Monday, December 30, 2013

सरक गए सितारे

सर्दी और धुंध ने आसमान को ढक लिया है, किन्तु फिर भी जहाँ ये साफ-साफ दिख रहा है, वहाँ थोड़ा  सा ध्यान देने पर आप अच्छी तरह देख पाएंगे कि आकाश के सभी सितारे अपनी-अपनी जगह से थोड़ा-थोड़ा सरक गए हैं। यह कोई भौगोलिक घटना नहीं है, ये तो सामान्य से शिष्टाचार की  बात है।  सभी तारों ने सरक कर थोड़ी सी जगह बनाई है, ताकि आसमान में आने वाला उनका नया साथी भी वहाँ रह सके।
वह कल आने वाला है न !
वर्ष २०१३ है वो नया मेहमान जो अब अम्बर में रहेगा।  इतिहास में रहेगा।  सबको दिखाई देते हुए और सबकी पकड़-पहुँच से दूर। धरती पर अब २०१४ रहेगा।
आइये, इस परिवर्तन के लिए अपने को तैयार करें।
शुभकामना दीजिये कि इस साल मैं अपना यह संकल्प पूरा कर सकूं -
-"मैं जो कर न सकूं उसे करने के बारे में कहना तो दूर, उसके बारे में सोचूँ भी नहीं, लेकिन कुछ न कुछ ऐसा ज़रूर करूँ जो कभी सोचा भी न हो"
 
      

Saturday, December 28, 2013

दे जाते हैं जाने वाले

यह सच है कि जाने वाले जाते-जाते भी बहुत कुछ दे जाते हैं।  २०१३ के जाने में अभी कुछ समय शेष है, मगर इसने हमें जाते-जाते भी कितना कुछ दे दिया।
इसने हमें यह ज्ञान दे दिया कि अहंकार कितना ही बलशाली हो, उसका दर्प टूट कर ही रहता है।
इसने हमें यह भी सिखा दिया कि "अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता" जैसे मुहावरे कभी पुराने नहीं पड़ेंगे।
इसने यह भी बता दिया कि वर्ष दर वर्ष जलाये जाने वाले रावणों का कद कितना भी बढ़ता जाए, उनका तहस-नहस हो जाना तय है।
इस जाते हुए साल ने हमें बहुत से आंसू, पश्चाताप और चिंतन-मनन की लगातार ज़रूरत का सबक भी दे दिया।
चलिए, सर्दी का बेजा फायदा उठाते हुए गरिष्ठ और भारी-भारी बातें न करें, हलकी धूप में कुछ हल्का-फुल्का गुनगुना भी लें-
"शाम सुहानी महकी-महकी ख़ुशबू तेरी लाये, दूर कहीं जब कलियाँ चटकें, मैं जानूँ तू आये, आजा रे…"
ये आवाज़ याद है आपको?
याद रखियेगा, शायद अब फिर दुबारा न आये...हम बात कर रहे थे जाने वालों की !      

Friday, December 27, 2013

लघुकथा में वैचारिक निकष "मानव" से ही आने की अनिवार्यता?

कुछ समय पहले मैंने एक लघुकथा लिखी थी- ग़मक !  इस रचना में टाँगे का घोड़ा एक पैर से ज़ख़्मी था, किन्तु उसके मालिक को समय और सुविधा न मिल पाने से वह घोड़े को जानवरों के हस्पताल में नहीं ले जा कर सवारियां ढोने में लगा हुआ था। एक बार अच्छी आमदनी हो जाने पर मालिक उसे चिकित्सा के लिए ले जाने का विचार बनाने लगा।  घोड़ा  इस बात से खुश होकर अपने कष्ट को भूल बैठा, और घोड़े के व्यवहार में आये इसी व्यवहार को भांप कर मालिक ने उसके इलाज़ पर खर्च करने का इरादा मुल्तवी कर दिया।  घोड़ा  फिर उसी अवसाद में डूब गया और उसने मालिक के व्यवहार में आई इस दुनियादारी को उसकी आवाज़ की ग़मक में आई कमी बता कर अपना जी हल्का किया।
आज इस लघुकथा को पढ़ते हुए "तीन" बातें मेरे मन में आईं।
-क्या "घोड़े" का सोचना रचना को कोई सार्थक निकष दे सकता है?
-दाना या घास खाकर इंसान के लिए काम करने वाले घोड़े और घोड़े के श्रम को प्रबंधित करके धन कमाने वाले आदमी में से मालिक किसे कहा जाना चाहिए?
-"निकष"आदमी या निर्जीव-सजीव पात्र से आता है अथवा इन सब की परिस्थिति पर लेखकीय संवेदनशीलता की आंतरिक व्याख्या से?
यह सब मुझे ही बुरी तरह उबाऊ लग रहा है, आप पर तो न जाने क्या बीत रही होगी?
    

