Sunday, September 30, 2012

अमेरिका का अगला महीना

   नवम्बर में अमेरिका का राष्ट्रपति चुनाव है। मौजूदा राष्ट्रपति के पक्ष में माहौल है। कहा जा रहा है कि  जो शुरुआत उन्होंने की थी, उसके लिए उन्हें मिला समय कम है। उन्हें एक मौका और मिलना ही चाहिए। कयासों की कोई ख़ास कीमत नहीं होती। बेहतर होता है नतीजों का इंतजार करना। उनके लिए असंख्य शुभकामनाएं।
   लेकिन इधर पिछले दिनों अखबारों के कौने में छपी एक छोटी सी खबर ने बहुत निराश किया। जो खबर निराश करदे उसे दोहराने का मन नहीं करता, लेकिन बिना बोले आप समझेंगे कैसे कि  कौन सी खबर की बात हो रही है। यह खबर है भारत की।
   इस खबर के मुताबिक हमने जल्दबाजी की। पिछले दिनों हमारे यहाँ भी राष्ट्रपति के चुनाव थे। हमारे पूर्व-राष्ट्रपति का काम भी पूरा नहीं हुआ था, उन्हें कुछ और समय की ज़रुरत थी। लेकिन मतदाताओं ने राष्ट्रपति को दोबारा मौका न देकर नए राष्ट्रपति को चुन लिया। दोष मतदाताओं का नहीं है, दरअसल पूर्व-राष्ट्रपति की इस बार दावेदारी भी नहीं थी। शायद किसी को यह ध्यान न रहा हो कि  उनका कोई कार्य शेष है।
   पर बात ज्यादा चिंता की नहीं है। उनका शेष कार्य उनसे अब भी करवा लिया जायेगा, ऐसा सरकार ने कहा है। उनसे कह दिया गया है कि  राष्ट्रपति पद पर रहने के दौरान उन्हें जो कीमती तोहफे मिले थे, उन्हें वे वापस लौटा दें। ये तोहफे राष्ट्र की धरोहर होते हैं, इसलिए इन्हें राष्ट्रपति भवन में ही रखा जाना चाहिए, राष्ट्रपति के परिजनों के आवास पर नहीं।

Saturday, September 29, 2012

फिर कुछ नहीं हो पाता

   रंगों का अपना एक रसायन शास्त्र है।
   पञ्च परमेश्वर पांच ही हैं- लाल,नीला, पीला, काला और सफ़ेद। बस, ये जितनी भी रंग-बिरंगी दुनियां है न, इन्हीं पांच रंगों के सहारे है।
   तमाम हरियाली नीले और पीले रंग की महिमा है। गुलाबी आभा लाल और सफ़ेद का कमाल है। पीला और लाल आपको केसरिया-नारंगी रंग दे रहा है। नीला और सफ़ेद मिलकर आसमानी रच रहे हैं। लाल और नीले ने बैंगनी या जामुनी छटा  रची है।
   किसी भी रंग में सफ़ेद मिलाइए, वह हल्का हो जाएगा। किसी में भी ज़रा सा काला,वह गहरा हो जाएगा।
   रंगों में तीन की मित्रता भी है। लाल, नीला और काला मिला दीजिये, भूरा हो जायेगा। पीले में सफ़ेद और लाल मिलाइए, गेंहुआ और बादामी रंग मिलेगा। काला और सफ़ेद सलेटी देंगे।
   काले रंग की फितरत यह है कि  यह किसी भी रंग को गहरा तो करता है, पर एक सीमा के बाद फिर ऐसा मटमैला कर छोड़ता है, कि  फिर रंग में चमक नहीं आती। धीरे-धीरे फिर कालिमा ही छा जाती है।
   रंगों का अपना एक मनोविज्ञान भी तो है!

