Friday, November 30, 2012

"शून्य में कुछ उग रहा"

मुझे कई साल पहले टाइम्स ऑफ़ इंडिया बिल्डिंग में बैठे हुए मेरे एक आत्मीय मित्र ने कहा था, कि  लेखकों को सब-कुछ लिखते रह कर सार्वभौमिक लिक्खाड़ बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। उन्हें बारीकी से अपने लेखन की सर्वश्रेष्ठ विधा को पहचान कर एक ही विधा में निरंतर काम करना चाहिए।
वह जनाब तो कह कर अपने काम में लग गए, पर मेरे गले उन्होंने यह बेचैनी मढ़  दी, कि  मैं किसी कहानी के बाद कोई कविता लिखता, तो अँगुलियों में खलिश सी होने लगती। उपन्यास लिख चुकने के बाद तो बीमार सा ही हो जाता, "फिर उपन्यास ही लिखूं?"
कई दिन बाद एक दिन बैठे-बैठे मुझे अकस्मात इस उलझन का समाधान मिल गया। जैसे अचानक बोधि वृक्ष के नीचे बैठे बुद्ध को दिव्य ज्ञान हुआ था, उसी तरह मुझे भी सहसा यह बोध हुआ, कि  उस मित्र की बात मैं भला क्यों मानूं? वो होता कौन है अपनी राय मुझ पर थोपने वाला?
आज यह बात मुझे इसलिए याद आ गई, क्योंकि वह एक दिन अचानक मुझे मिल गया। बरसों बाद मिले थे, अतः खूब बातें हुईं। मैंने चाय पीते-पीते उस से पूछा, अब तुम रिटायर होकर घर बैठ गए, ज़रा याद करके यह तो बताओ कि तुमने जीवन में किस-किस से क्या-क्या कहा?किस-किस ने तुम्हारी मानी, और किस-किस ने तुम्हारी बात हवा में उड़ा दी?
वह शरमा गया। इस तरह लजाया, जैसे उसे अपनी पत्नी की याद आ गई हो, जिसने तमाम उम्र कभी उसकी कोई बात नहीं मानी। जिस बात के लिए वह मना करता था, उसे तो वह हर हाल में करके ही रहती थी।
मेरी भी अब इच्छा हो रही है कि  जब वह अगली बार मेरे पास आये, तो उसे मेरी कविता की नई किताब पढ़ने को मिले। इस बार वह मेरा कहानी संग्रह "थोड़ी देर और ठहर" पढ़ने के लिए ले गया है।     

Thursday, November 29, 2012

"नित जोड़-तोड़म, तोड़-फोड़म, सकल संसद दूषणम"

अब सब यही चाहते हैं, कि  एक अच्छा, विकसित और संपन्न देश मिले।युवा पीढ़ी तो खास-तौर पर। सब उकता गए हैं बेईमानी, भ्रष्टाचार और बद-इन्तजामी से।ऐसी स्थिति और भी विचित्र होती है, जब आपके पास एक शानदार अतीत हो, एक संपन्न परंपरा हो, और नैतिक मूल्यों का ज़खीरा हो, फिर भी आप के सारे अर्जन और ऊर्जा  पर धुंध छा जाए, और आप रास्ता भटक जाएँ।
जब बर्फ गिरती है, तो हरे-भरे पेड़ सफ़ेद हो जाते हैं। सारा माहौल सुस्त हो जाता है। तब पुरानी चहल-पहल में लौटने- पहुँचने के लिए बर्फ हटानी पड़ती है, पेड़ नहीं।
हमें सबको हटा देने के लिए श्रम नहीं करना है। उनके मानस बदलने के लिए प्रेरित करना है। उनके ज़मीर पर से बर्फ हटानी है। उनका विकल्प नहीं, उनकी काहिली और जड़ता का विकल्प ढूंढना है।उन्हें हटा दिया, तो वे अपनी समूची भ्रष्टता और बेईमानी के साथ हमारे इर्द-गिर्द रहेंगे, और भी खतरनाक होकर। हमें ऐसे नई जुराबें नहीं पहननी, कि  पुरानी जुराबें जेब में ही रहें, और बदबू आती रहे। जब सही मौसम आयें, तो सतर्क रह कर हमें अपने अगले दिनों के लिए अन्न सहेज लेना है। रखा-पुराना, सड़ा-गला खाते रहने के दिन जितनी जल्दी बीतें, अच्छा है। ताजगी चुनने के मौके, भले ही  धीमी रफ़्तार से मिलें,पर लोकतंत्र में मिलते हैं।    

Wednesday, November 28, 2012

तारे और अंगारे

    जब दुनिया अच्छी तरह बन गई तो सब काम सलीके से शुरू हो गए। घर-घर रोटी बनने लगी। जहाँ घर नहीं था, वहां भी रोटी बनती। पेड़ के नीचे, सड़क के किनारे, दो ईंट-पत्थर जोड़ कर उनके बीच अंगारे दहकाए जाते, और रोटी बनती। चूल्हे मिट्टी  के हुए, लोहे के, या पत्थर के, रोटी बनती। धुआं हो, लपटें हों, या आंच हो, रोटी बनती। लकड़ी, कोयला, गैस, तेल कुछ भी जलता, और उस पर रोटी बनती।
औरतें रोटी  बनातीं। बल्कि कभी-कभी तो औरतें केवल रोटी ही बनातीं। भूखे बच्चे सामने थाली लेकर बैठ जाते, और रोटी बनती। झोंपड़ी हो,कोठी हो, बंगला हो या महल हो, रोटी बनती। झोंपड़ी हो तो भूखे बच्चों के लिए रोटी बनती, बड़ा बंगला हो, तो नौकर-चाकर-कुत्तों और भिखारियों के लिए रोटी बनती।औरतें लाल आँखें करके चूल्हा फूंकते हुए रोटी बनातीं।चमचमाती रसोई हो तो होठ लाल रंग के रोटी बनातीं।
बेटी रोटी बनाती। बहन रोटी बनाती। भाभी रोटी बनाती। माँ रोटी बनाती। नानी और दादी रोटी बनातीं।
औरत अपने घर रोटी बनाती, फिर पराये घर जाकर रोटी बनाती।
लड़की रोटी बनाती, फिर जब उसे बिलकुल गोल रोटी बनाना आ जाता, तो वह महिला बन जाती। पहले पिता के लिए, फिर भाई के लिए, तब पति के लिए, और फिर ससुर के लिए रोटी बनाती।
माँ रोटी बनाने में मदद करती, सास रोटी न फूलने पर जली-कटी सुनाती, पर रोटी बनती। अगर गरीब का घर हुआ, तो पहले दोनों साथ-साथ मजदूरी करते, फिर घर आकर मर्द बीड़ी पीता और औरत रोटी बनाती। अगर अमीर का घर हुआ, तो मर्द टीवी पर मैच देखता और औरत रोटी बनाती।
आग,औरत और रोटी का सम्बन्ध कभी न टूटता, घर-घर रोटी बनती, रोज़-रोज़ रोटी बनती।
फिर इन्कलाब आया। आदमी भी रोटी बनाने लगा। आसमान फट पड़ा। तारे ज़मीन पर चले आये। रसोइयाँ एक स्टार, दो स्टार और पांच तारा होने लगीं।
और इस तरह अंगारों और सितारों का बंटवारा हो गया।    

Tuesday, November 27, 2012

यह संकेत बहुत अच्छा है

यदि कोई चीज़ बिगड़ती है,तो सभी को बुरा लगता है। पहले सभी चाहते हैं कि  यह सुधर जाए, पर यदि प्रयास करने पर भी वह नहीं ठीक होती, तो फिर धीरे-धीरे सबका धैर्य चुकने लगता है, और वे उपेक्षा से उसे बिगड़ता हुआ देखते रहते हैं। बाद में उनकी हताशा उन्हें विध्वंसात्मक बना देती है और वे उसे और भी नष्ट-भ्रष्ट करने लग जाते हैं।
यह प्रक्रिया आप किसी बच्चे को अपने खिलौने के साथ अपनाते देख सकते हैं। अपने प्रिय खिलौने को टूटा देख कर वह पहले सकारात्मक होकर उसे जोड़ने की कोशिश करने में प्रवृत्त होता है, पर फिर विध्वंसात्मक हो जाता है। वह उसे और तोड़-फोड़ कर उसका अस्तित्व मिटा देना चाहता है।
यह स्थिति दो बातों को इंगित करती है। एक तो यह, कि  अब बच्चा किसी दूसरे, उससे बेहतर खिलौने की तलाश में लग जाएगा, और दूसरा यह, कि  बच्चा अब अपने मानसिक विकास की अगली पायदान पर चढ़ जाएगा।
बचपन में कोई अपने माता-पिता से कुत्ता या मछली पालने की जिद करता है। बाद में जब वह कुत्ता या वह मछली मर जाती है तो बच्चा दोबारा मछली नहीं मांगता,वह कुछ और चाहता है क्योंकि उसके अनुभवों का एक अध्याय यहाँ पूरा हो जाता है।
हमारी युवा पीढ़ी इन दिनों ऐसा ही सलूक "देश" के साथ कर रही है।वह दिन गए, जब वह इस पर अविश्वास करके इसकी अवहेलना करती थी। अब वह तन-मन-धन से इसका पुनर-निर्माण चाहती है। कई युवाओं से मिल कर मुझे ऐसा लगता है कि  अब वे समस्याओं को नहीं, उनके हल को सुनना चाहते हैं।

Monday, November 26, 2012

ऐसा पहले भी हो चुका है

अरविन्द केजरीवाल की "आम आदमी पार्टी"शुरू हो गई। कुछ लोगों ने इसका स्वागत यह कह कर किया कि  अब एक नया इतिहास रचा जा रहा है।कुछ लोगों ने यह भी कहा कि  पंद्रह सौ पार्टियों के देश में अब पंद्रह सौ एक पार्टिया हो गईं।
अब सब से दस-दस रूपये लिए जायेंगे। दस रूपये लेना कोई भ्रष्टाचार नहीं है। मोरारजी देसाई ने भी जनता से एक-एक रुपया लिया था। आम आदमी चुनाव लड़ेंगे। चुनाव लड़ना कोई गलत बात नहीं है। बीजेपी के अभ्युदय काल में संतों-पुजारियों-संन्यासियों ने भी चुनाव लड़े थे। अब देश के दो सौ पचास जिलों में लोगों ने पार्टी का दफ्तर बनाने के लिए अपने-अपने घर प्रस्तावित कर दिए। अच्छे काम के लिए अपने-अपने घर में जगह दे देना कोई गलत बात नहीं है। कांग्रेस के आरंभिक दिनों में भी मोती लाल नेहरु और ऐसे ही कई संपन्न लोगों ने अपनी मिलकियत देश के लिए दे देने की पेशकश की थी।पिछड़ों को साथ लेना कोई जुर्म नहीं है। मायावती और कांशीराम ने भी यह किया था।
दस रूपये, देश-सेवा के लिए दिया गया समय, गतिविधियों के लिए दी गई जगह,या पिछड़ों को सुविधाएं, बस केवल बीज की तरह इस्तेमाल न हों। दस रूपये देने वाले लोग कल रुपयों के पेड़ से धन झाड़ने न लगें,सेवा करने वाले बुलेट-प्रूफ एयर-कंडीशंड गाड़ियों में न घूमने लगें, दान दिए घरों को लोग पांच-सितारा होटलों,  और मालों में न बदलने लगें,तथा पिछड़े लोग समर्थ बनने के बाद अपनी ही जाति के लिए सब कुछ आरक्षित रखने की लालसा न रखें, इस के लिए शुभकामनायें।

