Tuesday, July 31, 2012

हाँ, बस यही कह रहा था मैं

अभिनव बिंद्रा को इस बार अपेक्षित सफलता नहीं मिली। वे स्वर्णिम सितारे की तरह ओलिम्पिक में गए थे। गगन नारंग अब हमारा नया सितारा हैं। अब हम  लौटने के बाद उनकी आभा में सांस लेंगे। गगन की सफलता का श्रेय मैं नहीं ले रहा, पर मेरा मतलब यही था। ज़बरदस्त सफलता से अनुभवी खिलाड़ियों के व्यक्तित्व की वह अदम्य आस धूमिल हो जाती है जो उन्हें अपने प्रदर्शनों के वक्त अतिरिक्त पैनापन देती है। वे आसानी से कह पाते हैं कि  दर्शक शोर मचा रहे थे, इसलिए मैं हारा। वे यह नहीं सोच पाते कि  दर्शक उन्हें जिताने के मकसद से स्टेडियम में कभी चुप नहीं बैठेंगे। उन्हें दर्शकों के उल्लास-भरे हो-हल्ले में ही जीतना-हारना होगा। अब हम उसी ब्लेड से शेव करेंगे, जिससे गगन करते हैं। वे बिस्किट हमें स्वादिष्ट नहीं लगेंगे, जो बिंद्रा को पसंद थे। हम ऐसे ही हैं, इसलिए गगन और बिंद्रा खेलें, हम पर ज्यादा ध्यान न दें, कि हम चुप बैठे थे या कि  चिल्ला रहे थे।
गगन को इस शानदार सफलता पर गरमा-गर्म बधाई।
यह पटाक्षेप नहीं है, देश और सफलताओं की राह देख रहा है।    

Monday, July 30, 2012

यह डिम्पल और महिलाओं की एक बड़ी सफलता है

   राजेश खन्ना अपनी जायदाद में से डिम्पल के नाम कुछ नहीं कर गए, इस बात से कुछ लोगों को कष्ट हुआ है। मीडिया ने भी खबर को उछाला है। यद्यपि राजेश ने अपना पैसा अपनी प्यारी बेटियों को ही दिया है जो डिम्पल की भी आज्ञाकारी बेटियां  हैं। यह एक सामान्य सी, पति-पत्नी के तनावपूर्ण रिश्तों की परिणति नहीं है, इस बात में गहरे अर्थ छिपे हैं।
   राजेश ने जब डिम्पल से विवाह किया था, तब वे न केवल उम्र में उनसे काफी छोटी थीं बल्कि "बॉबी "फिल्म की चमत्कारी सफलता से रातों-रात बनी सुपर हस्ती थीं। उधर राजेश अपनी बेमिसाल और लगातार तूफानी सफलता के हलके से धुंधलाने पर फूंक-फूंक कर कदम रखने वाली सुरक्षित पारी खेल रहे थे। यह भी उनकी सोने पर सुहागा सोच ही थी कि  वे डिम्पल से विवाह कर लें। उनके विवाह के बाद असली जीवन में डिम्पल को वही करना पड़ा जो परदे पर अभिमान फिल्म में अमिताभ के लिए जया बच्चन ने किया। जया के त्याग ने अमिताभ को रुपहले परदे पर एंग्री यंगमैन बना दिया, वहीँ डिम्पल के त्याग ने राजेश के ज़ेहन में एक ठंडी आंधी उम्रभर चलाई।
   इसमें कोई संदेह नहीं कि  राजेश और अमिताभ की सफलताओं के आगे आसमान की ऊंचाइयां भी कम पड़ीं, लेकिन यह भी ध्रुव सत्य है कि  डिम्पल और जया की शख्सियत भी अपने पतियों से इंच-मात्र भी कम नहीं पड़ी। ये दोनों ही अपनी पत्नियों की सुपीरियरिटी की आंच से कभी मुक्त नहीं हुए।
   ऐसे में वसीयत करते समय राजेश के दिमाग में डिम्पल का न आना इसी आंच की गर्मी का नतीजा है। यह आने वाले युग का भी संकेत है कि  पत्नियाँ पति की मुट्ठी के धान से ही अपना उदर पालने की स्थिति में अब नहीं रहने वालीं, न उनके जीतेजी, और न उनके जाने के बाद।
   महिलाओं को इस जीत पर शानदार बधाई ...

Sunday, July 29, 2012

इतिहास बदलने की अनुमति है ![दो ]

