Sunday, July 27, 2014

युद्ध

यह केवल अरब-इज़राइल के युद्ध की बात नहीं है।
यह अमिताभ बच्चन के युद्ध की बात भी नहीं है।
किसी भी "युद्ध" का अस्तित्व-परिस्थितियाँ-अंजाम आखिर क्या बताते हैं?
यह क्यों होता है?
जिस तरह धरती चन्द्रमा या सूर्य के एक दूसरे के सीध में आ जाने से कभी-कभी ग्रहण हुआ करते हैं, ठीक उसी तरह दो व्यक्तियों, समाजों या देशों के विचार एक दूसरे की सीध में आ जाते हैं।  फिर तरह-तरह के प्रयास होते हैं।  कोई एक अपने विचार बदल ले।  कोई दूसरे के विचार को बदलने के लिए उसे प्रेरित कर दे, या कोई तीसरा दोनों के बीच संतुलित मध्यस्थता कर दे।
किन्तु जब ऐसा कोई प्रयास सफल न हो सके, तब युद्ध होते हैं। अतः कहा जा सकता है कि सब कुछ ठीक करने के लिए युद्ध होता है।
इस रूप में तो युद्ध अच्छा है, दुनिया को ठीक रखने के लिए ज़रूरी भी है।
लेकिन इसका एक काला-मैला पक्ष भी है।
इसमें कई निर्दोष लोगों की जानें चली जाती हैं।  विध्वंस के खौफ़नाक मंज़र में माल-संपत्ति का भारी नुक्सान होता है। सभ्यता और विकास वर्षों पीछे चले जाते हैं।
दो लोगों के झगड़े को देख कर यदि सैंकड़ों लोग सबक ले लें, दो देशों की लड़ाई यदि सैंकड़ों देशों को कुछ सावधानियाँ बरतना सिखा दे,तो युद्ध की विभीषिका को भी सहनीय माना जा सकता है। जैसे खेत में अन्न उपजाने के लिए किसान कुछ अन्न के दाने मिट्टी में फेंकता है,जैसे वातावरण को सुगन्धित या पवित्र बनाने के लिए कीमती घी आग में फेंका जाता है, जैसे हज़ारों जान बचाने वाले डॉक्टर को सिखाने के लिए पहले कुछ निर्दोष जानें ली जाती हैं।
लेकिन यदि ऐसा नहीं होता, तो युद्ध बहुत ख़राब है, इसे हर कीमत पर रोकने के लिए युद्ध-स्तर पर प्रयास किये जाने चाहियें।   
         

Saturday, July 26, 2014

राजपथ

जंगल में चोरी छिपे लकड़ी काटने गया एक आदमी रास्ता भटक गया।  काफी कोशिशें कीं,किन्तु उसे राह नहीं मिली।  मजबूरन उसने कुछ दिन जंगल में ही काटने का निर्णय ले लिया।
खाने को जंगली फल मिल जाते थे, पीने को झरनों का पानी, काम कोई था नहीं, लिहाज़ा वह दिन भर इधर-उधर भटकता।
एक दिन एक पेड़ के तने से पीठ टिकाये बैठा वह आराम से सामने टीले पर उछल-कूद करते चूहों को देख रहा था कि अचानक उसे कुछ सूझा। वह कुछ दूरी पर घास खा रहे खरगोशों के पास पहुंचा, और उनसे बोला- "तुम्हें पता है, वो सामने वाला टीला वर्षों पहले तुम्हारे पूर्वजों का था।  एक रात चूहों ने उस पर हमला करके धोखे से तुम्हारे पुरखों को भगा दिया और उस पर कब्ज़ा कर लिया।"
खरगोश चिंता में पड़ गए।  एक खरगोश ने कहा-"क्या फर्क पड़ता है, हम अब यहाँ आ गए।"
आदमी बोला-"यदि ऐसे ही चलता रहा तो एक दिन वे तुम्हें यहाँ से भी खदेड़ देंगे, और तब तुम्हारे पास दर-दर भटकने के अलावा कोई और चारा नहीं रहेगा।"
-"तो हम क्या करें?" एक भयभीत खरगोश ने कहा।
-"करना क्या है, तुम उनसे ज्यादा ताकतवर हो, उन्हें वहां से भगा दो, और अपनी जगह वापस लो।" आदमी ने सलाह दी।
खरगोशों ने उसी रात हमले की योजना बना डाली।
उधर शाम ढले आदमी चूहों के पास गया और बोला-"मैंने आज खरगोशों की बातें छिपकर सुनी हैं, वे तुम्हें यहाँ से मार-भगाने की योजना बना रहे हैं।"
-"मगर क्यों? हमने उनका क्या बिगाड़ा है?" एक चूहा बोला।
-"मैं क्या जानूँ,मगर मैंने तुम्हें सचेत कर दिया है, तुम पहले ही उन पर हमला कर दो, चाहो तो मेरे ठिकाने से थोड़ी आग लेलो, मैं तो खाना पका ही चुका हूँ। उनकी बस्ती में घास ही घास है,जरा सी आग से लपटें उठने लगेंगी।"कह कर आदमी नदी किनारे टहलने चल दिया।
रात को चूहों और खरगोशों के चीखने-चिल्लाने के बीच जंगल में भयानक आग लगी, जिसकी लपटें दूर-दूर तक दिखाई दीं।
संयोग ऐसा हुआ कि आग की लपटों के उजाले में आदमी को अपना रास्ता दिखाई दे गया।  वह अपने गाँव लौट गया।  मगर वहां जाकर उसने देखा कि उसके घर वालों ने उसके गुम हो जाने की रपट लिखा दी थी, और उसे न ढूंढ पाने के आरोप में कई अफसर बर्खास्त कर दिए गए थे।
अब उसके दिखाई देते ही सैंकड़ों कैमरे उसके पीछे-पीछे दौड़ने लगे और उसकी तस्वीरें धड़ाधड़ अख़बारों में छपने लगीं।
तभी देश में चुनावों की घोषणा हो गई और अनुभवी आला-कमानों ने घोषणा की, कि लोकप्रिय चेहरों को ही मैदान में उतारा जायेगा।                                

Friday, July 25, 2014

हिंदी का मुद्दा केवल भाषा का सवाल नहीं है !

