी, जैसे किसी ने लाल रंग की टिकिया रख दी हो. काजल देख कर तो रानी आग-बबूला हो गई- कोयले को ज़रा से तेल में घिस कर रख दिया गया था.रानी ने झटपट होठों की लाली तलाशनी चाही.बस,थोड़ी सी क्रीम में  ईंट का चूरा ही समझो.और क्रीम भी कौन सी शुद्ध? जैसे आटे में घी.
रानी ने आनन-फानन में राजा को बुलवा भेजा, और शिकायतों का पिटारा खोल दिया.
राजा ने धैर्य से सारी बात सुनी,फिर रानी से बोला- क्यों नाराज़ होती हो? महल में कोई आम आदमी तो आने से रहा. प्रजा बाहर के शीशों से ही तुम्हें सजता-सँवरता देखेगी. लोगों को क्या पता, तुम क्या लगा रही हो? लोग तो यही समझेंगे कि रानी साहिबा सोलह श्रृंगार में तल्लीन हैं.
रानी ने आँखें तरेर कर कहा- अच्छा, तो तुम्हें मेरी चिंता नहीं है, तुम केवल महल  की "इमेज बिल्डिंग" में लगे हो?
सरकार ने इस कहानी से शिक्षा ली और अपनी छवि सुधारने को कमर कस ली.           

Wednesday, November 23, 2011

थोड़े से कांटे आलोचना के, मगर बहुत सारे फूल बधाई के भी बनते हैं, मायावतीजी के लिए

एक बस्ती थी. उसमें सौ लोग रहते थे.
एक और बस्ती थी. उसमें एक हज़ार लोग रहते थे.
एक और भी बस्ती थी. इस बार उसमें एक लाख लोग रहते थे.
मज़े की बात देखिये, कि फिर  एक और भी बस्ती थी. और उसमें रहते थे पूरे एक करोड़ लोग.
सब बस्तियों में एक-एक राजा था.सब में एक-एक महल था. सब में एक-एक क्रिकेट टीम थी. सब में एक-एक ज्ञानपीठ और एक-एक ऑस्कर अवार्ड बंटता था.
पहली बस्ती में हर दस में से एक खिलाड़ी राष्ट्रीय टीम में आ गया, दूसरी में हर सौ में से एक खिलाड़ी, तीसरी में हर दस हज़ार में से एक खिलाड़ी और चौथी बस्ती में से हर दस लाख में से एक खिलाड़ी राष्ट्रीय टीम में आ पाया.
नतीजा यह हुआ कि सोवियत रशिया ने एक टीम तोड़ कर तेरह बनालीं.एक कुर्सी तोड़ कर तेरह बनालीं, और बन गए तेरह राष्ट्रपति , तेरह प्रधान-मंत्री, तेरह राजमहल, और मिलने लगे तेरह अवार्ड.
यदि इस गणित में ज़रा भी दम है तो मायावतीजी निश्चय ही बधाई की हकदार हैं.
यह दूरदर्शिता ही कही जाएगी कि जब उत्तरप्रदेश जीतने चारों दिशाओं से चार सेनाएं निकल पड़ी हों, तो मुख्य मंत्री और राज्यपाल भी चार क्यों न कर लिए जाएँ? चार विधानसभाएं, चार राजधानियां...चार चाँद लग जायेंगे प्रदेश की खुशहाली में.
लेकिन इससे कोई ये न समझ ले कि रुपया चवन्नी बन कर रह जायेगा? रूपये की नज़र तो अब डॉलर पर है.
खेल तो अब शुरू होगा- सबसे बड़ा खिलाड़ी चुनने के लिए. माया,ममता,मोदी,नीतीश,जयललिता, राहुल, और "अबव- आल"आडवाणी जी...एंड मैनी मोर!       

Tuesday, November 22, 2011

जाट देवता [संदीप पंवार] के "क्यों" का जवाब देना बाक़ी है,मैं हर भारतीय को "स्मार्ट इंडियन" ही देखना चाहता हूँ

संदीपजी ने मुझसे पूछा था कि किसी फोलोअर के आने-जाने पर रुक कर सोचना मुझे क्यों ज़रूरी लगा?
इसका उत्तर मैंने अपनी पोस्ट में भी दिया था कि 'स्मार्ट इंडियन' के लम्बे, प्रतिक्रिया भरे, निरंतर संवाद के बाद उनका ओझल होना मैं एकाएक  पचा नहीं पाया, इसलिए मैंने उनकी चर्चा की थी. मैं मन ही मन यह भी सोच रहा था कि वे ज़रूर किसी तकनीकी कारण से 'अंतर्ध्यान' हुए हैं, अवश्य लौटेंगे. मैं सही था, वे फिर से मेरे साथ हैं.
अब मैं यह भी कहना चाहूँगा कि मैंने केवल अपने फोलोअर होने के नाते ही यह सब नहीं कहा, बल्कि उनके बारे में जितना भी जान पाया हूँ, मुझे लगता है कि वे केवल एक स्मार्ट भारतीय ही नहीं, वरन  एक आदर्श भारतीय भी हैं. स्मार्टनेस की परिभाषा एक लम्बे रेंज की बहुआयामी परिभाषा है, किन्तु इसका सर्वाधिक सकारात्मक रिफ्लेक्शन, या बल्कि उत्कीर्णन उनके व्यक्तित्व में है.
 वे अमेरिका के पिट्सबर्ग में रहते हैं, लेकिन वे अपने मानस में भारतीयता का वस्तु-तत्त्व सहेज कर रखे हुए हैं. उनपर अन्य कई बड़े साहित्यकारों वाला मुलम्मा नहीं है. वे विस्थापित मनस्विता के प्रवासी-यायावर नहीं हैं, वे अपने जीवन-संचय में मिट्टी, गंगाजल और स्मृतिबीज लिए हुए अपने  इच्छित स्थान पर बसे हुए हैं.वे भारतीयता की सघन नर्सरी "रसोई-बाग़' की सी आत्मीयता से लिए हुए हैं.
 मुझसे यह सब किसी और ने नहीं, बल्कि उन्ही की रचनाधर्मिता और प्रतिक्रियात्मक ऊष्मा ने कहा है जो उनकी जिजीविषा को उनके 'ब्लॉग्स' पर बिछाए हुए है.उनका 'स्पान ऑफ अटेंशन' आश्चर्यजनक रूप से व्यापक है.
अभी उनके बारे में इससे ज्यादा नहीं कहूँगा, वे सुन रहे हैं. उनके साहित्यिक कद को हम फिर कभी  माप कर देखेंगे.      