Sunday, December 22, 2013

"वेक्यूम क्लीनर" नहीं कह सकते थे?

झाड़ू के भाग बड़े तगड़े, "हाथ" से छीन के ले गई कुर्सी।
ये भी नहीं सोचा कि बात दिल्ली की  है, जिसकी कुछ शान है, मान है, आन है।
अरे अगर दिल्ली को झाड़ना ही था तो चुनाव आयोग से 'वेक्यूम क्लीनर' ही मांग लिया होता।  आखिर वह भी तो क्लीन ही करता है।  और दिल्ली में वेक्यूम भी तो कर ही दिया न, चाहे कुछ ही दिनों के लिए सही।
चलो, इस बार जो किया सो किया, पर अब मत करना।  आम आदमी कुर्सी पर नहीं बैठा करते, कुर्सी तो बनी ही ख़ास लोगों के लिए होती है।  झाड़ू को झाड़ना ही सुहाता है, झगड़े -पचड़े में पड़ना शोभा नहीं देता।
और अबकी बार सफाई कोई दिल्ली-मुम्बई-कोलकाता की ही नहीं है, समूचे हिंदुस्तान की है।
पता है, सफाई से मक्खी,मच्छरों, कीड़ों-मकोड़ों को कितनी तकलीफ होती है? सड़क धुलती है तो ये दुकानों में जा बैठते हैं, दुकानें धुलती हैं तो ये बाज़ारों में भिनभिनाने लगते हैं।
जब मध्य प्रदेश और बिहार धुलते हैं तो ये दिल्ली में आ बैठते हैं।  दिल्ली धुलती है तो ये अपने-अपने सूबों को अपना ठिकाना बना लेते हैं, ताकि जैसे-तैसे वनवास के दिन काटें और पांच बरस बाद फिर आ धमकें।
अब सब कुछ एकसाथ धुल गया तो ये बेचारे कहाँ जायेंगे? जब अन्ना जैसे फिफ्टी-फिफ्टी में मान सकते हैं तो आम आदमी पूरे पर क्यों अड़े? सुर आधा ही श्याम ने साधा, रहा राधा का प्यार भी आधा।           

Thursday, December 19, 2013

३५५ तेज़-रफ़्तार दिनों के बाद ये १० सुस्त-कदम दिन

मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है कि एक नए साल के आगमन की  उल्टी -गिनती फिर शुरू हो गई।  क्या सचमुच २०१३ जा रहा है?
मेरे इस आश्चर्य में एक बड़ा भाग तो पश्चाताप का है, कि मैं इस वर्ष लिए गए संकल्पों में से किसी का भी पालन ठीक से नहीं कर सका।  मुझे तो ये याद भी नहीं, कि मैंने क्या संकल्प लिए थे !
अब क्या हो?
क्या मैं बचे हुए १०-११ दिनों में ही ज़ोर शोर से उन संकल्पों को पूरा करने में जुट जाऊँ ?
या मैं इस तरह खामोशी से बैठा रहूँ, कि जैसे मैंने कोई संकल्प लिए ही नहीं थे।
अथवा मैं मन ही मन अपने आप से माफ़ी मांग लूं, कि मुझसे भूल हो गई।
या फिर मैं कोर्ट-कचहरियों के मुवक्किलों की तरह अथवा बैंकों के कर्ज़दारों की तरह अपना वादा पूरा करने की कोई नई तारीख पड़वालूं?
या फिर गंभीरता से यह सोचूँ,कि इस बार जो भी संकल्प लूँगा उसे ज़रूर पूरा करूँगा ?
नहीं तो चाँद सूरज पर ये लांछन ही लगाऊँ कि ये इतनी तेज़ी और नियमितता से भागते हैं कि वक्त यूँही गुज़र जाता है और कुछ हो ही नहीं पाता।
अब बंद करता हूँ, मेरा एक मित्र मुझसे सवाल कर रहा है कि मैं अपना समय कैसे काटता हूँ? 