हिंदी के पक्ष में भारत में बहुत बातें कही जा सकती हैं-
-ये संविधान की घोषित राजभाषा है, इसमें कार्य करना एक राष्ट्रीय विचार है।
-भारतीय स्वाधीनता संग्राम हिंदी के सहारे ही लड़ा गया।  गांधी,सुभाष,राजगोपालाचार्य और पुरुषोत्तमदास टण्डन सभी भारत को एक करने के लिए इसे ज़रूरी मानते थे।
-यह देश के सर्वाधिक लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा है और लोकतंत्र में संख्या का महत्व किसी से छिपा नहीं है।
किन्तु हिंदी के संग सीमाएँ भी कम नहीं जुड़ी हैं-
-दक्षिण और पूर्वोत्तर भारत के लोग हिंदी की मुख्यधारा से अपने को जुड़ा हुआ नहीं पाते।
-मेधावी और विलक्षण लोगों को हिंदी केवल 'देश' तक ही सीमित कर देती है।  वे विश्व से नहीं जुड़ सकते।
-अपरिमित तकनीकी और वैज्ञानिक ज्ञान के रास्ते केवल हिंदी के सहारे नहीं खुल सकते।
इसके अलावा एक व्यावहारिक खतरा और भी है। भारत में अशिक्षित,अल्पशिक्षित और दोषपूर्ण शिक्षित       [ ऐसे लोग जिन्होंने डिग्रियां तो येन-केन-प्रकारेण ले लीं,पर वांछित ज्ञान नहीं लिया] लोगों की भी भरमार है।किन्तु ऐसे लोग हिंदी में अपने को दक्ष मानते हैं, वे डाक्टरों, वकीलों,वैज्ञानिकों आदि के कार्य में अनुचित हस्तक्षेप करते हैं, जिससे "नीम हकीम" वाली स्थिति पैदा होती है।
अतः हिंदी का सवाल अपनी गति से समय ही हल करेगा।            

कर्म और भाग्य

एक जगह किसी विशाल दावत की तैयारियाँ चल रही थीं।  शाम को हज़ारों मेहमान भोजन के लिए आने वाले थे।  इसलिए दोपहर से ही विविध व्यंजन बन रहे थे।
पेड़ पर बैठे कौवे को और क्या चाहिए था।  उड़कर एक रोटी झपट लाया।  रोटी गरम थी।  तुरंत खा न सका, किन्तु छोड़ी भी नहीं, पैरों में दाब ली और उसके ठंडी होने का इंतज़ार करने लगा।
समय काटने के लिए कौवा रोटी से बात करने लगा।  बोला-"क्यों री,तू हमेशा गोल ही क्यों होती है?"
रोटी ने कहा-"मुझे दुनिया के हर आदमी के पास जाना होता है न, पहिये की तरह गोल होने से यात्रा में आसानी रहती है।"
-"झूठी, तू मेरे पास कहाँ आई? मैं ही उठा कर तुझे लाया!" कौवे ने क्रोध से कहा।
-"तुझे आदमी कौन कहता है रे?" रोटी लापरवाही से बोली।
कौवा गुस्से से काँपने लगा।  उसके पैरों के थरथराने से रोटी फिसल कर पेड़ के नीचे बैठे एक भिखारी के कटोरे में जा गिरी।
वेताल ने विक्रमादित्य को यह कहानी सुना कर कहा- "राजन,कहते हैं कि दुनिया में भाग्य से ज्यादा कर्म प्रबल होता है, किन्तु रोटी उस कौवे को नहीं मिली जो कर्म करके उसे लाया था, जबकि भाग्य के सहारे बैठे भिखारी को बिना प्रयास के ही मिल गयी। यदि इस प्रश्न का उत्तर जानते हुए भी तुमने नहीं दिया, तो तुम्हारा सिर टुकड़े-टुकड़े हो जायेगा।"
विक्रमादित्य बोला-"भिखारी केवल भाग्य के भरोसे नहीं था, वह भी परिश्रम करके दावत के स्थान पर आया था और धैर्यपूर्वक शाम की प्रतीक्षा कर रहा था। उधर कौवे ने कर्म ज़रूर किया था पर कर्म के साथ-साथ सभी दुर्गुण उसमें थे-क्रोध, अहंकार, बेईमानी। ऐसे में रोटी ने उसका साथ छोड़ कर ठीक ही किया।"
वेताल ने ऊब कर कहा- "राजन, तुम्हारा मौन भंग हो गया है,इसलिए मुझे जाना होगा, लेकिन यह सिलसिला अब किसी तरह ख़त्म करो, जंगल और पेड़ रोज़ कट रहे हैं, मैं भला वहां कब तक रह सकूँगा?"         
  