जिजीविषा -मैं तो तुम्हें कालू कहूँगी। तुम्हारा घर कहाँ है?
पहरेदार  - मैं भी तुम्हें विषा कहूँगा। मेरा कोई घर नहीं है, मैं तो अनंत काल से इसी तरह चक्कर लगा कर इस     दीवार की रक्षा कर रहा हूँ।
जिजीविषा  - इसकी रक्षा की क्या ज़रुरत? ये क्या सोने की दीवार है? कौन लूटेगा इसे? गन्दी।..[छूती है ]
पहरेदार  - अरे छुओ नहीं, ये इतिहास की दीवार है, जो कुछ बीत जाता है, वह इस दीवार के पार चला जाता है।
जिजीविषा  - देखूं, क्या-क्या चला गया।
पहरेदार  - अरे-अरे ठहरो, तुम जीते-जी उस पार नहीं जा सकतीं। जो मर जाता है वही उस पार जाता है।
जिजीविषा  - ये मरघट है क्या ?
पहरेदार  - नहीं-नहीं ये इतिहास है, जो लोग, जो समय, जो बातें बीत जाती हैं, वह उस पार चली जाती हैं। चाहे जीवन हो, चाहे कला हो, चाहे संगीत, चाहे राजनीति, सब कुछ उधर चला जाता है।
जिजीविषा  - ये कचराघर है क्या?
पहरेदार  - "चुप"!यह पवित्र इतिहास की पावन समाधि है,
जिजीविषा  - समाधि है तो तुम यहाँ क्या कर रहे हो? क्या यहाँ से निकल कर कोई भाग जायेगा?
पहरेदार  - तुमने ठीक कहा, कभी-कभी ऐसा हो जाता है। यहाँ से कोई निकलने की कोशिश करता है।
जिजीविषा  - तुम इस दीवार को ऊंचा क्यों नहीं कर लेते? थोड़ी ईंटें और लगा लो।
पहरेदार  - ये ईंटें नहीं,इतिहास हो चुकी आत्माएं हैं, कभी-कभी कोई आत्मा फिर से दुनिया में आने के लिए छटपटाती है।
जिजीविषा  - सच? फिर तुम क्या करते हो?
पहरेदार  - इसीलिए रखवाली करता हूँ, जब दीवार के पीछे लाल-अँधेरा छाता है, तो इसका अर्थ  है कि कोई आत्मा असंतुष्ट है, और वह दीवार के इस ओर  आना चाहती है। [तभी कोलाहल के साथ लाली छाती है, और जिजीविषा डर  कर बेहोश हो जाती है। कालप्रहरी उसे सम्हालते हुए टॉर्च लेकर दीवार की ओर  भागता है।..   

Saturday, July 28, 2012

इतिहास बदलने की अनुमति है !

[मंच पर एक लम्बी, ईंटों की  दीवार दिखाई दे रही है। दीवार के सामने कालप्रहरी पहरा दे रहा है। उसके एक हाथ में टॉर्च व दूसरे  हाथ में लाठी है। वह बार-बार इधर से उधर चक्कर काट रहा है। बीच-बीच में पार्श्व से "जाग रहा हूँ" की आवाज़ और सीटी  बजने का स्वर सुनाई दे रहा है।कभी अजीब तरह का कोलाहल और कालप्रहरी के क़दमों की आहट सुनाई देती है। बीच-बीच में वह टॉर्च की रोशनी दीवार की ईंटों पर डालता रहता है, तथा ईंटों को लाठी से ठकठका कर देखता रहता है। ईंटों के पीछे इतिहास के वे लोग हैं, जो मर कर उस पार चले गए। इन्हीं में से कभी-कभी कोई किसी ईंट को हटा कर झाँकने की कोशिश करता है। वह ईंट गिरा देता है, और कालप्रहरी दौड़ कर अतीत के उस पात्र को वापस पीछे हटाकर ईंट को यथास्थान रखता है।]
पहरेदार  - (स्वतः बुदबुदाते हुए)वर्षों बीत गए। रोज़ सुबह होती है, शाम होती है, फिर रात हो जाती है।पूरा                
                  एक दिन इतिहास बन कर इस दीवार के पीछे चला जाता है, और अपने साथ ले जाता है कई ...                   
                  (सामने से 'जिजीविषा' का प्रवेश)
जिजीविषा - ऐसा कब तक चलेगा?
पहरेदार  -  तुम  कौन हो? कहाँ चली आ रही हो ...
जिजीविषा - अरे, मुझे नहीं पहचानते?
पहरेदार  - नहीं, मैं किसी भी स्त्री को नहीं पहचानता। फ़ौरन यहाँ से चली जाओ वरना  ...
जिजीविषा - वरना  क्या ?
पहरेदार  - वरना  मुझ पर यह आरोप लग जाएगा कि  मैं तुम से बातें कर रहा था ...
जिजीविषा - कौन लगाएगा आरोप, यहाँ तो कोई भी नहीं है, तुम किस से डर रहे हो ?
पहरेदार  - मैं किसी से नहीं डरता , मैंने किया ही क्या है जो मैं डरूं ...
जिजीविषा - यही तो मैं भी कह रही हूँ। 
पहरेदार  - पर तुम हो कौन ?
जिजीविषा - मैं जिजीविषा हूँ। 
पहरेदार  - तुम कहाँ रहती हो ?
जिजीविषा - कहीं भी। हर एक के दिल में ...
पहरेदार  - छी -छी -छी, कैसी बातें करती हो ?

चलें लन्दन, पर यह याद रखें कि किसी सितारे ने कभी आसमान नहीं तोड़ा

   ओलिम्पिक का लन्दन में जैसा अतुलनीय और विस्मयकारी आगाज़ हुआ, उसने एक बार फिर साबित किया, कि  लन्दन आखिर लन्दन ही है।
   भारतीय खिलाड़ी भी अपना अब तक का सबसे बड़ा दल लेकर लन्दन पहुँच चुके हैं। भव्य आयोजन में सब कुछ बड़ा और भव्य ही होता है, लिहाज़ा खिलाड़ियों के सपने भी बड़े ही हैं। लेकिन हमारे पूर्व-अनुभवों में भी एक बड़ी बात छिपी है, जिसे हम अनदेखा नहीं कर सकते। हमारा अतीत यह सिद्ध करता रहा है, कि  किसी भी आयोजन में हमारे बड़े सितारों ने कोई कमाल नहीं दिखाया, बल्कि आयोजनों ने हमारे नए खिलाड़ियों को अचानक सितारा बनाया है। अतः यहाँ भी हमारी उम्मीदें छोटे प्रभा-मंडल वाले जांबाजों से ज्यादा हैं। इसका   यह मतलब नहीं है कि हम अपने नामवरों को शुभकामनाएं नहीं दे रहे। हम तो बस यह कह रहे हैं, कि  लन्दन से सबसे बड़ा खिलाड़ी हमारा कोई छुटभैया ही बन कर लौटेगा.
   बाकी फिर खिलाड़ियों का खिलाड़ी, ऊपर वाला जाने। चमत्कार करना तो उसका भी शगल है।    

