प्रकाशित पुस्तकें
उपन्यास: देहाश्रम का मनजोगी, बेस्वाद मांस का टुकड़ा, वंश, रेत होते रिश्ते, आखेट महल, जल तू जलाल तू
कहानी संग्रह: अन्त्यास्त, मेरी सौ लघुकथाएं, सत्ताघर की कंदराएं, थोड़ी देर और ठहर
नाटक: मेरी ज़िन्दगी लौटा दे, अजबनार्सिस डॉट कॉम
कविता संग्रह: रक्कासा सी नाचे दिल्ली, शेयर खाता खोल सजनिया , उगती प्यास दिवंगत पानी
बाल साहित्य: उगते नहीं उजाले
संस्मरण: रस्ते में हो गयी शाम,
Saturday, April 16, 2011
पानी
क्या आपको नहीं लगता कि कभी-कभी हम बेवजह घबरा जाते हैं।और केवल खुद घबराना ही नहीं , बल्कि घबराहट और हड़बड़ी में हम दूसरों को भी डर परोसने लग जाते हैं। और कहीं गलती से हम कलमकार हुए तब तो कुछ मत पूछिए, एक - एक थाली में हज़ार-हज़ार लोगों को खिलाने का हमारा शौक चारों तरफ डर ही डर बिखरा देता है।आखिर लेखक तो उन्ही में होते हैं न - लम्हों ने खता की थी सदियों ने सजा पाई। अर्थात, लेखक ने तो बस दस मिनट में लिख दिया, अब लोग बरसों तक पढ़-पढ़ कर हलकान होते रहें। अब आप सोच रहे होंगे कि इस समय कौन से डर की बात हो रही है? यद्यपि अब डर ऐसी चीज़ हो गयी है कि इसके बिना गुज़ारा नहीं, ऐसी भला कौन सी बात रह गयी है जिसमे डर न हो। किन्तु इस वक्त हम जिस डर की बात कर रहे हैं, वह पानी को लेकर है। आप में से कई लोग सोच रहे होंगे कि लो - खोदा पहाड़, निकली चुहिया। भला पानी से कैसा डर? तीन-चौथाई दुनिया पानी ही पानी है। हमारा शरीर अस्सी प्रतिशत पानी ही है। शरीर के ज़्यादातर अंग पानी ही छोड़ते हैं।आज ज़्यादातर लोगों का खून पानी ही हो चला है। ज़्यादातर योजनाओं पर पानी ही फिर रहा है। ज़्यादातर काम ऐसे हो रहे हैं जिन्हें देख कर कोई भी शर्म से पानी-पानी हो सकता है। बड़े- बड़े तीसमार खां नेता पानी ही मांग रहे हैं।फिर ऐसे में भला कौन होगा जिसे पानी की चिंता सता रही है? और पानी जायेगा तो जायेगा कहाँ ? गर्मी में भाप बन कर आसमान में चला भी गया तो बरस कर धरती पर ही आना है। सर्दी में पहाड़ पर जाकर जम गया तो पिघल कर ज़मीन पर ही आना है। अगर कोई जमाखोर- मुनाफाखोर नेता इसे पी भी गया तो भीतर कितनी देर रख लेगा? आखिर तो बाहर आना ही है।अब बताइए, डर कैसा?
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रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून
ReplyDeleteपानी गये न ऊबरे, मोती मानुस चून!