Wednesday, July 23, 2014

दिल,दौलत,दुनिया

कल 'ज़ी क्लासिक' चैनल ने पहली बार "दिल दौलत दुनिया" फिल्म दिखाई।
यह अभिनेत्री साधना की आख़िरी रिलीज़ फिल्म थी।  इसी फिल्म के दौरान उनकी आँखों में हुई तकलीफ बहुत बढ़ गई थी, और उन्हें लगातार शूटिंग छोड़-छोड़ कर इलाज के लिए विदेश जाना पड़ा था।  फिल्म जैसे-तैसे काट-जोड़ कर प्रदर्शित की गई।
शायद यही कारण था कि फिल्म के क्रेडिट्स में निर्माता-निर्देशक ने अपना नाम नहीं दिया। आगा,ओमप्रकाश,टुनटुन,जगदीप जैसे हास्य कलाकारों के होते हुए भी अशोक कुमार,हेलन,बेला बोस और सुलोचना के हिस्से भी हास्य भूमिकाएं आईं।
फिल्म को प्रदर्शित कर दिए जाने के पीछे दो महत्वपूर्ण कारण थे- इसके साथ उन राजेश खन्ना का नाम जुड़ा था,जो उन दिनों आराधना,दो रास्ते, दुश्मन,आनंद जैसी फ़िल्में दे चुकने के बाद सुपरस्टार थे, और पहली बार पिछले दशक की लोकप्रिय स्टार साधना के साथ काम कर रहे थे। दूसरे,स्वास्थ्य कारणों से फ़िल्मी-दुनिया छोड़ने को मजबूर हुई साधना की अनेक अधूरी पड़ी फिल्मों में से अकेली पूरी की जा सकी फिल्म यही थी।
तमाम हास्य भूमिकाओं के बीच केवल साधना और राजेश खन्ना की "समाजवाद" के समर्थन में गंभीर भूमिकाएं थीं।
उल्लेखनीय है कि साठ-सत्तर के दशक में साधना के - वो कौन थी, परख, दूल्हा-दुल्हन,लव इन शिमला,राजकुमार,एक मुसाफिर एक हसीना,हम दोनों,वक़्त,आरज़ू,मेरे मेहबूब,बद्तमीज़,मेरा साया,एक फूल दो माली, अनीता,अमानत,इश्क पर ज़ोर नहीं,इंतक़ाम,गीता मेरा नाम, गबन,सच्चाई,महफ़िल,आप आये बहार आई  जैसी अनेकों फिल्में करने के बावजूद साधना के साथ दिलीप कुमार ने कोई फिल्म नहीं की। कहते हैं कि साधना की छवि एक रहस्यमयी महिला की थी और दिलीप कुमार सायरा बानो जैसी खुली शख़्सियत के अभ्यस्त थे, उन्हें साधना का व्यक्तित्व मधुबाला की याद दिलाता था,जिसे वे भूलना चाहते थे।           

Tuesday, July 22, 2014

विद्या ददाति विनयम् [भाग-२]

 -"सर, मुझे याद था कि आज गुरु पूर्णिमा है, मैं आपके लिए उपहार लेकर ही आया हूँ।"
वे प्रसन्न हो गए-"वाह, दिखाओ तो क्या लाये हो?"
लड़के ने कंधे पर टंगे झोले से एक इलेक्ट्रिक प्रेस निकाल कर मेज पर रखते हुए कहा-"आपने मुझे आत्मनिर्भर होने का पाठ पढ़ाया, मैंने सोचा, क्यों न आपको आत्मनिर्भर बना दूँ, अब आप अपने कपड़े स्वयं इस्त्री कर सकेंगे।"
वे भीतर से तिलमिला गए, पर बाहर से सहज होते हुए बोले-"ये तो महँगी होगी, तुमने इतना नुकसान क्यों उठाया?"
लड़का संजीदगी से बोला-"बिलकुल नहीं सर, आपने मुझे गणित और हिसाब भी तो सिखाया है, ये ठीक उतने में ही आई है, जितने पैसे मैं आपको इस महीने फीस में देने वाला था।"
-"ओह, हिसाब बराबर? पर तुमने साल भर तक मेरी सेवा की, और तुम्हें कुछ न मिला!" वे बोले।
लड़के ने विनम्रता से कहा-"क्यों नहीं सर, साल भर तक प्रेस के कपड़ों का बिल नौ सौ पचास रूपये हुआ, जो आपने अब तक नहीं दिया, एक दिन आपकी शर्ट की जेब से प्रेस करते हुए मुझे हज़ार का नोट मिला, जो मैंने आपको नहीं दिया,हिसाब बराबर!"
वे अब गुस्से पर काबू न रख सके-"हिसाब के बच्चे, पचास रूपये तो लौटा!"
लड़का शांति से बोला-"आपने ही तो मुझे सिखाया था कि जो कुछ ईमानदारी से चाहो, वह अवश्य मिलता है, तो मुझे मेरी बढ़ी हुई दर से पैसे मिल गए।"
-"नालायक, तो उपहार का क्या हुआ?"वे उखड़ गए।
-"आपने मुझे इतना कुछ सिखाया,तो कुछ मैंने भी तो आपको सिखाया, हिसाब बराबर!"लड़का बोला।
-"तूने मुझे क्या सिखाया?" वे आपे से बाहर हो गए।
-"नया साल केवल दिवाली से नहीं, बल्कि 'शिक्षा' से आता है, और क्रोध मनुष्य का दुश्मन है।" कह कर लड़का अब निकलने की तैयारी कर रहा था। [समाप्त]

  

