Saturday, April 30, 2011

शिक्षा

एक बूढ़े के पास एक खेत था. पुराना. पुश्तैनी. कितनी भी मुसीबतें आयें , वह बाप-दादा के उस खेत को छोड़ता न था. वह खेत था भी जादुई चिराग . बूढा उसमे हल चलाता , बीज रोपता , खाद-पानी देता और खेत लहलहाने लगता. घर की रोटी भी निकलती और चार पैसे भी बचते. पैसा बचा-बचा कर बूढ़े ने अपने बेटे को पढ़ा दिया. उसे काबिल बना दिया. बेटा काबिल बन गया. अब रोज़  सुबह उठते समय सोचता,आज ज़मीन पचास हज़ार की है, अगले साल एक लाख की हो जाएगी, पांच साल बाद दस लाख की. ...यही सब सोचता हुआ वह पैसा उधार लेकर बाज़ार से घर का सब सामान लाता और फिर लम्बी तान कर सो जाता. बूढा हैरानी से देखता. उसे कुछ समझ में नहीं आता. वह सोचता इसे आराम से सोते-सोते पैसा कमाने का गुर "शिक्षा " से आया या मेरी मेहनत से? उसने सोचा- ऐसे तो ये पड़ा-पड़ा बीमार हो जायेगा. फिर इतनी महंगाई में इतना सारा उधार चुकाएगा कैसे? किसान चिंतित होते हुए एक साधू के पास गया और उसे अपनी व्यथा बताई. सब सुन कर साधू बोला, चिंता मत करो. बैठे-बैठे जब पैसे ख़तम हो जायेंगे और खेत भी बंज़र हो जायेगा, तो यह चोरी कर लेगा, डाका daal  लेगा, लोगों की जेब काटेगा.किसान घबरा कर बोला- तब तो इसे जेल हो जाएगी. साधू ने कहा- ऐसा कुछ नहीं होगा. तब तक राज्य के राजा, मंत्री, सिपाही सब चोर ही होंगे. इसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ेगा.किसान मायूसी से अपने खेत को देखता हुआ सोचने लगा- काश, मैं मरते समय अपना खेत अपने साथ ही ले जा पाता .  

Friday, April 29, 2011

नज़र उडती पतंगों को लगती है, कटी पतंगों को नहीं.

"ये नज़र तो मिली, देखने के लिए ,पर देखने वालों ने कुछ इस तरह देखा कि नज़र लग गयी " आपने ख़बरों में पढ़ा - सुना होगा कि पिछले कुछ समय से अमेरिका में बार-बार तूफ़ान आ रहे हैं. कभी बर्फीले तूफ़ान आते हैं तो कभी मूसलाधार पानी के साथ. कभी तेज़ हवाओं के साथ. न जाने कुदरत को क्या हो गया है? और अब तो ऐसी ख़बरें भी आती हैं कि इन तूफानों में दर्ज़नों लोग मारे गए. क्या वहां प्राकृतिक संतुलन बिगड़ रहा है? क्या वहां पर्यावरणीय लापरवाही हो रही है? क्या वहां भौगोलिक केन्द्रों की पुनर्स्थापना हो रही है. क्या वहां प्रदूषण को हटाने में अनदेखी हो रही है? इनमे से कोई भी बात सही नहीं लगती, क्योंकि वह अमेरिका है. उसके लिए ऐसी आपदाओं की तकनीकी सम्भाल साधारण सी बात है. ऐसी विपत्तियों में अन्य देशों की सहायता करते रहने का उसका अपना एक इतिहास है.कोई नहीं मानेगा कि किसी मानवीय भूल या लापरवाही से आ रहे हैं अमेरिका में तूफ़ान. भारतीय चिर-परिचित अंदाज़ में सोचा जाये तो आसानी से कहा जा सकता है कि अमेरिका को नज़र लग गयी. यहाँ झोंपड़ियाँ हमेशा से बंगलों को नज़र लगाती रही हैं. और बंगला भी कोई ऐसा-वैसा न होकर राजा का हो , तब तो नज़र लगनी ही लगनी है.और अभी तो मंत्री का बंगला भी भू-कम्प से पूरी तरह नहीं उबरा. जापान की त्रासदी याद है न आपको? जाओ, पानी से तुम मरोगे अगर प्यासे हम मरेंगे, ऐसी दुआ देने में भला कितनी देर लगती है?   

Thursday, April 28, 2011

अमेरिका की रईसी दिल से है

लोग कहते हैं कि रईसी दिल ही से होती है, और काहे से होगी? जी नहीं, कुछ मुल्कों में रईसी ईर्ष्या से होती है. कुछ में बेईमानी से होती है. कुछ में लालच से होती है. पर अमेरिका में सचमुच दिल से ही होती है. मेरे एक मित्र जवाहरात के बड़े व्यापारी हैं. बाहर हीरे-जवाहरात एक्सपोर्ट करते हैं. वे अक्सर मुझसे कहते हैं कि हमारा जितना माल सब देशों में मिल कर नहीं जाता उससे ज्यादा अकेले अमेरिका में जाता है. और महत्त्व पूर्ण यह नहीं है कि वहां ज्यादा माल जाता है, बल्कि महत्वपूर्ण यह है कि वहां इस्तेमाल होने के लिए जाता है. वे लोग रोजाना  के तैयार होने में हलके जेवर पहनते हैं.पुराने हो जाने पर उन्हें छोड़ भी देते हैं, और बदल भी लेते हैं. वर्ना अब अमेरिका को कोसने वाले देशों में तो हीरे-जवाहरात तिजोरियों में रख कर , भाव चढ़ा-उतार कर मुनाफाखोरी करने के लिए खरीदे जाते हैं. वास्तव में कुछ लालचियों ने लोगों का जीना हराम कर छोड़ा है, ज्यादा पैसा बनाने  के चक्कर में.जिस सस्ती सी चांदी की पतली-पतली पाजेब कभी मध्यम-वर्गीय किशोरियों के पांव की शोभा होती थी , मुनाफाखोरों ने उसे भी गद्दी के नीचे दबा कर आसमान की पतंग बना दिया है. क्या कभी ऐसे मुनाफाखोरों और जमाखोरों की गति भी डायनासोरों जैसी होगी, जिन्हें जड़ से मिटा कर कुदरत इतिहास में दफ़न करदे. कभी तो कोई ऐसा चमत्कार हो, कि ऐसे लोग अपने सब रत्नों समेत मिटटी में मिल जाएँ.     

Sunday, April 24, 2011

पीढ़ियों का अंतर इस तरह प्राकृतिक क्रिया ही है

जैसे प्रकृति में और बातें अवश्यम्भावी हैं, वैसे ही यह भी स्वाभाविक ही है कि दो पीढियां सोच और कर्म के अपने विश्लेषण में असमानता रखें. यदि कोई बुजुर्ग सोचता है कि कोई युवा जीवन को जिए बिना ही दूसरे के अनुभवों से अपनी मान्यताएं बनाले, तो यह पूरी तरह संभव नहीं है.यदि युवा लोग हमारे जीवन से ही सब बातें अपना लेंगे तो वे अपने जीवन का क्या करेंगे? जब वे जी चुकेंगे तब ज़रूर वे भी वही कहेंगे जो हम आज उनसे सुनना चाहते हैं. लेकिन तब शायद हम हों - न - हों , इसलिए हम वे विचार आज ही उनसे सुन लेना चाहते है. यही "जनरेशन गैप " है. इसे मिटाया नहीं जा सकता, किन्तु अपने को इसकी छाया में जीने के लिए तैयार ज़रूर किया जा सकता है. हम सारे रास्तों पर कारपेट नहीं बिछा सकते पर अपने पैरों में जूते तो पहन सकते हैं? जो चीज़ कुदरती है, उसे बदलने में समय या श्रम लगाना बुद्धिमानी नहीं है. बुजुर्गों का शरीर और मानस ढलता हुआ होता है , इस लिए वे सुविधा-साधनों को बढाने की  जगह अपनी ज़रूरतों को कम करने को तरजीह देते है. युवाओं का तन और मन उगता हुआ होता है इसलिए वे सुविधा-साधनों को बढ़ाने और उसके लिए ज्यादा प्रयत्नशील होने की कोशिश करते हैं. नज़रिए का यह फर्क दिलों में फासले लाता है.परिवारों में बिखराव लाता है. अच्छा यही है कि आज के युवा अपने निजी अनुभवों से ही सीखने का अवसर पायें. हम अपने ज़ख्मों से उनके मन में टीस ढूँढने की कोशिश न करें, यह कोशिश हमारी बेचारगी को बढ़ाएगी.     