दुनिया को जीतना मुश्किल है या अपने घर को

  बड़ा बेतुका सा सवाल है।भला अपने घर से दुनिया की क्या तुलना? और यदि हारने-जीतने की बात हो तब तो यह तुलना और भी बेमानी है। अपने घर को तो आदमी जीत ही लेता है।और दुनिया को कोई कभी नहीं जीत सकता, चाहे कितना ही जोर लगाले। दुनिया किसी बाग़  में उड़ती तितली  नहीं है कि  कोई भी इसे जीत ले।
   थोड़ी देर के लिए मुहावरों को छोड़ कर बात करें, तो कुछ लोग दुनिया को सचमुच  जीत लेते हैं। दुनिया को जीतने का मतलब है, आप दुनिया में जो भी करना चाहते थे, वह आपने इतनी खूबी और पूर्णता से किया कि  दुनिया आपका लोहा मान गई। जैसे भारतरत्न लता मंगेशकर ने गाने के क्षेत्र में किया। लगभग वैसी ही सफलता उनकी बहन आशा भोंसले ने भी पाई।
   लेकिन क्या आशा भोंसले ने भी दुनिया को जीत लिया? हाँ, शायद जीत लिया। क्या उन्होंने अपने "घर"को भी जीत लिया? वे अपने घर की 'नंबर-दो' गायिका बन गयीं।
   आशाजी ने अभी चैन की सांस नहीं ली है। वे जल्दी ही अभिनय के मैदान में अपने जौहर दिखाने वाली हैं। सच है ...दुनिया को जीतना आसान है, घर को ...





































Friday, September 28, 2012

कल अच्छा लगा, भगत सिंह पर चढ़ाये गए गुलाबों से बना गुलकंद

   कल शहीद भगत सिंह के एक श्रद्धांजलि कार्यक्रम में बोलते हुए दो तीन दिलचस्प अनुभव हुए। सबसे अच्छा तो यह देख कर लगा कि  हमारे युवा उन्हें दिल से अपना हीरो मानते हैं। मंच से श्रोताओं की ओर  देखते हुए मुझे यह अद्भुत लग रहा था कि  युवा पीढ़ी का उल्लास बिना किसी प्रयास के, उनके अपने भीतर से आ रहा था। निश्चित ही भगत सिंह के 'प्रोमो' के लिए कोई पहले वहां आकर नहीं गया था। जो था, सब स्वतःस्फूर्त था। शायद यह भाव उनके भीतर आज के 'भक्त सिहों' के प्रति अवज्ञा-उपेक्षा से जन्मा था।
   एक श्रोता कह रहे थे कि  मैं जब भी लोगों से शहीद का जन्मदिन मनाने की पेशकश  करता था, लोग कहते थे कि  तू हमसे दो-चार सौ रूपये लेले, पर करना क्या है, यह तू ही सोच। फिर वे लोग कहते कि  इस से हमें फायदा क्या होगा? लोगों की इस भावना से मुझे एक आइडिया मिला, मैंने सोचा कि  ये दो-चार सौ रूपये आसानी से दे देते हैं, और इन्हें बाद में "फायदा" मिलने की उम्मीद रहती है। तो क्यों न इनके लिए 'इन्श्योरेन्स' की कोई स्कीम शुरू कर दी जाय।
   "राष्ट्रीयता" का अर्थ लोगों को सिखाने वाले उस महान शहीद को मन से नमन !

Wednesday, September 26, 2012

बाज़ार से सौदा लेने जाओ, तो बैग ज़रूर साथ रखना

   "आज भगत सिंह का जन्मदिन है। शहीद भगत सिंह का। कल भगत सिंह का जन्मदिन है। शहीद भगत सिंह का। "
   आपको ये पंक्तियाँ पढ़ कर कुछ असमंजस हो रहा होगा? यह कोई बड़ी बात नहीं है, यह मीडिया का एक छोटा सा कन्फ्यूज़न है। आप इसे सॉल्व  कर लीजिये। वैसे ही, जैसे और मुद्दों पर करते हैं ...मसलन कई अखबार पढ़कर, या फिर दो-चार अलग-अलग चैनल्स देख कर।
   यह तो खैर तथ्य के अलग होने की बात है, कुछ लोग भावना के अलग होने की बात भी करते हैं। कोई उन्हें शहीद का दर्ज़ा देता है, कोई इसकी ज़रुरत नहीं समझता। हम कामना करें कि  देश हित का जो जज्बा उनमें था, वह हम में भी बना रहे।
   बाज़ार और बैग की बात मैंने इसलिए की थी कि  बैग से हमें सामान रख पाने की हमारी क्षमता भी पता चलती है और सामान भी सुरक्षित रहता है। "राष्ट्रीयता" भी हमारा बैग है जिसमें हम अपनी ज़रुरत-भर मानवता विश्व-बाज़ार से लेकर रख सकते हैं।

हामिद अंसारी साहब और किताबों का वज़न!

