Sunday, July 28, 2013

एक जैसे हैं बच्चे और देश

किसी देश और बच्चों में भी भला कोई समानता की बात हो सकती है?मुश्किल तो है, पर फिर भी मुझे ऐसा लग रहा है कि कुछ बातों में ज़रूर ये दोनों एक सा व्यवहार करते हैं.
क्या आपने किसी पतंग उड़ाते बच्चे को देखा है? अनंत आसमान में उसकी पतंग होती है, उसके हाथ में पतंग की डोर. और तन्मय होकर वह अपनी पतंग के साथ सारे आकाश में विचरण करता है.फिर कुछ ही देर में उसे आसपास कोई और पतंग दिखाई देने लगती है, और वह उससे पेच लड़ाने की तैयारी करने लगता है. वह नहीं जानता कि उस दूसरी पतंग को कौन, कहाँ से उड़ा रहा है, वह पतंगबाज़ी में कितना सिद्धहस्त है, बस वह तो जंग की तैयारी  में लग जाता है.
यहाँ दो संभावनाएं हैं. या तो बच्चे की पतंग कट जायेगी या फिर वह दूसरे की पतंग काट देगा।यदि बच्चा पेच काटने में सफल हुआ तो बच्चे के उल्लास की कोई सीमा नहीं है, लेकिन यदि वह अपनी पतंग बचा नहीं सका, तो उसके भीतर तुरंत एक मंथन शुरू हो जाता है. वह मन ही मन इस बात पर विचार ज़रूर करता है कि उसकी शिकस्त का कारण क्या रहा?इतना ही नहीं, बल्कि मन ही मन वह इस उधेड़बुन में भी उलझ जाता है, कि शायद वह ऐसा करता तो वैसा होता, वैसा करता तो यूं हो जाता।
ठीक ऐसा ही कोई देश भी करता है. अपनी पतंग नहीं, अपने "जीवन-मूल्यों" को लेकर।जब वह विकास को लेकर किसी दूसरे देश से स्पर्धा में अपने मूल्यों को दाँव पर लगाता है तो उसका व्यवहार बच्चे वाला ही होता है.यहाँ ध्यान देने की बात इतनी है कि पतंग उड़ाने के शौक़ीन बच्चे के पास अमूमन दूसरी पतंग भी होती है, लेकिन "जीवन-मूल्य"किसी देश के पास इतने नहीं होते, अमीर देशों के पास भी नहीं।       

Wednesday, July 24, 2013

रंगों का पैमाना

अब कुदरत ने रंग कोई यूँही तो बनाये नहीं होंगे। ज़रूर हर रंग के पीछे कुछ न कुछ सोच होगी। आइये, अनुमान  लगाएँ कि प्रकृति ने कौन सा रंग रच कर क्या सोचा होगा।
कुदरत ने सोचा होगा कि अगर मिर्च हरी होगी तो पकने के बाद हरे पेड़ पर दिखेगी कैसे? बस, उसे लाल कर दिया होगा।
कुदरत अनुमान लगाना तो खूब जानती है, उसे पहले ही पता चल गया होगा कि बैंगन हम किसे कहेंगे। तो उसने उसे बैंगनी बनाना ही ठीक समझा।
प्रकृति ने मूली को देख कर कहा होगा, ये किस खेत की मूली है, इस पर क्या रंग खराब करना, इसे सफ़ेद ही रहने दो.
लेकिन यहीं कुदरत से एक भूल भी हो गयी. उसने इंसान के रंग भी अलग-अलग कर दिए.   

Tuesday, July 23, 2013

ये सब आपको डाँट रहे हैं

जब हम किसी भी कोलाहल से गुजरते हैं तो हमें सुनाई देने वाली आवाज़ों में बहुत सी आवाजें पशु-पक्षियों की भी होती हैं. जंगल में विचरने वाले छोटे-बड़े जीव, घरेलू पालतू जानवर, हवा में उड़ने वाले कीट-पतंगे,अथवा सड़क पर घूमते आवारा पशु, हमसे तरह-तरह से कुछ न कुछ कहते जान पड़ते हैं. कभी वे खुश होकर अपनी कोई उपलब्धि बता रहे होते हैं, तो कभी दुःख में डूबे अपनी आपबीती कह रहे होते हैं, कभी साथियों की शिकायत कर रहे होते हैं, तो कभी खालिस शरारत के मूड में हमें सता रहे होते हैं.
कभी गौर से सुनिए, आपको लगेगा कि गली के कुत्ते आपको डांट रहे हैं. चिड़िया ने खिड़की पर आकर शिकायत की है कि आपने डस्टिंग करते समय उसके लाये तिनके तितर-बितर कर दिए. कभी ताँगे में जुता घोड़ा आपसे कहता है कि सामान ज़रा कम लेकर चला करो, पीठ अकड़ गई बोझ से.कभी दूर जंगल से आवाज़ आती है कि वाह, आज क्या शिकार मिला, पेट तृप्त हो गया.
क्या आप राज़ की एक बात जानते हैं?
प्राणियों के ये ज़ज्बात हमारे अवचेतन में स्थाई रूप से दर्ज हो जाते हैं. कालांतर में यही  आवाजें हमारा "मूड" बनती हैं.
   