Monday, November 21, 2011

चीन के प्रति मौजूदा आशंकाएं १९६२ के युद्ध की स्वर्णजयंती से तो नहीं जुड़ीं?

१९६२ से पहले तत्कालीन चीनी प्रधान मंत्री चाऊ एन लाइ भारत की यात्रा पर आये थे. उनका स्वागत बहुत गर्मजोशी से हुआ. उन्हीं दिनों "हिंदी-चीनी भाई-भाई" का नारा बुलंद हुआ और बेहद लोकप्रिय हुआ. और कुछ  साल बाद समय ने ऐसा पलटा खाया कि भारत को चीन के साथ युद्ध की विभीषिका झेलनी पड़ी. इस युद्ध के दौरान चंद ऐसे विवाद उभरे,जिनका समाधान आजतक नहीं हो पाया है.
लेकिन भारत-चीन संबंधों में इसके बावजूद कोई बड़ी दरार नहीं पड़ी. दुनिया के ये  जनशक्ति में पहले और दूसरे फलते-फूलते देश अपनी अपनी रफ़्तार से प्रगति करते रहे.
इस वर्ष के बीतते-बीतते भारत और चीन अपने बीच हुए युद्ध की अर्धशती मनाते हुए उन दिनों को याद कर रहे होंगे. शायद यही कारण है कि कुछ लोगों ने संबंधों के बीच की खाई को फैलाना शुरू कर दिया है. चीन का तेज़ी से बढ़ता वर्चस्व और भारत का बढ़ती शक्ति के रूप में उदय इस अघोषित प्रतिद्वंदिता को और हवा दे रहा है. यदि वास्तव में इन दोनों के मध्य तनाव बढ़ा, तो कुछ बातें और लोगों का ध्यान खीचेंगी-
-अमेरिका के बाद नंबर दो की जगह रूस छोड़ चुका है, और यह जगह  फ़िलहाल ख़ाली है.
-चीन की महत्वाकांक्षा को यह बात और बल दे रही है कि भारत के साथ पाकिस्तान के रिश्ते न कभी सुधरे और न कभी सुधरेंगे.
-यूरोप के चंद संपन्न देश और जापान जैसे एशियाई देश आर्थिक उथल-पुथल के दौर से गुज़र रहे हैं.
-भारत की आन्तरिक स्थिति फ़िलहाल "हिंदी-हिंदी भाई-भाई" की भी नहीं है.यहाँ देश की सीमा के भीतर ही अलग-अलग मानसिकता के सुलतान और सल्तनतें पनप रहे हैं.
यह सभी बातें चीन के पक्ष में जाती हैं.      

Saturday, November 19, 2011

"तकनीक" ने याद दिला दिया बचपन

 बचपन में विशेष अवसरों पर स्कूल में एक खास खेल हुआ करता था. इसमें एक रस्सी में टॉफी या मिठाई, अक्सर जलेबी बाँध कर लटका दी जाती थी.क्लास के सबसे लम्बे लड़के या टीचर उस रस्सी को दोनों ओर से पकड़ कर खड़े हो जाते थे.बाकी सभी लड़कों के हाथ पीछे बाँध दिए जाते थे.फिर उछल-उछल कर मुंह से टॉफी या जलेबी को पकड़ना पड़ता था. जैसे ही मुंह लक्ष्य को छूने लगता था, रस्सी ऊपर उठा ली जाती, और मुंह मिठाई का स्वाद लेता-लेता रह जाता. उस समय इस तरह छकाए जाने पर भी एक आनंद आता था. बाद में मिठाई भी बाँट ही दी जाती थी. लेकिन कुछ लड़के जो अपने मुंह से मिठाई लपकने में सफल रहते, उनकी बात ही कुछ और होती थी, वे ही सिकंदर माने जाते थे.
कभी-कभी लगता है कि बचपन का वही खेल अब 'तकनीक'खेल रही है. निश्चित रूप से बच्चों और युवाओं को इसमें मज़ा आ रहा होगा, पर हम जैसे लोगों को बार-बार मिठाई छिन जाने का अहसास हो रहा है.हम रोज़ बदलती तकनीक को जैसे तैसे सीख कर थोड़ा सा अपनाने की कोशिश करते हैं, कि झट से नई प्रणाली आकर फिर हमें पुराना कर देती है.कंप्यूटर  और मोबाइल की विलक्षण दुनिया का इस्तेमाल हमारे जैसे उम्र-दराज़ लोग बहुत थोड़ा, ५-७ प्रतिशत ही कर पाते हैं.लेकिन यह प्रणालियाँ इतनी जीवनोपयोगी हो गईं हैं कि इनके बिना काम भी नहीं चलता. इस तरह नई पीढ़ी ने हमें चालाकी से जीवन-पर्यंत 'सीखने वाला' ही बना छोड़ा है.बच्चे सिखाने वाले, और बड़े सीखने वाले बन गए हैं. यह अच्छी बात ही है, पर...
कभी-कभी हमारे मन में भी बगावत जन्म लेती है. हम अपना मिट्टी में खेलने वाला, खेतों में दौड़ने वाला, सबसे हंसने-बोलने वाला, दूसरों के गाने सुनते रहने की बजाय अपने गाने गाने वाला, तितलियों के पीछे भागने वाला, परदेस गए आदमी के समाचारों का इंतज़ार महीनों तक करने वाला,नदी-पोखरों में घंटों तैरने वाला, बेसाधन रसोइयों में घंटों खपा कर तैयार होने वाली रोटियों को खाने वाला और खुली छतों पर सोने वाला  बचपन याद करते हैं. कभी तो ऐसा हो कि दोस्त की आवाज़ सुनने को महीनों इंतजार करना पड़े. कभी तो आँखें गली में दूर से चिट्ठी लेकर आते पोस्टमैन के लिए बेचैन  हों?       

