बचपन में विशेष अवसरों पर स्कूल में एक खास खेल हुआ करता था. इसमें एक रस्सी में टॉफी या मिठाई, अक्सर जलेबी बाँध कर लटका दी जाती थी.क्लास के सबसे लम्बे लड़के या टीचर उस रस्सी को दोनों ओर से पकड़ कर खड़े हो जाते थे.बाकी सभी लड़कों के हाथ पीछे बाँध दिए जाते थे.फिर उछल-उछल कर मुंह से टॉफी या जलेबी को पकड़ना पड़ता था. जैसे ही मुंह लक्ष्य को छूने लगता था, रस्सी ऊपर उठा ली जाती, और मुंह मिठाई का स्वाद लेता-लेता रह जाता. उस समय इस तरह छकाए जाने पर भी एक आनंद आता था. बाद में मिठाई भी बाँट ही दी जाती थी. लेकिन कुछ लड़के जो अपने मुंह से मिठाई लपकने में सफल रहते, उनकी बात ही कुछ और होती थी, वे ही सिकंदर माने जाते थे.
कभी-कभी लगता है कि बचपन का वही खेल अब 'तकनीक'खेल रही है. निश्चित रूप से बच्चों और युवाओं को इसमें मज़ा आ रहा होगा, पर हम जैसे लोगों को बार-बार मिठाई छिन जाने का अहसास हो रहा है.हम रोज़ बदलती तकनीक को जैसे तैसे सीख कर थोड़ा सा अपनाने की कोशिश करते हैं, कि झट से नई प्रणाली आकर फिर हमें पुराना कर देती है.कंप्यूटर और मोबाइल की विलक्षण दुनिया का इस्तेमाल हमारे जैसे उम्र-दराज़ लोग बहुत थोड़ा, ५-७ प्रतिशत ही कर पाते हैं.लेकिन यह प्रणालियाँ इतनी जीवनोपयोगी हो गईं हैं कि इनके बिना काम भी नहीं चलता. इस तरह नई पीढ़ी ने हमें चालाकी से जीवन-पर्यंत 'सीखने वाला' ही बना छोड़ा है.बच्चे सिखाने वाले, और बड़े सीखने वाले बन गए हैं. यह अच्छी बात ही है, पर...
कभी-कभी हमारे मन में भी बगावत जन्म लेती है. हम अपना मिट्टी में खेलने वाला, खेतों में दौड़ने वाला, सबसे हंसने-बोलने वाला, दूसरों के गाने सुनते रहने की बजाय अपने गाने गाने वाला, तितलियों के पीछे भागने वाला, परदेस गए आदमी के समाचारों का इंतज़ार महीनों तक करने वाला,नदी-पोखरों में घंटों तैरने वाला, बेसाधन रसोइयों में घंटों खपा कर तैयार होने वाली रोटियों को खाने वाला और खुली छतों पर सोने वाला बचपन याद करते हैं. कभी तो ऐसा हो कि दोस्त की आवाज़ सुनने को महीनों इंतजार करना पड़े. कभी तो आँखें गली में दूर से चिट्ठी लेकर आते पोस्टमैन के लिए बेचैन हों?
कभी-कभी लगता है कि बचपन का वही खेल अब 'तकनीक'खेल रही है. निश्चित रूप से बच्चों और युवाओं को इसमें मज़ा आ रहा होगा, पर हम जैसे लोगों को बार-बार मिठाई छिन जाने का अहसास हो रहा है.हम रोज़ बदलती तकनीक को जैसे तैसे सीख कर थोड़ा सा अपनाने की कोशिश करते हैं, कि झट से नई प्रणाली आकर फिर हमें पुराना कर देती है.कंप्यूटर और मोबाइल की विलक्षण दुनिया का इस्तेमाल हमारे जैसे उम्र-दराज़ लोग बहुत थोड़ा, ५-७ प्रतिशत ही कर पाते हैं.लेकिन यह प्रणालियाँ इतनी जीवनोपयोगी हो गईं हैं कि इनके बिना काम भी नहीं चलता. इस तरह नई पीढ़ी ने हमें चालाकी से जीवन-पर्यंत 'सीखने वाला' ही बना छोड़ा है.बच्चे सिखाने वाले, और बड़े सीखने वाले बन गए हैं. यह अच्छी बात ही है, पर...
कभी-कभी हमारे मन में भी बगावत जन्म लेती है. हम अपना मिट्टी में खेलने वाला, खेतों में दौड़ने वाला, सबसे हंसने-बोलने वाला, दूसरों के गाने सुनते रहने की बजाय अपने गाने गाने वाला, तितलियों के पीछे भागने वाला, परदेस गए आदमी के समाचारों का इंतज़ार महीनों तक करने वाला,नदी-पोखरों में घंटों तैरने वाला, बेसाधन रसोइयों में घंटों खपा कर तैयार होने वाली रोटियों को खाने वाला और खुली छतों पर सोने वाला बचपन याद करते हैं. कभी तो ऐसा हो कि दोस्त की आवाज़ सुनने को महीनों इंतजार करना पड़े. कभी तो आँखें गली में दूर से चिट्ठी लेकर आते पोस्टमैन के लिए बेचैन हों?
हमराही समय, कभी पिछड़कर, कभी आगे बढ़कर तो कभी उसके साथ चलते, जीवन के रंग निखरते हैं.
ReplyDeleteaapki tasalli ne thakan utar di, ab fir se usi jalebi race ke liye man taiyyar hai.
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