अब सब यही चाहते हैं, कि एक अच्छा, विकसित और संपन्न देश मिले।युवा पीढ़ी तो खास-तौर पर। सब उकता गए हैं बेईमानी, भ्रष्टाचार और बद-इन्तजामी से।ऐसी स्थिति और भी विचित्र होती है, जब आपके पास एक शानदार अतीत हो, एक संपन्न परंपरा हो, और नैतिक मूल्यों का ज़खीरा हो, फिर भी आप के सारे अर्जन और ऊर्जा पर धुंध छा जाए, और आप रास्ता भटक जाएँ।
जब बर्फ गिरती है, तो हरे-भरे पेड़ सफ़ेद हो जाते हैं। सारा माहौल सुस्त हो जाता है। तब पुरानी चहल-पहल में लौटने- पहुँचने के लिए बर्फ हटानी पड़ती है, पेड़ नहीं।
हमें सबको हटा देने के लिए श्रम नहीं करना है। उनके मानस बदलने के लिए प्रेरित करना है। उनके ज़मीर पर से बर्फ हटानी है। उनका विकल्प नहीं, उनकी काहिली और जड़ता का विकल्प ढूंढना है।उन्हें हटा दिया, तो वे अपनी समूची भ्रष्टता और बेईमानी के साथ हमारे इर्द-गिर्द रहेंगे, और भी खतरनाक होकर। हमें ऐसे नई जुराबें नहीं पहननी, कि पुरानी जुराबें जेब में ही रहें, और बदबू आती रहे। जब सही मौसम आयें, तो सतर्क रह कर हमें अपने अगले दिनों के लिए अन्न सहेज लेना है। रखा-पुराना, सड़ा-गला खाते रहने के दिन जितनी जल्दी बीतें, अच्छा है। ताजगी चुनने के मौके, भले ही धीमी रफ़्तार से मिलें,पर लोकतंत्र में मिलते हैं।
जब बर्फ गिरती है, तो हरे-भरे पेड़ सफ़ेद हो जाते हैं। सारा माहौल सुस्त हो जाता है। तब पुरानी चहल-पहल में लौटने- पहुँचने के लिए बर्फ हटानी पड़ती है, पेड़ नहीं।
हमें सबको हटा देने के लिए श्रम नहीं करना है। उनके मानस बदलने के लिए प्रेरित करना है। उनके ज़मीर पर से बर्फ हटानी है। उनका विकल्प नहीं, उनकी काहिली और जड़ता का विकल्प ढूंढना है।उन्हें हटा दिया, तो वे अपनी समूची भ्रष्टता और बेईमानी के साथ हमारे इर्द-गिर्द रहेंगे, और भी खतरनाक होकर। हमें ऐसे नई जुराबें नहीं पहननी, कि पुरानी जुराबें जेब में ही रहें, और बदबू आती रहे। जब सही मौसम आयें, तो सतर्क रह कर हमें अपने अगले दिनों के लिए अन्न सहेज लेना है। रखा-पुराना, सड़ा-गला खाते रहने के दिन जितनी जल्दी बीतें, अच्छा है। ताजगी चुनने के मौके, भले ही धीमी रफ़्तार से मिलें,पर लोकतंत्र में मिलते हैं।
बिल्कुल सही |
ReplyDeleteDhanyawad.
ReplyDeleteसतर्क रह कर हमें अपने अगले दिनों के लिए अन्न सहेज लेना है।...well said !
ReplyDeleteShukriya!
ReplyDelete