ज़ेबरा,गधा,खच्चर,टट्टू और घोड़ा

राजा का लड़का जब थोडा बड़ा हो गया, तो उसके दिल में भी आया, कि  अब मेरी भी कोई सवारी हो। जैसे मेरे पिता नगर की सड़कों पर हाथी पर बैठ कर निकलते हैं, जैसे  मेरी रानी माँ बग्घी में बैठ कर निकलती हैं, वैसे ही मेरे पास भी तो कुछ हो। उसने इस बारे में अपने पिता के आगे कोई मांग रखने से पहले अपने गुरु से सलाह लेना उचित समझा।
गुरूजी ने कहा-"जब तक तुम्हारे पिता यहाँ के राजा हैं, तब तक तुम्हारे पास कोई विशेष काम तो है नहीं, तुम एक टट्टू  लेलो।"
राजकुमार को बात कुछ जँची  नहीं। उसने अपने मित्रों से सलाह करने की बात सोची। मित्रों ने कहा- "तुझे कौन सा कहीं जाना है, हमें तो शहर में मस्ती करते हुए ही घूमना है, तू एक खच्चर लेले।"
राजकुमार को सलाह जमी नहीं, उसने सोचा, क्यों न मैं अपनी बहन, राजकुमारी से पूछूं। राजकुमारी ने उसकी बात सुनते ही कहा- "इसमें सोचना क्या है, गधा ले डाल , तुझपे तो वही जमेगा।"
असंतुष्ट राजकुमार अपनी माँ  के पास गया। रानी माँ  ने कहा-"ये सब तो यहीं मिल जाते हैं, तू तो अपने पिता से कह कर दूर देश से बढ़िया सा ज़ेबरा मंगवाले, शान से उस पर घूमना।"
राजकुमार कुछ सोचता हुआ  लौट ही रहा था, कि  रास्ते में उसे एक घोड़ा मिला। घोड़े पर एक सैनिक का लड़का बैठा था। राजकुमार ने लड़के से पूछा- "तुम इस घोड़े पर सवारी क्यों कर रहे हो?" लड़का बोला-"मैं न तो किसी से कुछ पूछ कर कोई चीज़ खरीदता हूँ, और न ही खरीदने के बाद सोचता हूँ कि  यह मैने क्यों खरीदी"।कह कर लड़का चल दिया।
राजकुमार ने तुरंत अपने पिता से उसके लिए एक शानदार अरबी घोड़ा  खरीदने की फरमाइश कर डाली।   

Saturday, November 24, 2012

आम आदमी

आइये, सबसे पहले जानें, कि कौन है आम आदमी?
वो आदमी जिसे आसानी से रोटी कपड़ा और मकान नहीं मिलता,जिसे जीवन की मूलभूत ज़रूरतों के लिए लगातार संघर्षरत रहना पड़ता है।
इस आदमी के लिए किसी भी देश में, किसी भी समय में सबसे बड़ी बाधा यही है कि  कुछ लोग "उसकी रोटी"  अपने गोदाम में रख लेते हैं। उसका कपड़ा अपनी निगाहों से उतारने की फिराक में रहते हैं,उसके मकान पर अपना झण्डा फहरा देना चाहते हैं।
आम आदमी के लिए काम करने वाले  किसी भी व्यक्ति को इन गोदामों के ताले तोड़ना आना चाहिए,उन आँखों को फोड़ना आना चाहिए, उन झंडों के रंग बदलना आना चाहिए। यह आसान काम नहीं है।लेकिन इतिहास मुश्किल काम करने वालों को ही याद करता है।
एक राजा था।उसने ऐलान किया कि  जो कोई उसके राज्य के सभी लोगों को खुश कर देगा, वह उसे पुरस्कार देगा। एक युवक ने यह चुनौती स्वीकार कर ली। वह रोज़ वेश बदल कर घूमता, और देखता कि  राज्य में कौन दुखी है। जो भी उसे दीन-दुखी दिखाई देता, वह चुपचाप, राजा के खजाने से चुरा कर उसे उसका वांछित धन दे देता। कुछ दिन में राज्य में सभी ओर खुशहाली फ़ैल गई।
जब उसने राजा से ईनाम माँगा, राजा ने तत्काल आदेश दिया कि  उसे शाही खजाने से मुंह माँगा ईनाम दिया जाय। तब मंत्री ने डरते-डरते बताया-हुज़ूर,आपके शाही खजाने में तो एक मुद्रा भी नहीं है।
राजा आग- बबूला हो गया। वह बोला- जब राज्य में मैं ही दीन-दुखी हूँ, तो फिर इस युवक को ईनाम किस बात का?
युवक तत्काल बोला-महाराज, बात तो आम लोगों की थी। आम आदमी तो आपके राज्य में सभी खुश हैं।
राजा को उसकी बात सही लगी। राजा ने अपनी पगड़ी उतार कर उसे ईनाम में देदी।    

Friday, November 23, 2012

दो उल्काएं,जुगनुओं की तरह प्यार से गले मिलीं

कुछ दिन पहले जब मैं बाल ठाकरे के दिवंगत हो जाने के बाद, किसी अखबार में पाठकों के कमेंट्स पढ़ रहा था, तो एक युवक की टिप्पणी  ने मुझे चौंकाया। उसने लिखा था कि  "शायद उन्होंने यश चोपड़ा की आखिरी फिल्म 'जब तक है जान' देखली होगी, इसका सदमा वह सह नहीं पाए, और चल बसे।"
इस टिप्पणी  से मुझे लगा कि  हम सब पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति से ही धरती पर चिपके हैं, वर्ना पता नहीं चलता कि  इस अन्तरिक्ष में कौन कहाँ?
वैसे कुछ दिन पहले यह चर्चा जबरदस्त ढंग से थी कि  दीवाली पर यश चोपड़ा की फिल्म रिलीज़ होने वाली है, और इसके लिए अजय देवगन को मनाने की कोशिशें चल रहीं हैं, कि  वह अपनी फिल्म 'सन ऑफ़ सरदार' की रिलीज़ आगें बढ़ा दें, ताकि एक म्यान में दो तलवारों की स्थिति न आये। अच्छे फिल्मकार सोचते हैं, कि  दर्शक एक बार में एक ही फिल्म पर तवज्जो दे सकते हैं। खैर, अब दोनों फ़िल्में दो निहायत सामान्य खेलों की तरह दो सिनेमा-घरों में चल रही हैं। कहीं कोई भीषण उल्कापात नहीं हुआ।
दर्शक भी अब पुराना किस्सा भूल कर कसाब और अफज़ल पर बात कर रहे हैं।फांसी और डेंगू पर बात कर रहे हैं। भ्रष्टाचार और मंहगाई पर बात कर रहे हैं। बीजेपी और कांग्रेस पर बात कर रहे हैं। राहुल और मोदी पर बात कर रहे हैं। फिल्मवाले इतना नहीं समझते, कि  बात हमेशा दो मुद्दों पर होती है। एक अकेले पर कोई क्या बोले?

धन्यवाद- ज्ञापन और 700 पोस्ट

ये एक सुखद संयोग ही था, कि  अपने ब्लॉग की इस सात सौ वीं पोस्ट के लिए मैं जब आपको "थैंक्स गिविंग" की  बात सोच रहा था, तब दूर -दूर से 'धन्यवाद-ज्ञापन' पर्व का शंखनाद सुनाई देने लगा। लीजिये, बहती गंगा में मैं भी हाथ धोता हूँ, और मेरे साथ एक लम्बा सफ़र तय करने के लिए मैं अपने मन के अंतिम छोर से आपके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ।
अब मैं आपको यह भी बतादूँ, कि  मेरे मन में इस समय जो कुछ उठ रहा है, वह बहुत सुख-संतोष वाला नहीं है। क्योंकि-
जैसे-जैसे यह संख्या बढ़ रही है, वैसे-वैसे इसे पढ़ने वालों, इस पर टिप्पणी करने वालों, और इसे पसंद करने वालों की संख्या लगातार घट रही है। मेरी स्थिति उड़ान भरते उस "सीगल" सी होती जा रही है जो आकाश की ऊंचाइयों के कारण अकेला पड़ता चला गया। सच में, घाट पर जितने लोगों की चहल-पहल दिखती थी, अब यहाँ नज़र नहीं आती। शायद लोग उड़ते जाते परिंदे को देख कर इसीलिए कुछ नहीं कहते, कि इसके पास हमारा हाल पूछने का और अपना हाल सुनाने का न तो समय है और न ही चाव। खैर, यह दंश तो हम अपने कैरियर में भी झेलते हैं, जब एक दिन ऐसा आता है कि  हमारे केबिन में केवल वही साथी आने लग जाते हैं, जिन्हें हम बुलाएं। वे भी संकोच के साथ। फिर भी, जो आ रहे हैं, उनके प्रति ढेर सारा आभार।      

Thursday, November 22, 2012

मुंबई में समुद्र के किनारे बैठे हुए उसने कहा था- वो कमलेश्वर हैं तो हम भी ...