Friday, July 27, 2012

इतिहास का एक बोध-वाक्य "प्रिवेंशन इज बैटर देन क्योर"

   नहीं नहीं, 'पूर्व - सावधानी इलाज से बेहतर है' यह  जुमला इतिहास का नहीं है। हम यदि ग्लोबल सन्दर्भों में बात करें, तो यह आज भी कई जगह प्रचलित है। हाँ, कुछ चुनिन्दा देशों में अब इसे मार -भगाया गया है। मैं  यह नहीं कह रहा कि हम उन्हीं देशों में हैं, लेकिन यदि आपको ऐसा लगता है तो ग़लती मेरी नहीं है।
   यदि कोई अपनी सारी कमाई किसी नशे में उड़ा दे, तो हम 'नशा' बनाने वाले, नशा बेचने वाले, नशे के लिए उकसाने वाले को कुछ नहीं कहते। यहाँ तक कि  नशा करने वाले तक को कुछ नहीं कहते। हाँ, जब उस नशे से आदमी मरने लगता है, उसका घर-परिवार उजड़ने लगता है, तब रुदाली बन कर उसके द्वार पर सामाजिक संस्थाएं भी आती हैं, और सरकार भी।
   अभी कल तक "गुटखा" बनाने वाले मोटा मुनाफा कमा रहे थे, अखबारों में बड़े-बड़े सितारों को लेकर लुभावने विज्ञापन दे रहे थे, यहाँ तक कि  सरकारों को भरपूर चंदे दे रहे थे, बड़े-बड़े राष्ट्रीय आयोजनों को प्रायोजित कर रहे थे, अब अचानक सब मिल कर गुटखा खाने वालों का मुंह पकड़ने दौड़ पड़े। कदम जब भी उठा, बधाई !  

Thursday, July 26, 2012

जापान और भारत में ज्यादा फर्क कहाँ है?

   अब तो सब एक से होने की मुहिम  में हैं। एक दूसरे  में ज्यादा फर्क ही कहाँ है, चाहे आदमी हो या देश !फिर  भी छोटा-मोटा फर्क तो रहेगा ही। अब सब बिलकुल एक से तो होने से रहे।
   जापान में लोग कहते हैं- जो काम दुनिया का कोई भी आदमी कर सकता है, वह हम क्यों नहीं कर सकते? और जो काम दुनिया का कोई आदमी नहीं कर सकता, उसे हम तो करके रहेंगे ही।
   भारत में लोग कहते हैं, जो काम दुनिया का कोई भी आदमी नहीं कर सकता, उसे हम भला कैसे कर सकते हैं। और जो काम दुनिया का कोई भी आदमी कर सकता है, उसे करने दो, हम भला क्यों रोकें?
   अमेरिका में, लोग कुछ नहीं कहते, कर देते हैं।
   एक खेत में तेज़ी से एक पत्थर आकर गिरा। पास खड़े पेड़ ने खेत को भड़काने की कोशिश की- देख, तू सर्दी-गर्मी-बरसात सहता है, हल तेरे बदन को चीर डालता है, बीज तेरे सीने पर आकर बैठ जाता है, पानी तेरा बदन सड़ा देता है, फिर भी तू फसल देता है, और अब ये ऊपर से तेरे ऊपर पत्थर !
   -दिमाग खराब मत कर, पंछियों से मेरी फसल की  रक्षा क्या तू करेगा? खेत बोला। 

Wednesday, July 25, 2012

सीमा आँखों की होती है, अन्तरिक्ष की नहीं

जब हमारा जन्म होता है, कुदरत चारों ओर से सहारा देती है। कुदरत अपने पांच बेशकीमती तत्व देकर हमें गढ़ती है। और हमारे आँखें खोलते ही अपनी सारी सीमाओं  को तोड़ कर एक अनंत आकाश हमारे सामने फैला देती है। फिर बारी हमारी होती है- हम बड़े-बड़े सपने देखें और जुट जाएँ उन्हें पूरा करने में ! हमारे जन्म पर हमारा हमको यही सबसे मूल्यवान उपहार है।  

Tuesday, July 24, 2012

पच्चीस जुलाई

कल पच्चीस जुलाई है। वास्तव में अब से एक घंटे पैंतीस मिनट बाद ही पच्चीस जुलाई शुरू हो जाएगी। फिर पच्चीस घंटे और पैंतीस मिनट तक पच्चीस जुलाई ही रहेगी। पच्चीस जुलाई हर साल चौबीस जुलाई के बाद और छब्बीस जुलाई के पहले आती है। भारत में प्रायः पच्चीस जुलाई को राष्ट्रपति बदलते हैं, इस  बार भी पच्चीस जुलाई को प्रणव मुखर्जी राष्ट्रपति बन जायेंगे और प्रतिभा देवीसिंह पाटिल इस पद को त्याग देंगी। 