विद्या ददाति विनयम्

अबकी बार बूढ़ा धोबी जब उनके कपड़े प्रेस करके लाया, तो उसके साथ एक किशोर लड़का भी था। बूढ़ा बोला-"अबसे आपके पास ये आया करेगा, ये आपके कपड़े भी ले आएगा, और आप इसे थोड़ी देर पढ़ा देंगे तो आपका अहसान होगा, आपकी फ़ीस तो मैं दूँगा ही।"
उनकी फ़ीस सुन कर धोबी को एकबार तो लगा, जैसे गर्म प्रेस से हाथ छू गया हो, पर इसका तो वह अभ्यस्त था ही, बात तय हो गयी।  
कुछ दिन बाद बुज़ुर्ग और पारखी धोबी को महसूस हुआ कि उनके कपड़ों की क्रीज़ जितनी नुकीली बनती है, उतना उसके लड़के का दिमाग़ पैना नहीं हो रहा, और लड़का अब धोबी का काम करने में भी शर्म महसूस करने लगा है। उसे उनकी फीस ज़्यादा और कपड़ों का मेहनताना कम लगने लगा। उसने लड़के को समझाया कि उनसे प्रेस की दर कुछ बढ़ाने की अनुनय करे।  
लड़के ने संकोच के साथ अपने पिता की बात अपने शिक्षक को बताई। शिक्षक बोले- "नए साल से पैसे बढ़ा देंगे।"
पिता-पुत्र संतुष्ट हो गए। 
जनवरी में लड़के ने दर कुछ बढ़ाने के लिए कहा। वे बोले-"अरे ये तो अंग्रेज़ों का नया साल है, हमारा थोड़े ही।"लड़का चुप रह गया।  
अप्रैल में लड़के ने झिझकते हुए उन्हें फिर याद दिलाया।  वे तपाक से बोले-"अरे ये तो व्यापारियों का नया साल है, हमारा थोड़े ही।"लड़का मन मार कर चुप रहा।  
जुलाई में लड़के के स्कूल में नया सत्र शुरू होने पर उसने कहा- "सर, अब तो शिक्षा का नया साल है, आप मेरे पैसे कुछ बढ़ाएंगे?"
वे बोले-"अरे रूपये-पैसे की बात दिवाली से करते हैं।" लड़का सहम कर चुप हो गया।
कुछ दिन बाद वे परिहास में लड़के से बोले-"आज गुरु पूर्णिमा है, हर विद्यार्थी आज अपने गुरु को कुछ उपहार देता है, तुम मुझे क्या दोगे ?"
लड़के ने कहा-[जारी ]        
          

Saturday, July 19, 2014

दुनिया की समीक्षा

गाँव से कुछ दूरी पर यह एक खुला मैदान था। मैदान के एक किनारे पर कुछ लड़के गोलबंद होकर चुपचाप बैठे थे।  नज़दीक ही एक ऊंचे से खजूर के पेड़ पर बने छोटे से घोंसले में एक चिड़िया के बच्चे टुकुर-टुकुर तकते खामोश बैठे थे।
मैदान से सट कर एक सड़क जाती थी और उसके पार उथला सा एक तालाब था।  तालाब के किनारे एक टिटहरी मौन खड़ी थी और फड़फड़ाते कुछ बगुले शब्दहीन जुगाली कर रहे थे।
दलदल के समीप दो कुत्ते बिना हिले-डुले कहीं दूर देख रहे थे।
आसमान में बादलों के पार से शिव और पार्वती रोज़ के भ्रमण पर निकले हुए थे। पार्वती ने अन्यमनस्क होकर कहा-"देखो तो, ब्रह्माजी ने दुनिया बना तो दी, पर इस नीरव सन्नाटे का कोई हल क्यों नहीं निकाला, मन कितना खराब होता है ?"
शिव ने उलाहना दिया-"तुम्हें तो बात का बतंगड़ बनाने की आदत है, लड़कों की बॉल खो गई है, एक लड़का दूसरी लेने गया है, उसके आते ही सब चीखते-चिल्लाते, भागते-दौड़ते दिखेंगे।"       

Thursday, July 17, 2014

स्वीकृत पदों को ख़ाली रखना अपराध

किसी भी सरकार में किसी पद को खाली रखना केवल अनदेखी, लापरवाही,धीमी कार्यगति, या यथास्थितिवाद को कायम रखने की ही बात नहीं है, बल्कि यह घोर आपराधिक मानसिकता है।
ऐसा इन कारणों से होता है-
१. पद बिना सोचे-समझे स्वीकृत कर लिए गए हों।
२. जिन्होंने स्वीकृत किये, वो अब सत्ता में न हों, और नई सत्ता को उनके फैसले उलटने हों।
३. किसी खास व्यक्ति के लिए उस पद पर आने तक इंतज़ार करना हो।
४. किसी काम को करना न हो, लेकिन होते हुए दिखाने की विवशता हो।
यदि वास्तव में स्वीकृत पद पर कोई सुपात्र न मिल पा रहा हो, तो या तो पद की पात्रता का पुनर्मूल्यांकन तुरंत किया जाना चाहिए, अथवा पद तत्काल निरस्त किया जाना चाहिए।
यदि एक राज्यपाल कुछ महीनों के लिए दूर दराज़ के तीन राज्य संभाल सकता हो, तो दो ही बातें हो सकती हैं-
यह दिखावटी पद हो, और इस पर करने के लिए कुछ न हो।
या इस पद से शासित होने वालों को कोई दंड देने की मंशा हो।     

Tuesday, July 15, 2014

अलग होने के बाद घृणा करना ज़रूरी?

दोस्ती का पर्यायवाची शब्द है दुश्मनी !
यदि दोस्ती ख़त्म होती है तो दुश्मनी शुरू होती है।
लेकिन दोस्ती जिस क्षण ख़त्म हो, ठीक उसी समय से दुश्मनी शुरू नहीं होती।
थोड़ा सा वक़्त इस असमंजस में जाता है कि ये क्या हुआ?
ये बात उन दोस्तों पर लागू होती है जो पहले कभी अलग-अलग हों।
भारत पाकिस्तान पर यह लागू नहीं होती क्योंकि वे दोस्त दुश्मन नहीं, भाई दुश्मन हैं।
इनमें मानस का बँटवारा १९४७ में हुआ। बंटवारा भी इस तरह हुआ,कि एक का असबाब दूसरे के घर छूट गया, या दूसरे की स्मृतियाँ पहले के साथ चली आईं। नतीजा ये हुआ कि बंटवारा भी सलीके से नहीं हो सका।
टूटते-बिखरते घर का कोई हिस्सा कभी-कभी ऐसा भी निकल आता है जिससे दोनों हिस्से अपना जुड़ाव मानें। लेकिन इस हिस्से को "तीसरा हिस्सा" मानना किसी बात का कोई हल नहीं हो सकता।        

Monday, July 14, 2014

"आप दुनिया में क्यों आये हैं?"