Friday, November 18, 2011

मैं ही नहीं, मेरे अन्य पढ़ने वाले भी व्यथित हैं "स्मार्ट इंडियन" की गैर-मौजूदगी से

मैं हमेशा से इस बात का कायल रहा हूँ कि लिखने वालों को अपने दिल की बात लिखनी चाहिए, इस बात पर नहीं जाना चाहिए कि इसे कौन पढ़ेगा,पढ़ कर क्या सोचेगा या क्या प्रतिक्रिया देगा. इसी तरह बोलने वालों, चित्रकारी करने वालों,या किसी भी कला के प्रस्तुत करने वालों को सोचना चाहिए.
लेकिन कभी-कभी ऐसा नहीं हो पाता.आपका ध्यान अपने पढ़ने-सुनने वालों पर इतनी तन्मयता से जाने लगता है कि अगर वो बीच में उठ कर चले जाएँ, तो आपका ध्यान या एकाग्रता भंग हो ही जाते हैं. ऐसे अवसर पर एक बार आपको रुक कर सोचना ज़रूर चाहिए.
मैं लगभग डेढ़ साल से अपने ब्लॉग पर नियमित हूँ. इस बीच फोलोअर के रूप में "स्मार्ट इंडियन' से मेरा लगभग सतत संवाद रहा है. वे लगातार अपनी प्रतिक्रिया सार्थक टिप्पणियों के रूप में मुझे देते भी रहे हैं. पिछले कुछ दिनों  से उन्हें अपने ब्लॉग पर न पा कर मैं कुछ विचलित हुआ.किन्तु मैं अपनी इस दुविधा को छिपा गया और लगातार लिखता रहा. किन्तु आज मैं देख रहा हूँ कि दूसरे देश से मुझे पढ़ने वाले मेरे पाठक भी मेरी विचार-श्रृंखला में से उन बिन्दुओं को ढूंढ रहे हैं, जो मैंने स्मार्ट इंडियन के आह्वान पर लिखे थे.
अब इस विषय पर सोचने के लिए मेरे पास कुछ नहीं है. मैं केवल यह कहूँगा कि ब्लॉग पर किसी फोलोअर का आना- जाना बहुत से कारणों से हो सकता है. उनकी व्यस्तता, कोई तकनीकी कारण, उनका ऊब जाना, कोई भी कारण हो सकता है.  

Thursday, November 17, 2011

हीरों की खान में सतीश कौशिक

यह कई सालों से होता रहा है कि देश के छोटे नगरों- गांवों  से लोग फिल्म जगत से जुड़ने के लिए मुंबई जाते हैं. यह भी होता रहा है कि अच्छी कहानियां और लोकेशनें तलाशने के लिए निर्माता-निर्देशक लालायित रहते हैं. और ऐसी भी कई मिसालें मौजूद हैं कि अभिनेताओं-अभिनेत्रियों  के कपड़े-गहने तैयार करने वाले भी देश-विदेश का रुख करते हैं.
निर्माता सतीश कौशिक राजस्थान में एक भव्य टेलेंट-हंट आयोजित कर रहे हैं, जिसमें ८ से लेकर ६० साल तक के लोगों को ऑडिशन के लिए आमंत्रित किया गया है. इसे लेकर इन दिनों अच्छा-खासा उत्साह है.
जीवन में बहुत सारे ऐसे मुकाम आते हैं जब लगता है कि सामने कोई कैमरा होता तो यादगार फिल्मांकन हो सकता था. हर बस्ती में चलते-फिरते लोगों को ध्यान से देखिये, क्या आपको इनमें बड़े और खूबसूरत सितारों की झलक नहीं मिलती? कितना ताजगी भरा होगा ऐसा चयन?
अरसे से ऐसा हो रहा है कि स्टार बनाये और उतारे जा रहे हैं. वे स्टारों के घर में ही होते हैं, केवल समय पर पेश किये जाते हैं. ऐसे में जीवन के वास्तविक  "स्टारों" को तलाशना ज़रूर सुखद और सम्भावना भरा होगा.
  