Monday, July 23, 2012

कोई पहाड़ नहीं टूटा

मुझे याद है, एक समय ऐसा भी हुआ करता था कि  यदि किसी दिन अखबार पढ़ने को न मिले, तो दिन-भर एक अदृश्य बेचैनी सी हुआ करती थी। ऐसा लगता था कि  जैसे कोई बेहद ज़रूरी काम छूटा  रह गया। घर की रसोई में यदि पिछले सप्ताह के किसी भी दिन का अखबार रोटी के बर्तन में लग गया, तो महसूस होता था जैसे ज़रूरी कागज़ खो गया हो। यदि अखबार की रद्दी बेची जा रही हो, तो यह खास ध्यान रखा जाता था कि  ताज़ा महीने के अखबार कबाड़ी को न दिए जाएँ।
   लेकिन अब इनमें से कोई बात ध्यान नहीं खींचती। पिछले दो दिन से हॉकर्स  की स्ट्राइक के कारण अखबार नहीं मिले। लेकिन आश्चर्य है कि  कहीं किसी तरह का व्यवधान दिनचर्या में नहीं दिखा। बल्कि अब लग रहा है कि  पिछले दो दिन से सुबह की चाय काफी इत्मीनान से पी जा रही है।
   क्या यह प्रिंट मीडिया के दम तोड़ने के दिन हैं? क्या इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने प्रिंट मीडिया को पूरी तरह हाशिये पर खिसका दिया? क्या छपे शब्द ने अहमियत और विश्वसनीयता खो दी ? क्या विज्ञापनों, पेड न्यूज़ और प्रकाशन-घरानों की आपाधापी ने कागज़ को "अन्यत्र" इस्तेमाल के लिए आज़ाद कर दिया?
   घर पर अखबार नहीं आया, और ऐसा नहीं लगा कि  कहीं कोई पहाड़ टूट पड़ा हो... 

Saturday, July 21, 2012

रमज़ान शुरू, चहके बाज़ार महका आलम

मुबारक दिन आलसी नहीं होते, वे तयशुदा समय पर चले ही आते हैं। ये ही दिन इंसान के कठिन दिनों में सँभलने का संबल भी होते हैं।
   कभी-कभी लगता है कि  बादल जैसे इस बार नाराज़ हैं। जो मौसम फुहारों से भीगा होना चाहिए था, वह तप रहा है। कुछ दिन पहले सारी  दुनिया को सहलाने वाली खबर अखबारों में थी, कि  अमेरिका के कई राज्यों में भी भीषण सूखे की आशंका है। पानी बचाने के तमाम सन्देश विज्ञापनों में हैं, फिर भी वह बच नहीं रहा। जो है, वह ठीक से बंट नहीं रहा। विज्ञापनों ने अपनी विश्वसनीयता खुद खोई है।
   जब शाहरुख़, आमिर, सलमान या ऋतिक विज्ञापनों में आते हैं, तो विज्ञापित चीज़ का रुतबा नहीं बढ़ता, बल्कि खुद उनका रुतबा बढ़ता है। और जो विज्ञापन इन महामानवों के बिना बनते हैं, उन्हें फ़िलर माना जाता है, मुकम्मल विज्ञापन नहीं।   

अब तक महफूज़ रही चांदी...

लन्दन की खबर है कि चालीस साल पहले डूब गए ब्रिटिश कार्गो जहाज़ से 44 टन भारतीय चांदी सुरक्षित निकाल ली गई है। यह चांदी दशकों तक सागर के गर्भ में इसलिए महफूज़ रही क्योंकि जहाँ यह पड़ी थी, वहां तक केवल समुद्री जीव-जंतुओं की ही पहुँच थी। धरती के वाशिंदों की नज़रों से यह कतई ओझल थी।
   अब यह भारत में आ रही है, जहाँ यह कभी किसी महिला के गले से खींची जाएगी, कभी इसके लिए किसी वृद्धा के पैर काटे जायेंगे, कभी इसके लिए बच्चों के अपहरण होंगे, कभी इसके कारण बाज़ारों में गोलियां चलेंगी, और कभी गैर-कानूनी कामों के लिए यह अफसरों को भेंट चढ़ाई जाएगी।
   चलिए, अभी तो इसके मिल जाने की ख़ुशी मनाएं, और उन जांबाजों का शुक्रिया अदा करें जिनकी मेहनत  और सतर्कता से यह खोई दौलत फिर से हाथ आ सकी। रही बात हिंसा की, तो इसके लिए अकेले भारत पर ही क्यों आक्षेप लगाया जाये, उन चौदह लोगों की क्या ग़लती  थी, जो अमेरिका में एक सिनेमाघर में फिल्म देखने अपने-अपने घरों से निकले थे?

Friday, July 20, 2012

ज़रूरी है बारह घंटे की नींद !

   यह शीर्षक पढ़ने में अच्छा लगता है, पर आसानी से गले नहीं उतरता। जी भर कर सोना, भला किसे नहीं पसंद? दिन-रात के कुल समय में से पूरा का पूरा आधा समय आराम से सोने के लिए मिल जाए, तो फिर और क्या चाहिए। लेकिन कोई बारह घंटे खर्राटे ही भरता रहेगा, तो अपने रोज़ के काम कैसे  पूरे करेगा? अब ये कोई कुम्भकरण का ज़माना तो है नहीं।
   तो फिर बारह घंटे सोने की बात का क्या मतलब ?
   मतलब यह, कि  सोना तो सामान्यतः आठ घंटे ही पर्याप्त है, लेकिन कुछ कार्य ऐसे हैं  जो हमारे शरीर को नींद के समान ही आराम और सुकून देते हैं, और उन्हें थोड़ा समय देकर हम तरोताजा हो सकते हैं। दिन-भर में आठ घंटे सोने के अलावा इन कामों को भी तीन-चार घंटे दीजिये- [ये काम आप अपने अन्य नियमित कामों के साथ ही कर सकते हैं]
1. थोड़ी देर गुनगुनाइए।
2. अपने को आईने में देखिये।
3. अपने पसंदीदा शख्स को छिप कर या तसवीर में देखिये।
4. भीगिए।
5. अपने पालतू कुत्ते को तंग कीजिये।
6. अपने सबसे पुराने, फेंकने योग्य कपड़े थोड़ी देर फिर पहनिए।
7. तीन-चार घंटे के लिए अपना मोबाइल छिपा दीजिये। 