Saturday, July 20, 2013

डेट्रॉइट का मामला

 आज अखबारों में एक खबर थी कि  डेट्रॉइट ने दीवाले की पेशकश की है। यह खबर बिलकुल समझ में नहीं आई। यह पेशकश किसने, किस से, क्यों की है। इसका अर्थ क्या है। यदि यह कोई आर्थिक विफलता का मामला है, तो यह सार्वजानिक क्यों किया गया है? क्या इसकी ज़िम्मेदारी लेकर इसे देश आंतरिक रूप से नियंत्रित नहीं कर सकता?क्या ये खबर छवि सम्बन्धी कोई मसला नहीं उठाती?क्या किसी पूंजीवादी देश का हर शहर या प्रांत कोई अलग आर्थिक इकाई है?यदि यह सरकार पर संकट है, तो क्या इसका हल संभव नहीं है?
यदि सरकारी संपत्ति को बेच कर कर्जे चुकाए जाते हैं, तो क्या यह स्थाई उपाय है?यदि यह प्राथमिक उपचार है, और इसके बाद कोई अन्य प्रभावी कदम उठाया जाना है, तो क्या वह पहले ही नहीं उठा लिया जाना चाहिए?       

Tuesday, July 16, 2013

सप्तऋषि मंडल ज़मीन पर

कुछदिन से सुस्त-रफ़्तार रही दिनचर्या पर न जाने किस ग्रह-नक्षत्र की छाया पड़ी कि  अचानक बैठे-बैठे भारत के सात राज्यों की झलक एक दिन में ही  देखने को मिली। बहुत थोड़ी सी देर में भी यह सब जान-सुन कर अच्छा लगा कि -
राजस्थान भी रेगिस्तान की छवि खोकर हरा-भरा होता जा रहा है।
हरियाणा में एक दिन लोहा और मिट्टी बराबर तुलेंगे।
दिल्ली के विमानतल पर गत-वर्ष कुल इतने यात्री आये,जितनी ऑस्ट्रेलिया की कुल जनसंख्या है।
उत्तरप्रदेश पिता-पुत्र शासकों की परंपरा अब भी निभा रहा है।
बिहार अभी दुश्मन-दोस्तों की वजह से और चर्चा में रहेगा।
झारखण्ड में पेड़ अब भी गाते हैं गीत।
ओडिशा इस्पात को सुरों के लिए इस्तेमाल करता है।
शायद शीर्षक इस तरह होना चाहिए था-"सप्त-ऋषि मंडल ज़मीन से"    

Thursday, July 11, 2013

एक अच्छी शाम

   किसी शाम को अच्छा या बुरा कहने की ज़रुरत नहीं होती। जाता सूरज भरसक सुहाने दृश्य देता ही है, बशर्ते बादल उसका रास्ता न रोकें। लेकिन कल की शाम सूरज और बादल ने खूबसूरत दृश्य देने में कोई कोताही नहीं की। वैसे भी ये एक विचार, मिलन और आत्मीयता की शाम थी।
मेरे उपन्यास "जल तू जलाल तू " का कल लोकार्पण था। बहुत सारे मित्रों, शुभचिंतकों, परिजनों और परिचितों को एक साथ देख कर बहुत अच्छा लगा। कुछ लोगों की बातें तो इतनी आकर्षक थीं कि  जिन्हें सुनने के लिए ही लिखने वालों का जन्म होता है। दूर-पास से जिनके ढेरों सन्देश मिले उन सबका शुक्रिया।
मैं सोच रहा था कि  यह कैसी अनोखी प्रक्रिया है कि  हम एक लेखनी के सहारे किसी के दिमाग के फर्श पर बिछायत करके आराम से बैठ जाते हैं, और फिर वह हमारी कहता है।
ये शाम इसलिए ही अच्छी नहीं थी कि  लोगों ने मीठी बात कही, बल्कि इसलिए भी अच्छी थी कि  लोग कहने-सुनने आये। वैसे भी शाम अच्छी होती ही है, क्योंकि ये दिनभर दफ्तरों और कार्यस्थलों में भिड़े रहे लोगों को वापस घर ले आती है, और दिनभर घरों में रहे लोगों को बाहर निकाल लाती है। फिर ये शाम उस रात की भूमिका भी तो बनाती है, जो ज़रूरी है सपने देखने के लिए।  