काटजू, वैदिक और आम आदमी

पूर्व न्यायाधीश जस्टिस काटजू को सेवा निवृत्ति के बाद प्रेस परिषद् का अध्यक्ष बनाया गया है. उन्होंने पद सम्हालते ही कहा कि मीडिया अपने सरोकारों को ठीक से नहीं निभा रहा है अतः पत्रकारों को भी चंद  दिशा-निर्देशों के तहत काम करने की ज़रुरत है.
इस पर प्रतिक्रिया देते हुए वरिष्ठ पत्रकार  वेद प्रताप वैदिक ने कहा कि देश के न्यायाधीश भी कौन से दूध के धुले हैं, वे भी तो समय-समय पर गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार के दोषी पाए गए हैं.
ऐसे बयान और इन बयानों पर आने वाली प्रतिक्रियाओं को निगलने या उगलने से पहले हमें एक बात पर और ध्यान दे लेना चाहिए. हमारे देश में लगभग अस्सी प्रतिशत लोग, चाहे वे डाक्टर हों, पत्रकार हों, शिक्षक हों, व्यापारी हों, अफसर हों, कर्मचारी हों, इंजिनियर हों,वकील हों, या किसी और पेशे के लोग हों, वे अपनी मानसिकता में लगभग आमआदमी ही हैं. वे कमाने-खाने के हिमायती हैं. जीवन की आधारभूत ज़रूरतें इनकी आधारभूत ज़रूरतें हैं, चाहे वे सीमा में हों या असीमित.
लगभग दस प्रतिशत लोग औसत से अधिक अच्छी मानसिकता वाले हैं.
इसी तरह लगभग दस प्रतिशत लोग औसत से ख़राब मानसिकता वाले, सरके हुए लोग हैं.
अब जब किसी को भी, किसी के भी बारे में, कुछ भी कहना होता है, तो वह आराम से कह सकता है.
उसके पास अपनी बात सिद्ध करने के लिए हर तरह का उदाहरण मौजूद है. जब वह किसी की शान में कसीदे काढना चाहेगा, तो वह उस पेशे के अच्छे लोगों की मिसाल दे देगा.इसी तरह जब वह किसी की बखिया उधेड़नी चाहेगा तो उस पेशे के ख़राब लोगों की मिसाल दे देगा. इस तरह कहने वाला कुछ भी कहता रह कर कहता चला जायेगा और कहता चला जायेगा, आपमें जितना धैर्य हो सुन लें.    














Wednesday, November 16, 2011

बधाई 'गुड्डी'को भी

ऐश्वर्या का अभिषेक होने पर जो तोहफा दुनिया को मिल सकता है, वह मिल गया. लेकिन सारी बधाइयाँ दादाजी ही बटोर ले जाएँ, ये कहाँ तक ठीक है? सबसे बड़ी बधाई तो दादी जया जी को है, जिनकी गोद में इस नन्ही गुडिया को सबसे ज्यादा दुलार मिलेगा. इसके मम्मी-पापा-दादा तो व्यस्त सुपर-सितारे हैं, साथ में तो दादी ही खेलने वाली हैं. बधाई की एक अंजुरी डॉ हरिवंश राय बच्चन को भी, जिन्होंने एक बार मुझसे कहा था कि बहती नदी की ही तरह इन्सान को भी अपनी आगामी पीढ़ियों में बहना अच्छा लगता है. यह बात उन्होंने उमर खैय्याम की रुबाइयों की गंध  के बह कर "मधुशाला" में चले आने के सन्दर्भ में कही  थी. 

घर के लोग अलग कमरा मांगें तो यह अच्छी व्यवस्था है, अलग रसोई मांगने लगें, तो दाल में का...

कुछ साल पहले भारत के तीन राज्यों को 'बहुत बड़ा' कह कर विभाजित किया गया था. इस कदम को प्रशासनिक सुगमता की द्रष्टि से अच्छा भी माना गया.इन राज्यों से निकले टुकड़ों ने विकास में तत्परता भी दिखाई है.
अब इसी पूर्व-विभाजित उत्तर प्रदेश के चार टुकड़े करने की बात कही जा रही है. यदि यह केवल तेज़ी से विकास करने के लिए और प्रशासन की छोटी इकाइयों में बांटने के लिए किया जा रहा है, तो इसमें कोई बुराई नहीं दिखती.लेकिन इन परिस्थितियों के पीछे एक बहुत बड़ा सच और छिपा है, इसे नकारा नहीं जा सकता.
पिछले साठ सालों में विज्ञानं और तकनीक ने जो प्रगति की है वह यदि किसी जगह ठीक से अपनाई  न जाये तभी यह स्थिति आ सकती है कि राज्य बड़े दिखाई दें. वरना तो दुनिया दिनोदिन छोटी हो रही है.कई देशों ने तो हजारों मील दूर जाकर सत्ता सम्हाली है.
अब घर-घर में ही नहीं, हर आदमी के पास फोन है. तकनीक के सहारे एक देश में बैठा आदमी दूसरे देश के आदमी से आमने-सामने बात कर सकता है. पलक झपकते ही दुनिया को जोड़ने वाले संचार और हवा को मात देने वाले  यातायात के साधन उपलब्ध हैं. ऐसे में शासन के लिए देशों,राज्यों या शहरों  को तोड़ना केवल वहीँ हो सकता है, जहाँ सत्ताधीश हर सुबह अपने हर अधिकारी-कर्मचारी को हाथ में गुलदस्ते लेकर अपने दरवाजे पर खड़ा देखने के आदी हों.कमरे अलग होना,कहीं  रसोई अलग हो जाने का कारण न बनें?    

Tuesday, November 15, 2011

इस गिनती में आगे निकलने का सपना देखे हर भारतवासी

क्या आप किसी ऐसे देश की कल्पना कर सकते हैं, जहाँ हर सौ में से ८८ लोग उच्च शिक्षित हों, अर्थात कॉलेज की पढ़ाई कर चुके हों?सोचिये कैसा 'साहबों' का देश होगा वो? लगभग हर आदमी समझदार, खासा पढ़ा-लिखा. बुद्धि से भरपूर, अपने जीवन के सही फैसले लेने वाला.
"कनाडा" ऐसा ही देश है. लगभग यही ऊँचाई अमेरिका के पास भी है. यहाँ सौ में से ८१ लोग ऐसा नसीब रखते हैं कि उन्हें कॉलेज की तालीम मिली है. आस्ट्रेलिया में यह आंकड़ा ७९ है. फ़्रांस में ५२ और इंग्लैण्ड में ५०.
अब बात करें भारत की.
१०० में से १२ लोग ऊंची पढ़ाई का यह फल चख चुके हैं, और विपक्षी दलों का कहना है कि सरकार ने यह आंकड़ा बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया है. आज से २० साल पहले यह आंकड़ा केवल ४ था. कहा यह जा रहा है कि अब सरकार ने उच्च-शिक्षा पर जो खर्चा कर दिया, उसके अनुपात में ही यह संख्या १२ बताई जा रही है, पर वास्तव में यह उपलब्धि भ्रष्टाचार के दलदल में फंस कर आधी रह गई है.
इसमें से भी यदि लड़कियों की शिक्षा की बात की जाएगी, तो शायद वह आरोप लग जायेगा, जो 'स्लमडॉग मिलेनियर', 'मदर इंडिया' या सत्यजित राय पर लगा था- "देश की छवि खराब की जा रही है."
लेकिन इस मुद्दे पर चुप होते-होते भी मन में यह ख्याल तो है कि इस गिनती में आगे निकलने का सपना देखे हर भारतवासी.    