Thursday, July 19, 2012

कुछ न कहना ही अच्छा है राजेश खन्ना के बारे में

   किसी के न रहने पर उसके बारे में बोलते समय उसके बारे में सब अच्छा ही अच्छा कहने का रिवाज़ है। ऐसे में राजेश खन्ना के बारे में कुछ कहते समय गफलत की स्थिति है। क्योंकि यदि तारीफ में कुछ कहा गया तो इसे महज़ परंपरा ही कहा जायेगा। लेकिन उनके बारे में कुछ न कहना और भी गलत होगा।
   केवल और केवल स्टार-पुत्रों व स्टार-पुत्रियों की प्रायोजित लॉन्चिंग देखने की आदी नई पीढ़ी शायद नहीं जानती होगी कि  वे अखिल भारतीय टेलेंट कंटेस्ट जीत कर लाखों में एक चुन कर आये थे।
   उन्होंने हृषिकेश मुखर्जी की फिल्मों को भी इस तरह किया, मानो वे इन्हीं के लिए बने हों, और गुलशन नंदा की लिखी कहानियां - दाग और अजनबी भी इसी तरह कीं, मानो इनका नायक बनने के लिए ही वे थे।
   सुमिता सान्याल से लेकर हेमा मालिनी तक वे सहज थे। उनके चेहरे की युवता उन्हें पत्नी डिम्पल की छोटी बहन सिंपल के साथ भी उसी तरह फिट करती थी, जिस तरह उनकी आरंभिक नायिका बबिता की बड़ी बहन साधना के साथ।
   वे जब सांसद बन कर संसद में गए तो उन्हें देख कर ऐसा लगता था, कि  वे यहाँ शायद ही किसी की सुनें। वे हमेशा वहां रेलवे प्लेटफार्म पर बैठे मुसाफिर नज़र आये।
   वे शबाना आज़मी के साथ भी एक्टिंग कर लेते थे, और उनसे टीना मुनीम के साथ भी एक्टिंग हो जाती थी।वे मीना कुमारी को क्रोधित करना जानते थे, और अंजू महेन्द्रू के गुस्से को ठंडा करना भी। 
   वे अब चले गए।  

Wednesday, July 18, 2012

भाषा नहीं तो क्या, पक्षियों का मनोविज्ञान समझा है राजेश कुमारी जी ने

   पक्षियों का सुरक्षा-मनोविज्ञान बहुत दृढ़ होता है, वे खतरा सूँघने की अद्भुत क्षमता रखते हैं, इसी से समूह में रहना पसंद करते हैं। हल्की  सी सरसराहट भी उन्हें चौकन्ना कर देती है। इसी से वे अपने समूह से अलग जाना केवल विशेष परिस्थितियों में ही पसंद करते हैं, जैसे-भूख लगने पर, शरीर में कोई असुविधा होने पर। ऐसे में वे अपने को सब की बराबरी करने में सक्षम नहीं पाते।
   लेकिन एक ही पेड़ पर सबके बैठने और दूसरे पेड़ पर किसी के न जाने के पीछे एक छोटा सा कारण और भी है। पेड़ों को दाता  ही कहा जाता है, लेकिन इन मानव-मित्रों में भी कुछ अपवाद हैं। कुछ पेड़ मनुष्य या वातावरण को कोई लाभ नहीं पहुंचाते, बल्कि हानिकारक ही होते हैं। विलायती बबूल, युक्लिप्टस आदि ऐसे पेड़ हैं, जो कम से कम जल-विहीन क्षेत्रों में तो ज़मीन को नुक्सान ही पहुंचाते हैं। ये ज़मीन का पानी सोख लेते हैं, और बदले में कुछ भी लाभकारी नहीं देते। "सप्तपर्णी"भी ऐसा ही एक पेड़ है। कुछ क्षेत्रों में तो इन पेड़ों को लगाने पर सरकारों ने भी  प्रतिबन्ध लगा दिया है। इनके पत्ते, फल,या फूल कोई उपयोगिता नहीं रखते। मृतावस्था में आते ही इन पर चींटियाँ या दीमक भी जल्दी लगती है।
   अब पंछियों ने बोटनी या वनस्पति-शास्त्र न पढ़ा हो तो क्या,  पर्यावरण में अपने मित्रों को तो वे भी पहचानते ही हैं !

Tuesday, July 17, 2012

पांच कारण ढूँढ लिए, सही कौन सा है, यह जानने के लिए एक दिन और दीजिये !

   पक्षियों की भाषा का जानकार  तो कोई नहीं मिला, लेकिन फिर भी अलग-अलग समय पर जाकर ध्यान से देखने पर इस बात के कुछ कारण  ज़रूर मिले कि  सारे पक्षी एक ही पेड़ पर क्यों बैठते हैं।
     1.पक्षियों में  भी आदमियों की तरह 'भेड़चाल'की आदत होती है, एक जहाँ बैठा, बाकी भी उसी को बैठने की जगह समझने लगते  हैं।
     2.दूसरे पेड़ पर चींटे और मधुमक्खियाँ हैं।
     3.एक पेड़ पर 'देवता' का वास है, दूसरे पर 'भूतों' का।
     4.एक पेड़ के नीचे खाली मैदान है, दूसरे  के नीचे गाय-भैंस बंधी हैं।
     5.पहला पेड़ एक किसान की ज़मीन पर है, दूसरा सरकारी ज़मीन पर।
   निश्चित रूप से इनमें से कोई एक ही कारण  होगा, दूसरे  पेड़ पर पक्षियों के न बैठने का, कल तक सामने आ जायेगा।  

Monday, July 16, 2012

क्या आप पक्षियों की भाषा समझते हैं?