वो तब उन्नीस साल का कालेज से ताज़ा-ताज़ा निकला युवक था। वह मेरे पास आया, और कुछ दिन रहा। दिनभर हम अपने-अपने काम में व्यस्त रहते, शाम को फुर्सत से हमारी मुलाक़ात होती। उन दिनों घर समंदर से ज्यादा फासले पर नहीं था, इसलिए हम खाना खाने के बाद पैदल टहलते हुए निकलते, और सागर के किनारे देर तक टहलते। हम बातों में इतने मशगूल होते कि  न हमें समय का ख्याल रहता, और न ही इस बात का, कि  बस, एक छोटी सी रात बीच में है, फिर काम पर जाना है। मैं तो मुंबई की गर्मी का अभ्यस्त था, लेकिन उसे ये बहुत खुशगवार नहीं लगती थी। वह न जाने कब बातें करते-करते भी अपने पायंचे मोड़ कर ऊपर चढ़ा लेता, और पानी में पैर डाल कर बैठता।
एक दिन मैंने उस से कहा- "कल मुझे एक काम से कमलेश्वर के पास जाना है, चाहो तो तुम भी चलना।" कमलेश्वर तब मुंबई के साहित्य-जगत में फहराती सबसे ऊंची पताका का नाम था। वह युवक भी साहित्य-जगत की बगिया का नया पंछी था, मैंने सोचा, वह कमलेश्वर का नाम सुन कर कृत-कृत्य हो जायेगा और उनसे मिलकर तो फूला नहीं समाएगा।
पर उसने मेरा प्रस्ताव सुन कर तत्काल कहा- "वह कमलेश्वर हैं, तो हम भी ..."
वह कुछ दिन बाद चला गया। फिर हम कभी नहीं मिले, और लगभग तीस वर्ष का समय गुजर गया। अपनी मृत्यु से कुछ समय पहले कमलेश्वर मेरे शहर में आये, और एक गेस्ट-हाउस में ठहरे। शाम को जब मैं उनके पास जाने लगा तो मेरे कुछ मित्रों ने कहा, कि  मैं उन्हें भी साथ ले चलूँ, और कमलेश्वर से मिलवादूं।पर जब मैंने कमलेश्वर के कमरे में पहुँच कर उन्हें देखा, तो मैंने साथ आये मित्रों को लौटा देना ही मुनासिब समझा। देर रात कमलेश्वर के पास से लौटा तो मैं नहीं जानता था कि  यह उनसे मेरी आखिरी मुलाक़ात है।
अब कमलेश्वर नहीं हैं, पर लगभग पैंतीस साल बाद आज फोन पर मेरी अपने उसी मित्र से बात हुई है। वह कुछ दिन बाद मुझसे मिलने आ रहा है।अब जब वह आएगा, हम कमलेश्वर की नहीं, खुद अपनी-अपनी कहानियों की बातें करेंगे। पर उन कहानियों की नहीं,जो हमारी किताबों में दर्ज हैं,बल्कि उन कहानियों की,जिनके पात्र हम खुद हैं।      

सपनों के गाँव में, काटों से दूर कहीं, फूलों की छाँव में

इस प्रस्ताव पर किसी को कोई एतराज़ नहीं हो सकता। यदि आपसे कोई कहे कि  चलो चलें, सपनों के गाँव में, काँटों से दूर, फूलों की छाँव में, तो आप यह सोच कर खुश ही होंगे, कि  यदि दुनिया में कोई ऐसी जगह है तो क्यों न उसे देखा जाए।
दुनिया में ऐसी जगह है। यदि आप उसका पता-ठिकाना जानना चाहते हैं, तो आँखें बंद कीजिये।
अब आँखें खोल लीजिये। देखिये अपने चारों ओर। है न ठीक वैसी ही जगह, जैसी आप चाहते हैं।
यदि वास्तव में आपको अपने आस-पास  ऐसी जगह दिख रही है,तो उसका आनंद लीजिये, घूमिये, सोचिये, विश्लेषण कीजिये कि  क्यों आप आना चाहते थे ऐसी जगह?
अब बात करते हैं उस स्थिति की, अगर आपको ऐसी जगह नहीं मिली, तो ये कार्यविधि अपनाइए-
1.थोड़ा अन्वेषी नज़रों से इधर-उधर जा कर गहराई से देखिये, होगी।
2.जहाँ आप हैं, उस जगह की ही पड़ताल करके देखिये, क्या उसे ऐसी जगह में तब्दील किया जा सकता है? क्यों न अपने आस-पास के कांटे हटा कर देखें। धूप है, तो चलते जाइए, जहाँ धूप ख़त्म होगी, निश्चित रूप से वहां छाँव होगी ही। यदि सपनों का गाँव कुछ अलग सा है, तो ज़रा एक बार सपना ही फिर से देखें, अपना गाँव ही क्यों न उसमें देखें।
आपने बहरूपिये देखें हैं? देखिये, इसी वेश में आपको अपने आस-पास ईश्वर भी घूमता-फिरता दिखेगा। पहचान लीजिये, बहुत तरह के लिबास हैं उसके पास। हो गई न मुकम्मल जगह? इसका नाम है-"दुनिया!"

Wednesday, November 21, 2012

हम क्यों नहीं तय करते रंग आग का?

देखो-देखो, उम्र अभी तेरह साल भी नहीं होगी, और मुंह में दबा कर सिगरेट, बस लगाली आग!
स्वाहा ! पवित्र अग्नि के समक्ष लिया गया तुम्हारा संकल्प, अवश्य पूरा होगा।
पूरे शहर में कर्फ्यू है, ये आग इसी मोहल्ले की लगाई हुई है।
आग लगे पढ़ाई में, इस मौसम में तो पिकनिक पर जायेंगे।
बस बेटे, मुझे पता है तुझे भूख लगी है, बस दो मिनट, ये जली आग, और ये तैयार तेरा मनपसंद ...
मोक्ष तभी मिलेगा, जब मुखाग्नि कोई अपना देगा।
उसे नरक में भी जगह नहीं मिलेगी, ऐसी फूल सी बहू को जिंदा जला ...
बताइये, आग के कौन से रंग को चुनेंगे?
ऐसी ही है फांसी भी!
आज कसाब को फांसी लग गई। ये ठीक है कि प्रगतिशील कहे जाने वाले कई देश अब मृत्युदंड को नकार चुके हैं। भारत की उदारवादी छवि भी आज इस असमंजस में दिखाई पड़ी। लेकिन प्रगतिशीलता आग के रंग को पहचान पाने की क्षमता नहीं छीनती। यदि मौत का बदला मौत दिए जाने पर करोड़ों लोगों के ज़ेहन में जिंदगी लहलहा उठे, तो ऐसी सज़ा 'न' दिया जाना दरिंदगी है। कबीलाई संस्कृति में लौटने का लांछन पशुता को छिपाने का खोल नहीं होना चाहिए।  

"कसाब" और रुदालियाँ

कसाब को फांसी हो गई। वो अब इस दुनिया में नहीं रहा। वो जब तक रहा, करोड़ों लोगों को यह बात अखरती रही कि  उस जैसे सर्व-सिद्ध अपराधी को अब कौन सी बात जीवित रखे हुए है। लेकिन न जाने क्या बात है, कि  दुनिया में कुछ भी अंतिम नहीं है, पटाक्षेप अब भी नहीं हुआ है।अब भी फिजा में तरह-तरह के मिसरे तैर रहे हैं। मसलन-
उसे मरने तक इतना खर्चीला रख-रखाव क्यों दिया गया?
क़ानून इतना सुस्त-रफ़्तार क्यों चला?
उसके हमदर्द तब कहाँ थे जब 166 लोग निर्दोष होते हुए भी अपने जीवन से दूर कर दिए गए।
कौन था जो उसकी साँसों की डोर खींचता रहा?
जिसकी मौत की खबर खुद उसका देश 'रिसीव' तक नहीं कर रहा, उसे यहाँ 'बिरयानी' किसकी रसोई में पका कर खिलाई जा रही थी।
"उस जहाँ" में तो दो ही कमरे हैं-स्वर्ग और नरक, तो अब उसे कहाँ रखा जाएगा?
क्या "इस घटना"को कोई और नाम नहीं दिया जा सकता? कहीं भविष्य में कोई यह न कहे कि इस देश में  भगत सिंह और कसाब को ... 

Tuesday, November 20, 2012

कहीं आंकड़ों के गुलाब आपके चारों ओर भी तो नहीं खिलते?

कुछ दिन पहले एक पुराने मित्र से मिलना हुआ। साथ बैठ कर उनके घर चाय पीने और बहुत सारी नई-पुरानी बातें करने के बाद वे अचानक कुछ ढूँढने लगे। यहाँ-वहां सारे में ढूँढने के बाद उनका अपने घर के लोगों पर झल्लाना शुरू हुआ। वे सबको 'उनकी' चीज़ें संभाल कर न रखने के लिए उलाहने देने पर उतर आये। आखिर मुझे बीच में बोलना ही पड़ा। मैंने कहा- "यदि तुम कुछ मुझे दिखाने के लिए, ढूंढ रहे हो, तो परेशान मत हो। मैं बाद में देख लूँगा।"
वे निराश से हो गए। झुंझलाना जारी रहा- "क्या करें? ये लोग कोई चीज़ संभाल कर रखते ही नहीं, मैं तुम्हें कुछ फ़ोटोज़ दिखाना चाह रहा था, जो अभी हमने साउथ में घूमने जाने पर खींची थीं।"
-"ओह, कोई बात नहीं, फोटो क्या देखना, तुम ही बतादो, क्या-क्या देखा?" मैंने उनके घर वालों को उनके गुस्से से बचाने के लिए कहा।
उन्हें शायद अपने देखे शहरों की फेहरिस्त लम्बी करके मुझे सबूत के साथ दिखानी थी। वे उन शहरों के बारे में मुंह से कुछ नहीं बोल पाए। मैंने सोचा, शायद उन्हें सैर से मिले आनंद से कोई सरोकार नहीं, केवल आंकड़ों का मायाजाल दिखाना था।
हाँ, कई लोग ऐसा ही करते हैं।वे ख़ुशी के क्षणों को भोगने से ज्यादा उनकी सनद रखना ज्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं। ठीक वैसे ही, जैसे कई लोग अपने 'ब्लॉग्स' पर आने वालों की संख्या से आनंदित होते हैं। वे इसके लिए "भ्रम-पूर्ण"फ्लैश डेटा जुटाते हैं। वे अपनी पसंद-नापसंद की परवाह किये बिना दूसरों की तारीफ इस प्रत्याशा में करते जाते हैं, कि अब दूसरे उनकी तारीफ करके क़र्ज़ चुकाएं। नतीजा यह होता है कि  कुछ समय बाद वे अपने शौक से उकता जाते हैं, और दूकान बंद करके चले जाते हैं।[दूकान खुली छोड़ कर भी]क्योंकि उनका जुड़ाव उन रचनाओं या विचारों से तो होता नहीं, जो वे पढ़ते हैं, वे तो आंकड़ों की चौसर बिछा कर पांसे फेंकते हैं।
यदि संख्या-मंत्र की माने, तो हमें यह परिणाम मिलेंगे-
1. हलकी भाषा और ओछे विचारों वाले ज्यादा लोकप्रिय होते हैं।
2. महिलाएं, विशेषकर युवा, ज्यादा लोकप्रिय रचनाकार हैं।
3.विद्यार्थी अपनी मित्र-मण्डली की बदौलत ज्यादा सफल हैं।
4.हमारा प्रतिबद्ध राजनैतिक रुझान हमारे "वाह-वाहकारों" की तादाद खूब बढ़ाता है।
5.तकनीक का ज्यादा ज्ञान आपको 'वैचारिक ग्यानी' भी सिद्ध करता है।
हाँ, अपवाद यहाँ भी हैं।            