चार लोग एक बगीचे में टहलते,बातें करते, एक-दूसरे की कहते-सुनते चले जा रहे थे।
उनका ध्यान बंटा तब, जब एक किशोर वय के बच्चे ने उन्हें नमस्कार किया।
चारों ने ही जवाब तो दे दिया, किन्तु वस्तुतः वे उसे पहचाने नहीं थे। सभी ने यह सोच कर उसके अभिवादन का प्रत्युत्तर दे दिया कि वह उनमें से किसी अन्य का परिचित होगा।
लड़का तब रुका और बोला-"मैं आपसे एक सवाल पूछना चाहता हूँ, पर मेरा आग्रह है कि आप सभी एक मिनट का समय मुझे अलग-अलग दें,ताकि मैं आपके मौलिक जवाब अलग-अलग ही जान सकूँ।"
वे सहर्ष तैयार हो गए।
लड़के ने बारी -बारी से उन्हें एक ओर ले जाकर सवाल किया-"आप दुनिया में क्यों आये हैं?"
सभी उम्रदराज़ थे, पर ऐसा कभी उन्होंने सोचा न था। साथ ही बच्चे को कुछ सार-गर्भित कहने की इच्छा भी थी।
पहले ने कहा-"मुझे ईश्वर ने भेजा है!"
दूसरा बोला-"माता-पिता की इच्छा के कारण मेरा जन्म हुआ!"
तीसरे का उत्तर था-"अपने देश की सेवा करने को मैंने जन्म लिया!"
चौथा कहने लगा-"मेरे भाग्य में जीवन-सुख था!"
बच्चे ने सभी को धन्यवाद दिया और जाने लगा। लेकिन उन चारों ने ही महसूस किया कि बच्चा उनकी बात से खुश नहीं है, क्योंकि वह काफ़ी परेशान सा दिख रहा था।
वे बोले-"बेटा,तुम ये तो बताओ कि ये गूढ़ प्रश्न तुमने क्यों किया, और अब तुम इतने दुखी से क्यों हो?"
बच्चा बोला-"मुझे तो अपने होमवर्क में इसका उत्तर लिखना था, पर पार्क बंद होने का समय हो गया और चौकीदार ताला लगा कर चला गया। अब आप सबको ऊंची दीवार कूद कर वापस जाना होगा।"
वे चारों हड़बड़ा कर दरवाजे की ओर दौड़े। पीछे से बच्चे की आवाज़ आई-"अंकल संभल कर जाना, बाहर मेरा कुत्ता होगा!"
        

Sunday, July 13, 2014

अब तक

घूमता-घूमता वह फ़क़ीर उस गाँव में भी चला आया। उसे हैरत हुई जब उसने देखा कि लोग न केवल उसका मान कर रहे हैं, बल्कि उसे भोजन भी दे रहे हैं। वह कृतार्थ होता रहा।
तभी एक किशोर ने उससे पूछा- "बाबा, लोग आपको बिनमाँगे सम्मान और रोटी दे रहे हैं,क्या आप बदले में उनका कुछ अच्छा नहीं करेंगे?"
"बोल बेटा,क्या कहना चाहता है?" फ़क़ीर ने कहा।
लड़का बोला-"गाँव में एक बबूल उग गया है, हम चाहते हैं कि उसकी जगह जामुन हो, थोड़ी छाँव मिले, काँटों से पीछा छूटे,खट्टे-मीठे फल लगें और हम बच्चों को चढ़ने-खेलने के लिए एक ठौर मिले।
बाबा ने कहा-"ऐसा करो, बबूल को सब मिल कर काट दो, कुछ दिन बिना छाँव के रहने का अभ्यास करो, एक जामुन का बीज बो दो और उसकी परवरिश करो,कुछ समय बाद तुम्हारी इच्छा पूरी होगी।"
लड़का सकपकाया-"… पर बाबा,ये सब तो हम भी कर लेते!"
-"तो अब तक किया क्यों नहीं?" फ़क़ीर ने जाने के लिए अपनी गठरी उठाते-उठाते कहा।               

Saturday, July 12, 2014

चलो उन्हीं से पूछते हैं !

पेड़ की डाल पर बैठे एक कबूतर ने देखा कि सामने वाले मकान में एक खूबसूरत खिड़की है,जिस पर कोई पर्दा भी नहीं है और सफ़ाई होने के कारण आसपास कोई कीट-पतंगा भी मँडरा नहीं रहा।
उसकी आँखों में उमंग की तरंगें आने लगीं। उसने मन ही मन ठान लिया कि कुछ दिनों से उसका जिस कबूतरी से प्रेम चल रहा है, यदि वह गर्भवती हुई तो हम अपना घरौंदा इसी खिड़की में रखेंगे।
कहते हैं न, शिद्दत से कुछ चाहो तो क़ायनात उसे देने में देर नहीँ करती। कबूतरी की आँखों में एक दिन नव-निर्माण की लालसा दिपदिपाने लगी।
दोनों मिल कर बाग से तिनके ला-लाकर खिड़की पर रखने लगे।
पर ये क्या? इधर बेचारे दोनों पंछी तिनके लाते, उधर भीतर से एक लड़की बार-बार उन्हें बुहार कर नीचे फ़ेंक देती। यह सिलसिला सुबह से दोपहर तक चलता रहा, न पखेरू ही थके और न लड़की ही आज़िज़ आई।
लड़की ने सोचा कबूतर अब तक क्यों नहीं थके?
-जब तक काम पूरा न हो, उसे कैसे छोड़ दें।
-उन्हें याद ही नहीं रहता था कि उनके पहले लाये गए तिनके फेंक दिए गये हैं।
-कबूतर सोचते, हम दो हैं, ये अकेली, देखें कब तक रोकेगी?
-हमें हटाती तो हम एक मिनट में उड़ जाते, पर अपने बच्चों का आशियाना हम आसानी से उजड़ने नहीं देंगे।
आख़िर थक कर लड़की ने कबूतरों से ही पूछा-"क्यों रे उत्पातियो,इस ज़िद की वजह?"
"दुनिया ऐसे ही बनी है मेमसाहब!" कबूतरों ने कहा।
                   