Monday, November 14, 2011

फूल बनें अंगारे बनाम कहावतों का युग-बोध

बाल दिवस तो दुनिया भर के बच्चों का त्यौहार है, बच्चों ने इसे उमंग और उल्लास से मनाया भी, मगर 'बड़ों' के चेहरे इस दिन भी कुम्हलाये रहे, क्योंकि यह उन जवाहर लाल नेहरु का जन्म दिन था, जो कभी भारत के प्रधान मंत्री थे. अब तो वे केवल देश के पड़नाना हैं. दफ्तरों में टांगने के लिए तो हर पार्टी के पास अपने-अपने पूर्वजों की तस्वीरें हैं. हमारी इसी बटी-बिखरी भावना ने बालदिवस की गरिमा को भी  खंडित कर दिया है. कल यही बात कहनी चाही थी मैंने.
आज फूलपुर से यूपी के चुनावों का बिगुल बजता भी सुनाई दिया. गनीमत यह है कि बच्चे 'वोटर" नहीं हैं, वर्ना उन्हें बालदिवस का यह तोहफा ज़रूर नागवार गुज़रता. बच्चों को कुछ नापसंद हो तो फूलों को अंगारे बनते भी देर नहीं लगती. अंगारे सिर्फ दीपावली पर ही अच्छे लगते हैं, बाकी दिनों में तो ये बड़ी खतरनाक चीज़ है, हाथ से  छू भी जाएँ तो हाथ जल जाता है.खैर, हाथ और फूल का ये खेल तो पुराना है.
कहते हैं कि समय के साथ साथ सब बदल जाता है, भाषा भी, व्याकरण भी और कहावतें भी. जो लोग तेल की बढ़ती कीमतों से खुश होकर सोच रहे थे कि अब न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी, वे ये देख कर हैरान हैं कि तेल अब 'मन' में नहीं 'लीटर' में बिक रहा है और राधा की दिलचस्पी नाचने में नहीं, नचाने में है.  

Sunday, November 13, 2011

सूर्य के प्रकाश में

सुबह-सुबह पड़ोस में रहने वाले मित्र बता रहे थे कि उनका बेटा क्रिकेट की बाल लाने के लिए पैसे मांग कर बाज़ार चला गया.
सामने रहने वाले सज्जन से भी बात हुई, वे कह रहे थे आजकल पानी का प्रेशर बड़ा कम हो गया है, उनकी पत्नी बाथरूम में बाल धो रहीं थीं कि पानी चला ही गया.
मेरे एक मित्र दोपहर को आगये, बोले- इस तरफ आया था बाल कटवाने, तो आपकी तरफ भी मिलने चला आया.
आज रविवार था, यानि सन्डे, इस लिए सूर्य के प्रकाश में सभी ने अपने-अपने काम निबटा लिए- मेरे एक मित्र फोन पर बोले- मेरी बेटी के स्कूल में कल कोई फंक्शन है, उसके लिए बेटी कोई कविता मांग रही है, यदि बाल-साहित्य की कोई पत्रिका हो तो उन्हें देदूं.
मैं सोच में पड़ गया-"बाल दिवस" तो कल है, ये इन सब को आज क्या हो गया?   

इंसान सब कुछ नहीं है

ये कैसा कथन है?
दुनिया में इंसान के बिना क्या है? दुनिया का कौनसा ऐसा काम है जो इंसान के बिना होता है? करोड़ों सालों से ब्रह्माण्ड में कितने ही ऐसे ग्रह-नक्षत्र हैं, जो तरह-तरह की शक्तियां और प्राकृतिक ऊर्जा लेकर भी आकाश में सूने झूल रहे हैं, क्योंकि वहां इंसान नहीं है. उनका नाम रखने वाला तक कोई नहीं है, क्योंकि वहां इंसान नहीं है. इसका मतलब दुनिया में इंसान यानि आदमी ही सब कुछ है.
लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि स्विस फाउंडेशन ने ५ साल में १० लाख लोगों की राय से २२० देशों के ४४० स्थानों में से जिन "सात आश्चर्यों" को चुना है, वे सभी इंसानी मदद के बिना ही बने हैं.
चालीस हज़ार से ज्यादा किस्मों के पेड़-पौधे,तीन हज़ार से अधिक प्रजातियों की मछलियाँ और लगभग चार सौ तरह के रेंगने वाले जीव, इनमें से किसी का भी इंसानों से कोई लेना-देना नहीं. ब्राज़ील, वेनेज़ुएला, इक्वेडोर और पेरू की अरबों एकड़ ज़मीन में फैला यह नज़ारा दुनिया का सबसे आश्चर्यजनक स्थान आँका गया है.अमेज़न का यह जंगल किसी भी इंसान की मिल्कियत का हिस्सा नहीं है.
अब इस पर इंसान की नज़रे-इनायत हुई है, देखें, कब तक बचती है इसकी साख और धाक?  

Saturday, November 12, 2011

हम कौन सी तारीख को अच्छा और कौन से साल को बुरा कह दें?