Monday, November 19, 2012

हम इसी तरह अलग-अलग हैं

जब हम कुछ भी सुनते हैं तो उस पर हमारी प्रतिक्रिया कई तरह से होती है। पहले तो हम यह बात करें, कि  हम सुनते भी कई तरह से हैं। वैसे शाब्दिक रूप से सुनने के लिए हमारे शरीर में 'कानों' की व्यवस्था है। लेकिन इन कानों के द्वारा जो कुछ भी हमारे मस्तिष्क में आता है, वह सब न तो हमारे ही लिए होता है, और न ही यह प्रतिक्रिया ज़ाहिर करने योग्य होता है।बहुत सी बातें तो वैसे ही, बहती हुई हवा की तरह हमारे इर्द-गिर्द बहती हैं। हाँ उसमें से कुछ बातें केवल हमारे लिए होती हैं, वे हमें चौकन्ना भी करती हैं, और हमारी प्रतिक्रिया भी चाहती हैं।
चारों ओर  बहती बातों से हम जो श्रवित-समूह पाते हैं,उनमें से चुन कर कुछ बातें हमारा अवचेतन हमें देता है, ठीक वैसे ही, जैसे कोई महिला किसी साग-सब्जी में से छिलके-डंठल आदि हटा कर खाने योग्य चुन लेती है। केवल इसी पर हमें 'रिएक्ट' करना होता है।यह हम प्रायः इस तरह करते हैं-
1.हम इस पर प्रतिक्रिया देने के लिए सबसे पहले अपने चेहरे के लिए एक भाव चुनते हैं। यह भाव नौ रसों में से किसी एक पर केन्द्रित हो सकते हैं।
2.रस के चयन के अनुसार ही हम स्वतः भाषा का चयन भी कर लेते हैं।
3.फिर हम चेहरे के "हेलीपैड"से भाव की पिचकारी द्वारा भाषा का स्त्राव छोड़ते हैं।
यही हमारी प्रतिक्रिया है।
नोट-इस नियम के अपवाद भी होते हैं। जैसे, यदि हम किसी राजनेता का भाषण सुन रहे हों, तो हो सकता है कि  हमारे कानों में क्रिकेट की कमेंट्री जा रही हो, और हम प्रतिक्रिया स्वरुप कोई फ़िल्मी गीत गुनगुना रहे हों।

एक ही चित्र के दो शीर्षक -हताशा और प्रेरणा

हाँ, यह दोनों शब्द एक दूसरे के विपरीत हैं।
प्रेरणा का अर्थ है, हमें कुछ उभरता हुआ दिखे। उगता हुआ। बढ़ता हुआ। हम उसके प्रति आशा और आकांक्षा से भर जाएँ। हम उसमें अपना हित खोजें। हमें अच्छा महसूस हो। हमारी जिज्ञासा और जीवंत हो जाए। हम उसके अनुसरण को प्रेरित हों। प्रोत्साहित महसूस करें। हम कृतज्ञ अनुभव करें।
हताशा में एक पस्ती है। धुंधलाता हुआ कुछ। मिटता हुआ सा। थके-थके हम। निराश। भयभीत। असफलता का अहसास।अनुत्तीर्णता की आशंका। विफलता का खौफ। बोझिलता।शाम का क्षितिज।
कल "मुंबई"बंद और उसके बाद शिवसेना सुप्रीमो की अंतिम यात्रा के दृश्य, अखबारों, टीवी चैनलों और अपनी वास्तविकता में इन दोनों शब्दों का मिला-जुला अहसास जगा रहे थे। यदि किसी शख्स के जीवन के बाद ऐसा दृश्य उपस्थित होता है, तो यह एक  पवित्र उपलब्धि है। यह एक अनिर्णीत असमंजस भी है।

Sunday, November 18, 2012

आभासी दुनिया की विश्वसनीयता

कुछ लोग यह सवाल उठाते हैं, कि  आभासी दुनिया में असलियत की जांच कैसे की जाए? हाँ, यह हो सकता है। शर्त यह है कि  आप के पास इन सवालों के स्पष्ट जवाब हों-
1,आपको यह मालूम हो कि  आप क्या चाहते हैं, और जो चाहते हैं, उसके बारे में बिना किसी हिचकिचाहट के अपने को आश्वस्त कर सकते हों।
2.आप ईमानदारी से आगे बढ़ रहे हों। यदि आपकी ईमानदारी संदिग्ध है, तो आपको मिलने वाले परिणामों को भी निरापद नहीं माना जा सकता।
3.आप अपनी वांछना पर कायम हों। हाँ, आप बार-बार बदलने की मानसिकता न रख रहे हों।
4.आपके पास सहनशीलता की एक पर्याप्त रेंज हो। मतलब, आप पाने की लालसा के साथ खोने की ज़िल्लत के लिए भी कुछ हद तक तैयार हों।
वाह, फिर फायदा ही क्या? यदि आभासी दुनिया में विचरना जुआ खेलने के सामान रिस्की है, तो इसकी विश्वसनीयता ही क्या? आप ठीक सोच रहे हैं।
लेकिन जब हम किसी रेस में दौड़ते हैं, तब उसका परिणाम केवल हमारे कार्य-निष्पादन पर ही निर्भर नहीं है। दूसरों का कार्य-निष्पादन भी परिणाम तय करता है। दूसरों के ख़राब खेलने में हमारी जीत है। इसे हम अलग-अलग नामों से जानते हैं। वास्तविक दुनिया में हम इसे "तकदीर" या भाग्य कहते हैं। संयोग भी कह देते हैं। नक्षत्रों की चाल भी।
आभासी दुनिया में भी ऐसी कुछ बातें आएँगी। लेकिन इन बातों के जवाब के रूप में आपके पास "आत्म-विश्वास" है।ठीक वैसे ही जैसे विपरीत हवा में किसी नाविक के पास दिशा मोड़ने के लिए पतवार होती है। इस पतवार का प्रयोग नाविक की शक्ति और बुद्धिमत्ता पर निर्भर है।पतवार की अपनी कोई स्वचालित शक्ति नहीं है।
इसे ऐसे समझिये। यदि आपसे आपकी कोई वस्तु खो गई,तो कई संभावनाएं हैं।
1.वह मिल जाए।
2.वह न मिले।
3.वह आपसे कुछ खर्च करवा कर मिले।
4.वह आपको कुछ ईनाम के साथ मिले [जैसे फिल्मों में होता है, खोया रुमाल लौटाने जो शख्स आता है, वही कालांतर में जीवन-साथी के रूप में आपको मिल जाता है]
अब इन सभी स्थितियों को आप सकारात्मक मानिए, क्योंकि आपने तो वस्तु खो ही दी थी।आभासी दुनिया ऐसी ही है।
    

Friday, November 16, 2012

दो और दो तीन

भारत में ऐसे ही मनती है दीवाली। सप्ताह-भर तक तैयारियां, फिर एक रात का ज़बरदस्त जश्न। आकाश में तारे धरती से भेजे जाते हैं उस रात। अंधियार से दिया लड़ता है। खामोशी से पंगा लेता है शोर। और फीकेपन को हराती है मिठाई। सोने-चांदी के बंदनवार सजते हैं, लक्ष्मी के लिए।
लेकिन ये सब तो हो चुका। अब तो आगे की कहानी की बारी है।
एक अखबार लिखता है कि  एक-एक शहर में अरबों के पटाखे बिके। दूसरा लिखता है कि कपड़ों की बिक्री हज़ारों करोड़ की। तीसरे की घोषणा होती है कि  करोड़ों के बर्तन देखते-देखते बिक गए। चौथा कहता है सोना-चांदी ने शताब्दी का सबसे बड़ा उछाल लिया। मिठाई ने ऐसा रिकार्ड तोड़ा,कि घी-दूध के समंदर खप गए। खबरी चैनल भी पीछे नहीं रहते, कहते हैं, जितने सूखे-मेवे पैदा हुए थे, उससे दो गुना ज्यादा बिक गए। साल-भर में जितनी बिजली का उत्पादन होता है,उससे डेढ़ गुनी इस रात जल गई।
फिर बारी आती है, आम आदमी की। वह कागज़ और पेन्सिल निकाल कर बैठता है और जोड़ने लगता है सब ख़बरों के आंकड़े। उसे लगता है कि  अब शहर, शहर नहीं रहे, बल्कि परीलोक हो गए।
और अगले दिन जब घर-घर गोवर्धन की पूजा हो रही होती है, तब आता है उसे पिछले दिन के गुड़ और अगले दिन के गोबर का स्वाद एक साथ।
नगर-पालिका कहती है कि  दीवाली ने इतना कचरा कर दिया कि  अब साल भर तक उठाने वाले नहीं मिलेंगे। बिजली विभाग कहता है, शहरों में रात का और गाँवों में दिन का ब्लैक-आउट। हस्पताल कहते हैं, मधुमेह रोगियों के लिए बिस्तर खाली नहीं। बारूद के सौदागार कहते हैं, बस, अब बाकी बची बारूद धमाकों में काम आएगी। लक्ष्मी कोरियर से स्विट्ज़रलैंड। 
और बेचारा आम-आदमी कहता है- दो और दो तीन!    

Wednesday, November 14, 2012

ऐसी बहनों को एक टीका लगा कर उनकी ख़ुशी की कामना करें

ज़रा अपने और अपने आसपास के घर-परिवारों को देखिये। कितनी ही लड़कियां आपको ऐसी दिखेंगी, जो अपनी मेहनत  और लगन से पढ़ाई करते हुए अपना कैरियर खुद बनाती हैं, और फिर अपने परिवार का सहारा बनती हैं। एक नहीं, बल्कि कई बार तो वे दो परिवारों तक को सहारा देती हैं, एक अपने माता-पिता का परिवार, दूसरा अपने पति का परिवार। भावनात्मक सहारा देने का काम तो उनके जिम्मे है ही। अपने भाइयों के लिए अपनी जान से भी ज्यादा स्नेह लेकर उनके हर दुःख-सुख में शामिल रहना, पिता-माता के लिए दायित्व भरा दुलार लेकर उनकी ज़िम्मेदारी संभालना, और पति व उसके परिवार के लिए तो अपना सब कुछ न्यौछावर करने को तत्पर रहना, कोई लड़कियों से सीखे। यह सब आप अपने आसपास आसानी से देख सकते हैं।
एक बात बताइये, क्या हमारे कलेण्डरों में कोई ऐसी तारीख दर्ज है, जब हम इन बहनों या बेटियों के माथे पे तिलक करके इनकी खुशियों की कामना करें? आइये, आज भाई-दौज है,आज भाई बहन दोनों ही एक दूसरे को शुभ का टीका लगाएं, और इसका नाम केवल "स्नेह-दौज" कर दें।

क्या हमारी होटल इंडस्ट्री इतना नहीं कर सकती?