Thursday, July 10, 2014

बेचारा फैशन

फ़ैशन के लिए ही कहा था न जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने-"फ़ैशन इतनी बदसूरत बला है कि इसे रोज़ बदलना पड़ता है"
लेकिन अब ये 'बदसूरत बला' भी जम कर बैठ गई है। किसी भी चीज़ का फ़ैशन कभी जाता ही नहीँ।
यदि आपको पुरानी चीज़ें जमा करने का शौक हो, और अपने इस शौक के चलते आप बरसोँ पुरानी सहेज कर रखी गई कोई ड्रेस आज पहन कर किसी पार्टी में चले जाएँ तो भी आप अजीब नहीं लगेंगे।
इसके बहुत सारे कारण हैं-
१. सैंकड़ों टीवी चैनलों पर दिन-रात चलते नये-पुराने कार्यक्रमों की बदौलत हर दौर का फैशन अब सदाबहार हो गया है, और लोग इसे हमेशा स्वीकार कर लेते हैं।
२. "ज़माने" की अवधारणा अब पूरी तरह मिट गई है। अब किसी का ज़माना न तो जाता है, और न ही कभी पुराना पड़ता है। "रंगभेद" मिटाने के लिए कार्य करने वाले भी हमेशा सक्रिय रहते हैं, और आपको "इंस्टेन्ट व्हाइटनिंग" देने वाले भी।    
३. लगातार बढ़ती मंहगाई लोगों को हमेशा 'नए' के पीछे भागने भी नहीं देती।
लेकिन आप सोच रहे होंगे कि फ़िर 'फैशन' बेचारा कैसे हो गया? ये तो शान से जमकर बैठने वाला और भी ताक़तवर खेल हो गया !
'बेचारा' इसलिए, क्योंकि बेचारे की हमेशा नये बने रहने की ललक तो थम गई न !            

अब लोग ब्रांडेड हैं

एक बुजुर्ग रिटायर्ड सज्जन के दो बेटे थे। दोनों शादीशुदा, और बालबच्चों वाले।
सज्जन ने अपनी पत्नी की सलाह पर घर की रसोई की जिम्मेदारी दोनों बहुओं के बीच बाँट दी।  सुबह के खाने -नाश्ते की व्यवस्था छोटी बहू देखती और सांझ की चाय-दूध-खाने की जिम्मेदारी बड़ी बहू की रहती।
दोपहर में दोनों खाली रहतीं,तो पास-पड़ोस में अपनी-अपनी सहेलियों के बीच जा बैठतीं।
छोटी बहू कहती, सुबह सबके जाने का समय होता है तो काम समय पर निपटाना होता है, रोज़ नाश्ते में क्या बनाओ, ये सोचना पड़ता है। मुसीबत तो सुबह की है, शाम को तो आराम से कुछ भी बनालो।
उधर बड़ी बहू अपने जमघट में कहती- सुबह तो सबको काम पर जाने की हड़बड़ी होती है,जो भी उल्टा-सीधा पका कर दे दो,खाकर चले जाते हैं।असली मुसीबत तो शाम की है, सब फुर्सत में होते हैं तो नख़रे दिखाते हैं। ये बनाओ, वो बनाओ।
जब देश की संसद में बजट पेश होता है तो दोनों बहुओं जैसा हाल सत्तापक्ष और विपक्ष का होता है। किसी नेता को ये नहीं सूझता कि जरा सा दिमाग़ लगाकर सोच लें कि कौन सा काम अच्छा, कौन सा नहीं अच्छा। बस,यदि अपनी पार्टी का है तब सब अच्छा, दूसरी पार्टी का है तो सब ख़राब।
और सोने पे सुहागा ये मीडिया। जब तक सबसे राय न पूछे, इसे मोक्ष नहीं मिलता।                 
      

Wednesday, July 9, 2014

"सकारात्मकता" पहचानना आना चाहिए आपको

 जब मैं कहता हूँ कि नयी पीढ़ी आज के नायकों को "अपने मोहल्ले का" समझती है, तो मुझसे कुछ मित्र जानना चाहते हैं कि  मैं आज के नायकों को 'अंडर एस्टिमेट' कर रहा हूँ या नयी पीढ़ी को?
मैं बुरी तरह चौंक जाता हूँ। यदि मेरी बात का यह मतलब निकल रहा है तो मुझे फिर से सोचने दीजिये।
पुराने ज़माने के लोग जब कहते थे कि अमुक व्यक्ति 'वहां' का है तो इसलिए, कि इससे उसके व्यक्तित्व पर कुछ रोशनी पड़ जाये।  वहां का है, तो इस तरह बोलता होगा, इस तरह का खानपान पसंद करता होगा, इस तरह के पहनावे में रहता होगा, आदि-आदि।
किन्तु नई पीढ़ी और आज के नायकों का सौभाग्य है कि अब ऐसा नहीं है।
अब कोई एक शहर में पैदा हुआ है, दूसरे शहर या देश में पढ़ा है, तीसरे देश के पहनावे को पसंद करता है, चौथे की डिशेज़ उसकी पसंदीदा हैं, पांचवें में उसकी गर्लफ्रेंड या बॉयफ्रेंड रहते हैं, … तो वह सबको अपने मोहल्ले का ही समझेगा न ? उसके साथ शहर, राज्य या देश का नाम क्यों जोड़ें? और कैसे जोड़ें?
तो अब कौन कहाँ का ? सब इस जहाँ के !        