   एक बार आते- जाते मैंने गौर किया कि सड़क के किनारे दो ऊंचे-ऊंचे सूखे पेड़ हैं।लगभग एक सी ऊंचाई है उनकी। दोनों के बीच करीब पचास फुट की दूरी होगी। यह पतझड़ के मौसम की बात नहीं है, क्योंकि इन पेड़ों के आसपास ढेर सारे हरे-भरे पेड़ भी हैं। मैं एक ख़ास कारण  से इस नज़ारे को ध्यान से देखने लगा।
   उनमें से एक पेड़ पर शाम के समय बहुत सारे पक्षी बैठे रहते हैं। वे संख्या में इतने सारे होते हैं कि  दूर से देखने पर उस पेड़ के पत्तों जैसे लगते हैं। कई बार उस पेड़ पर बैठने की बिलकुल जगह नहीं होती, फिर भी इधर-उधर से उड़ान भर कर आते परिंदे पंख फड़फड़ाते हुए जगह ढूंढते हैं, और कहीं न कहीं उसी पेड़ पर टिक जाते हैं। आश्चर्य की बात है कि  दूसरे पेड़ पर कभी कोई पक्षी नहीं बैठता।
   यहाँ तक कि  जगह न होने पर भी हर पखेरू पहले पेड़ पर ही बैठने की जद्दो-ज़हद करता है, पर दूसरे पेड़ का रुख नहीं करता। जबकि उस पर भी बैठने की उतनी ही जगह है। आप सोच रहे होंगे कि  दूसरा पेड़ कोई विषैली प्रजाति का होगा, और पहला किसी अच्छे किस्म की प्रजाति का।
   पहले मैंने भी ऐसा ही सोचा था, पर ऐसा नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि  पहले पेड़ के आसपास कोई दाना-पानी है और दूसरे  के पास बंजर जगह।
   अब मेरी उत्सुकता है कि  मैं इस पक्षपात का कारण पता लगाऊँ। मैं न पंछियों की भाषा समझता हूँ, और न ही उनका मनोविज्ञान। मैं केवल मानव मनोविज्ञान के सहारे ही यह पहेली हल करने की कोशिश कर रहा हूँ। मैं जल्दी ही आपको इसका कारण  बताने का प्रयास करूंगा। इस बीच यदि आपके दिमाग में कोई 'क्लू' आता हो तो कृपया बताएं।  

Sunday, July 15, 2012

यादें कीमती होती हैं, मीरा की याद हुई लाख की

अभी कुछ देर पहले राजस्थान साहित्य अकादमी का मीरा समारोह सम्पन्न हुआ। राजस्थान के मुख्यमंत्री ने इस 31 हज़ार रूपये के पुरस्कार की राशि बढ़ा कर एकलाख करदी।
   इस समारोह में प्रभाकर श्रोत्रिय  ने जब यह कहा कि राजस्थान में आजकल केवल राजस्थान के ही साहित्य की बात ज्यादा हो रही है, तो वातावरण थोड़ा गंभीर हो गया।
   इसी समारोह में एक वक्ता ने यह भी कहा कि  ईश्वर बयानों में सख्ती नहीं चाहता था, इसीलिए उसने जिव्हा में हड्डी नहीं बनाई।
   एक बार गांधीजी से किसी शिक्षाविद ने पूछा, कि आपके हिसाब से शिक्षा कैसी होनी चाहिए?  गांधीजी ने पलट कर उसी से पूछा- यदि एक आदमी ने एक सेब पच्चीस पैसे  में खरीदा और एक रूपये में बेचा, तो बताओ उसे क्या मिला? शिक्षाविद ने तुरंत कहा- पचहत्तर पैसे!
   "शिक्षा ऐसी होनी चाहिए,कि  देश के किसी भी बच्चे से जब यह सवाल पूछा जाए तो उसका उत्तर हो-जेल !" गांधीजी बोले।   

Saturday, July 14, 2012

थोड़ा और खोदें, हर खदान से निकलता ही है कुछ न कुछ

   लाला रामस्वरूप ने बच्चों को पढ़ाने- लिखाने पर खर्च करने में कभी कोताही नहीं की। यही कारण  था कि   सात बच्चों में से तीन, महिपाल,धनेश और सतीश ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई  की। वे जानते थे कि  छोटी जगह रह कर यह सब न हो सकेगा, इसलिए जिला मुख्यालय अलीगढ़ में रहने की व्यवस्था की गई। वहां उनके एक पुत्र ने मुस्लिम विश्व विद्यालय से क़ानून की पढ़ाई की। सामान्य परिपाटी के विरुद्ध दोनों पुत्रियों रामदेवी और विद्या  को भी पढ़ने  भेजा गया।
     ज्ञानार्जन से घर के माहौल में आधुनिकता का पुट आने लगा। बड़े पुत्र का घर का नाम जहाँ धार्मिक आस्थाओं के चलते 'द्वारका' रखा गया था वहीँ तीसरे पुत्र बन्नो के बाद चौथे तक आते-आते दयाभान  का घर का नाम 'मिस्टर' रखा गया।
     "विद्या" नाम इस घर को खूब फला। छोटी बेटी विद्या के साथ-साथ  महिपाल की धर्मपत्नी भी विद्यावती ही थी।जगदीश का विवाह शकुन्तलादेवी से हुआ, धनेश का केवल 17 वर्ष की आयु में मधु से, दयाभान का पुष्पा  से,और सतीश का भी पुष्पा नाम की, शकुंतला की छोटी बहन से हुआ।
     बाद में नौकरियों के चलते सब बच्चे अलग-अलग शहरों में चले गए।
     राजस्थान में आये जगदीश के चार पुत्र और दो पुत्रियाँ हुए। बड़ी पुत्री रानी  को लाला राम स्वरुप की इच्छा के कारण  संस्कृत की शिक्षा दी गईऔर उसका विवाह अनिल से हुआ । छोटी पुत्री पूनम  का विवाह एक अत्यंत प्रतिष्ठित व्यवसायी रवि  से हुआ। दो पुत्र विनोद और अनुरोध  इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर इंजीनियर बने, जिनका विवाह क्रमशः अशोकरानी  और अंजली से हुआ और  एक पुत्र  कृषि वैज्ञानिक बना जिसका विवाह मृदुला से हुआ । चौथे प्रबोध ने, शिक्षा को डिग्रियों में न बाँट कर केवल रुचिकर अध्ययन के तहत कला, वाणिज्य, विज्ञान, विधि, साहित्य, भाषा, पत्रकारिता की शिक्षा भी ली, और देश के अलग-अलग हिस्सों में, अलग-अलग तरह की नौकरियां भी कीं। एक अत्यंत मेधावी, वैज्ञानिक,प्रशासक और शिक्षाविद लड़की रेखा  से विवाह किया।
     गड्ढा खोदते-खोदते ज़मीन से पानी निकल आया और पानी में अपना ही अक्स दिख रहा है, भूमिगत जल बेहद शुद्ध होता है न ! अब बंद करता हूँ, अपना ही अक्स कोई कब तक देखे?
          