देश में होटल उद्योग का  नेटवर्क है। हर छोटे-बड़े शहर में ढेरों छोटे-बड़े होटल हैं। कई बड़े शहरों में तो पांच सितारा होटल भी कुकुरमुत्तों की तरह बेहिसाब खुलते ही जा रहे हैं। जबकि कहीं की , कैसी भी सरकार यह कभी नहीं कहती कि  वह होटल उद्योग को बढ़ावा देगी। न किफायती दरों पर भूमि का आवंटन, न ही होटलों पर अनुदान, न कोई प्रोत्साहन योजना, फिर भी होटल धड़ाधड़  खुलते ही जा रहे हैं।बरसों पुराने,बिसराये गए पर्यटन स्थलों के आसपास भी होटल ऐसे खुलते जा रहे हैं मानो इन्हें देखने के लिए दूर-दराज़ के लोग इन होटलों में डेरा  डाल कर धूनी  रमाएंगे। इसका सीधा अर्थ यह है कि  होटलों के पास पैसे की कोई कमी भी नहीं है।
जिन मंदिरों की मान्यता है, उनके आसपास खुलने वाले होटल-धर्मशालाओं की तो कोई गिनती ही नहीं है। कई नामी-गिरामी मंदिरों का तो हाल यह है, कि उनमें बसने वाले भगवान तो एक छोटी सी चौकी पर बिराजमान हैं,पर उनमें आने वाले दर्शनार्थियों के लिए सैंकड़ों होटल-सराय-धर्मशालाएं दूर-दूर तक  फैले पड़े हैं।
कई मंदिर ऐसे हैं कि उनमें चढ़ने वाला चढ़ावा उनकी संपत्ति को अरबों तक पहुंचा चुका है। उनकी आय देख कर कई राज्यों के वित्त-मंत्रियों में हीन-भावना आ जाती है,कि  इतना तो हमारे राज्य का सालाना बजट भी नहीं है। इनके आसपास भी बेशुमार होटल हैं।
इतने होटलों में मिला कर कर्मचारियों की कमी भी नहीं है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि  इन होटलों को देश भर में शिक्षा का कार्य दे दिया जाए। ताकि कम से कम बच्चे अपने बचपन में थोड़ा-बहुत  कुछ पढ़-लिख भी तो सकें।
हमारे विद्यालय तो इन्हें दोपहर का भोजन खिलाने में जी-जान से लगे हुए हैं। उनके पास न तो बच्चों को पढ़ाने का समय है, और न काबिलियत।         

Tuesday, November 13, 2012

ये रात कब तक आएगी?

कल देर रात बिस्तर पर जाने के बाद भी दिन थमा नहीं। रौशनी रात भर रही। धमाकों का गगन-भेदी शोर पूरी रात चला। यह ख्याल आता रहा कि चौदह साल बाद घर लौटने पर राम का स्वागत अगर इसी तरह हुआ होगा तो क्या उन्हें घर लौटने के बाद भी नींद नसीब हुई होगी? मन यह सोच कर उदास रहा कि  जो लोग अब तक सोये नहीं हैं वे जुआ खेल रहे हैं। गुलज़ार सड़कों पर अब शराब पीकर घिसटने वालों की आमद होने लगी है। एक युवक ने गर्व से बताया कि  हर पंद्रह मिनट बाद वह जो विशेष पटाखा फोड़ रहा है, वह पांच हज़ार रूपये का है। सैंकड़ों रूपये किलो वाली कीमती मिठाइयाँ और सूखे मेवे बेकद्री से खाए-कम-फेंके-ज्यादा जा रहे हैं। बल्बों में बिजली और दीयों में तेल की न कोई गिनती है, न कोई सीमा। दफ्तर-विद्यालयों में सप्ताह भर तक  काम लगभग ठप्प है।
कभी-कभी लगता है कि  हमारी अर्थ-व्यवस्था, हमारा सामाजिक ताना-बाना,हमारा बौद्धिक चिन्तन कहीं सचमुच किसी दिन "राम-भरोसे" ही न हो जाए।

टिट फॉर टेट , यानी जैसे को तैसा

जब दशरथ का वचन सुन, राम को जंगल में जाने के लिए निकलना पड़ा, तब कैकेई और मन्थरा के अलावा कोई खुश नहीं हुआ। जब राम को लौटा लाने के भरत के प्रयास विफ़ल हो गए, तब सब मायूस हो गए। राम जंगल क्या गए, लोगों ने अपने घर को जंगल बना लिया।
जैसे जंगल में सैंकड़ों प्रजातियों के जीव रहते हैं, वैसे ही घरों में भी मच्छर, मकड़ी,छिपकली,मक्खी,पतंगे, खटमल,मेंढक,चूहे,छछूंदर,गिलहरी,कबूतर,चिड़िया,इल्लियाँ,चींटे,चींटियाँ,कनखजूरा, टिड्डा,तितली और न जाने कौन-कौन से जंतु रहने लगे। लोग इनसे लापरवाह रहते, वे सोचते, जब हमारे राम इन सब के बीच गुज़ारा कर रहे हैं, तो हमें इनसे क्या परहेज़। राम जंगल में हैं, तो घर और जंगल में फर्क ही क्या?
जब चौदह साल बाद राम घर लौट आये, तब लोगों का ध्यान गया।अरे, ये कौन-कौन घर के कौनों में डेरा डाले पड़ा है? बस, लोगों ने आव देखा न ताव, पिल पड़े इन पर। मार-मार कर भगाया सब को। झाड़ू,ब्रश,पौंछा,दवा का छिड़काव, चाहे जो करना पड़े, किसी को नहीं रहने देना है। मकड़ी कितनी ही ऊंचाई पर जाला बुने, लम्बे बांस के सहारे सब छिन्न-भिन्न।अब जब अपने राम घर लौट आये, तो इन जंगलियों से क्या वास्ता? ये दोबारा इधर का रुख न करें, इसके लिए रंग-रोगन, कलई, डिस्टेम्पर,कुछ भी लगा कर इनका रास्ता बंद करने के पीछे सब पिल पड़े। बिल,छेद,कंदराएं, दरारें,सब बंद। ये घर हैं, कोई जंगल नहीं, कि  कोई भी यहाँ आराम से घूमे।
ये सब, साल भर आदमी को तंग करते हैं न , तो दीवाली के दिन इनसे भी बदला। जैसे को तैसा।
हाँ, बस एक को आने की आज़ादी है घर में। सिर्फ एक। वह भी केवल आज के दिन। केवल "उल्लू"। न जाने वह अपने साथ किसे ले आये? वह आज कभी भी आये,उसका इंतज़ार हम सब करेंगे। वैसे तो वह अँधेरे में भी देख लेता है, पर उसके लिए दीप जला कर ढेर सारा उजाला करदें। "शुभ दीपावली"      

Sunday, November 11, 2012

गौतम, आम्रपाली, राखी,दिग्विजय, अरविन्द और समय

जैसे हम कहानिया पढ़ते हैं कि  आम्रपाली ने गौतम से पहले जिरह की और तब आशीर्वाद लिया, वैसे ही आगे आने वाली नस्लें भी तो कुछ पढ़ेंगी। उन्हें जानना होगा कि  राखी के युग में दिग्विजय कौन था।
पुराने समय में जब शासक अपने रहने के लिए किले बनवाते थे, तो उनमें सुरक्षा के सभी इंतजाम होते थे। लोग भाले, बरछी, कृपाण  आदि से हमले करते थे, तो इन सभी अस्त्रों के विरुद्ध दुर्गों में सुरक्षा चक्र भी होते थे। बारूद के गोलों को झेलने के लिए ऊंचे और मज़बूत बुर्ज़ हुए। शीश-महलों के दिन लदने के साथ बाद में जब शासकों पर पत्थर फेंकने का चलन आया तो शीशे की दीवारें प्रचलन से हट गईं , और लोहे के गेटों पर संतरी  खड़े होने लगे। संतरी पहरे के समय में गुटका आदि सुभीते से खा सकें, इसके लिए गेट पर गुमटियां बनीं।
आखिर शासकों को किस-किस चीज़ से महफूज़ रखा जाता? अतः फिर उनके ही बदन पर बुलेट-प्रूफ लबादे लपेटे जाने लगे। राइफलें ,बन्दूखें आ गई थीं। धीरे-धीरे हलकी-फुलकी चीज़ों का प्रयोग बढ़ा। कुपित होकर लोग चप्पल-जूते फेंकने लगे। तब जूता कम्पनियों ने इतने लम्बे लेस बनाने शुरू किये, कि  जब तक श्रोता जूता खोले तब तक 'माननीय' सभा बर्खास्त करके भाग सकें।  
कालांतर में युग वाचाल हो गया। बयानों से भी शासकों पर हमले होने लगे। तब सत्तानवीसों के आउट-हाउसों में श्वान-गृहों, अस्तबलों, गैराजों की भाँति कक्ष बना कर चारों दिशाओं की चौकसी करने वाले बयान-वीर भी रखे जाने लगे। ये संतों से लेकर नर्तकियों तक पर धारा-प्रवाह बोलते थे, और धारा की भाँति ही चंचल-अविश्वसनीय-उद्दंड और उच्श्रंखल होते थे। इनका चपल-नर्तन, दुनिया आभासी हो जाने के कारण दूर तक देखा-सुना जा सकता था।   

Saturday, November 10, 2012

इस तरह सागर और ज़मीन की जिंदगी कोई बहुत अलग नहीं

बीबीसी पर अभी थोड़ी देर पहले चाइना की बात हो रही थी। वे कह रहे थे कि बीजिंग में बीस में से एक आदमी करोड़पति  है। कुछ अमीर लोगों से उन्होंने बात भी करवाई। एक अमीर महिला कह रही थी कि  अब हम अमीर हैं तो हमें अमीरों की तरह रहना पड़ता है। एक युवक कह रहा था कि  वह गरीब है, पर उसे अमीरों को कीमती लिबास पहने देख कर बुरा नहीं लगता, क्योंकि यदि वह खुद अमीर होता तो वह भी ऐसा ही करता। लेकिन वह ईमानदारी से ये ज़रूर कह रहा था कि  उसे गरीब होने का अफ़सोस अवश्य है।
जीवन ऐसा ही है। इसे ऐसा ही होना भी चाहिए। जिस दिन सारी दुनिया के सारे लोग बराबर मिल्कियत के स्वामी बन कर एक सा लिबास पहनेंगे, उस दिन घरों में बैठे लोगों का दीवारों से सिर फोड़ लेने को मन करेगा। महिलायें अपने लिबास को तिलांजलि देने के लिए मन्नत मांगने लगेंगी। कोई घर से बाहर नहीं निकलना चाहेगा, क्योंकि बाहर जाकर क्या करेगा? कोई घर में भी बैठना नहीं चाहेगा, क्योंकि आखिर वह घर में बैठे-बैठे करेगा क्या?
सागर में गोताखोर इसीलिए जाते हैं, कि  सांस रोक कर नकली हवा के सहारे भी वे जीवन की विविधता खोज कर लायें। घर में लोग एक्वेरियम रख लेते हैं, कि उनमें तैरती मछलियों के अलग रंगों से जी बहले।सब एक से हो गए तो रैंप पर सुष्मिता सेन क्यों चलेंगी?
दीपावली का प्रकाश फैलने लगा है, यह आप तक पहुंचे, यह रौशनी आपसे भी निकले। शुभकामनाएं!  