Monday, July 7, 2014

पंजाब के खेतों की फसल

किसी समय पंजाब बहुत बड़ा राज्य था। वैसे बड़े दिल वाला राज्य ये अब भी है।  तो इस बड़े पंजाब का एक हिस्सा विभाजन के समय परदेसी हो गया।  फिर हिमाचल बना।  हरियाणा बना।  एक हिस्सा चंडीगढ़ अब भी अलग अस्तित्व लेकर कायम है।
इस पंजाब की अनेकों विशेषताओं के साथ-साथ एक खास बात ये भी है कि इसने हिंदी फिल्म जगत को "हीरो" दिए हैं।
कितने?
यदि गिनना ही चाहें तो बेहतर यह होगा कि पहले सारे नायकों की एक सूची बना लें फिर उसमें से इक्का-दुक्का उन्हें हटा दें जो पंजाब से नहीं हैं। बन गयी पंजाब के नायकों की सूची।
अचम्भे की बात ये है कि इसी पंजाब ने हीरोइनें नहीं के बराबर दीं।
हीरोइनें दीं मद्रास यानी तमिलनाडू ने।
उत्तर-दक्षिण की एकता की इससे बेहतर मिसाल और क्या होगी?
राजकपूर, देवानंद, दिलीप कुमार की तिकड़ी हो, सुनील दत्त, राजेंद्र कुमार, मनोज कुमार का तिगड्डा हो,राजेश खन्ना,धर्मेन्द्र, जीतेन्द्र या विनोद खन्ना की बात हो, पंजाब की फसल बोलती है।
अमिताभ के इस पार तो जैसे सीमायें टूट सी गयीं।
शाहरुख़,आमिर,ऋतिक,सलमान और अक्षय तो पूरे भारत अर्थात सब जगह के हैं।
और उसके बाद के नायकों को तो नई पीढ़ी अपने मोहल्ले का समझती है।                    

Saturday, July 5, 2014

उनका आना,जाना और रहना एक रहस्य ही रहा

किसी के व्यक्तित्व पर वे बातें खासा असर डालती हैं जो उसकी "टीन एज"में घटी हों।  मेरी टीन एज जुलाई १९६५ से जून १९७३ तक रही।
यदि मैं इस दौर की बात करुँ तो भारतीय फिल्मों, और उनमें हिंदी की मुख्यधारा की फिल्मों का असर मुझ पर भी उसी तरह पड़ा जैसे किसी भी युवा पर पड़ता है।
इस समय 'नागिन' से शुरू हुआ वैजयंतीमाला का सफर 'संगम'तक आते-आते शिखर पर था। पर इसी समय 'मेरे मेहबूब' के देशव्यापी खुमार के बाद "वक़्त"ने साधना की ज़बरदस्त उपस्थिति दर्ज कराई थी। साधना कट बाल और चूड़ीदार की लोकप्रियता के साथ-साथ राजकुमार, आरज़ू,मेरा साया,एक फूल दो माली आदि फिल्मों ने अगले कुछ साल साधना के नाम लिख दिए। मशहूर पत्रिका "माधुरी"ने जब देश भर के पाठकों की राय पर 'फिल्मजगत के नवरत्न' चुने तो राजेश खन्ना और जीतेन्द्र के बाद तीसरा नाम साधना का था और अन्य समकालीन नायिकाओं का दूर-दूर तक कोई ज़िक्र नहीं था।  
इस समय वैजयंतीमाला प्रिंस,दुनिया,संघर्ष,आम्रपाली,गँवार आदि के साथ उतार पर नज़र आने लगीं। पालकी,धरती जैसी फिल्मों ने गाइड के बावजूद वहीदा का बाजार ठंडा रखा। सरस्वती चन्द्र,लाटसाहब,सौदागर ने नूतन के बदलते रुझान को अंकित किया।
आशा पारेख, शर्मिला टैगोर,बबिता दौर के उभरते नाम थे।
१९६९ में इंतकाम फिल्म के एक गाने को जब बिनाका गीत माला ने टॉप पर रक्खा,तो इससे तीन बातों की अनुगूँज सुनाई दी।  गाना था-"कैसे रहूँ चुप ,कि मैंने पी ही क्या है?"
-बदले की भावना पर एंग्री यंगमैन अमिताभ बाद में जो "युग" लाये उसकी नायिका-प्रधान आधारशिला इसी समय रखी गयी।
-कैबरे,नशे और खलनायिका के लिए आशा भोंसले की सटीक आवाज़ को पहली बाऱ चुनौती लता मंगेशकर ने इसी गीत से दी.
-जिस हेलन के डाँस को बाकी हीरोइनें कुर्सी पर बैठ कर सहती थीँ,वह इस गीत में एक ओर खड़ी रही, और डाँस चलता रहा।
इसके बाद तो हेमामालिनी,मुमताज़,जया भादुड़ी,शर्मिला, रेखा और ज़ीनत अमान ने इतिहास बदल दिया।
        
                

Friday, July 4, 2014

रत्न कुमार सांभरिया, राम कुमार घोटड़, पारस दासोत, गोविन्द शर्मा, मुरलीधर वैष्णव, महेंद्र सिंह महलान की लघुकथायें पढ़ी हैँ आपने ? कैसी हैं ?

यदि आप हिंदी के अखबार, पत्रिकाएं और वेबसाइट्स देखते हैं तो इन लोगों की लघुकथाएँ आपने ज़रूर पढ़ी होंगी। यदि पढ़ी हैं तो आपको कैसी लगीं? यदि अच्छी लगीं, तो रचना के नाम के साथ खुल कर बताइये।यदि नहीं लगीं, तो भी कम से कम मुझे तो बता ही दीजिए -चुपचाप!  

Wednesday, July 2, 2014

"अच्छे दिन !"