आगे बढ़ें, देखें किसके पुरखे मिलते हैं ...

...कुछ साल और गुज़रे कि  घर में कन्या-रत्न भी आ गई। साक्षात् लक्ष्मी जैसी इस कन्या का जन्म शिवरात्रि के आसपास होने से इसे शिव की अर्धांगिनी पार्वती का नाम दिया गया। पार्वती का जन्म ठीक उसी वर्ष में हुआ, जब लमही ग्राम में मुंशी प्रेमचंद का जन्म हुआ। इस महान विभूति की तरह पार्वती को भी 'पी' अक्षर से अपना नाम मिला। तीन बालकों की किलकारी से गूंजते घर में लाला उदयराम अपना पूरा ध्यान अब कारोबार में लगाते, लेकिन उनकी पत्नी अभी परिवार-वृद्धि का पटाक्षेप नहीं चाहती थीं। वे कहतीं, आँगन में चार कोण होते हैं, दिशाएँ चार होती हैं, तो संतानें भी चार क्यों न हों?
     1884 की दिवाली की रात जब लालाजी के घर एक और पुत्र जन्मा तो उसे रामस्वरूप मान कर उसका नाम भी यही रखा गया। रामस्वरूप के आने के बाद लालाजी का व्यापार खूब फलने-फूलने लगा।
     कुछ समय बाद दिलेराम का विवाह हो गया। गोविन्दराम को ईश्वर-भक्ति का ऐसा चस्का लगा कि  उसने उम्रभर शादी ही नहीं की। पार्वती मित्तल परिवार में बहू बन कर चली गई, और उसकी डोली उठने के बाद सबसे छोटे पुत्र ने लालाजी की गद्दी संभाल  ली और लाला रामस्वरूप कहलाने लगे। कलावती नाम की एक घरेलू और विदुषी महिला से उसका विवाह भी हो गया।
     पटवारी की सरकारी नौकरी में आ जाने से रामस्वरूप की दिलचस्पी ज़मीन-जायदाद में तो थी ही, पिता का आढ़त का व्यापार भी था। रामस्वरूप ने पिता की मिल्कियत  को पास के जिले अलीगढ़  तक फैला लिया और वहां के एक गाँव बरला में अपनी आलीशान हवेली बनाई।वह जितना लगाव अपनी संपत्ति से रखते थे, उससे कहीं ज्यादा अपने घर की लक्ष्मी कलावती से रखते थे। नतीजा यह हुआ कि  उनके घर सात संतानें हुईं। पांच पुत्र और दो पुत्रियों का भरा-पूरा परिवार लेकर लाला रामस्वरूप अब बच्चों की शिक्षा और परवरिश पर सोचने लगे। [...जारी] 

Friday, July 13, 2012

चलिए, अतीत के मेले में खोये हुए 'पुरखे' ढूंढें

किसी भी घर में, चाहे वह राजमहलों जैसा हो, चाहे झुग्गी-झोंपड़ी जैसा, कुछ ऐसे लोगों की यादें ज़रूर होती हैं, जो अब दुनिया में  नहीं रहे, लेकिन जिनके कारण उस घर की वर्तमान पीढी होती है - अर्थात परिवारके पूर्वज !
     लगभग डेढ़ सौ साल पहले 1857 में भारत में आज़ादी के लिए एक ज़बरदस्त जंग छेड़ी  गई। इस जंग में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई व तात्याटोपे जैसे कई शूरवीर जन-नायकों ने बगावत का बिगुल बजाया।
     इसी वर्ष उत्तरप्रदेश के बुलंदशहर जनपद के छोटे से कस्बे बहलोलपुर में उदयराम नाम के एक बालक का जन्म हुआ। बालक ने जन्म की घड़ी  से ही युद्ध की रणभेरियाँ सुनीं। कस्बाई मानसिकता वाले साधारण  व्यवसायी परिवार के इस  बालक के मन में इस बात ने गहरा असर डाला, कि क्रांतिकारी वीरों को घर-परिवार का सुख छोड़ कर अपना सर्वस्व  न्यौछावर करना पड़  रहा है।अतः बालक ने अपनी छोटी सी आमदनी में से कुछ राशि बचा कर लगातार क्रांतिकारियों पर खर्च करने का मानस बनाया। समय के साथ क्रांति का स्वर मंद पड़ा और स्कूली पढ़ाई पूरी कर किशोर उदय विवाह के बंधन में बंधा। आदर से साथी व्यापारी अब उदय को लाला उदयराम कहने लगे।
     कुछ समय बाद लाला उदयराम की पत्नी ने एक बालक को जन्म दिया। वीरों की सहायता करने के कारण उदयराम के मित्र उनकी दिलदारी से बहुत प्रभावित थे, अतः उन्होंने बेटे का नाम दिलेराम ही रख दिया। दिलेराम इसी नाम से गांवभर में लोकप्रिय हो गया। उदय और उसकी पत्नी बेटे का मुख देखते और प्रभु-भजन में ध्यान लगाते, व्यापार  अच्छा चल ही रहा था। उदय की पत्नी ने जब दूसरे  पुत्र को जन्म दिया तो बेटे का नाम भगवान  कृष्ण के नाम पर रखने की इच्छा से गोविन्द रख दिया गया। उनका गाँव मथुरा-वृन्दावन-गोकुल से कोई दूर तो था नहीं, धार्मिक आस्था का आलम यह था कि  गोविन्द के साथ भी राम जोड़ कर उसका नाम गोविन्दराम हो गया। [आगे कल ...]