सात अरब लोग जिस दुनिया में रह रहे हों, उसका कौन सा क्षण भला और कौन सा बुरा? क्या कोई ऐसी घड़ी है, जिस समय इन सभी का हित हो रहा हो? क्या कोई ऐसा काल है जब सब केवल दुखी या त्रस्त हों? कभी कोई ऐसा दिन आया जब सबकी मनोकामना पूरी हुई?
क्या धरती का कोई कोना ऐसा है जहाँ केवल सुख बसते हों? क्या कोई ऐसा देश है जिसने विपदा नहीं झेली?
तब कलेंडर हमें इतना उतावला क्यों बना देते हैं.
हाँ, एक दिलचस्प खेल, एक मज़ेदार संयोग के रूप में हम इस संयोग का स्वागत करें.
मेरी तो बात ही अधूरी रह गई इस दिन. न जाने क्या हुआ, न फोन चला न इंटरनेट. मैं इसीलिए कह रहा था कि आती-जाती रौनकें वक्त की पाबंद हैं, वक्त ही फूलों की सेज है और वक्त ही काटों का ताज.आदमी को चाहिए, वक्त से डरकर रहे.
ये फलसफा जो मैं आपको बता रहा हूँ, यह हमें बहुत सारे ऐसे लोगों की याद दिलाता है, जो अब हमारे बीच नहीं हैं.राज कुमार, सुनील दत्त, बलराज साहनी...
लेकिन इनके न होने से दुनिया रुकी नहीं है, अमिताभ बच्चन, शाहरुख़ खान, आमिर खान, सलमान खान, ऋतिक रोशन, अक्षय कुमार, सैफ अली, शाहिद कपूर, अजय देवगन, रणबीर कपूर हैं न.   

वक्त की पाबन्द हैं, आती-जाती रौनकें

कल तारीखों का एक अद्भुत संयोग आया था. सदी का ११वा साल,साल का ११वा महीना, महीने का ११वा दिन. मैंने सोचा था इस मौके में दिन का ११वा घंटा और घंटे का ११वा मिनट भी जोड़ कर, आपसे कुछ ख़ास बात करूँ. 

Tuesday, November 8, 2011

मेहनत तो जिंदगी का गहना है

जिंदगी में मेहनत ज़रूरी है. चाहे जीवन को भाग्य के सहारे काटिए, चाहे कर्म के सहारे, श्रम तो हर हाल में सभी को करना ही पड़ता है. 
जिस उम्र में आदमी घर पर नहाने-धोने के लिए भी बाल-बच्चों के कंधे का सहारा लेकर जाने लगता है, उस उम्र में अडवाणी जी सड़क पर देश को झिंझोड़ते हुए घूम रहे हैं.जिस उम्र में आदमी बोलने में अपनी आवाज़ नहीं बढ़ा पाता, उस उम्र में डॉ मनमोहन सिंह देश में महंगाई बढ़ा रहे हैं. 
जयललिता, ममता और मायावती उन राज्यों को गुड़िया की तरह खिला रही हैं जो कभी आसानी से किसी के काबू में नहीं आये.इंजीनियर, वैज्ञानिक और अफसर बनने के लिए बच्चे अठारह-अठारह घंटे पढ़ाई कर रहे हैं. देश की सीमाओं को सुरक्षित रखने के लिए सैनिक घंटों जी-जान से जुटे रहते हैं. 
यहाँ तक कि अपनी फिल्मों को सफल बनाने के लिए फ़िल्मी-सितारे तक कड़ी मेहनत कर रहे हैं. कैटरीना कैफ तो 'धूम-३' में अपने को तैराकी की पोशाक के लिए फिट बनाने को खूब फल खा रही हैं, खूब पानी पी रही हैं, खूब नींद ले रही हैं.
मेहनत से कौन बच सकता है, कांस्टेबल हो या कैटरीना?   

Monday, November 7, 2011

मैंने कहा था

यदि आज की मेरी पोस्ट पढ़ रहे हैं, तो कृपया मेरी  एक अगस्त की पोस्ट भी पढ़ लीजिये. तीन महीने सात दिन पहले मैंने दक्षिण अमेरिका के सौंदर्य के बारे में कुछ कहा था. इसमें मैंने खास हवाला दिया था वेनेज़ुएला का. 
पिछले रविवार को मिस वेनेज़ुएला इवियन लुनासोल सार्कोस २०११ की "मिस वर्ल्ड" चुन ली गईं. 
मैं जब वेनेज़ुएला के सौंदर्य की परिभाषा, वहां की सौंदर्य द्रष्टि और उनके मानदंडों की बात कर रहा था, तब तक यह वेनेज़ुएलाई सुंदरी मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए अपने देश से बाहर भी नहीं निकली थी. रनर-अप मिस फिलिपीन्स और मिस प्युर्टोरिको के साथ इवियन का विजेता बनना संयोग भी हो सकता है, किन्तु अपनी बात मैं फिर दोहराता हूँ कि दक्षिण अमेरिका के कुछ देशों में , जिनमें वेनेज़ुएला या चिली अग्रणी हैं, सुन्दरता की व्यक्तित्व-जनित वास्तविकता को काफी पहले पहचान लिया गया  है. यहाँ महिलाएं अंग-विन्यास के लिए मशक्कत नहीं कर रहीं, बल्कि उन बातों को सहजता से अंगीकार कर रही हैं जो गरिमामय औरत होने के लिए स्वाभाविक हैं. 
स्पर्धाओं में संयोगों को भी नकारा नहीं जा सकता. हमारी नाम-ज्योतिष की अवधारणा भी बिलकुल बेबुनियाद तो नहीं कही जा सकती. भारत सुंदरी 'कनिष्ठा' विजेता-क्रम में काफी कनिष्ठ, अर्थात जूनियर रहीं. 

