लोकतंत्र में सत्ता पांच साल के लिए 'बंटती' है. पांच साल तो बहुत छोटी सी अवधि है, इसमें तो कुए के मेंढक कुए में ही ढंग से तैरना नहीं सीख पाते, दूर-दराज के नदी-नालों की तो बात ही दूसरी है. मेरा मतलब यह है कि हर विजयी सत्ता इतना समय तो अपनी पार्टी के बारे में सोचने, अपनी गोटियाँ बैठाने और अगले चुनाव के लिए गोदाम भरने में ही निकाल देती है.दूसरों की ओर देखने की फुर्सत ही उसे नहीं मिल पाती.
इसीलिए बहुत सोच-समझ कर शासन में थोड़ी तटस्थता और निष्पक्षता रखने के लिए बड़े शहरों में कुछ मान-मर्यादा,बड़प्पन और शालीनता के पद भी सामानांतर रूप से बनाये गए हैं,जो सांसदों और विधायकों की पार्टी-बाज़ी से शहरी क्रिया-कलापों को बचाए रख सकें. मेयर या शेरिफ ऐसे ही पद हैं. संभ्रांत, शिष्ट और सम्मानित सर्वमान्य लोग इन पदों पर आसीन हों और हर कार्य-समारोह की गरिमा बनाये रखें. इन पदों पर ऐसे लोगों के "मनोनयन" की कल्पना की गयी थी जो सर्वस्वीकृत तो हों, पर चुनावी राजनीति में दिलचस्पी नहीं रखते हों. राजनीतिज्ञ तो हर बात को पार्टी चश्मे से देखने के अभ्यस्त होते हैं.
किन्तु कुछ समय से देखने में आ रहा है कि राजनैतिक दलों की गिद्ध द्रष्टि इन पदों पर भी लग गई है. सत्ता के मद में यह पार्टियाँ इन पदों को भी जोड़-तोड़ और उखाड़-पछाड़ से हड़पने में जुट गई हैं, ताकि इन के लिए स्वीकृत बजट और सुविधाएँ भी निगल सकें. परिणाम-स्वरुप इन पर आये दिन ऐसे लोगों की नियुक्तियां हो रही हैं कि इनकी गरिमा बचना तो दूर, इन पर रोज़ कीचड़ उछल रही है.
निर्दोष लोगों पर फटने वाले ज्वालामुखी, बेगुनाह लोगों का जीवन लीलने वाला आतंकवाद, निरीह लोगों के घर ध्वस्त करने वाले भूकंप, ऐसी सोच रखने वाले राजनीतिज्ञों को क्यों छोड़ देते हैं?
काजल की कोठरी में कैसो हू सयानो जाय
ReplyDeleteएक लीक काजल की लागी है पै लागी है।
ध्यान दिलाने का शुक्रिया। कालिख की परवाह किये बिना सत्पुरुषों को सफ़ाई की ज़िम्मेदारी लेनी पड़ेगी।
shayad iska ilaj yahi hai ki sayane ab kajal ki kothri ke bajay powder ki khadan men jayen. n rahega baans n bajegi baansuri.
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