संख्या, मात्रा से बहुत फर्क नहीं पड़ता

संख्या का अपना महत्त्व है। यह निर्णयों को अपने पक्ष में करने में सहायक है। लोकतंत्र में तो यह सिरमौर है। लेकिन फिर भी यह सब कुछ नहीं है। इसे क्वालिटी, अर्थात गुणवत्ता आसानी से मात देती है। कई बार एक और एक ग्यारह हो जाते हैं।
एक बार देश में लोकसभा के चुनाव होने वाले थे, पूर्व स्वास्थ्य मंत्री राजनारायण से किसी सांसद ने पूछा- इंदिराजी की पार्टी को कितनी सीटें मिल जाएँ तो वे प्रधान मंत्री बन सकती हैं। राजनारायण, जो कि  इंदिराजी की विपक्षी पार्टी में थे, बोले- उन्हें तो उनकी खुद की एक सीट भी मिल गयी, तो वो लोकसभा में अपना बहुमत सिद्ध करके प्रधान मंत्री बन जायेंगी।
एक दिलचस्प किस्सा फ़िल्मी दुनिया में भी प्रचलित है। अभिनेता जीतेंद्र इसे खुद अपने मुंह से सुना कर स्वीकार कर चुके हैं। उन्होंने कहा- मेरी एक साल में छः-सात फ़िल्में आती थीं, मगर जब अमिताभ की साल में एक भी फिल्म आती, तो खुद मेरा बेटा भी उनकी तरफ हो जाता था।
एक फैक्ट्री के सौ काम करने वाले वर्करों को चार काम न करने वाले वर्कर , या एक कालेज के सौ पढ़ना  चाहने वाले बच्चों को चार न पढ़ना  चाहने वाले लड़के, सड़क पर हुडदंग  मचाने के लिए निकाल लाते हैं।
तो देखा आपने, संख्या तो गुणवत्ता ही नहीं, "दुर्गुणवत्ता" के आगे भी लाचार है। तभी तो कहते हैं, सौ सुनार की, एक लुहार की।

Friday, November 9, 2012

चाय मीठी है ? पर कैसे?

अभी ज्यादा समय नहीं गुज़रा, जब किसी बड़े शहर में कोई बड़ा "कवि सम्मलेन" होता था, तो उसकी सफलता और भव्यता इस तरह आंकी जाती थी-
1.कवि  सम्मलेन कितनी देर तक चला, और कवियों को कितने 'राउंड' सुना गया।
2.कवियों को कितना पारिश्रमिक दिया गया।
3.सम्मलेन में श्रोताओं की भीड़ कितनी थी।
4.आने वाले कवि कितने नामवर हैं।
5.प्रस्तुत रचनाएं समाज पर कैसा प्रभाव डाल सकीं।
आज भी आकलन के यह सब मानदंड मौजूद हैं। केवल इनके आयोजन पक्ष के भाव थोड़ा बदल गए हैं।जैसे- आयोजक सम्मलेन स्थल को कितनी देर के लिए घेर पाए, श्रोताओं को कितनी देर रोक पाए, कवियों से कितना ले पाए, या वे और कवि  मिलकर कितने प्रायोजक ढूंढ पाए, कवियों के पास कितने नामवरों के हस्ताक्षरित किये प्रमाण-पत्र हैं। रचनाओं का कितना भाग सुबह के अखबारों में जगह बना पाया।
कुल मिला कर चाय की मिठास में कोई कमी नहीं है।अब अगर बाज़ार में चीनी ही "शुगर-फ्री" आ रही हो तो कोई क्या करे?

Thursday, November 8, 2012

हर बीज बिरवा, और हर बिरवा बनता है पेड़

एक राजा था।
एक दिन उसके दरबार में कहीं से एक युवक आया, और बोला-"राजा, आपके पास महल में जो भी रक्षक-पहरेदार हैं, वे सभी सीधे-सादे लोग हैं, आज्ञाकारी भी हैं, लेकिन क्षमा करें, ऐसे लोग किस काम के? जब कभी भी राज्य पर कोई धूर्त, लुटेरे-डाकू आक्रमण करेंगे, तब ये सीधे-सादे, शरीफ लोग भला उनका क्या कर  पायेंगे? और सीधे शरीफ लोग तो आक्रमण करेंगे नहीं!"
राजा को युवक की बात उचित लगी।फ़ौरन ये फरमान जारी हो गया कि  राज्य की सेना में नियुक्त करने के लिए डाकू-लुटेरे-आतताई-गुंडे किस्म के लोगों की ज़रुरत है।
कुछ लोगों को यह राजा  की कोई चाल जैसी लगी, फिर भी डरते, शंकित होते हुए  भी राज्य के तमाम गुंडे-आवारा-डाकू-लुटेरे-गिरहकट-कातिल आवेदन करने लगे।
एक दरबारी से रहा न गया। वह राजा से बोला- "महाराज, आप ऐसे लोगों से घिर जायेंगे तो उनसे फिर आपकी रक्षा कौन करेगा?"
राजा ने कहा- "जब यह सब लोग हमारा ही दल हो जायेंगे, तो हमें किसी का क्या डर?और हम उस युवक को ही सेनापति बनाए देते हैं, जिसने हमें इनकी भरती का सुझाव दिया था।"
राजा ने उस युवक को बुलवाने के लिए आदमी भेजे, किन्तु वह स्वयं ही आ पहुंचा और सारी बात सुन कर बोला- "महाराज, मैं आपको आपकी रक्षा का वचन देता हूँ, आपको विश्वास न हो, तो सनद के लिए हम दोनों अपनी पगड़ी बदल लेते हैं।"
राजा ने मायूस होकर कहा-"यह बात हम दोनों तक ही रहे, जनता तक न पहुंचे।"























ध्येय के लिए निकलने से ज्यादा चुनौती भरा है, ध्येय हासिल करके लौटना

नहीं, यह सही नहीं है।
ज्यादा चुनौती तो जीवन के लिए कोई ध्येय चुन लेने में ही है। जब हम अपने लिए कोई पथरीला रास्ता चुनते हैं, तब हमारे मस्तिष्क में अपना श्रेष्ठतम देने की लालसा का ताप जगता है। जब हम लक्ष्य को पा लेते हैं, तब तो संतोष की अंगड़ाई  लेने का वक़्त होता है। यह समय महान नहीं होता।
हाँ, यह समय उन लोगों के लिए महान होता है, जिन्हें हमने अपना लक्ष्य अर्जित करने के संवेग में भुला दिया था। वे खुश होते हैं।
राम जब घर लौटते हैं, तब वे न तो दिया जलाते हैं, न मीठा ही खाते हैं, और न उनका मन पटाखे फोड़ने का होता है। दीवाली तो हम मनाते हैं, जिनके राम लौट आये।हमारे लिए यही समय उत्तम है।
दीपावली के उत्सवी सप्ताह के आगाज़ पर शुभकामनाएं!

अमेरिका में नोबल शांति पुरस्कार प्राप्त ओबामा की दूसरी पारी

कल जब अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में वोटों की गिनती का सिलसिला चल रहा था, तब दोनों उम्मीदवारों की तरह ही एक और प्रतिष्ठान की प्रतिष्ठा भी  दाव पर लगी थी। एक ऐसा प्रतिष्ठान, जिसकी साख बरसों से सारे विश्व में बनी हुई है। जिस नाम की घोषणा यह प्रतिष्ठान करता है, वह चाहे संसार के किसी भी कौने का हो, उसमें देखते-देखते सुर्खाब के पर लग जाते हैं। वह नाम फिर इतिहास में अमर हो जाता है। उसे अपने फील्ड में "अल्टीमेट" माना जाता है।
ओबामा जब अपने पिछले कार्यकाल के आरम्भ में ही थे, तब उन्हें "नोबल"शांति पुरस्कार के लिए चुन लिया गया था। उस समय भी कुछ लोगों की प्रतिक्रिया यही थी कि  उन्हें यह सम्मान ज़रा जल्दी मिल गया है।  इस बार किसी भी कारण से यदि राष्ट्रपति चुनाव परिणाम में फेर-बदल हो जाता तो तीन साल पहले के उन समीक्षकों के स्वर में नई  ताजगी आ जाती। और साख में ज़रा सा बट्टा उन घोषणाकारों की सिद्ध-श्रेष्ठता पर भी लगता जो तमाम कयासों के उड़ते बादलों के बीच भी अमेरिकी राष्ट्रपति के लिए यह सौगात लेकर आये थे।
लेकिन यह सब अब केवल विगत-कलाप है। वर्तमान कहीं ज्यादा सुखद, ज्यादा फलदायी है।

Wednesday, November 7, 2012

ओबामा महोदय की सफलता उस इच्छा का सम्मान है जो सितारों से आगे के जहाँ को छूने की तमन्ना में छिपी है

जिन कोशिशों को लेकर वे जन-मानस में लोकप्रिय हैं, उन पर विराम अभी कोई नहीं चाहता। शायद यही महत्वाकांक्षा बराक ओबामा की सफलता में बदली है। इस शानदार जीत पर बधाई और असंख्य शुभकामनाएं!

Tuesday, November 6, 2012

बौरा गए थे देख कर,जिनकी ख़ुशी को हम, उनके ग़मों को देख कर,पगला गए हैं अब

किसी ने कहा है कि  आदमी को न तो ख़ुशी में आपा खोना चाहिए, और न ही दुःख में धैर्य खोना चाहिए। पर उनका क्या हो, जो सुख-दुःख दोनों में उतावले हो जाते हैं? यद्यपि इस मुद्दे पर भी सब एकमत नहीं हो सकते। कुछ लोगों की धारणा  यह होती है कि  हमें संवेदनशील होना ही चाहिए, हम प्रसन्न भी हों, विचलित भी, उल्लसित भी, तो उदासीन भी। वहीँ कुछ लोगों का मानना यह होता है कि  भावनाओं पर नियंत्रण करना ही मनुष्य की सफलता है।
इस विवाद में गहराई से उतरने का परिणाम यह होता है कि  हम आदमी को दो भागों में बाँट देते हैं। हमें वह देव और दानव के रूप में दिखने लगता है। इन्हीं दोनों का औसत निकालकर हम "मानव" को तलाश कर लेते हैं। किसी- किसी को यह अचम्भा भी होता है, कि इस में दानवता कहाँ से आ गयी? पर इसमें दानवता है!
चौंकिए मत, दानवता उसी स्वभाव में है, जिसे हम 'संत-स्वभाव' कहते हैं । सुख और दुःख दोनों से निरपेक्ष रहना वस्तुतः दानवता ही है। मनुष्य जटिल अनुभवों से गुजर कर ही ऐसा बनता है।
किसी ऐसे घर में जाइए, जहाँ ख़ुशी का कोई कारण हो।पर आप खुश मत होइए। देखिये, सभी देखने वालों को आपके स्वभाव में कुटिलता, ईर्ष्या या नकारात्मकता दिखेगी। यह सभी दानवीय गुण हैं।
ऐसा ही दुःख के बारे में पाएंगे।   