Sunday, November 6, 2011

ग्रेटा गार्बो, मर्लिन मुनरो, एलिज़ाबेथ टेलर, एश्वर्या राय और सोफिया लॉरेन में तीन बातें समान

इतिहास के एक लम्बे दौर में समानताएं तलाश करना मुश्किल काम है. फिर यदि इतिहास भी पूरे विश्व का हो तो यह काम और भी कठिन हो जाता है. लेकिन अनुसन्धान करने वालों के लिए कुछ भी मुश्किल नहीं है. ऑस्ट्रेलिया के एक अनुसन्धान दल ने यह मुश्किल काम कर दिखाया है. इस दल में दो सदस्य हैं. ये दोनों ही पी.एच.डी.की डिग्री के अब संयुक्त पात्र बन चुके हैं. 
इन्होने मेक्सिको, स्वीडन, फ़्रांस और स्कॉटलैंड में किये अपने गहन अध्ययन से यह दुर्लभ और आश्चर्यजनक निष्कर्ष निकाला है कि ये पाँचों हस्तियाँ महिला हैं. 
इनका अध्ययन महिला सशक्तिकरण पर नहीं था, न ही इनका कुछ लेना-देना वीमेंस इश्यूज से था. इनके तो सामान्य सार्वभौमिक अध्ययन में यह अद्भुत निष्कर्ष निकल कर आया. 
इन शोधकर्ताओं ने  इस रहस्य पर से पर्दा उठाने में भी सफलता पाई है कि ये सभी महिलाएं कभी न कभी सिनेमा के क्षेत्र से जुड़ीं. इनकी सफलता-असफलता शोध कर्ताओं के अध्ययन का केंद्र नहीं थी, केवल यह संयोग ही कहा जायेगा कि ये पाँचों स्त्रियाँ अभिनय के क्षेत्र में दखल रखने वाली निकलीं. 
इनकी समानता इस तथ्य पर भी विस्मित करने वाली निकली कि ये सभी बनावटी सौन्दर्य को नापसंद करने वाली निकलीं. ये सभी शोध-कर्ताओं के अध्ययन में नैसर्गिक सुडौलता की कायल पाई गईं. 

Friday, November 4, 2011

सलमान, आमिर और आसिफ यहाँ भी हैं, और वहां भी

सूरज और चन्द्रमा ग्रह हैं, इंसान नहीं. और इस बात के लिए ईश्वर को लाख-लाख धन्यवाद. दुनिया बनाते समय ईश्वर के पास कोई अनुमोदित ब्ल्यू-प्रिंट तो था नहीं. यह भी हो सकता था कि आसमान में घूमने का काम भी इंसान ही करें. सूरज और चन्द्रमा होते ही नहीं. और होते भी तो उन्हें कोई और काम दे दिया जाता. हो सकता है कि वे किसी शॉपिंग माल के वाचमेन होते. 
और तब हमें कभी भी सुनने को मिलता कि आज सूरज ने किसी से पैसे ले लिए और वह उत्तर से उग गया. आज चाँद बीमारी का बहाना बना कर काम पे नहीं आया, इसलिए रात अँधेरी है. 
निदा फाजली के अनुसार जो यहाँ है, वही वहां भी है.
कभी किसी  ने कहा था कि खेल को खेल की भावना से खेलो. शायद खेल की भावना यही है कि खेल में भी "खेल" खेलो? 
क्या टूथ-पेस्ट की  ट्यूब से निकला मंजन वापस ट्यूब में डाला जा सकता है? क्या किसी स्टेडियम में बैठे हजारों दर्शकों की रोमांच भरी तालियों की गड़गड़ाहट को चंद सालों के बाद  वापस 'पिन ड्रॉप साइलेंस' में बदला जा सकता है? अरे, ये तो बहुत दूर की बात है, नोटों की वो गड्डियां ही उन जेबों से कोई निकाल कर बताये, जिनके लिए ये सारा खेल रचा जाता है. 

Thursday, November 3, 2011

मेयर और शेरिफ कोयले की खदान में हाथ काले करने वाले पद नहीं हैं

लोकतंत्र में सत्ता पांच साल के लिए 'बंटती' है. पांच साल तो बहुत छोटी सी अवधि है, इसमें तो कुए के मेंढक कुए में ही ढंग से तैरना नहीं सीख पाते, दूर-दराज के नदी-नालों की तो बात ही दूसरी है. मेरा मतलब यह है कि हर विजयी सत्ता इतना समय तो अपनी पार्टी के बारे में सोचने, अपनी गोटियाँ बैठाने और अगले चुनाव के लिए गोदाम भरने में ही निकाल देती है.दूसरों की ओर देखने की फुर्सत ही उसे नहीं मिल पाती.
इसीलिए बहुत सोच-समझ कर शासन में थोड़ी तटस्थता और निष्पक्षता रखने के लिए बड़े शहरों में कुछ मान-मर्यादा,बड़प्पन और शालीनता के  पद भी सामानांतर रूप से बनाये गए हैं,जो सांसदों और विधायकों की पार्टी-बाज़ी से शहरी क्रिया-कलापों को बचाए रख सकें. मेयर या शेरिफ ऐसे ही पद हैं. संभ्रांत, शिष्ट और सम्मानित सर्वमान्य लोग इन पदों पर आसीन हों और हर कार्य-समारोह की गरिमा बनाये रखें. इन पदों  पर ऐसे लोगों के "मनोनयन" की कल्पना की गयी थी जो सर्वस्वीकृत तो हों, पर चुनावी राजनीति में दिलचस्पी नहीं रखते हों. राजनीतिज्ञ तो हर बात को पार्टी चश्मे से देखने के अभ्यस्त होते हैं. 
किन्तु कुछ समय से देखने में आ रहा है कि राजनैतिक दलों की गिद्ध द्रष्टि इन पदों पर भी लग गई है. सत्ता के मद में यह पार्टियाँ इन पदों को भी जोड़-तोड़ और उखाड़-पछाड़ से हड़पने में जुट गई हैं, ताकि इन के लिए स्वीकृत बजट और सुविधाएँ भी निगल सकें. परिणाम-स्वरुप इन पर आये दिन ऐसे लोगों की नियुक्तियां हो रही हैं कि इनकी गरिमा बचना तो दूर, इन पर रोज़ कीचड़ उछल रही है. 
निर्दोष लोगों पर फटने वाले ज्वालामुखी, बेगुनाह लोगों का जीवन लीलने वाला आतंकवाद, निरीह लोगों के घर ध्वस्त करने वाले भूकंप, ऐसी सोच रखने वाले राजनीतिज्ञों को क्यों  छोड़ देते हैं?    