Saturday, April 23, 2011

भाषिक प्रशासन भी कारगर है

किसी प्रशासक की टोन  का असर तो होता ही है, वे शब्द भी ज़बरदस्त असर रखते हैं, जो किसी निर्देश के दौरान बोले जाते हैं. इनसे निर्देश ग्रहण करने वाले पर खासा प्रभाव बनाया जा सकता है. मेरे पड़ोस में एक वृद्ध महिला रहती थीं, जिनके बेटे और बहू भी उसी शहर में नौकरी करते थे.बेटे - बहू के जाने के बाद उन्हें घर पर रसोई बनाने वाली एक अन्य महिला के कार्य की देखभाल करनी होती थी, जिसके लिए वे तात्कालिक प्रशासक की भूमिका में होती थी. बहू कार्यालय से कभी - कभी फोन से उनके संपर्क में रहती थी . यदि महिला काम पर आने में थोड़ी देर करदे तो वृद्ध महिला से उसे सुनाई देता था-आ गयीं महारानी जी काम पे? इस व्यंग्यात्मक टोन से बचने के लिए महिला अक्सर समय पर आने का ध्यान रखती और अकारण विलम्ब से बचती. यदि कभी रोटी थोड़ी अधिक मात्रा में बन जाये तो उसे सुनना पड़ता था-ये अद्डूर तुमने किस के लिए चिन कर धर दिया? कभी टीवी पर किसी मनोरंजक कार्यक्रम की आवाज़ सुन कर यदि महिला उत्सुकतावश रसोई से कमरे में चली आये तो उसे कहा जाता- आज दीदे नाच-गाने में ही रमेंगे या खाना भी बनेगा? यदि भोजन में कोई कमी रह जाये या वह कुछ भूल जाये तो तत्काल लांछन आता-तुम्हें  पर खोल कर उड़ने की पड़ी रहती है. गैस थोडा देर तक खुली  रह जाने पर उनकी टिपण्णी होती- तुम सब फूंक के ही दम लोगी. रसोई की लाईट जली रह जाने पर वे कहतीं- ये झाद्फानूस  सी चकाचौंध कौन सी बारात के लिए हुयी है? शब्द पैने भी होते हैं और ज़हरीले भी.    

Wednesday, April 20, 2011

ऐसे मुहावरे तो देश के बच्चे भी समझते हैं.

लोकपाल सर्वोपरि कहाँ है? देश का एक क्लर्क भी यदि अपना काम ईमानदारी से कर रहा है तो लोकपाल उसका क्या बिगड़ेगा? हाँ, यदि कोई बेईमानी होगी तो लोकपाल अपना दायित्व निभाएगा ही। जो लोग यह कह कर हल्ला मचा रहे हैं, कि लोकपाल प्रधान मंत्री से ऊपर कैसे हो सकता है, वह यह बात क्यों नहीं समझ रहे कि यदि प्रधान मंत्री अपनी ज़िम्मेदारी निभाने में किसी नाजायज़ बात का सहारा नहीं ले रहा हो तो लोकपाल उसके ऊपर हरगिज़ नहीं है। पर यदि वह घोटालों या अनियमितता का सहारा ले रहा हो तब अवश्य लोकपाल को उसकी जाँच का दायित्व निभाना है। और यदि ऐसा है तो अपने पद की शपथ ले लेने के बाद वह यह सब करता हुआ प्रधान मंत्री रहा ही कहाँ। देश के हितों का कचूमर निकाल कर वह अपराधी तो पहले ही बन गया। अपराधी बनने के बाद तो लोकपाल क्या एक हवालदार तक को उसकी खबर लेने का हक़ होना चाहिए। यह प्रधान मंत्री पद कीगरिमा को गिराना नहीं बल्कि बचाना है।जो लोग यह कह कर शोर मचा रहे हैं कि लोकपाल प्रधान मंत्री या राष्ट्रपति से ऊपर नहीं होना चाहिए, वे यह जानते ही नहीं कि लोकपाल बेईमानी के ऊपर होगा, चोरी के ऊपर होगा, भ्रष्टाचार के ऊपर होगा, न कि किसी पद के ऊपर। लेकिन फिर भी पहले से ही नेताओं को बचाने की मुद्रा में आ जाने वालों के लिए तो केवल यही कहा जा सकता है- चोर की दाढी में तिनका।ऐसा केवल तभी होता है जब देश या समाज में नैतिक मूल्य क्षत-विक्षत हो जाते हैं। यदि कोई जोर- शोर से कहे कि मोहल्ले में थाना नहीं बनना चाहिए, यह मोहल्ले का अपमान है, तो इसका मतलब सीधा-सीधा यही है कि ऐसा कहने वालों को ही ठाणे का डर ज्यादा है। इमानदार आदमी तो इस बात से खुश ही होगा कि सुरक्षा के उपाय किये जा रहे हैं।

Monday, April 18, 2011

पर रहो मिल-जुल कर

आजकल एक नज़ारा आम है। हमारे नेताओं में ज़बरदस्त एकता दिखाई दे रही है। आमतौर पर नेता एक दूसरे की टांग खींचने में मशगूल रहते हैं। वे इसमें सिद्धहस्त भी माने जाते हैं। बल्कि कहा तो यहाँ तक भी जाता है कि नेता बनने का रास्ता ही यही है। यदि आप अपने को नेतागिरी में आजमाना चाहते हैं तो किसी भी नेता की टांग- खिंचाई में जी-जान से जुट जाइये।बस, धीरे-धीरे उसकी पतंग उतरने लगेगी और आपकी चढ़ने लगेगी। लोगों को यह गलत फहमी हो जाती है कि किसी बड़े नेता की चमचागिरी या जी-हुजूरी से मोक्ष मिलता है। पर ऐसा नहीं है। इस से तो कहीं की अध्यक्षता, कहीं की गवर्नरी ,कहीं की आयोगायी ही मिल सकती है, नेतागिरी नहीं। ऐसा व्यक्ति लाल-बत्ती पाकर भी चाकर ही रहता है। तो आज कल यह अद्भुत नज़ारा देखने में खूब आ रहा है कि नेताओं की आपस में पट रही है। वे संसद से सड़क तक एक दूसरे के गले में बाहें डाल कर गरबा, घूमर या भांगड़ा करते दिखाई देते है।असल में पहले नेताओं की आपसी खीचतान इस बात को लेकर होती थी कि एक जंगल में दो शेर कैसे रहें? अब शेर भी समझ गए हैं कि रहना तो आखिर जंगल में ही है, तो एक दूसरे पर दहाड़ कर रहने से क्या फायदा? क्यों न एक दूसरे को पुचकार कर रहें? नेता भी संगठन का बल समझ गए हैं। वे अच्छी तरह जान गए हैं कि यदि हम मिल जुल कर रहेंगे तो न तो हम पर घोटालों के बादल छाएंगे और न किसी अनशन से बिजली गिरेगी। उन्होंने भी जवाब देना सीख लिया है । हर बात का तोड़ निकाल लिया है।कोर्ट फटकारे तो चटकारे लेकर प्रेस-कांफ्रेंस करो। जनता अनशन करे तो अंट-शंट बोलने लगो।आका आँखे तरेरें तो चुप हो जाओ।

Sunday, April 17, 2011

सब भूलने की मशीन का नाम जनता है

ज्यादा समय नहीं बीता है उस बात को, जब दुनिया की बागडोर दो हाथों में बताई जाती थी।अमेरिका और रूस का एक सा रुतबा था। एक सा ही नहीं, बल्कि एक दूसरे के प्रति बेहद आक्रामक।ज़बरदस्त रस्साकशी थी। दुनिया का हर विचार तराजू के इन दोनों पलड़ों में तुल कर ही फिजां में फैलता था।रूसी राष्ट्रपति एक बार भारत यात्रा पर आये थे। तब दिल्ली में मुझे भी उन्हें नजदीक से देखने का मौका मिला था। संसद मार्ग से वे और उनका काफिला गुजरने वाला था। काफी देर पहले ही सुरक्षा की द्रष्टि से उस रास्ते को आम पब्लिक के लिए बंद कर दिया गया था।यद्यपि भारतीय पब्लिक को नेताओं की वज़ह से तमाम मुसीबतें सहने की आदत होती है, फिर भी क्योंकि एक तो वह संसद मार्ग का रास्ता था , दूसरे वह कार्यालयों के खुलने का भी समय था। इसलिए तमाम छोटे-बड़े लोग दफ्तर पहुँचने की हड़बड़ी में भी थे।मानव संसाधन विकास के विद्यार्थियों के लिए यह एक अच्छी केस-स्टडी हो सकती है कि विदेशी वीआइपी मेहमान के आने के कारण एक विभाग ने तो दफ्तरों में समय पर पहुँचने का फरमान जारी किया था, दूसरे विभाग ने सुरक्षा का कारण बता कर रास्ते रोक दिए थे। इसीलिए वहां पुलिस वालों की घेराबंदी के करीब कुछ जिम्मेदार अफसर उन्हें उस रास्ते से गुजरने देने की गुज़ारिश कर रहे थे, जो धीरे-धीरे तकरार में बदलती जा रही थी। भीड़ काफी हो गयी। कुछ ज़रूरी काम से जाने वाले लोग सभी नेताओं को कोसने की मुद्रा में भी आ गए थे। इतने में अचानक राष्ट्रपति का काफिला उधर से गुज़रा। हंसमुख, गोरे-चिट्टे गोर्बाचौफ गर्मजोशी से जनता को देख कर हाथ हिला रहे थे। जनता भी तत्काल अपनी तकरार भूल कर उनका अभिवादन हाथ हिला-हिला कर करने लगी। जनता भूल गयी कि थोड़ी देर पहले सब उन्ही को कोस रहे थे।