झूठ बोलने का सबसे सम्मानजनक तरीका

एक बार एक व्यक्ति विचित्र दुविधा में घिर गया। एक रात उसके सपने में एक-एक करके उसके सभी पूर्वज आये,और उससे कहने लगे कि  उसने अपने जीवन में जो कुछ भी  किया वह अपने जीते-जी  सारी  दुनिया को बताये, ताकि यदि उसके किसी कार्य से दुनिया में किसी को भी कोई कष्ट हुआ हो, तो वह उससे क्षमा तो मांग ही सके, बल्कि आवश्यक होने पर अपनी भूल का प्रायश्चित भी अपने जीवन में ही कर सके।
व्यक्ति सुबह उठते ही रात को आये सपनों को याद करके बेहद शर्मिंदा हुआ। उसे तत्काल कई ऐसे कार्य-व्यवहार याद आ गए, जिन्हें उचित कदापि नहीं कहा जा सकता था। उनसे अवश्य कई लोगों को अपार कष्ट हुआ होगा, यह वह मन ही मन जान गया। किन्तु अब किया ही क्या जा सकता था।
उधर पुरखों के संकेत का अनदेखा करना भी एक घोर पाप जैसा ही था। अतः उसने स्वप्न में मिले निर्देश का अनुपालन करने का ही निश्चय किया।
अब सवाल यह था कि  अपनी करनी लोगों को बताई कैसे जाए? जिनके साथ उसने अवांछित व्यवहार किया था, वे तो इस बाबत जानते ही थे, पर ऐसा तरीका क्या हो, जिससे बाकी के लोग भी ऐसे व्यवहार को जानें। बहुत सोच-विचार के बाद आखिर उसे एक तरीका सूझ ही गया। उसने अपनी आत्म-कथा लिखने का मानस बनाया। उसने अपनी जीवन-गाथा लिखनी शुरू की, और कुछ ही दिन में पूरी लिख डाली।
उसे यह देख कर घोर आश्चर्य हुआ कि सब कुछ कागज़ पर उतार देने के बाद भी किसी ने कोई विरोध या अप्रसन्नता दर्ज नहीं कराई। किन्तु उसने तो अपना काम कर ही दिया था। वह अब प्रसन्न और संतुष्ट था।
वह रोज़ रात को सोने से पहले अपने पूर्वजों को याद करता कि  वे उसके सपने में आयें, और वह उन्हें बता सके कि  उसने उनका कहा कर दिया है। किन्तु उसका कोई पूर्वज फिर कभी उसके सपनों में नहीं आया। क्योंकि उन सभी ने स्वर्ग में स्थित लायब्रेरी में बैठ कर "आत्म-कथा" की परिभाषा पढ़ ली थी। 

Monday, November 5, 2012

ओबामा का मतलब- फूल से बड़ी उसकी गंध

किसी भी इंसान के जीवन में पिता होने का अर्थ क्या है, यह शायद सब समझते हैं। हाँ, अभी हम चिड़ियों की बात नहीं कर रहे, क्योंकि किसी भी चिड़े के युवा होने तक उसका पिता इतनी दूर चला जाता हैं, कि माँ - चिड़िया उसकी सूरत भी बच्चे को दिखा नहीं पाती। खैर, चिड़िया का बच्चा पिता की सूरत देखने को लालायित भी नहीं होता, क्योंकि इंसान की तरह किसी भी चिड़े  का पिता उसे अपने पंख ट्रांसफर नहीं कर सकता। हर चिड़े  - चिड़िया को अपने पंखों से ही उड़ना होता है।
पिताओं के पास फंड ट्रांसफर से लेकर परिवार के टाइटिल ट्रांसफर तक का अधिकार होने पर भी दुनिया का हर इंसानी बच्चा अपने पिता से संतुष्ट नहीं देखा गया। हाँ, महाशय ओबामा जैसे महान, सफल और लोकप्रिय पिता इस बात को बच्चों का दुर्भाग्य नहीं मानते, क्योंकि उनका मानना है कि  किसी फूल से उसकी खुशबू ज्यादा महान है। वह दूर तक पहुँचती है, और ख़त्म होते ही फूल की साख भी गिरा देती है। वे बच्चे , जिन्हें पिता या पिता का साया नहीं मिला, इस बात को सीने से लगा कर रखेंगे। शायद इस से उन्हें "पिता की धूप" सहने की शक्ति मिले।

मीठा मुंह

परीक्षा में पास हो गए? मुंह मीठा कराओ। अरे, इनाम मिला है, मुंह तो मीठा करवाना ही पड़ेगा। जन्मदिन है, मिठाई खाकर ही बधाई देंगे। क्या, खेल में जीत गए? मुंह मीठा ...इसका कोई अंत नहीं है।
यह तकिया कलाम अब ख़ुशी का पर्याय ही बन चला है। कहीं भी किसी की भी ख़ुशी देखेंगे तो सब इसमें आपका साथ देंगे। केवल एक को छोड़ कर।
लेकिन वो एक भी कोई ऐसा-वैसा नहीं है, जिसे आप अनसुना करदें। वो है आपका डॉक्टर!
आज आपको मिठाई खाते देख कर कोई भी यह नहीं कहेगा, कि  आपको अपनी सेहत का ख्याल है। इसके कई कारण हैं-
1.आज की जिंदगी तनाव भरी है, तनाव और 'मीठा' एक साथ  मिलते ही आपके लिए मुसीबत बन जायेंगे।
2.आप जहाँ 40 के हुए 'डायबिटीज़' की लहरें आपके बदन-तट से टकराने लगेंगी।
3.आज पग-पग पर कभी ख़ुशी कभी गम इतनी मात्रा  में आते हैं कि  हर काम को मीठे मुंह से करने-कराने वालों के दांत खट्टे होने में भी देर नहीं लगती।
4.हर खाद्य पदार्थ में मिलावट का आलम यह है कि मीठे के रूप में हम क्या-क्या खा रहे हैं, यह हम सोच भी नहीं सकते।
5.आप जानते हैं कि  मोती सीप में बनते हैं, तो आप दांतों की जगह पर मोती चाहेंगे या सीप?
6.मंहगाई हमें फीका-सादा ही खाने दे यही बहुत है, मीठा,यदि वह शुद्ध और असली है, तो केवल रईसों का काम है।

Sunday, November 4, 2012

वो जा रहा है ...क्योंकि वो आया था

आजकल चाइना की चर्चा है। हलके में ले रहे हैं लोग। लतीफे आते हैं, चाइना मैन्युफेक्चरिंग और ट्रेडिंग कांसेप्ट्स पर। "चाइना का माल" माने वो दांत, जो रोटी चबाते में निकल कर भाग सकते हैं। कुछ समय पहले तक जिन चीज़ों की नवीनता पर ग्राहक बाज़ार लट्टू था, वही अब गले की हड्डी बनी हुई हैं, न निगलते बनती हैं, न उगलते। "मेड इन चाइना" का ठप्पा अब लोगों को लुभाता नहीं, बल्कि शंकित करता है। लोग दुकानदारों से पूछते हैं कि  'यह एक्सपायरी डेट से कितना पहले एक्सपायर होगी', यदि वस्तु चाइना में निर्मित है।
लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है कि  जो आर्थिक शक्ति कुछ समय पहले तक बाज़ार-भोज कर रही थी, वह अब ग्राहकों के ताने निगलने को मजबूर है?
ताली एक हाथ से नहीं बजती। इसीलिए यह कहा जा सकता है कि इस ताली की आवाज़ के पीछे भी दो हाथ हैं।
एक तो यही बात है कि  एक बादल जो घूम कर उठा था और देखते-देखते आसमान पर छा गया था,उसे छटना ही था, क्योंकि चाँद किसी एक आगोश में हमेशा नहीं रह सकता। वो आया था, इसलिए वह जाता भी दिख रहा है। उफनते दूध और उमड़ते ज्वार को उतरना ही होता है। आसमान कितना भी अनंत हो, सूरज के क्षितिज तय हैं। उसे आना भी है, जाना भी। न तो तकनीक को हमेशा नया रखा जा सकता है और न ही मांग की पतंग हमेशा उड़ती है।
दूसरे,विकासशील देशों की अपनी नीयत में भी कोई कम खोट नहीं होती। वहां सब कुछ समानांतर चलता है, पूँजी बाज़ार भी, और प्रौद्योगिकी भी।बाहर से उम्दा किस्म की एक वस्तु आती है तो उसके चार नकली संस्करण बनते देर नहीं लगती। और अगर वस्तु विदेशी है, तो स्थानीय सरकार और मीडिया भी नक़ल करने वालों से मिली-भगत करने में गुरेज़ नहीं करते।
नतीजा यह होता है कि  जैसे "काम तुम्हारा दाम हमारा" से आगाज़ होता है, वैसे ही "नाम तुम्हारा काम हमारा" से अंत होता है। तो हम बेशक चाइना पर अंगुली उठा लें, किन्तु शेष तीन अँगुलियों को अपनी ओर आने से  नहीं रोक सकते।        

Saturday, November 3, 2012

बच्चे भी जानते हैं कि सम्राट अशोक कितना महान था।

पिछले दिनों जब ऐश्वर्या राय को एक भव्य समारोह में पुरस्कृत किया जा रहा था, तो आराध्या को इस पुरस्कार में इतनी ही रूचि थी कि  मम्मी उसे गोद में लिए हुए ही पुरस्कार ग्रहण करें। लेकिन जब मम्मी ने  शिष्टाचार न तोड़ा तो बेबी आराध्या को गुस्सा आना ही था। उसने यह गुस्सा रोकर दर्शाया। उधर ऐश्वर्या मंच से अमिताभ बच्चन को नमन करते हुए उनकी तारीफ के पुल बाँध रही थीं, तो ज़ाहिर है कि  सब देखने वाले अमितजी को ही देख रहे हों। ऐसे में आराध्या की आया से अमितजी आराध्या को लेकर गोद में  कैसे उठा सकते थे। लिहाज़ा  कोई न कोई "आइडिया" लेकर सरजी को आना ही था, सो वे आये भी। न केवल आये, बल्कि उन्होंने आया के रिलीवर की भूमिका भी निभाई। और इस तरह कार्यक्रम का अभिषेक हुआ।
पर इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि  बच्चे समझदार नहीं होते। वे आज की ही नहीं, सैंकड़ों साल पुरानी बातें भी जानते हैं। एक बच्चे से जब उसके टीचर ने पूछा कि बताओ,सम्राट अशोक ने सड़कों के किनारे पेड़ क्यों लगवाए? बच्चे ने तुरंत कहा- "यदि बीच में लगवाता तो ट्रेफिक जाम नहीं हो जाता?"