   मेरे पुराने मित्र फज़ल पिछले दिनों उपराष्ट्रपति भवन में अंसारी साहब से मिलने गए।फज़ल ने बताया कि  उपराष्ट्रपति किताबों के सम्मान को लेकर बड़े संजीदा हैं। वे उन्हें भेंट में दी जा रही किताबों को खुद उठाने की पेशकश कर रहे थे, जबकि उस भवन में फूलों का 'बोझ' उठाने के लिए भी दर्ज़नों सहायक मौजूद थे।
   ऐसी बातें  रुई के फाहे की तरह नर्म और लचीली होती हैं। ये सोच के थोड़ी परेशानी भी होती है कि  अब हम उस दौर में तो पहुँच ही गए, जब किताबों को पढ़ने की बात पीछे छूट गयी और उन्हें 'उठाने' की बात होने लगी। वैसे भी संसद और राज्यसभा की फिजा में फैली अराजकता को संभालने में किताबें कितनी मददगार हो सकेंगी? वहां तो अब 'व्हिसिल' की आवाज़ भी नक्कारखाने में तूती की तरह है।

कोमल और कठोर

   एक बार कोमल और कठोर के बीच विवाद हो गया। दोनों तैश में आकर एक-दूसरे को नीचा दिखाने लगे। जम कर एक दूसरे पर दोषारोपण हुआ। कोमल ने अपनी कितनी ही खूबियाँ गिनाईं, पर कठोर एक सुनने को तैयार न हुआ। लगातार ऐसा होते रहने पर बड़ी मुश्किल हो गई। कठोर को  ज़रा भी नर्म होने को तैयार न होता देख आखिर कोमल को ही कड़ा  होने का फैसला करना पड़ा।और कोई चारा भी तो न था। कोई किसी को समझाने वाला न था। रहीम नाम के एक कवि  ने मामले में दखल देने की ठानी। उसने लिख दिया-
   " कह रहीम कैसे निभे, बेर-केर को संग,
    ये डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग।"
 लोगों ने कठोर को लाख समझाया कि  बिलकुल कठोर होने से टूटने का खतरा हो जाता है, किन्तु कठोर कहाँ मानने वाला था, उसे तो इस बात का गुमान था कि  कोमल मेरा क्या बिगाड़ सकता है। आखिर थक कर एक दिन कोमल ने बेमन से अपनी कोमलता का परित्याग करने का निर्णय ले डाला। दुनिया पत्थर की हो गई।   

Tuesday, September 25, 2012

अच्छा समालोचक किसी 'क्रिएटिव' कार्य के लिए एक वरदान है

   यदि अपनी पोस्ट पर लगातार हमें लोगों के अच्छे कमेंट्स मिलें तो इसके कई अर्थ हो सकते हैं।
   एक, हम वास्तव में अच्छा और सबको पसंद आने वाला लिख रहे हैं। दूसरा, हम दूसरों को पढ़ते समय उन पर अच्छा-अच्छा, मीठा-मीठा लिखते हैं, तो दूसरे भी लिहाज़ में हमारे लिए अच्छा लिख कर कमेन्ट कर रहे हैं। तीसरा, कमेन्ट लिखने वाला 'सकारात्मक' सोच का समीक्षक है, इसलिए वह हमारी कमी भी हमें पसंद आने वाली शैली में लिख कर बताता है।
   इसी तरह यदि कोई हम पर नकारात्मक या ख़राब टिप्पणी करता है तो इसके भी कई कारण हैं। एक, हमने वास्तव में कोई सबको पसंद न आने वाली या एकान्तिक विचार- युक्त सामग्री लिखी है। दूसरा, टिप्पणीकार हमारे विचार को ठीक उसी सन्दर्भ में समझ नहीं पाया हो, जिसमें हमने उसे लिखा। तीसरा,प्रतिक्रिया देने वाले व्यक्ति के मस्तिष्क के  विचार-कक्ष में पहले से कुछ पूर्वाग्रह युक्त बात दर्ज है, जो उसे टिप्पणी करते समय निष्पक्ष या संतुलित होने से रोक रही है।
   लेकिन हर स्थिति में एक बात अवश्य सोचें। टिप्पणीकार ने हमें पढ़ा है, और उस पर अपने  सामर्थ्य- भर समय देकर श्रम अवश्य किया है। दूसरा, टिप्पणी हमेशा केवल हमारा मूल्याङ्कन नहीं है, उसमें टिप्पणी देने वाले का मूल्याङ्कन भी समाहित है। तीसरे, यदि कोई लेखक या टिप्पणीकार किसी रुग्ण -मानसिकता का शिकार है भी, तो यह क्रिया उसे स्वस्थ करने की दिशा में वैसे ही सहायक है, जैसे नासूर से जहरीले मवाद का निकल जाना।