Monday, July 8, 2013

बरसात,बन्दर और बंद कमरा

ये अभी घटी ताज़ा बात है। ये सच भी है। आज दिनभर से बादल थे। शाम को जोर से बारिश आने लगी। शाम की बारिश कोई ज्यादा खुशनुमा नहीं होती। शाम को भी अगर आप घर के भीतर ही रहें तो दिन गुजरने का अहसास मंद सा पड़ जाता है।
मैं कमरे से बारिश देख रहा था। तभी मुझे बालकनी में एक बन्दर बैठा हुआ दिखाई दिया। वह भी कुछ भीगा हुआ था, और तेज़ बारिश को टकटकी लगाए देख रहा था। मैं उस बन्दर को बहुत ध्यान से देख रहा था। क्या आप बता सकते हैं कि  मैं बन्दर को देखते हुए क्या सोच रहा था ?
बन्दर हमारे पूर्वज हैं। हम पहले बन्दर थे, फिर रफ्ता-रफ्ता इंसान बन गए। अगर ये बन्दर भी कभी इंसान बन जाए, और एक दिन बैठ कर अपने ब्लॉग पर इस शाम, बारिश और मेरा ज़िक्र करे तो कितना मज़ा आये ?
बन्दर ये ज़रूर लिखेगा कि  मैं बंद कमरे में बैठा भी बारिश से खीज,और बन्दर से डर रहा था, जबकि बन्दर खुले में भी खुद को सुरक्षित समझते हुए बारिश का आनंद ले रहा था।
सच में पशु-पक्षी बिना ताम-झाम के भी कितने इत्मीनान से जी लेते हैं।बन्दर के पास कोई मेडिकल बीमा नहीं था, फिर भी वह भीग लिया। मेरे पास था, मेरे भीग कर बीमार पड़ने का खर्च सरकार दे देती, फिरभी मैंने बौछार को बाहर ही रोकने के लिए तुरंत खिड़की बंद कर दी।
बन्दर क्यों इंसान बने, हम क्यों न बन्दर बन जाएँ?   

Saturday, July 6, 2013

पड़ौसी

वे दोनों पड़ौसी थे, उन्हीं की तरह झगड़ पड़े। पहले बातों में तू-तू-मैं-मैं हुई, फिर जोर-जोर से बहस होने लगी। वह गज़ब जोर से बोल रही थी- "सारे दिन बदबू आती रहती है, वह तो हम ही हैं, जो सह लेते हैं। कोई और हो तो सिर  में दर्द ही हो जाये।"
वह कौन सा कम था, तुनक कर बोला-"अरे जाओ-जाओ, सिर दर्द तो मेरे हो जाता है, सारे दिन तुम्हारी चख-चख से। "
वह बोली-"धमधम की आवाज़ आती रहती है, ऐसा लगता है जैसे भूकंप आ गया हो। धरती डोलती रहती है, पता नहीं क्या करते हो दिन भर घर में?"
-और तुम?मुझे तो ऐसा लगता है जैसे कहीं बाढ़ आ गई हो, पानी बेकार बहता रहता है" वह हाथ नचा कर बोला।
अभी उनकी महाभारत और न जाने कितनी देर चलती, पर तभी कुछ खटका सा हुआ। दोनों सहम कर चुप हो गए। शायद केयर-टेकर उन्हें दोपहर का खाना डालने आया था। "ज़ू" के कर्मचारी ने पहले बन्दर को फल और रोटी डाली, फिर बतख को काई की खिचड़ी डाल कर लौट गया।दोनों पड़ौसी बहस भूल कर अपने-अपने पिंजरे में लंच लेने लगे। आज ज़ू की छुट्टी थी, इसलिए दोनों पड़ौसियों के पास यही तो टाइमपास था, वरना दिन कैसे कटता?  

Monday, July 1, 2013

पेरू, कम्बोडिया और भारत

 हाल ही में पेरू, कम्बोडिया और भारत के एक-एक पर्यटन-स्थल को विश्व के सर्वाधिक देखे जाने वाले स्थलों में शामिल किया गया। ताजमहल का यह शानदार सम्मान है। यमुना नदी के किनारे आगरा शहर में खड़े इस मकबरे के मस्तक पर प्रेम का परचम लहराता है, यह और भी ख़ुशी की बात है।
किसी समय मिस यूनिवर्स प्रतियोगियों को एक राउंड के लिए ताज पर लाने की पेशकश हुई थी, जो अंततः मंज़ूर न हो सकी। हो सकता है कि अब फिर से ऐसी किसी मांग पर विचार हो।ये मांग जिसने भी की होगी, न जाने इसके पीछे उसका मंतव्य क्या रहा हो?
हो सकता है कि  दुनिया-भर की रूपसियों को प्रेम महल की छाँव में लाकर ये सन्देश देने की कोशिश की गई होगी कि  सौंदर्य प्रेम की धूप  में ही परवान चढ़ता है। हो सकता है कि  प्रीत- रंगी दीवारों पर सौंदर्य का उजाला फेंकने की कोशिश में ये पेशकश की गई हो। जो भी हो, ये कल्पना जब भी आकार लेगी, लोग तभी समझेंगे- "सोने पे सुहागा" मुहावरे का अर्थ।            

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

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