Saturday, April 16, 2011

पानी

क्या आपको नहीं लगता कि कभी-कभी हम बेवजह घबरा जाते हैं।और केवल खुद घबराना ही नहीं , बल्कि घबराहट और हड़बड़ी में हम दूसरों को भी डर परोसने लग जाते हैं। और कहीं गलती से हम कलमकार हुए तब तो कुछ मत पूछिए, एक - एक थाली में हज़ार-हज़ार लोगों को खिलाने का हमारा शौक चारों तरफ डर ही डर बिखरा देता है।आखिर लेखक तो उन्ही में होते हैं न - लम्हों ने खता की थी सदियों ने सजा पाई। अर्थात, लेखक ने तो बस दस मिनट में लिख दिया, अब लोग बरसों तक पढ़-पढ़ कर हलकान होते रहें। अब आप सोच रहे होंगे कि इस समय कौन से डर की बात हो रही है? यद्यपि अब डर ऐसी चीज़ हो गयी है कि इसके बिना गुज़ारा नहीं, ऐसी भला कौन सी बात रह गयी है जिसमे डर न हो। किन्तु इस वक्त हम जिस डर की बात कर रहे हैं, वह पानी को लेकर है। आप में से कई लोग सोच रहे होंगे कि लो - खोदा पहाड़, निकली चुहिया। भला पानी से कैसा डर? तीन-चौथाई दुनिया पानी ही पानी है। हमारा शरीर अस्सी प्रतिशत पानी ही है। शरीर के ज़्यादातर अंग पानी ही छोड़ते हैं।आज ज़्यादातर लोगों का खून पानी ही हो चला है। ज़्यादातर योजनाओं पर पानी ही फिर रहा है। ज़्यादातर काम ऐसे हो रहे हैं जिन्हें देख कर कोई भी शर्म से पानी-पानी हो सकता है। बड़े- बड़े तीसमार खां नेता पानी ही मांग रहे हैं।फिर ऐसे में भला कौन होगा जिसे पानी की चिंता सता रही है? और पानी जायेगा तो जायेगा कहाँ ? गर्मी में भाप बन कर आसमान में चला भी गया तो बरस कर धरती पर ही आना है। सर्दी में पहाड़ पर जाकर जम गया तो पिघल कर ज़मीन पर ही आना है। अगर कोई जमाखोर- मुनाफाखोर नेता इसे पी भी गया तो भीतर कितनी देर रख लेगा? आखिर तो बाहर आना ही है।अब बताइए, डर कैसा?

Thursday, April 14, 2011

एसी ,व्हील और कैलकुलेटर पर हमेशा कब रहे हम?


यन्त्र और भावनाओं में काम का बटवारा कैसे हो? अब यह भी जीवन-शास्त्र का एक महत्वपूर्ण भाग है। आप अपने किसी मित्र के जन्मदिन की पार्टी में जा रहे हैं , जो सातवीं मंजिल पर रहता है। आप बहुत प्रमुदित हैं, और आपके हाथों में ताज़ा फूलों का प्यारा सा गुलदस्ता है। अब बिल्डिंग के ठीक नीचे पहुँच कर आपने जाना कि लिफ्ट ख़राब है। लीजिये, अब सात मंजिल चढ़ाई की शुरुआत भी करनी है और अपने मन का उल्लास और तरोताजगी भी बनाये रखनी है।ख़राब मूड से जाकर मित्र से भी नहीं मिलना है, क्योंकि लिफ्ट की खराबी में उसका हाथ नहीं है। अब एक बड़ी ज़िम्मेदारी आप पर है। इसी तरह कल्पना कीजिये कि आपके ज़ेहन में कोई सार्थक सी कविता जन्म लेने को व्याकुल है और आप का कंप्यूटर चल नहीं रहा है। या फिर आपको अपने मनपसंद कार्यक्रम में पहुंचना है, और आपकी गाड़ी स्टार्ट नहीं हो रही। ऐसी बहुत सी बातें रसोई से लेकर सड़क तक आपके पास आती ही रहती है। यहाँ हमें इस कसौटी से निपटना पड़ता है कि अपने संवेगों और मशीनी सुविधाओं को लेकर हमारा संतुलन, धैर्य और द्रष्टिकोण कैसा है। निश्चित ही इन बातों का कोई सुनिश्चित जवाब नहीं है। आपको ' केस टू केस ' इनसे निपटना पड़ेगा। फिर भी सकारात्मकता की सरहद पर खड़े होने पर कुछ बातें ज़रूर हमारी मदद करेंगी। यहाँ एक मौलिक और आधारभूत विचार भी हमारी मदद करेगा। हम केवल यह सोचें कि यांत्रिक-आविष्कारों से पहले भी हम इन कामों को करते ही थे। हम शौकिया पहाड़ों तक पर चढ़ते थे।हम मीलों पैदल भी चला करते थे। हम माइक्रोवेव आने से पहले भी सीधी आंच पर लज़ीज़ व्यंजन बनाया करते थे। हमने बरसों तक पानी के छिडकाव से ही अपनी शामे ठंडी की हैं।हमारी बेहतरीन पुस्तकें कलम से लिखी गयी हैं।

Tuesday, April 12, 2011

निवेश का शानदार अवसर

क्या आपने एक बात पर ध्यान दिया? एक तरफ तो हम मेडिकल सुविधाओं के लगातार बढ़ते जाने के कारण लम्बी उम्र पाने लगे हैं, दूसरी तरफ हर काम में तकनीकी सुविधाओं और यंत्रों के आते जाने से हमारा समय और श्रम बचने लगा है। फिर जो ज्ञान और अनुभव हम पहले बरसों जीने के बाद पाते थे , वह अब हमें पलक झपकते ही हासिल होने लगा है। खेलों की एक एक बारीकी जो खेल मैदानों पर कई दिन तक खेल को देखने के बाद बच्चों को जानने को मिलती थी , वह अब बच्चे टीवी पर थोड़ी ही देर में जान लेते हैं। पहले ज्ञान के लिए गुरु तलाशने और वहां तक पहुँचने में बहुत श्रम और समय लगता था, अब ज्ञान हर सुबह खुद हमारे द्वार पर दस्तक दे देता है। इस इतनी बड़ी सुविधा का क्या हमको कुछ लाभ नहीं उठाना चाहिए? मुझे तो लगता है कि ज़रूर उठाना चाहिए। एक छोटी सी कल्पना कीजिये। एक खेत में किसी अनाज के एक दाने को उगने के बाद से कहाँ-कहाँ का सफ़र करना पड़ता है? वह खेत से बोरा बंद होकर गोदाम में आता है, फिर किसी मण्डी के रास्ते किसी दुकान पर, और तब बिक कर किसी ग्राहक की रसोई में।यहाँ वह भोजन बनने के समय अपने अंतिम लक्ष्य पर आता है। गृहणी या रसोइया उसे धो कर या साफ करके किसी बर्तन में पकने के लिए चढ़ा देते हैं। तब वह आपकी खाने की मेज़ पर आता है , और अपने सारे गुणों के साथ आपके उदर में समां जाता है।इस पूरी प्रक्रिया में हर जगह उस दाने के कुछ साथी छिटक कर इधर-उधर ज़रूर गिरते हैं। उसी तरह जीवन में भी कुछ बच्चे या लोग अपने गंतव्य से भटक कर इधर-उधर छूट जाते हैं।अपना बचा हुआ समय, धन और ध्यान उनके हित में लगाइए।

सब डिज़ाइन मौजूद हैं

हमारे आज के समाज के माडल को समझने के लिए हमें बच्चों की तरह एक आसान सा प्रारूप लेना अच्छा रहेगा।हम कुछ जानवरों को लेलें। फिर उनसे कहें कि वे हम इंसानों में से चुन-चुन कर अपनी-अपनी एक एक टीम बना लें।हमारे लिए भी अपनी पसंद की टीम में जाना आसान रहेगा क्योंकि पंचतंत्र या ऐसी ही अन्य कहानियों के माध्यम से हम जानवरों की फितरत को भी काफी हद तक जान गए हैं।यदि हम ईमानदारी से अपनी नीयत का आकलन करें तो हम पाएंगे कि हम में से प्रत्येक को न केवल अपनी पसंद का, बल्कि अपने जैसे स्वभाव का कैप्टन मिल रहा है। हम में भी ऐसे कई हैं जो दूसरे का शिकार किया हुआ मांस नहीं खाते। हम में भी ऐसे हैं जो दूसरों का पकाया या कमाया हुआ ही खाते हैं। हम में भी ऐसे हैं जो ज़रूरत पड़ने पर रंग बदल लेते हैं। हम में भी ऐसे हैं जो आंख में पानी बीत जाने के बाद भी दिखावे के लिए रो सकते हैं। हम में ऐसे भी हैं, जो अपने ही मित्र या भाई को मुसीबत में पड़ा देख कर किसी झाड़ी की ओट स द्रश्य का आनंद लेते हैं।हम में ऐसों की कमी भी नहीं है जो अपने स ताकतवर के सामने दुम हिलाएं और अपने स कमज़ोर को मार कर खा जाएँ। कहने का तात्पर्य यह है कीदुनिया में मौजूद प्राणियों की फितरत ही हम में स कई लोगों की फितरत में आ जाती है और हम मानवीयता खो बैठते हैं। कोई इसका कारण यह मानता है कि हम उनका मांस - खून भी तो खा जाते हैं। कोई कहता है कि हम उन्हें मार कर उनकी खाल ओढ़ लेते हैं। कोई कहता है की हम रात-दिन उनके कारनामे देखते रहते हैं इसी लिए उन जैसे हो जाते हैं ।

जानवरों से सीख लेने का समय

दुनिया में ' प्रत्यावर्तन ' होता रहा है। बल्कि प्रत्यावर्तन ही होता रहा है। वर्ना दुनिया गोल न होती। जिस तरह पहाड़ से चली किसी नदी के पत्थर पानी के वेग और ढलान के साथ लुढ़कते-लुढ़कते आकार में गोल हो जाते हैं, उसी तरह दुनिया का आकार भी लुढ़क-लुढ़क कर पुरानी बातों, पुराने मूल्यों और पुराने विचारों के फिर-फिर आने , और पुरानी वस्तुओं में समय के साथ नव्य आभा के निखरने के कारण ही होता है।हमें यह आकार अटल सत्य की तरह लगता है क्योंकि हम दुनिया की कुल उम्र की तुलना में एक अत्यल्प कालखंड में जीते हैं। हमारे नैतिक मूल्य भी इसी तरह हैं। यह काल के साथ विलुप्त हो जाते हैं, या नए मूल्य इन पर अपना आधिपत्य जमा लेते हैं, और फिर एक दिन इन की ज़रूरत फिर से महसूस की जाने लगती है।तसल्ली की बात यह है कि ये फिर से लौट भी आते हैं। लेकिन इसके लिए प्रयास करने पड़ते हैं। क्या यह बिना प्रयास किये भी लौट आते हैं? यह अभी तक पता नहीं चल सका है क्योंकि इनके लिए प्रयास शुरू हो ही जाते हैं। नैतिक मूल्यों के लिए छट-पटाये बिना कोई समय ज्यादा देर तक रह नहीं पाता ।अभी तक हम जो बात कर रहे थे वह सार्वभौमिक रूप में थी। अब हम भारतीय सन्दर्भ में बात करें।
हमारा वर्तमान समय नैतिक मूल्यों की छीछालेदर होने का समय है।छीछालेदर शब्द कोई सम्मानजनक शब्द नहीं है, किन्तु यह इसीलिए प्रयोग किया गया है, कि यह समय ही नैतिक मूल्यों के अपमान का समय है। हम सब राह चलते कहीं भी , कभी भी , किसी से भी और किसी तरह भी अपमानित हो सकते हैं।न कोई तर्क है, और न ही कोई स्पष्टीकरण। हम सब के भीतर बैठा जानवर सर्वथा बेलगाम है।

Monday, April 11, 2011

अमेरिका से तुलना???