Monday, September 24, 2012

अच्छा या बुरा तय करने वाला कौन ?

   आजकल एक नया नज़ारा देखने को मिलता है। आसमान आपको बताने नीचे आता है कि  किस तारे की चमक कितनी? बल्कि कभी-कभी तो खुद सितारों की जुबां में आपसे कहलाया जाता है- मुझसे बढ़ कर कौन ? कुछ दूरदर्शी लोग, जैसे आमिर खान हमें पहले ही आगाह भी कर देते हैं कि  "तारे ज़मीन पर".
   यह रिवाज़ अच्छा है, क्योंकि इसमें माननीय न्यायाधीश की असली गरिमा झलकती है। माननीय न्यायाधीश माने आम जनता। आम जनता ही तो तय करती है कि  कौन सी फिल्म अच्छी और कौन सी निरर्थक। ऐसे में यदि फिल्मकार और सितारे जनता के बीच 'प्रोमो' या प्रचार के लिए जाते हैं तो इसमें बुरा क्या? सही अर्थों में इस प्रक्रिया से फ़िल्मकारी को 'कला' का दर्ज़ा मिलता है। कलाकार परदे पर आने से पहले जनता-जनार्दन का नमन करे! पहले सितारे आम-जनता के लिए एक 'तिलिस्म' हुआ करते थे। इसी भावना के चलते फ़िल्में एक आकाशी चीज़ हुआ करती थीं।
   सलमान खान हों या प्रियंका , करीना कैटरीना हों या ऋतिक, अगर आपसे रूबरू होकर कहेंगे कि  हमारी फिल्म आ रही है, देखने आना, तो देखने का मज़ा आएगा ही न! ये मजेदार शुरुआत नयी नहीं है, बरसों पहले घर में किसी मंगल-उत्सव का "बुलावा" इसी तरह घर-घर जाकर दिया जाता था।

भावना अगर तय करे अभिवादन का गणित ?

आज जो बातें या प्रक्रियाएं दांव पर हैं, उनमें एक 'अभिवादन' भी है। देखा जाय तो अभिवादन है क्या? जब हम किसी भी परिचित से दिन में पहली बार मिलें, तो कुछ भी कर्ण-प्रिय या सार्थक बोल कर अपनी सद्भावना प्रकट करना। सद्भावना के कोई नियम नहीं होते पर फिर भी  परंपरा ने अभिवादन के कुछ नियम बना दिए हैं-
   जैसे लोग समझते हैं कि  यह 'छोटों' की ओर  से बड़ों को किया जाता है। अभिवादन में 'नमस्ते' ,प्रणाम अथवा अथवा ऐसा ही कुछ सम्मानजनक संबोधन रहता है। शायद यही कारण है कि  एक दूसरे  को अभिवादन करने की परम्परा लुप्त होती जा रही है। क्योंकि अकारण किसी को सम्मान देने की बात लोगों को रुचती नहीं है। कुछ  लोगों ने इस व्यवहार में से छोटे-बड़े का भेद मिटाने के लिए 'शुभदिन' या राम-राम जैसे संबोधन भी प्रचलन में ला दिए। लेकिन हमारी धर्म-निरपेक्षता और "अन्य" निरपेक्षता ने इन्हें भी गैर-ज़रूरी बना दिया। कुछ लोगों ने सीधे-सीधे अपने व्याकरण रच लिए- जैसे, यदि किसी से कोई काम निकालना हो तो उसे नमस्कार कर दिया जाय, अन्यथा क्या ज़रुरत? कोई अपने से बड़ा या श्रेष्ठ है तो उस से ईर्ष्या करें न , सम्मान की क्या ज़रुरत? हम अपने को छोटा समझें ही नहीं, तो फिर दूसरा बड़ा कैसे होगा?
वास्तव में यह दो लोगों के बीच मिलने पर 'कनेक्शन जुड़ जाने' का कन्फर्मेशन है, ताकि वे अजनबियों की भांति एक-दूसरे के सामने से न गुजरें। इसमें भावना के आहत होने जैसा कुछ नहीं होना चाहिए, न तो अभिवादक के लिए, और न ही अभिवादित के लिए ।