एक था।
आपकी मर्ज़ी, आगे कुछ भी जोड़ लीजिये- राजा, आदमी, देश।
उसे अटरम-शटरम , अल्लम-गल्लम खाने की आदत पड़ गई। जो भी दिखा,सब पेट में।
पेट ख़राब होना ही था, हो गया।
अब पेट पकड़ कर एक टांग से नाचने लगा तो एक वैद्य ने कह दिया- "ठण्ड रख, ठीक कर देंगे।"
उसने दंडवत प्रणाम किया और ले आया वैद्य जी को घर।
वैद्य जी ने ज़रा सा पेट दबाया, तो पेट में जमा अपान वायु धड़ाधड़ निकलने लगी।
मोहल्ले में शोर मच गया- "वैद्य जी दुर्गन्ध फैला रहे हैं, वैद्य जी दुर्गन्ध फैला रहे हैं।"
वैद्य ने कहा- कड़ा इलाज होगा, केवल दुर्गन्ध ही नहीं, अभी तो भूखा रखूँगा तुझे। कुछ दिन केवल नीबू पानी, फिर दाल का पानी, फिर कड़ी मेहनत और तब मेहनत की दाल-रोटी। तब जाकर आएंगे तेरे-
रोगी उछल कर बोला- "अच्छे दिन !"   

        

जीरे की बोरियाँ

जीरा याद कीजिये।  याद आया न दाल-सब्ज़ी का खुशबूदार तड़का।  जब तक जीरे का छौंक नहीँ लगता तब तक स्वाद छिपा ही रहता है, सामने नहीं आता। यही जीरा जब जलजीरा बनता है तब तो इसका स्वाद संभाले नहीँ संभलता, मुंह में पानी आकर ही रहता है।
तो अब इस जीरे को संभाल लीजिये,ये आपके बहुत काम आने वाला है। हो सकता है यह जल्दी ही महँगा भी हो जाए। क्योंकि जब लोग भर-भर बोरियाँ ख़रीदेंगे तो इसकी किल्लत तो होगी ही। लेकिन जो लोग जीरा उगाएंगे वो मालामाल भी हो जायेंगे।
अब आप जानना चाहेंगे कि आखिर ऐसा क्या हो गया, जो जीरे की इतनी अहमियत?
तो सुनिए, भारत के सबसे बड़े राज्य राजस्थान में यहाँ के राज्य-पशु गोंडावण की जगह अब "ऊँट" को राज्य-पशु बना दिया गया है। ऊँट राजस्थान में बहुतायत से पाया जाता है, और इसे रेगिस्तान का जहाज कहा जाता है। रेतीले गाँवों में तो डाक बाँटने का काम भी ऊँटों से लिया जाता रहा है। अब तक लोग ऊँट के मुंह में जीरा डाल कर काम चला लेते थे, लेकिन अब ये राजसी ठाट-बाट वाला प्राणी ख़ाली ज़ीरे से बहलने वाला नहीँ। इसके मुंह में आपको जीरे की बोरियाँ भर-भर डालनी होँगी।
पुराने ज़माने में जब लड़का अपनी पत्नी को ऊँट पर बैठा कर उसके माता-पिता के घर ले जाता था तो वे नाराज़ हो जाते थे और उसे वापस नहीं भेजते थे। तब हार कर लड़के को सजी-धजी बैलगाड़ी ले जानी पड़ती थी।
अब लड़का शान से उसे ऊँट की सवारी करा सकेगा।
कहते हैं कि जब अच्छे दिन आते हैं तो डाकिये को भी राजा बनते देर नहीं लगती।                                 

Tuesday, July 1, 2014

गुनगुनाते जवाब, बड़बड़ाते सवालों के !

मेरे एक भतीजे को हमेशा फ़िल्मी गाने गुनगुनाते रहने की आदत थी। मगर उसके दिमाग़ की हाज़िर जवाबी इतनी जबरदस्त थी कि वह गाते-गाते भी चारों ओर उठ रहे सवालों के सटीक जवाब दे डालता था।  उसे सही समय पर सटीक गाने बख़ूबी याद आते थे।
एक बार मेरी एक रिश्ते की बुआ एक स्कूल में इंटरव्यू देने जा रही थीं।  वहां टीचर और हॉस्टल वार्डन दोनों के पद ख़ाली थे।  संयोग से बुआ ने दोनों पदों पर आवेदन किया था, और वह दोनों के लिए ही क़्वालिफाइड भी थीँ।वे बार-बार कह रही थीं कि मेरा चयन तो निश्चित है, क्योंकि मैं एकसाथ दोनों पद सँभाल लूंगी। मेरा वही भतीजा उनके साथ गया।
शाम को उनके लौटते ही हम ने उत्सुकता से पूछा-"बुआ क्या हुआ? क्या कहा उन्होंने?"
इस से पहले कि बुआ कुछ बोल पातीं , भतीजा शीशे में अपने बाल संवारते हुए गुनगुनाने लगा -"न तू ज़मीं के लिए है न आस्मां के लिए"
एक दिन बुआ बोलीं-"मैंने अब तक कभी काम से लम्बी छुट्टी नहीं ली, इस बार लम्बा अवकाश लेकर कहीँ घूम कर आउंगी।"
इस बार भी वही भतीजा उनके बॉस से मिलवाने उन्हें लेकर गया। आते ही हमने पूछा-"क्या कहा बॉस ने?"
बुआ का मुंह खुलने से पहले ही भतीजे के गुनगुनाने की आवाज़ आने लगी -"कभी तेरा दामन न छोड़ेंगे हम"  
        

सुश्री ऋतु शर्मा, सुश्री चांदनी, डॉ जगदीश कौर वाडिया, डॉ रुख़साना सिद्दीक़ी,डॉ देवेन चन्द्र दास सुदामा और श्री खीमन मुलानी के प्रति आभार

 ये आधा दर्जन नाम मैंने इनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए चुने हैं।  मैं इनके प्रति आपकी और अपनी ओर से आभार दर्ज़ कर रहा हूँ क्योंकि इन्होंने मेरे उपन्यास "जल तू जलाल तू" को अंग्रेजी, पंजाबी, उर्दू , असमिया और सिंधी भाषा में उपलब्ध कराया है।
हम भारत की राजभाषा हिंदी की अनदेखी भी नहीं कर सकते, मगर इसके लिए किसी को धन्यवाद भी नहीं देंगे, क्योंकि हिंदी में तो ये मूल रूप से था ही। मैंने जो लिख दिया था। अब स्वयं के प्रति कैसा आभार !           

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

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