देश के कई बुजुर्गों को याद होगा कि फिल्मों में धुआधार सफलता की पारी खेलने के बाद वैजयंतीमाला ने डॉ बाली से शादी कर ली थी जिनके पहले से ही सात बच्चे थे।सफलता के सर्वोच्च शिखर से हेमामालिनी ने धर्मेन्द्र का रुख किया था , जिनके पहले से कई बच्चे थे। सुष्मिता सेन ने तो केवल माँ की भूमिका लेकर दुनिया रची। कहने का तात्पर्य यह है कि औरत हर समय पुरुष पर आश्रित या पुरुष के इर्द-गिर्द अपनी दुनिया समझती हुयी नहीं रही। ऐसे सारे उदाहरण केवल फिल्म-क्षेत्र के ही नहीं हैं, बल्कि हर तबके के हैं।मैं तो कहूँगा कि अब ऐसी बातें करना ही दकियानूसी ख्याल है कि औरत अपने पैरों पर खड़े होने की सामर्थ्य रखती है। यह तो है ही। ऐसा तब होता है जब हम मानसिक शक्ति को शारीरिक शक्ति की तुलना में ज्यादा कारगर माने।और हमारे मानने न मानने का सवाल भी कहाँ है, यह तो है ही। किसी शेर की मांद में कहीं कोई आदमी नहीं पल रहा, लेकिन आदमी के पिंजरों में शेर पल रहे हैं। ज़रा गौर से सोचेंगे तो आप पाएंगे कि विकसित देशों का यही फलसफा है।औरत की दुनिया से कट कर सफलता का कोई रास्ता कहीं नहीं जाता। माँ की अंगुली पकड़ कर बच्चा जो सीखता है, वह केवल पिता के साथ नहीं सीख पाता । बड़े आश्चर्य की बात है कि भारत में लड़कियों को मारा जा रहा है। जनसँख्या गणना ने जो नतीजे दिखाए हैं, वे साफ कह रहे हैं कि भारतीय परिवारों में कन्या-रत्न की ज़रूरत समाप्त समझी जा रही है। औरत के शक्तिशाली होने का एक प्रमाण तो यही है कि इस कारोबार में भी उसीकी भूमिका ज्यादा सामने आ रही है। माफ़ करें, इस जीवन-द्रष्टि की तुलना अमेरिका तो क्या, किसी भी विकसित देश से नहीं की जा सकती। इस का हल सोचे बिना कहीं कोई गंतव्य नहीं है।लोगों का ऐसा झुण्ड कोई कबीला तो हो सकता है, देश नहीं।

आइये सोचें

जीवन दो तरह से जिया जा सकता है। एक , इसमें खो-डूब कर, दूसरे इसे नश्वर मान कर इस तरह, जैसे कमल के पत्ते पर से पानी की बूंद गुज़रती है।दोनों ही सूरतों में यह कट जाता है। जीवन के आरंभ से अब तक कहीं भी, कोई भी ऐसी मिसाल नहीं है, जब किसी तरह से भी जीने पर यह रुक गया हो। मज़े की बात यह है कि आज की दुनिया में भी हमें बहुतायत से ऐसे लोग मिल जाते हैं, जिन्हें गर्मी में लगता है, बिना एसी के मर जायेंगे। थोड़ी सी सर्दी में लगता है, बिना हीटर के मर जायेंगे। पर ऐसा होता नहीं है। वह दौर भी गुज़रा है जब हम पेड़ों पर रहे, वह समय भी निकला जब हमारे पास आग ही नहीं थी। वह समय भी रहा जब जीवन के कड़े अनुशासनों को बनाये रखने के लिए जीवन ही ख़त्म कर दिए गए, अर्थात फांसी तक दे दी गयी। ज़मीन की लकीरों को अपने पक्ष में बनाये रखने के लिए युद्धों में हजारों लोगों को मार डाला गया। यदि हम जीवन के इस नज़रिए को झेलने के आदी हो जाएँ तो कहीं कोई उलझन ही न रहे। जहाँ जो भी , जैसे भी हो रहा हो, हम निर्लिप्त बने रहें।पर क्या यह जीने का स्वस्थ और अपेक्षित तरीका है? क्या हम अपने आप को और अपनी नई पीढ़ी को इस नज़रिए के लिए मानसिक रूप से तैयार करें? मुझे ऐसा नहीं लगता। जीवन का असली सार इसमें खो-डूब कर जीने में ही है। क्योंकि जीवन नश्वर नहीं है। हम सब यहाँ से जाने को तैयार नहीं हैं। हम भरसक यह कोशिश कर रहे हैं कि शरीर से अशक्त और जर्जर होने से पहले अपने प्रतिरूप, अपने कई लोग यहाँ छोड़ दें। हमारी यह उत्कट महत्वाकांक्षा जल्दी ही हमें विश्व में नंबर एक का दर्ज़ा दिया चाहती है। हम एक सौ इक्कीस करोड़ हो चुके हैं। ग्लोब की बैलेंस-शीट पर हम देयताओं की जगह आस्तियों में कैसे आ सकते हैं, आइये, सोचें।

Friday, April 8, 2011

शिक्षा अमेरिका में जंगली नहीं बनी

यदि नियमों में शिथिलता हो तो यह एक प्रकार की अराजकता ही है। कभी-कभी अपवाद स्वरुप किसी को किसी नियम से छूट देना स्वीकार्य हो सकता है , वह भी तब जब इसका कारण अभिलेख पर लिया गया हो।पर सस्ती लोकप्रियता या अपनों को लाभ पहुँचाने की भावना के साथ किसी नियम की अनदेखी की गयी हो तो यह क्षम्य नहीं है। कभी - कभी ज़रा सी लापरवाही से नियम का ध्यान न रखना आगे जाकर कानून-व्यवस्था का बड़ा सवाल बन जाता है। भ्रष्टाचार का बीजारोपण यहीं से होता है।मैं जब किसी विद्यालय में परीक्षा के दौरान बच्चों को नक़ल करते देखता हूँ और साथ में शिक्षकों को भी इसकी अनदेखी या इसमें सहयोग करते देखता हूँ तो मुझे इतिहास का वो पन्ना याद आ जाता है जब हमारे देश में फांसी की सजा दी जाती थी। मुझे यह सवाल देश के भविष्य को मिट्टी में मिलाने जैसा ही लगता है। ऐसे बच्चे और ऐसे अध्यापक मुझे वो ज़हरीले बीज नज़र आते हैं जो भविष्य में देश को खा जायेंगे। ये बच्चे उन से भी ज्यादा खतरनाक हैं जिन्हें विद्यालय में जाने का मौका ही नहीं मिला। न जाने ऐसे कितने बच्चे अब हमारे देश में विभिन्न पदों पर पहुँच कर न जाने किस-किस काम को कर रहे होंगे और देश की किस्मत को फोड़ रहे होंगे। आप पीने का पानी छान कर किसी बर्तन में भर रहे हैं, और आपको पाता चले कि किसी ने आपकी नज़र बचा कर इसमें बिना छाना पानी मिला दिया , तो फिर आप चाहे कितनी ही होशियारी से आगे पानी छानते रहें अंत में आपके पास जो पानी आयेगा वह गन्दा ही होगा।इस लिए मैं अब देश की शिक्षा व्यवस्था को बदबूदार ही मानता हूँ। आज आपके पास सैकड़ों ऐसे डिग्री प्राप्त लोग हैं, जिन्हें शिक्षा का मतलब भी नहीं पता,और मज़े की बात यह है की ये लोग तरह तरह के आंदोलनों से पदोन्नतियां मांगते हैं।