Thursday, July 12, 2012

कहानी "व्हेल वॉच " का चौथा [ अंतिम ] भाग

      गहरे पानी से निकल कर विशालकाय व्हेल लहरों के ऊपर छपाक से किसी विमान की तरह कूद कर बाहर आती है। उसके आते ही चारों ओर से बीसियों बगुले फड़फड़ा कर इधर-उधर दौड़ते हैं, क्योंकि व्हेल से उड़े पानी के छींटों से सैकड़ों छोटी-छोटी मछलियाँ हवा में उछलती हैं। बगुले उन्हें ही पकड़ने के लिए झपटते हैं। इस तरह एक व्हेल की जुम्बिश से सैंकड़ों मछलियों के भाग्य का निस्तारण होता है। दर्जनों बगुले पलते हैं।यह एक अद्भुत नज़ारा होता है। प्रकृति इन बगुलों का पेट भरने के लिए व्हेल की अंगड़ाई से सैंकड़ों मछुआरों का काम कराती है। बगुलों के लिए यह कुदरत का महाभोज होता है।
     बंगले के बगुले शहर भर की मछलियों को तेज़ी से मोक्ष प्रदान करने को मुस्तैद थे। व्हेल दिखी नहीं थी, मगर पानी हिलना-डुलना शुरू हो गया था। लोगों ने हाथों में डिजायर के कागज़ संभालने शुरू कर दिए थे। मैं तो केवल छुट्टी के दिन का सैलानी था, इसलिए मैंने व्हेल वॉच के लिए आँखों का कैमरा संभाल लिया था।
     थोड़ी ही देर में गलियारे से आते मंत्रीजी दिखे। उनके साथ आठ-दस लोग इस तरह आगे-पीछे चल रहे थे, मानो वे न हों तो मंत्रीजी को यह मालूम न चले कि  उन्हें कहाँ जाना है, कहाँ बैठना है...
     अपने घर में जिस व्यक्ति को बिना मदद के यह नहीं पता चल पा रहा था कि  उसे कहाँ जाना है, उसे प्रदेश-भर के सुदूर गाँव-देहातों को खंगाल कर हजारों लोगों के लिए यह तय करना था, कि  किसे कहाँ से कहाँ जाना है, क्यों जाना है। जैसे एक कंकर सारे तालाब की लहरों को तितर-बितर करके पूरे तालाब को झनझना देता है वैसे ही मंत्रीजी को भी पूरा प्रदेश अपने हाथ की जुम्बिश से हिला देना था। उनकी चिक से उड़ी मक्खी  जिस कागज़ पर बैठ जाती उस कागज़ की नाव सड़कों और पटरियों को पार करती, नदियाँ-जंगल-पहाड़ लांघती, खेतों-बाजारों से गुजर जाती।
     लोग इसी जुम्बिश की आस में उनके नाम के जयकारे लगा रहे थे। मेरी तो छुट्टी थी, मैं तो व्हेल वॉच का आनंद लेने वाला एक सैलानी था ...! [समाप्त ]

कहानी "व्हेल वॉच " का तीसरा भाग

  

मिल गए फिर आप !

पूरे अट्ठारह दिन आप से संपर्क कटा रहा। कभी-कभी ऐसा लगता था कि  आपसे पांच सौ से ज्यादा पोस्ट का संपर्क खिसक कर जैसे पानी में चला गया हो। लेकिन पानी की खूबी यह है कि  यह उतर जाता है। इसमें डूबा हुआ भी  फिर वापस मिल जाता है।
   इस बीच मौसम बदल गया। जो लोग गर्मी से बेहाल थे, अब राहत महसूस कर रहे हैं। अब सब-कुछ भीगा-भीगा सा है, सुहाना। लेकिन एक बात है, कुछ जगह अब भी वैसा सावन नहीं आया, जैसा आया करता है। चलिए, शायद ये कमी भी किसी से 'प्यासा सावन' जैसे कथानक लिखवाले। बहरहाल मैं खुश हूँ। क्योंकि पिछले दिनों आप मेरी लम्बी-लम्बी कहानियों से बोर हो गए थे। अचानक आये व्यवधान  ने कुछ दिन मुझे यह सोचने का समय दिया, कि  लोग छोटी-छोटी रचनाएं पसंद करते हैं, और मुझे चुप रखा।
   लेकिन फिर मुझे यह तो बताना ही होगा, कि  मैं खुश क्यों हूँ? इसलिए, कि  आपसे संवाद फिर कायम हो गया। 

Sunday, July 1, 2012

कभी पहुंचाते हैं, तो कभी रोक देते हैं रास्ते

घर के बाहर सड़क खोदने वालों ने ऐसा गड्ढा खोदा कि  हमारा आपका संपर्क तोड़ दिया। जल्दी ही मिलेंगे। 

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...