Friday, December 13, 2013

कोई तो राह निकालो

राजतन्त्र में राजा होता था।  और वह जब बूढ़ा या अशक्त हो जाए, तभी उसे यह चिंता सालने लगती थी कि मेरे बाद मेरे राज्य का क्या होगा? यहाँ कौन राज्य करेगा?जनता की जिम्मेदारी कौन उठाएगा ?
यदि राजा के कोई पुत्र न हो, या पुत्र राजा बनने के योग्य न हो, या फिर कई पुत्र होने के कारण उन में गद्दी के लिए संघर्ष होने की  आशंका हो, तो राजा अपने जीते जी सतर्क हो जाता था।  वह भविष्य का फैसला वर्तमान में ही करने की  चेष्टा करता था, चाहे उसे किसी दूसरे का पुत्र दत्तक ही क्यों न लेना पड़े। बहरहाल राज्य को उत्तराधिकारी देना उसी का कर्तव्य माना जाता था।
जनतंत्र आया तो लगा कि अब ऐसी समस्या नहीं आएगी, क्योंकि जनतंत्र में तो हर एक व्यक्ति राजा होने की हैसियत रखता है। फिर राज्य में "जन" का तो कभी अभाव भी नहीं होता।  लेकिन दिल्ली में फिर भी समस्या आ ही गई। राजा ने खेल-खेल में इतना खाया कि उसे कुर्सी से जाने का भी अंत तक नहीं पता चला।  उसके दिमाग में ये सोच तो सपने में भी नहीं आया कि मेरे बाद मेरे राज्य का क्या होगा। जनतंत्र की  सबसे बड़ी कमी यही है कि यहाँ कुर्सी से फिसल कर गिरते हुए को भी उम्मीद बरकरार रहती है।
राजतंत्र में राजा के हाथ में तलवार होती थी।  जनतंत्र में खाली "हाथ" रह गया।  और जब दुनिया जनतंत्र की अनदेखी करने लगी तो तंत्र के हाथ में झाड़ू आ गई।  और फिर? फिर तो गज़ब हो गया।  झाड़ू में हाथ आ गया। अगर मज़बूत हाथ हो, हाथ में फूलझाड़ू हो, तो सब कुछ साफसुथरा रहे।  मगर जब हाथ अलग, फूल अलग और झाड़ू अलग... तब क्या हो? कोई तो राह निकालो ! सर जी सरकार बनालो ! कुर्सी का मान बचालो !             

Monday, December 9, 2013

संविधान के साये में दिल्ली की दवा

दिल्ली थोड़ी देर के लिए रुक गई।  हमारा मकसद यह नहीं है कि हम दिल्ली के इस ठहराव और किंकर्तव्य विमूढ़ता के कारण तलाश करें।  हमारा उद्देश्य केवल यह है कि हम संविधान के उजाले में दिल्ली के लिए रास्ता खोजें।
विधान सभा के चुनाव के बाद सबसे बड़ी पार्टी के रूप में बीजेपी है मगर उसके पास स्पष्ट बहुमत नहीं है। आम आदमी पार्टी अच्छी-खासी तादाद लेकर जीती है पर वह न तो किसी का समर्थन करना चाहती है, और न ही किसी का समर्थन लेना।
कांग्रेस पराजित हुई है और उसकी नेता के भी न जीत पाने से उसमें इस समय मनोबल की  ज़बरदस्त कमी है जिसके चलते वह सरकार बनाने के लिए किसी तरह की  पहल करने की  स्थिति में अपने को नहीं पा रही है।
जनता दल यूनाइटेड मात्र उपस्थित है।
ऐसी स्थिति में संविधान के अनुसार ये सभी दल अथवा इनमें से कोई भी अन्यों के सहयोग से सरकार बना सकते हैं।  संविधान में "राष्ट्रीय नैतिकता" का उल्लेख है।
यदि कुछ दल विपक्ष की  भूमिका में ही रहना चाहते हैं तो उन्हें यह समझना चाहिए कि विधायकी केवल अधिकार नहीं, वह संविधान में एक कर्त्तव्य की  तरह भी उल्लेखित है।
यह बात अलग है कि प्रायः ऐसी स्थिति आती नहीं है।  शेर के सामने पड़ जाने पर आदमी को क्या करना होगा, यह किसी संहिता में अक्सर दर्ज़ नहीं होता क्योंकि ऐसे में जो भी करना है वह अमूमन शेर ही करता रहा है।  यह संविधान निर्माताओं ने कभी सोचा नहीं होगा कि यदि जनता के वोट से जीत कर आ जाने के बाद भी कोई जनता के लिए रचनात्मक जिम्मेदारी न उठाना चाहे तो क्या होगा, ठीक उसी तरह, जैसे गांधीजी ने यह नहीं बताया कि एक गाल पर चांटा खाने के बाद, दूसरा गाल आगे कर देने पर यदि सामने वाला दूसरे गाल पर भी चांटा मार दे तो क्या करना होगा।
कभी-कभी एकतरफा बात कही जाती है। ऐसी स्थिति में राष्ट्रीय नैतिकता का पालन किया जाना चाहिए। मसलन जो भी विधायक व्यक्तिगत तौर पर सरकार की  जिम्मेदारिया उठाना चाहें, उन्हें यह सुविधा मिलनी चाहिए।  अटल बिहारी वाजपेयी ने एक बार इस काल्पनिक परिकल्पना का उल्लेख किया भी था।      