अमेरिका गाँव शहर को लेकर दो-फाड़ नहीं है

भारत सीधे-सीधे दो भागों में बटा है। कोई कुछ भी कहे , यहाँ गाँव और शहर अलग-अलग चरित्र रखते हैं।कहने को अब शहरों की तमाम बातें गावों में जा रही हैं , पर फिर भी मानसिकता का असर मिटने में अभी सालों लगेंगे। भारत में अब राजनैतिक कपट और प्रशासनिक छल एक खुला खेल है। यहाँ अब भी ' भारत गावों का देश है, भारत की ८० प्रतिशत जनता गावों में बसती है, आदि-आदि कह कर वोट लिए जाते हैं और फिर शहरों के चौराहे पर चलते पानी के फव्वारों को गावों में पीने के पानी पर तरजीह दी जाती है। यहाँ के शासक महीने में एक रात गाँव में रुकने को बला समझते हैं और यदि ऐसा करना पड़े तो उसे देश पर अहसान की तरह करते हैं।जहाँ कहीं जनता के दबाव में गावों के विकास की कोई राशि मंज़ूर हो जाती है उसे शहरों में ही खा लिया जाता है या गावों के जो रसूखदार लोग दो कश्तियों में सवार होकर शहरों में रहते हैं वे गाँव में अपनी रिहायश की ट्रिक फोटोग्राफी या छल-छायांकन दिखा कर उसे वहीँ हज़म कर लेते हैं। स्कूलों या अस्पतालों में जिन लोगों की नियुक्ति गाँव के लिए की जाती है वे अपना सारा समय और शक्ति शहर में ट्रांसफर कराने की कोशिश या शहर में रहते हुए रोज़ गाँव में आने-जाने में ही लगाते हैं। इस से सड़कों पर वाहनों की रेलमपेल ने तो नारकीय द्रश्य उपस्थित कर ही दिए हैं, गावों के दफ्तरों की उत्पादकता या कार्य क्षमता एक चौथाई रह गयी है। अमरीका इस व्यवहार और मानसिकता से पूरी तरह मुक्त है। वहां एक शहर से दूसरे शहर जाते समय रास्ते में जब गाँव पड़ेंगे तो वहां भी वही जीवन और वही जीवन-स्तर दिखाई देगा जो शहरों में है। शहर में रहने वाले वेश-भूषा और रहन-सहन में गावों के लोगों से अलग नहीं दिखेंगे। सम्पन्नता तो खैर दोनों जगह एक सी दिखाई देगी ही ।

अमेरिका में शायद ऐसा नहीं होता हो

अमेरिका के पब्लिक सिस्टम भावुकता या छिपे आतंरिक व्यव्हार से ग्रसित नहीं हैं। शायद इसीसे उनकी विश्वसनीयता न केवल निर्मित बल्कि निरंतर है। एक बार मैंने अपने एक अधीनस्थ कर्मचारी को उसका माँगा गया लोन देने से इंकार कर दिया, जाहिर है इसका कारण यही था की वह नियमानुकूल नहीं था। यथासंभव यह बात मैंने उसे समझाने की चेष्टा भी की। किन्तु जब हम किसी आवश्यकता में होते हैं तो हमारा चीजों को देखने-समझने का नजरिया भी प्रभावित हो जाता है। व्यक्ति दिन भर असंतुष्ट बना रहा। उसी शाम मेरे ही समकक्ष एक अन्य अधिकारी के घर पर कोई धार्मिक उत्सव आयोजित था। हम सभी वहां गए। वह अधीनस्थ कर्मचारी उनके घर के उत्सव में बढ़-चढ़ कर काम में हाथ बटा रहा था। कुछ देर बाद वह ट्रे हाथ में लेकर सभी आगंतुकों को पानी पिलाने आया। वह सभी को आदर से पानी देता हुआ मेरे सामने से तेज़ी से गुज़र गया। मुझे वैसे भी ज्यादा प्यास नहीं थी, पर जो थी वह भी उसके व्यवहार से समाप्त हो गयी। कार्यक्रम समाप्त हो जाने के बाद एक बार फिर ऐसा ही हुआ। वह सभी को प्रसाद बाँटने में मदद कर रहा था। जब मेरा नंबर आया तो वह इधर-उधर बांटता हुआ देर तक मुझे देने से बचता रहा। किन्तु मेज़बान अधिकारी के पास ही खड़े होने और मुझसे अभिवादन करने के बाद उसे बेमन से मुझे भी देना ही पड़ा। लौटते समय में सोच रहा था की यदि मेरी जगह भी उसी मानसिकता का कोई व्यक्ति रहा होता तो बेचारे अधिकारी महाशय के धार्मिक अनुष्ठान से किसे पाप और किसे पुण्य मिलता? मानव व्यवहार की यह छोटी-छोटी बातें सामूहिक कार्य क्षमता को भी प्रभावित करती हैं और भारत में शैक्षणिक पिछड़ेपन के कारन अस्वाभाविक परिणाम भी देती हैं। सम्पन्न देशों में ऐसा कम होता होगा।

सब सम्पन्नता से नहीं जुड़ा

विकास के सारे पैमाने भौतिक या वस्तुनिष्ठ नहीं हो सकते। समाज या देश के रूप में जब जिंदगी का आकलन होता है तब भावनात्मकता को भी नज़र-अंदाज़ नहीं किया जा सकता। नैतिकता की अनदेखी भी नहीं की जा सकती। अतीत, परिस्थिति या अनुभव से भी कन्नी नहीं काटी जा सकती। भविष्य की इच्छाओं की जिजीविषा पर भी नज़र रखनी होती है। किसी अत्यंत गरीब व्यक्ति की कुटी में कोई संपन्न व्यक्ति किसी काम से जाये, वह अत्यंत गदगद होकर उसके सामने बिछ सा जाता है। घर की बेहतरीन कुर्सी झाड़-पौंछ कर उसे बैठने के लिए दी जाती है , चाहे उस पर उस समय घर का कोई अन्य सदस्य बैठा ही क्यों न हो। जो भी घर में उपलब्ध हो, खाने-पीने के लिए सामने लाने की पेशकश की ही जाती है। बल्कि उसके लिए पास-पड़ोस से मांगने में भी गुरेज़ नहीं किया जाता। अब इसके उलट कल्पना कीजिये। यदि किसी काम से वह निर्धन व्यक्ति बहुत संपन्न व्यक्ति के आवास पर जाता है पहली सम्भावना तो यही है कि यदि काम संपन्न व्यक्ति का नहीं है तो उसे बिना मिले ही लौटा दिया जाये। या काफी इंतजार करवाया जाये। बिना समय लिए आ धमकने के लिए प्रताड़ित किया जाये। खाना तो दूर,पानी के लिए भी न पूछा जाये। बैठने के स्थान को पहले देख लिया जाये कि कहीं वह उसके बैठने से गन्दा तो नहीं हो जायेगा। दोबारा आने का निमंत्रण देना अलग, उसके निकलते ही दरवाज़ा इस तरह बंद कर लिया जाये कि आवाज़ दूर तक सुनाई दे। अब नापने का कोई यन्त्र लेकर बैठिये और विकास के परिप्रेक्ष्य में आतिथ्य-शास्त्र, व्यवहार विज्ञानं, नीति शास्त्र आदि तमाम बातों को मापिये।

अमेरिका की सदाशयता किसी को क्यों चुभे?

कल भारत और अमेरिका के बारे में सोचते-सोचते मुझे अचानक डॉ धर्मवीर भारती की याद आ गयी। उनसे एक बार छोटी और बड़ी पत्रिकाओं को लेकर मेरी काफी देर तक चर्चा हुई। वे उन दिनों ' धर्मयुग ' के संपादक थे , जो हिंदी की उस समय देश की सबसे बड़ी पत्रिका मानी जाती थी। वे अक्सर लघु पत्रिकाओं के संपादकों से नाराज़ रहते थे। वे कहते थे कि ये लोग अपनी पत्रिकाओं में बड़ी और व्यावसायिक पत्रिकाओं की आलोचना करते रहते हैं पर चुपचाप इन्ही में छपने को लालायित रहते हैं। सच कहूं तो मुझे भी उनकी बात में सच्चाई नज़र आती थी। कई छोटी पत्रिकाओं के मेरे मित्र संपादक लगातार धर्मयुग,सारिका,इंडिया-टुडे जैसी पत्रिकाओं में अपनी रचनाएँ भेजते और उनकी स्वीकृति का इंतजार करते रहते थे। मुझे लगता था कि व्यावसायिकता कहाँ नहीं हैं? क्या जो पत्रिका निकालेगा वह अपना लगाया हुआ धन लौटते हुए नहीं देखना चाहेगा? न जाने क्यों हर बात को अपने पक्ष में ही सोचने की हमारी मानसिकता बन जाती है।गुटबाजी और वर्गभेद भी इसी मानसिकता की देन है। यद्यपि मैं यह भी मानता हूँ कि हर समय , हर बात में सर्वश्रेष्ठ को स्वीकार करना भी बाकी लोगों की उन्नति में बाधक हो सकता है। दिलीप में थोड़ी कमी निकाल कर ही कोई अमिताभ, और अमिताभ में थोड़ी कमी बता कर ही कोई शाहरुख़ बनता है। लेकिन भारत के लिए अमेरिका बनना अभी काफी दूर की कौड़ी है। इस लिए हम अपने में सच को स्वीकार करने की कुव्वत पैदा करके ही अपना भविष्य सुनहरा बना सकते हैं। किसी को कोसना तो बहुत आसान है।हम अमेरिका की सदाशयता के रास्ते बड़प्पन खोजने की भावना का सम्मान क्यों न करें?