Wednesday, November 2, 2011

चीन को हार्दिक शुभकामनायें, भारत को हार्दिक शुभकामनायें

दोनों देशों को शुभकामनायें देने का यह अर्थ कदापि न निकाला जाये कि दोनों के बीच कोई घमासान, विवाद या अनबन की आशंका है. अभी ऐसा कुछ भी नहीं है. भगवान करे ऐसा कभी कुछ भी न हो.
और यदि ऐसी किसी आशंका के चलते शुभकामनायें दी भी जाएँगी तो किसी एक को ही दी जाएँगी न? किसी झगड़े में दोनों को जीतने की दुआ भला कौन देता है? हाँ, केवल एक ही स्थिति में दोनों पक्षों को जीतने का आशीर्वाद दिया जाता है. केवल तब, जब लड़ने वाले दोनों सगे भाई हों, और आशीर्वाद देने वाले बूढ़े माँ-बाप. 
फिर यहाँ तो कोई झगड़ा है भी नहीं.इसलिए इन शुभकामनाओं का लड़ाई-झगड़े से कोई लेना-देना नहीं है. 
असल में बात यह है कि कुछ लोग बात-बात में चीन और भारत को कोसते हैं, इन दोनों देशों की जनसँख्या को लेकर. जब भी विकास की बात आती है तो ये लोग मानते हैं कि इन दोनों देशों में सारी समस्याओं का कारण इनकी ज्यादा जनसँख्या ही है.अभी जब विश्व की जनसँख्या सात अरब के पार पहुंची, तो फिर कई लोगों ने चीन और भारत को हिकारत की नज़र से देखा. क्योंकि संसार की कुल जनसँख्या का  पैंतीस प्रतिशत से अधिक हिस्सा तो इन्हीं दोनों के खाते में है. मानव संसाधन के इस आधिक्य को दुनिया की उन्नति में रोड़ा बताया जा रहा है. 
यह ठीक है कि जनसँख्या पर नियंत्रण होना ही चाहिए, मगर केवल जनसँख्या ही सब समस्याओं की जड़ है, ऐसा मानने वालों को [जिनमें अक्सर मैं खुद भी  शामिल हो जाता हूँ] एक और तथ्य पर ध्यान देना चाहिए. 
दुनियां में अगर किसी धरती पर जनाधिक्य है, तो वह सबसे ज्यादा सिंगापूर में है. एक किलोमीटर के दायरे में सात हज़ार से ज्यादा लोग वहां रहते हैं. जनसँख्या का यह सर्वाधिक घनत्व सिंगापूर को सर्वाधिक सम्पन्न, विकसित और आधुनिक होने से नहीं रोक पाया है. यदि इस उदाहरण से भारत और चीन कोई प्रेरणा लेना चाहें तो दोनों को ही हार्दिक शुभकामनायें.    

Tuesday, November 1, 2011

किफायती अम्बानी जी और फ़िज़ूलखर्च राजू

राजू मेरा बहुत पुराना परिचित है. बल्कि कुछ साल पहले तो उसने मेरे पास काम भी किया था. वह मेरे बन रहे मकान का कुछ दिन केयर-टेकर रहा था. लेकिन मेरे पास उसे पैसा बहुत कम मिलता था. वह कहता था कि इस से तो उसका जेब-खर्च भी नहीं चलता. इसीलिए उसने काम छोड़ दिया. शायद उसने कोई दूसरी नौकरी पकड़ ली. 
एक दिन मिल गया. उसके हाथ में अखबार में लिपटा एक पैकेट था.मेरे पूछने पर बताने लगा- अभी-अभी बाज़ार से एक बनियान खरीदी है. 
क्यों, तूतो कहता था, कि बनियान खरीदना फ़िज़ूल-खर्ची है, गर्मी में खाली शर्ट से काम चल जाता है.मैंने कहा. 
वह सकुचाता हुआ बोला- ऐसे ही बाज़ार से गुज़र रहा था, सामने टंगी दिखी तो खरीद ली.वह अखबार का पैकेट खोल कर दिखाने लगा. 
मैंने आदतन अखबार ले लिया और चलते-चलते सरसरी तौर से पढ़ने लगा. वह बात करता साथ चल रहा था. 
अखबार में मुंबई में मुकेश अम्बानी के उस बहु-मंजिला गगन-चुम्बी मकान का फोटो था, जिसे दुनिया की  सबसे कीमती रिहायशी बिल्डिंग बताया जा रहा था. खबर थी कि कई अरब की इस इमारत में किसी वास्तुविद ने कुछ खामी बता दी थी, जिसके कारण इसमें फिर से रद्दोबदल की जा रही थी.
मुझे मकान मालिक से थोड़ी हमदर्दी हुई. "घर" तो इंसान की मूल-भूत ज़रुरत है. इसे तो बनाया ही जाना चाहिए. साथ ही मुझे यह देख कर और भी अच्छा लगा कि अम्बानी जी वास्तुविद के कहने से इसे ठीक करवा रहे हैं. क्योंकि वास्तु शास्त्र के हिसाब से नहीं बना मकान नुक्सान दे सकता है. इसे दुरुस्त करवा लेना नुक्सान से बचने की, यानि किफ़ायत से चलने की निशानी है. 
मैंने झट से अखबार राजू को लौटा दिया, कि कहीं वह मुझे मांग कर अखबार पढ़ने वाला कंजूस न समझे.    

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...