Friday, December 6, 2013

रत्न केवल चमकने वाले कीमती पत्थर नहीं हैं, वे भला-बुरा भी करते हैं

नेल्सन मंडेला नहीं रहे।  उनका जीवन भले ही सिमट गया, पर जीवन के अक्स सदियों नहीं सिमटने वाले।  वे "भारत-रत्न" थे।  उनके अवसान पर भारत में भी छह दिन का राजकीय शोक घोषित हो गया है।  वैसे उनका दुःख किसी घोषणा से वाबस्ता नहीं है, वे होगा ही।
ऐसी मिसालें तो दुनिया में बहुत हैं, जब लम्बी कैद ने कैदी का ह्रदय परिवर्तन कर उसे सुधार दिया, किन्तु ऐसी मिसाल करोड़ों में एक होती है जब किसी कैदी को मिली लम्बी कैद ने जेल के बाहर की दुनिया को सुधार दिया।
उनका दुःख दुनिया भर को शोक-संतप्त बना रहा है।
यहाँ तक कि भारत के उन चुनावी राज्यों में भी उनके दुःख ने असर डाला है, जहाँ पिछले दिनों चुनाव होकर चुके हैं। चुनावों के नतीजे तो अभी आठ तारीख को मतगणना के बाद आयेंगे, लेकिन सर्वेक्षणों, कयासों और अटकलों ने जो माहौल बना छोड़ा है उस पर भी नमी की  शबनमी बूँदें टपक गईं हैं।
जो हारते दिख रहे थे, उनके चेहरों पर उड़ती हवाइयों ने 'राजकीय शोक' का लिबास ओढ़ लिया है।  जो भविष्य-वाणियों को सुन-सुन कर ही झूमने लग गए थे, वे कुछ देर के लिए संजीदा हो गए हैं।
मंडेला का इतना प्रभाव तो होना ही था, आखिर वे "भारत रत्न" रहे हैं।
महान नेता को भाव भरी श्रद्धांजलि !     

Tuesday, December 3, 2013

कितनी दूर अब दिल्ली?

आज दिल्ली में मतदान हो रहा है। इस बार एक विशेष बात इस चुनाव से जुड़ गई है।  अक्सर कहा जाता है कि पढ़ाई-लिखाई अधिकतर समस्याओं का हल है, इसलिए शिक्षा का प्रसार होने से हमारी समस्याएं सुलझती हैं।  पहली बार ऐसा हो रहा है कि एक उच्च शिक्षित मेधावी व्यक्ति ने केवल बुद्धि और विचार को आधार बना कर चुनावी माहौल में कदम रखा है।  यह बात एक ऐसे राज्य और शहर की  है जो केवल उच्च शिक्षित ही नहीं, बल्कि देश की  राजधानी भी है।
लगता है कि आज बुद्धि और विचार राजनीति के अखाड़े में फरियादी हैं। देखना है कि भ्रष्टाचार और मदांध सत्ता के बीच बौद्धिक और वैचारिक प्रयास कहाँ ठहरते हैं?
कहा जाता है कि दिल्ली हमेशा से सुविधाजीवी और अहंकारी रही है, इसे देश से लेना ही आता है, कुछ देना नहीं! आज इस बात का भी फैसला होना है कि दिल्ली "सुधार" को किताबी बात समझती है या सुधरना भी चाहती है।   

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...