क्या तुम्हारी कहानी मुझे अब भी हीरो बना सकती है ,उसने पूछा

उन दिनों मैं मुंबई में था।धर्मयुग और कादम्बिनी-नवनीत के साथ-साथ फ़िल्मी पत्रिकाओं - माधुरी और फिल्मफेयर में भी लिख रहा था। पत्रिकाएं कहानी-लेखों के साथ-साथ लेखकों के पते भी छापतीं थीं।अतः इस तरह भी आपस में संपर्क बन जाते थे। एक बार एक फिल्म निर्माता ने एक छोटा सा पत्र लिख कर मुझे मिलने बुलाया। न जाने का कोई सवाल ही नहीं था क्योंकि यह एक बड़ी बात मानी जाती थी।संक्षिप्त सी बात-चीत के बाद पता चला कि वे एक फिल्म बना रहे हैं, जिसका नाम उन्होंने ' सत्ताधीश ' बताया। मुझे कहानी का थीम बता कर उसे विकसित करने की बात उन्होंने की। इसी के साथ उन्होंने मुझे एक काम और दिया। बोले- हम परसों अमुक होटल में कुछ लड़के-लड़कियों का स्क्रीन-टेस्ट लेंगे। आप भी आजाना , और हमें टेस्ट के लिए कुछ द्रश्य व संवाद लिख कर देना। काम रोचक था, क्योंकि उन दिनों स्क्रीन टेस्ट बड़े वास्तविक हुआ करते थे जिनमे हर तरह से ठीक पाए जाने पर ही चयन होता था। आज स्थिति अलग है। अब तो तय होता है कि इसे ही लेना है, इसका जो ठीक नहीं है उसे ठीक कर लो। उन दिनों कोशिश करने अच्छे चेहरे-मोहरे वाले ही आते थे। टेस्ट के दिन वहां एक सोलह साल का हेंडसम सा लड़का भी आया। वह किसी संपन्न घर से था और बिहार से आया था। टेस्ट के दौरान उस से मेरी अच्छी पहचान हो गयी और वह मेरे साथ मेरे घर भी चला आया। सत्ताधीश तो नहीं बनी, पर बाद की कई मुलाकातों के बाद वह लड़का मेरे एक उपन्यास " रेत होते रिश्ते " का नायक बना। बाद में हमारा संपर्क टूट गया। परसों अन्ना हजारे के अनशन के सिलसिले में अख़बारों और टीवी से उसे मेरे बारे में पता चला, तो उसने फोन किया। वह अब मिलने आ रहा है, अब वह इक्यावन साल का है।

व्यक्ति-पूजा अमेरिका में आदत नहीं बनी

उन दिनों मैं न्यूयार्क में था।मुझे वहां संयोग से ग्रोव सिटी स्थित प्राचीन विश्व विद्यालय के एक कार्यक्रम में जाने का अवसर मिला। न्यूयार्क से देत्रोइत और पिट्स बर्ग होते हुए मैं ग्रोव सिटी पहुंचा। कार्यक्रम शुरू होने से पहले वहां सभी आगंतुकों के लिए भोज आयोजित था। भोज एक भव्य और विशाल कक्ष में था। इस कक्ष में प्रवेश करते ही मैंने देखा की एक मेज पर एक बुज़ुर्ग व्यक्ति अकेले बैठे हैं। मैं उसी मेज पर बुज़ुर्ग सज्जन के साथ बैठ गया। हमने साथ भोजन किया। वहां सभी लोग तरह-तरह से बातचीत में मशगूल थे। भोजन के बाद कार्यक्रम शुरू हुआ। मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब मैंने देखा कि वही अलग-थलग अकेले से बैठे व्यक्ति कार्यक्रम के मुख्य-अतिथि हैं।मेरे शरीर में कार्यक्रम - भर संकोच की एक सिहरन सी बनी रही। क्षमा करें, मुझे भारत में अपने देखे ऐसे कई प्रसंग याद आ गए जब मैंने मुख्य-अतिथियों के इंतजार में छोटे स्कूली बच्चों से लेकर युवाओं और बुजुर्गों तक को घंटों इंतजार करते देखा था। यहाँ जब तक मुख्य-अतिथि न आ जाये आयोजकों के लिए श्रोताओं-दर्शकों का समूह एक उपेक्षित झुण्ड की तरह होता है। मुख्य-अतिथि नमूदार होते हैं तो उनके साथ उनके चाटुकारों और "शुभ-चिंतकों" का बेतरतीब हुजूम इस तरह होता है कि किसी गुड की भेली पर मक्खियों का अहसास होता है। कभी- कभी तो उनके आने की घोषणा इस तरह जोर-जोर से होती है मानो लोगों को नेस्त-नाबूद करने सुनामी चली आ रही हो। वे वहां उपस्थित लोगों के लिए नहीं बल्कि उनके साथ चिपके लोगों के लिए आये हों। मुख्य-अतिथि राजनैतिक क्षेत्र से ही हों , यह तो महज़ फैशन की बात है।

Thursday, April 7, 2011

पहले लंका जीती अब शंका

भारत में क्रिकेट फिर शुरू हो रहा है। आई पी एल के मैचों का लम्बा-चौड़ा कार्यक्रम अख़बारों और मीडिया में छा गया है।देश के युवा एक बार फिर अपने को व्यस्त बना लेंगे। माहौल उल्लास भरा हो जायेगा।देश जीवंत और खुश दिखाई दे , भला इस से अच्छी बात और क्या हो सकती है? यह तो वे साँझ और सवेरे हैं ही, जिनके लिए हम सब लोग जी रहे हैं। लेकिन एक छोटी सी शंका आज भी सर उठा रही है। मुझे अच्छी तरह याद है कि १९८३ में समाजवादी नेता, जो बाद में देश के प्रधान-मंत्री भी बने, चन्द्र शेखर ने तत्कालीन राज नैतिक परिस्थितियों के विरुद्ध जनता को आकर्षित करने के लिए कई दिन तक देश के विभिन्न भागों से होते हुए पद-यात्रा की थी। किन्तु संयोग से जिस दिन उन्होंने अपनी यात्रा पूरी की, उसी दिन कपिल देव के नेतृत्व में भारत अपना पहला वर्ल्ड-कप जीत गया । ऐसे में देश विदेश के तमाम अख़बारों ,उस समय इलेक्ट्रोनिक मीडिया इतना ज़बरदस्त नहीं था, में कपिल देव की तस्वीर और जीत की ख़बरों में चन्द्र शेखर की खबर एक छोटे से कौने में दब कर रह गयी। अब ऐसे में मेरी शंका का कारन यही है कि मीडिया को एक म्यान में दो तलवारें आज भी पसंद नहीं हैं। वह तो जिस खबर को छुएंगे , उसी पर जान लड़ा देंगे। अन्ना हजारे चेहरे-मोहरे से भी कोई ज्यादा आकर्षक नहीं हैं।

गाँधी से हजारे तक कुतर्क शास्त्र ने भी उन्नति की है

दिल्ली के जंतर-मंतर पर अन्ना हजारे आमरण अनशन पर बैठे हैं। उनका मुद्दा मूलरूप से ' सरकार से लोकपाल विधेयक को पारित ' कराने का है, जो मोटे तौर पर देश में व्याप्त और निरंतर बढ़ रहे भ्रष्टाचार से जुड़ा है। उन्हें देश के करोड़ों लोगों से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष समर्थन मिल रहा है। शायद देश के साधारण आदमी की साधारण समझ यही है कि इस से भ्रष्टाचार मिटेगा। साधारण आदमी को प्राय संदेह के घेरे में रख कर नहीं देखा जाना चाहिए, क्योंकि यही साधारण आदमी लोकतंत्र में असाधारण नेताओं का भाग्य-विधाता होता आया है। किन्तु इस अवसर पर देश की सत्ता से जुड़े वरिष्ठ अधिकारी और नेता हजारे के विपक्ष में जो तर्क दे रहे हैं, वे बेहद निराशा-जनक ही नहीं , बल्कि ' कुतर्क ' की श्रेणी में आने वाले हैं। कहा जा रहा है कि समाजवादियों के दबाव में सरकार फैसले नहीं ले सकती। यदि उन्हें देश के कानून बनाने का हक़ चाहिए तो पहले चुनाव लड़ कर देश की संसद में आना चाहिए। तर्क-शास्त्री ऐसी बातों से प्रसन्न हो सकते हैं।किन्तु जिनके मुखारविंद से ऐसे उद्गार प्रकट हो रहे हैं , उन्हें ज़रा सा यह बात भी समझनी चाहिए कि नैतिक मूल्य भी कोई चीज़ होती है। कल यदि किसी बैंक लूट कर निकले चोर को कोई आम शहरी रोकने की कोशिश करने लगे तो शायद वह भी कहने लगे कि यदि मुझे रोकना है तो तुम्हे पहले बैंक के चौकीदार की नौकरी में आना चाहिए।ऐसे तर्क हमारे भाग्य लिख रहे अफसरों के मानसिक दिवालिया पन के ही द्योतक हैं। गाँधी ने तो कभी चुनाव लड़ कर कोई पद नहीं लिया था फिर क्यों उनके हर जन्मदिन पर सरकारी लोग तमाशे करने से नहीं चूकते ?

