Wednesday, November 21, 2012

हम क्यों नहीं तय करते रंग आग का?

देखो-देखो, उम्र अभी तेरह साल भी नहीं होगी, और मुंह में दबा कर सिगरेट, बस लगाली आग!
स्वाहा ! पवित्र अग्नि के समक्ष लिया गया तुम्हारा संकल्प, अवश्य पूरा होगा।
पूरे शहर में कर्फ्यू है, ये आग इसी मोहल्ले की लगाई हुई है।
आग लगे पढ़ाई में, इस मौसम में तो पिकनिक पर जायेंगे।
बस बेटे, मुझे पता है तुझे भूख लगी है, बस दो मिनट, ये जली आग, और ये तैयार तेरा मनपसंद ...
मोक्ष तभी मिलेगा, जब मुखाग्नि कोई अपना देगा।
उसे नरक में भी जगह नहीं मिलेगी, ऐसी फूल सी बहू को जिंदा जला ...
बताइये, आग के कौन से रंग को चुनेंगे?
ऐसी ही है फांसी भी!
आज कसाब को फांसी लग गई। ये ठीक है कि प्रगतिशील कहे जाने वाले कई देश अब मृत्युदंड को नकार चुके हैं। भारत की उदारवादी छवि भी आज इस असमंजस में दिखाई पड़ी। लेकिन प्रगतिशीलता आग के रंग को पहचान पाने की क्षमता नहीं छीनती। यदि मौत का बदला मौत दिए जाने पर करोड़ों लोगों के ज़ेहन में जिंदगी लहलहा उठे, तो ऐसी सज़ा 'न' दिया जाना दरिंदगी है। कबीलाई संस्कृति में लौटने का लांछन पशुता को छिपाने का खोल नहीं होना चाहिए।  

1 comment:

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