सात राजकुमार [तीन]

तीसरा युवक बताने लगा- मैं एक मंदिर की सीढ़ियों पर कुछ देर बैठ कर आराम कर रहा था कि  मेरा ध्यान कुछ दूरी पर बैठे कोढ़ियों पर गया। मंदिर का पुजारी उन्हें मंदिर के पास न आने देता, और दर्शनार्थी घृणा के कारण उनके पास न जाते। लोग मंदिर की सीढ़ियों से, दूर से ही प्रसाद और खाने का दूसरा सामान कोढियों की ओर फेंकते, किन्तु जब तक कोढ़ी घिसटते हुए उस तक पहुंचें, बीच में ही कुछ कुत्ते उसे झपट लेते। मैंने वहीँ रह जाने का फैसला किया, ताकि भोजन और प्रसाद कोढ़ियों के नज़दीक जा कर उन्हें दे सकूं। सात दिन बाद आते समय मंदिर के पुजारी ने मुझे कुछ पैसे दिए।
चौथा लड़का बोला- मैं रात को एक जगह सो रहा था, कि  खटपट की आवाज़ से नींद खुली। देखा तो होश उड़ गए। सामने एक दुकान में चोर ताला तोड़ कर चोरी कर रहे थे।अपना भेद खुला जान कर उन्होंने मुझे भी पकड़ लिया, और अपने साथ ले गए। सप्ताह भर उनके साथ रहा, फिर मौका देख कर भाग आया। उनके साथ रोज़ चोरी के लिए जाता, तो मुझे हिस्सा भी मिलता, उसने नोटों की गड्डी दिखाते हुए कहा।
पांचवे साथी ने सब को खूब हंसाया, बोला-एक सुबह तालाब में नहा रहा था, कि  एक गाड़ी आकर रुकी। नाचने-गाने वाले लोग थे, मुझे भी साथ ले चले। हम खूब सज-धज कर जगह-जगह नाटक-ड्रामा करते। मेरा नाच देख कर मालिक इतना खुश हुआ कि  आने ही न देता था, मुश्किल से जान छुड़ाई।तीन बार तो मैं लड़की बन कर नाचा।
छठे राजकुमार ने बताया- एक दिन मेरी हलकी तबियत खराब हुई तो मैं कोई डाक्टर वैद्य ढूँढने लगा। मुझे एक ऐसा वैद्य मिला जिसके पास ढेरों जड़ी-बूटियाँ तो थीं, पर उसका सहायक उसे छोड़ कर चला गया था। वैद्य बातें बनाना तो खूब जानता था, पर उस से काम रत्ती भर भी नहीं होता।मैं उसके पास रह गया। उसकी जड़ी-बूटियों से दवा-दारु निकालता, और बदले में वो भी मुझे मजदूरी देता।
सातवां लड़का भी अपनी आप-बीती सुनाने लगा- अब तुम लोगों को तो मालूम ही है कि  मुझे तो बस गाना आता है। आते-जाते लोगों को इकठ्ठा करके कोई गीत छेड़ देता। हर-एक कुछ न कुछ देकर ही जाता।
सबकी राम-कहानी जान कर सब बहुत खुश हुए, और सोचने लगे कि  चलो हम सब किसी तरह अपना-अपना पेट तो भर ही सकते हैं।   

Friday, November 2, 2012

सात राजकुमार [दो]

पहले लड़के [अब उसे राजकुमार नहीं कहा जा सकता था, क्योंकि वह अपनी मेहनत से कुछ कमा कर लाया था] ने बताया कि  जब वह एक सड़क से गुज़रा तो भीतर एक मकान से कराहने की आवाज़ आ रही थी। वह अन्दर गया तो उसने एक बीमार बुज़ुर्ग को अकेले लेटे पाया। बुज़ुर्ग ने कहा- घर के सब लोग काम पर चले जाते हैं, दिन भर अकेले पड़े रहने से मेरा स्वास्थ्य नहीं सुधरता। लड़का वहीँ रह गया। वह बुज़ुर्ग को रोज़ चुटकुले सुनाता, महाशय हँसते-हँसते लोटपोट हो जाते। सप्ताह भर में वह ठीक हो गए, उन्होंने लड़के को पुरस्कार के तौर पर कुछ धन दिया।
दूसरा लड़का एक बगीचे के करीब से गुज़रा तो उसने देखा कि  एक महिला ढेर सारे गन्ने लिए बैठी है। पूछने पर उसने बताया कि  इतनी मेहनत  से खेत में यह गन्ने उगाये, पर इस शहर की भागम-भाग में किसी के पास इन्हें खाने की फुर्सत ही नहीं है, दिन भर ऐसे ही बैठना पड़ता है। लड़के ने उसकी बात ध्यान से सुनी और कहीं से रस निकालने की एक मशीन ले आया। अब दोनों मिल कर मशीन चलाते और आते-जाते लोग शाम तक उनके सब गन्ने ख़त्म कर देते। खूब आमदनी होती, लड़के को भी भरपूर हिस्सा मिलता। [...जारी]

सात राजकुमार

एक बार सात राजकुमार घूमते हुए कहीं जा रहे थे। वे कहीं के राजकुमार नहीं थे, उनके पिताओं का कहीं कोई राजपाट नहीं था, केवल उनके स्कूली दिनों में उनके टीचर ने उन्हें बताया था कि  जब तक मनुष्य स्वयं कमाना शुरू  नहीं करता, और अपनी ज़रूरतों के लिए अपने माता-पिता पर अवलंबित रहता है, तब तक वह किसी राजकुमार की ही भांति है। उसे जो चाहिए मिल जाता है, और उसके लिए कोई चिंता नहीं करनी पड़ती।
केवल इसी आधार पर वे अपने को राजकुमार कहते थे, और उसी तरह व्यवहार करते थे।
घूमते-घूमते आखिर एक दिन उनके मन में आया, कि  अब हम युवा हो रहे हैं, हमें अपनी जीविका के लिए कुछ न कुछ प्रयास करना चाहिए।
उन्होंने निश्चय किया कि  वे सब नगर में अलग-अलग दिशाओं में चले जाएँ और एक सप्ताह बाद वापस यहीं आ कर अपने-अपने अनुभव सुनाएँ।यह विचार सभी को पसंद आया। उन्होंने कुछ चर्चाएँ भी कीं, और रणनीतिक तौर पर तय किया कि  वे सभी इस बीच कुछ न कुछ बेचेंगे। लौटने के बाद उन्हें बताना होगा, कि  उन्होंने कौन सी वस्तु का व्यापार किया और उन्हें क्या आमदनी हुई।
सात दिन बाद जब एक निर्धारित जगह पर वे सभी मित्र मिले तो उन्हें यह जान कर बेहद ख़ुशी और अचम्भा हुआ कि  वे सभी कुछ न कुछ कमाने में सफल हुए थे, और इस से भी बड़ी बात यह थी कि  उन सभी ने एक ही वस्तु बेची थी।[...जारी]

चांदनी चाँद ही के साथ उगी

आम लोगों में बात खास उगी।
संगमरमर के बीच घास उगी।
किसने बोई, किसने सींची, कैसे परवान चढ़ी?
न हुआ कोई भी आभास, उगी।
उगने वाले की सांस गिनती की,
था नहीं इस को ये एहसास, उगी।
इस से कह दो कि  किसी की यहाँ जागीर नहीं,
ये था कुछ रोज़ का मधुमास, उगी।
अब न तो शाहजहाँ, और न मुमताज़ महल
ये तो पत्थर में यूँही आस उगी। 

Thursday, November 1, 2012

दो बातें

एक बार एक शिक्षक के पास से अपनी पढ़ाई पूरी करके जाते समय एक विद्यार्थी मिलने आया। उसने टीचर के सम्मान सहित पैर छुए, और बोला- सर,अब मैं यहाँ से जा रहा हूँ, मेरा आना यहाँ न जाने अब कब हो, इसलिए मैं चाहता हूँ कि  आप मेरे जाते समय कुछ ऐसा कहें, जिसे मैं हमेशा याद रखूँ।
टीचर ने कहा- जब भी घर से निकलो, यह कोशिश करना कि  चाहे तुम्हारे कपड़े अच्छे न हों, पर तुम रोटी खाकर ही घर से निकलना, और यह देखना कि  उस पर घी अवश्य हो।
लड़का उनकी बात से ज्यादा प्रभावित नहीं हुआ। धीरे से बोला- सर, कुछ और?
अध्यापक ने कहा- हाँ, यह हमेशा याद रखना कि  घोड़ा  गधे से ज्यादा बोझ उठाता है, मगर घोड़ा  वही बोझ उठाता है जो घोड़ा खुद चाहे,और गधा वह बोझ उठाता है जो कुम्हार चाहे।
लड़का उनकी बात से प्रभावित हुआ और उठते हुए बोला- अब मुझे इजाज़त दीजिये।
लड़का उठ ही रहा था, कि  भीतर से गुरूजी की धर्मपत्नी आ गयीं , और बोलीं- अरे बेटा, खाना खाकर जाना। यह कहते हुए उन्होंने दो थालियाँ रखीं, और बोलीं, ये घी वाली रोटियां तुम्हारी हैं और रूखी अपने सर को देदो। लड़के ने सकुचाते हुए ऐसा ही किया और दोनों खाना खाने लगे।
गुरूजी ने मिठाई की प्लेट से एक बर्फी उठाई ही थी,कि  उनकी धर्मपत्नी फिर आ गयीं। वह कड़क करअपने पति से बोलीं- "अरे-अरे बर्फी रखो नीचे, ये छाछ लो ", फिर वे लड़के से बोलीं-"खाओ बेटा, जो इच्छा हो वही खाओ।"

कोहिनूर और पारस

एक दिन कोहिनूर और पारस में बहस हो गई। कोहिनूर की बातों से साफ़ झलक रहा था कि  उसे पारस से ईर्ष्या हो रही है। बात भी कुछ ऐसी ही थी। अगर एक पत्थर की महत्ता एक हीरे से ज्यादा होगी तो हीरे को बुरा लगेगा ही।
कोहिनूर ने चिढ़ते हुए कहा- "हीरा हीरा ही होता है, उसका मुकाबला एक पत्थर भला क्या करेगा।"
पारस ने कहा- "सवाल यह नहीं है कि  हम खुद क्या हैं, सवाल यह है कि  हम किसी दूसरे को क्या बना सकते हैं। मुझे देखो, मुझे लोग पारस पत्थर ही कहते हैं, मगर वे मेरा सम्मान इसीलिए करते हैं कि  मैं किसी को भी छू कर सोना बना सकता हूँ।"
डॉ . राधाकृष्णन यही कहा करते थे- "मैं अपने उन दिनों को याद करता हूँ जब मैं शिक्षक था। वे दिन पारस पत्थर जैसे दिन थे, मैं तब अपने विद्यार्थियों को पढ़ा कर न जाने क्या से क्या बना देता था। अब तो इस विशाल भवन [राष्ट्रपति भवन] में कोहिनूर की तरह दिन काट रहा हूँ।"
डॉ .राधाकृष्णन का जन्मदिन एक राष्ट्राध्यक्ष के जन्मदिन के रूप में नहीं, शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है।    

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...