Wednesday, April 6, 2011

अमेरिका का हक़ वसुधैव- कुटुम्बकम पर ज्यादा है

आपने इस बात पर ध्यान दिया होगा कि अमेरिकी शासन की एक बहुत प्रभावशाली खासियत है। वह किसी भी देश के सत्ता गलियारों से पहले वहां के जन मानस के मन- गलियारों में जगह बनाने के रास्तों पर चलता है। यह बात अलग है कि अपनी राष्ट्रीयता की भावना के चलते लोग उसे मन से स्वीकार करने में संकोच करें। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि लोग भीतर से अमेरिकी प्रभुसत्ता के कायल होते हैं, किन्तु बहुत सारे बाहरी कारक उन्हें इस भावना को अभिव्यक्त करने से रोकते हैं। यह एक सर्वमान्य सत्य है कि कई बार किसी का श्रेष्ठता-भाव [सुपीरियरिटी काम्प्लेक्स ]केवल हमें इसलिए तंग करता है कि हम अपने हीनता-भाव [इनफीरियारिटी काम्प्लेक्स ]से निजात पाने में सक्षम नहीं हो पाते। किसी भी समस्या पर पैनी नज़र रखना, उस पर पहल करके उसके हल हेतु सामने आना, सहयोग करते समय नेतृत्व की भावना से प्रयासों की अगुवाई करना किसी भी तरह साम्राज्यवाद का पोषण नहीं कहा जा सकता। यह तो कहीं भी, कभी भी व्यष्टि अथवा समष्टि रूप में ज़रूरी है ही।किसी न किसी को तो करना ही होगा। करना चाहिए। केवल एक बड़ा देश इसे कर रहा है, इस आधार पर उस पर अंगुली नहीं उठाई जा सकती। यह बात समझने के लिए देशों की ही नहीं , अपने घर की कूट- नीति पर ही नज़र डालिए। क्या वहां भी ऐसा ही नहीं होता? बड़े बनने की अभि -प्रेरणा और नेतृत्व करने का प्रशिक्षण इन्ही परिस्थितियों से ही तो पैदा होते हैं। मुझे यह कहने में ज़रा भी संकोच नहीं है कि मनमोहन सिंह जी अमेरिका जाने पर अमेरिकी अवाम से घुलने - मिलने में ऐसी दिलचस्पी नहीं लेते जैसी ओबामा या क्लिंटन भारतियों से मिलने में लेते हैं। हमारे नेता वहां जाकर भी केवल अपने देश के प्रवासियों की बात करते हैं। ओबामा ने यहाँ आकर यह नहीं कहा कि वे अमेरिकियों से मिलेंगे।

किंग इज किंग

कहा जाता है कि आत्मकथा लिखना झूंठ बोलने का सबसे सम्मान जनक तरीका है। इस विचार के पीछे तर्क यह दिया जाता है कि यदि व्यक्ति सब कुछ सच- सच कहने का अभ्यस्त होगा तो वह जीवन में इतना बड़ा कभी बन ही नहीं पायेगा कि आत्मकथा लिखने की सोचे। समझ में नहीं आता कि इस उक्ति में परिहास का प्रतिशत कितना है? एक बार एक जंगल में एक घोड़े, एक हिरन, एक ऊँट और एक खरगोश में गहरी दोस्ती हो गयी। संयोग से जंगल के किनारे पर कुछ किसानों के चार खेत भी थे। बस, चारों मित्रों ने एक-एक खेत चरने के लिए बाँट लिया। अब भोजन की समस्या भी हल हो गयी।खूब खाना-पीना होता और दिन भर आनंद से कटता। एक दिन न जाने क्यों, मन ही मन घोड़े को लगने लगा कि उसके हिस्से के खेत में चोरी - छिपे कोई और भी चर जाता है , जिससे उसे रोजाना जितना भोजन नहीं मिल पाता । उसने किसी मित्र को नाराज़ करना उचित नहीं समझा, चुपचाप जाकर राजा शेर से शिकायत कर दी। शेर यह जान कर चिंतित हुआ और उसने पता लगाने की बात सोची। कुछ ही दिनों में ऐसी ही शिकायत हिरन की ओर से भी आ गयी। शेर कुछ समझ पाता कि ऊंट भी वही शिकायत लेकर चला आया।राजा को लगने लगा कि उसके राज्य में भ्रष्टाचार बढ़ता ही जा रहा है। राजा ने सोचा- कोई एक प्राणी तो सबका खेत चर नहीं सकता, ज़रूर यह सब एक - दूसरे को चोरी- छिपे धोखा दे रहे हैं। राजा ने सभी को बुला कर समझाना चाहा। पर फिर उसे ख्याल आया कि तीनों को बुलाने के बदले खरगोश से भी कह दिया जाये कि यदि तुम्हारे खेत में भी चोरी होती हो तो तुम भी चुपचाप किसी और खेत में चर लिया करो।राजा ने न्याय कर दिया। उसके दरबारियों ने सोचा- किंग इज किंग ।

ज्ञान और विवेक सम्बंधित हैं

मेरे एक मित्र, जो एक बड़े होटल में जनरल मैनेजर हैं, मुझे मिले। चर्चा होते-होते यह बात निकली कि आजकल अच्छे और भरोसेमंद कार्य-करता नहीं मिलते, इसलिए अधिकारी स्टाफ को ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है। उनका कहना था कि निचले दर्जे के काम करने वाले कर्मी बिलकुल कोई ज़िम्मेदारी लेने का कष्ट ही नहीं करते। वह काम का अंतिम लक्ष्य तो समझते ही नहीं। हर बात के लिए बहाने और काम न होने के कारण उनके पास हमेशा रहते हैं। मैंने कुछ सोच कर उन्हें सलाह दी - मुझे लगता है कि आपका स्टाफ शायद पूरी तरह से प्रशिक्षित नहीं होता। यदि आप उनके लिए कौशल-दक्षता का कोई प्रशिक्षण कर सकें तो शायद स्थिति में कुछ सुधार हो । शायद उन्हें बात अच्छी लगी। और यह मुझे अच्छा लगा कि जल्दी ही उन्होंने अपने कुछ कर्मचारियों के लिए एक ट्रेनिंग का बंदोबस्त कर डाला। कुछ समय बाद उनसे फिर मिलना हुआ। उनके अनुभव पर भी बात हुई। अबकी बार उनकी समस्या कुछ अलग किस्म की थी। उनका कहना था कि प्रशिक्षण के बाद लड़कों की कार्यकुशलता में तो ज़रूर वृद्धि हुई है , किन्तु हमें लगता है कि अब उनकी अवेयर-नेस इतनी बढ़ गयी है कि कभी-कभी तो उनका व्यवहार अति-चतुर, अर्थात ओवर- स्मार्ट व्यक्ति का व्यवहार हो गया है। वे अपने हितों के प्रति ज़रूरत से ज्यादा जागरूक हो गए हैं। न्यूनतम कार्य में अधिकतम पैसा चाहते हैं। मैंने उनसे कहा- कहीं ऐसा तो नहीं है कि आप उनसे न्यूनतम पैसे में अधिकतम काम की अपेक्षा करते हों? उन्हें जवाब देने में कुछ संकोच हुआ। मुझे लगता है कि हमें किसी की 'ईमानदारी ' को चुनौती देने से पहले अपनी ' नीयत ' को भी तौल लेना चाहिए।

Monday, April 4, 2011

महात्माओं की फसल

हमारा शरीर एक बेहद जटिल कारखाना है। हजारों पुर्जे और बेहद पेचीदगी से भरी क्रियाएं। लेकिन कार्य का वर्गीकरण इतना संतुलित और सटीक, कि न तो कोई पुर्जा बेरोजगार और न ही किसी के पास इतना काम, जो पूरा न हो सके। और हर बात या क्रिया की बेहद सुचारू व्यवस्था।जब तक हम किसी कारण से किसी अंग से लाचार न हों तब तक सभी के पास अपना-अपना काम। यकीनन, मानव शरीर सम्मिलित कार्य सञ्चालन का खूबसूरत नमूना है। इसी शरीर में सफाई की भी व्यवस्था, पाचन की भी, और साँस लेने छोड़ने की भी। किसी रोग के कीटाणु चले आयें तो एकबारगी उनसे निबटने की भी प्राकृतिक व्यवस्था। कितना अद्भुत सामंजस्य भरा कारोबार है, इस काया का। हर सुबह पेट मुस्तैदी से तैयार हो जाता है कि जो कुछ भी इसमेंआये तमाम तरह की क्रियाओं के बाद पूरे शरीर कि ज़रूरतों के मुताबिक फैला दिया जाये। जिस सुबह पेट में कुछ नहीं आता, सारा बदन हैरानी से इसका कारण खोजने लग जाता है। दिमाग सोच-सोच कर इस व्यवधान को सहने के रस्ते तलाशता है। पेट में अन्न न आने के कारण प्राय यह होते हैं- व्यक्ति बहुत गरीब है, दाना भी नहीं मिल रहा खाने को। व्यक्ति बहुत धार्मिक है, किसी देवी-देवता का जन्मदिन मना रहा है, इसलिए कुछ नहीं खायेगा। व्यक्ति बहुत व्यस्त है, भोजन करने का समय ही नहीं मिला। व्यक्ति किसी दुर्लभ स्थान पर है, कुछ उपलब्ध ही नहीं है खाने को। ये कारण मानवीय संवेदनाओं को समझ में आते हैं। पर एक कारण और भी है। किसी देश या समाज की सत्ता जीवन में मानवीयता का अर्थ समझ ही नहीं पा रही, इसलिए एक व्यक्ति अपने अंगों को मार्मिक क्रूरता से भोजन न दे कर देश की सत्ता को उसका कर्तव्य याद दिला रहा है। यह क्रिया महात्माओं की फसल उगाती है।

Sunday, April 3, 2011

बेचारे उसी युग के जीव

कल शाम को टहलते हुए बीच बाज़ार में एक अद्भुत द्रश्य देखा। एक बड़ी सी ईमारत की छत पर बहुत सारे बन्दर जमा थे और वे अपनी आदत के विपरीत शांति से बैठे हुए थे , मानो किसी मुद्दे पर गहन चिंतन कर रहे हों। प्राय बन्दर चंचल स्वाभाव के होने के कारण झुण्ड में चलते हुए भी कोई न कोई शरारत करते चलते हैं। परन्तु यहाँ उनकी स्थिरता देखते ही बनती थी।नीचे खड़े लोग भी तरह - तरह से उन पर टिप्पणियां कर रहे थे। बच्चे कोतुहल से उन्हें देख कर खुश हो रहे थे। कई लोग वाहन रोक-रोक कर भी नज़ारा देख रहे थे। कोई कह रहा था कि ये शायद लंका को जीत लेने पर भारतीय क्रिकेट टीम को बधाई देनेआये हैं।एक बुज़ुर्ग ने टिपण्णी की - ये लंका को हराने वाले दल के भूतपूर्व सैनिक हैं, इसीलिए आभार मानने आये हैं। बहुत देर तक वे बन्दर लोगों के आकर्षण का केंद्र बने रहे। लेकिन थोड़ी ही देर बाद असलियत उजागर हुयी। पता चला कि बिल्डिंग के पिछवाड़े में बिजली के तार से करेंट लग जाने के कारण एक बन्दर कि मौत हो गयी थी , और उस बन्दर की मृत देह वहां पिछवाड़े में पड़ी थी। उसी के शोक में वे बन्दर उस जगह पर एकत्रित हो गए थे। फिर एक आदमी की टिप्पणी सुनाई दी- यदि कोई आदमी सड़क पर इस तरह घायल होकर गिर जाता तो शायद इनमे से कोई नहीं रुकता। पर बंदरों की संवेदना को देखते हुए एक और बुजुर्ग ने कहा- ये नए ज़माने के थोड़े ही हैं। ये तो बेचारे अभी भी उसी युग को जी रहे हैं।

खोज सको तो खोजो

जो मेधावी बच्चे अभी पढ़ रहे हैं मैं उनसे एक आग्रह करना चाहता हूँ। हाँ, जो अच्छे जीवन-स्तर के लिए ज्यादा पैसा कमा कर बड़े पद पर नौकरी का लक्ष्य रखते हैं, उनसे मुझे कुछ नहीं कहना। परन्तु वैज्ञानिक सोच रखने वाले ऐसे बच्चे हैं , जो दुनिया के लिए महत्वपूर्ण आविष्कार करके अपना जीवन शोध, खोज और अध्ययन में बिताना चाहते हों वह मेरी बात पर गौर करें। हमें भविष्य के लिए एक ऐसे लिटमस टेस्ट की खोज चाहिए, जिसका प्रस्ताविक प्रारूप इन्सान के पैदा होते ही एक टीके के रूप में उसके शरीर में रोपा जा सके। फिर जिस तरह टीकाकरण से किसी बीमारी के कीटाणु शरीर में नहीं पनपते हैं, वैसे ही बेईमानी और भ्रष्टाचरण का विषाणु भी इन्सान के शरीर में नहीं पनप पाए। यदि परिस्थिति वश या वंशानुगत कारणों से यह पनप भी जाये तो जिस तरह रासायनिक क्रिया से लिटमस का रंग बदल जाता है, उसी तरह उस इन्सान के मुंह का रंग भी किसी खास रंग में बदल जाये। यह काला या गोरा न होकर आविष्कार-करता की पसंदानुसार लाल, नीला, पीला कैसा भी हो सकता है। हरा या गुलाबी भी। फिर वह शख्स दिन में लोगों के बीच निकल ना पाए और रात के अँधेरे में दबे पांव बिल्लिओं की भांति निकले भी तो उसके नए रंग से सर्च लाईट की तरह तेज़ रश्मियाँ निकलें या उसके शरीर से तेज़ घंटियाँ बजें। यदि कोई विलक्षण बालक ऐसा आविष्कार कर पाता है तो शायद उसका नाम न्यूटन, डार्विन या आर्किमिडिज़ के चमकते नामों से भी ऊपर लिखने की बात भविष्य सोचे, यह एक ऐसा आविष्कार होगा जो बाकी सभी खोजों पर पानी फिरने से बचा सके।

Saturday, April 2, 2011

पहले अपने गिरेबान में झांक कर ही अमेरिका को देखें

अमेरिका में रफ़्तार का मतलब मौज-मस्ती या जुनून नहीं होता। वहां रफ़्तार का मतलब है- तत्परता। यदि आपको कोई जल्दी का काम है, या फिर आपके पास समय सीमित है, तभी आप सड़क पर कुछ तेज़ी से गाड़ी चलाते दिखाई देंगे।यह तेज़ी भी नियमों की अनदेखी करती नहीं दिखाई देगी। ऐसा कभी नहीं होगा कि आप के हाथ किसी की गाड़ी लग गयी है, या आप लाइसेंस धारी चालक नहीं हैं और इसी हड़बड़ी में आप सड़क पर अपनी और दूसरों की जान जोखिम में डाल कर वाहन को अस्त-व्यस्त तरीके से भगाए जा रहे हैं। या आप अबोध किशोर हैं और आपको अभी तक कभी यह अनुभव ही नहीं हुआ है कि ज़रा सी लापरवाही से यन्त्र आपके नियंत्रण से बाहर होकर खतरनाक भी हो सकते हैं। ऐसे द्रश्य देखने का अभ्यस्त आपको भारत में होना ही पड़ता है। यहाँ बड़े शहरों में तो कभी-कभी सड़क पर चलते हुए आपको ऐसा लगता है कि जैसे आप खतरनाक , जानलेवा जंगल से गुज़र रहे हैं जहाँ कभी भी , कोई भी वाहन आपको चपेट में लेकर ज़ख़्मी या समाप्त कर सकता है। इस स्थिति का दर्दनाक पहलू यह है कि आप अपनी कोई भी गलती ना होते हुए भी दण्डित हो सकते हैं।इन बातों की रोकथाम करने की कोशिश भी कभी भी आपको अपमानित या दण्डित कर सकती है, क्योंकि ऐसी कोई माकूल व्यवस्था नहीं है जो सही को सही और गलत को गलत निर्धारित कर सके। निचले से लेकर उपरी प्रशासकों तक का भ्रष्टाचार ही सब तय करता है।लेकिन ऐसी बातों पर किसी का ध्यान नहीं जाता कि अब न्याय-प्रिय और शांति पसंद लोग भारत में रहना चाहते हुए भी यहाँ नहीं रह पाते। मज़बूरी में उनका पलायन उनके देश-प्रेम में कमी के रूप में नहीं आँका जा सकता ।

Friday, April 1, 2011

विश्व- प्याला

धोनी - गौतम और विराट ने , तैयारी का जाल बुना । खान, मुनाफ , हरभजन ने भी मछली को कांटा डाला । फेंकेंगे युवराज , सुदर्शन चक्र शत्रु की सेना पर । कितने घायल, बतलायेंगी दुनिया को टीवी-बाला । पीसेंगे सहवाग- सचिन जो, देश वही अब खायेगा । चूल्हे- चौके बंद , खुलेगी छक्कों की बस मधुशाला । खेल - खेल में आकर बैठे , दूर देश से राजाध्यक्ष । रण में कत्ले-आम मचेगा , बिना तीर और बिन भाला । बरसों पहले झेल चुके हैं , जंग अयोध्या और लंका । देखें अबकी बार पड़ेगी , किस के गले विजय माला ।

वर्ल्डकप माने विश्व-प्याला

आज न जाने क्यों ' बच्चन ' की , याद आ रही मधुशाला । झूम रहा है देश नशे में , पहने यादों की माला। नगर-नगर ने , गाँव-गाँव ने , मुंबई का रस्ता पकड़ा । किस के हाथ लगेगा , देखें , अबकी बार विश्व-प्याला । बल्ले की चाबी को लेकर , उतर रहे हैं मतवाले। घुमा-घुमा कर कैसे खोलें , आज रनों का ये ताला । बालीवुड का तारक-दल भी , काम छोड़ कर आ बैठा । कितने आउट पूछ रहा है, जीजा हो चाहे साला । दफ्तर-दफ्तर धूम मची है , बाज़ारों में चढ़ा खुमार । दौड़-दौड़ कर रन लेने हैं, चाहे पड़ जाये छाला ।

संख्या गर्व करने की चीज़ नहीं

भारत की ताज़ा जन गणना के आंकड़े जारी हो चुके हैं। वर्तमान जनसँख्या एक सौ इक्कीस करोड़ आंकी गई है।कहा जा रहा है कि २०२५ तक भारत सबसे ज्यादा जनसँख्या वाला देश होगा। चीन की जनसँख्या वृद्धि दर हमसे कम है। भारत के दो राज्य - उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र मिल कर अमेरिका से अधिक जनसँख्या रखते हैं। एक-एक राज्य एक एक बड़े देश के बराबर लोगों को समेटे हुए है। हमें सोचना होगा कि इन में से कौन सी बात गर्व करने लायक है? देश की धरती वही है, और वही रहने वाली है। हम सब बच्चे नहीं हैं कि बड़ी गिनती सुना कर बहलाए जा सकें। यह सचिन तेंदुलकर के रन या सोनिया गाँधी के वोट नहीं हैं कि इन पर वाह-वाही की जा सके।यह उन पेटों की संख्या है जो भारत-माँ को पालने हैं। हमें ईमानदारी और बेबाकी से देखना होगा कि इन पेटों से वाबस्ता हाथों की कर्म-कुंडली कैसी है? हमें अधिकतम और उचित तम का अंतर भी समझना होगा । एक अच्छा किसान भी इतना समझता है कि यदि आम मीठे चाहिए तो बौर पर नियंत्रण ज़रूरी है। सारी बात का सबसे खतरनाक पक्ष यह है कि जन संख्या का जो वर्ग अशिक्षित और विपन्न है, उसकी तादाद ही ज्यादा बढ़ रही है। जो परिवार नियोजन के विज्ञापनों को समझ भी नहीं सकता। इस वर्ग पर विशेष ध्यान देना होगा। उम्मीद है कि हमारे कल के फिल्म निर्माता ' दुनिया में हम आये हैं तो जीना ही पड़ेगा ' जैसे गीतों के बदले ' ज़िन्दगी एक सफ़र है सुहाना ' जैसे गीत बनने का मौका पाएंगे।

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

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