Sunday, September 23, 2012

ये कहाँ चल दिए हम, सब जानते-समझते!

   देश चलाने के लिए लोकतंत्र में अलग-अलग विचारधाराओं वाली पार्टियों के अस्तित्व में आने का प्रावधान है। इस से सभी दिशाओं में विचार-मंथन हो जाता है। लेकिन जब पार्टियों के भीतर अवसरवादी लोग तैरती मछलियों की तरह अपने-अपने हितों के पीछे भागते हैं, तो पानी गन्दा हो जाता है। फिर दो विकल्प होते हैं- या तो हम पानी को साफ़ करने की कोशिश करें, या फिर ताल बदल लें।
   यह देखा गया है कि  हमारी दिलचस्पी पानी को साफ करने की कोशिश में नहीं होती।हम झटपट सरोवर बदलने की जुगत में लग जाते हैं, ताकि फिर से साफ़ और नया पानी मिले।
   आगामी चुनावों को लेकर सत्ताधारी दल में नए पानी की प्यास कुछ इसी तरह उभर रही है। पार्टी की युवा शाखा के क्रिया-कलापों के बाद अब हम "बाल-शाखा" की तैय्यारी कर रहे हैं। यह भविष्य के वोटर्स की फसल के लिए नर्सरी लगाने जैसा है। लेकिन अपना वोट-गोदाम भरने के लिए हम "बचपन" की पौध को कहीं भयानक जंगल में न रोप डालें, ये ध्यान ज़रूर रखना होगा। हमारे 'विद्यार्थियों' को राजनीति  सिखाने के लिए हमने जो छात्र-संघ बनाए हैं, जब उनके चुनाव होते हैं तो हर शहर की प्रशासन और  क़ानून-व्यवस्था बाज़ के सामने सहमे कबूतर की तरह दहल जाती है।

Friday, September 21, 2012

यह रचना की नहीं, जीवन की श्रेष्ठता का समय है!

   कुछ देर पहले मैंने एक किशोर मित्र ब्लॉगर 'मंटू  कुमार' की एक रचना पढ़ी।रचना बहुत संवेदन-शीलता के साथ लिखी गई थी। उसमें उन्होंने अपने किसी पुराने बचपन के मित्र को याद करते हुए भीना-भीगा नोस्टल्जिया रचा था। उसे कुछ टिप्पणी-कारों ने पसन्द  करके रचनाकार का हौसला भी बढ़ाया था।
   इस रचना को पढ़ते हुए मेरे मन में किशोर लेखन की एक प्रवृत्ति सहसा आकर कौंध गई। इसे मैं किशोर लेखकों के साथ बांटना चाहूँगा। रचनात्मकता में हम भावों से प्रत्यावर्तन, और पलायन का प्रयास करें। हम अपनी सोच में डूब-उतरायें, विचारों में आयें-जाएँ, और वास्तविकता व काल्पनिकता को बारीकी से मिला पायें। तब शायद रचना और सार्थक हो!
   इसे ऐसे समझिये- यदि हम किसी द्रश्य में अलग-अलग पात्रों को अभिनय करते देखते हुए पायें, कि  यहाँ जो बूढ़े का रोल कर रहा था वह बूढा नहीं है, जो डाक्टर की भूमिका में था, वह डाक्टरी पेशे के बारे में पूर्णतः अनभिज्ञ है, तो हम अभिनय के ज्यादा बड़े फलक को स्पर्श करेंगे। लेखन में यह प्रयोग लेखक ही कर सकते हैं। मंटू  अच्छा लेखक है।

Mil-jul kar rahte rakeeb!

   Ye dekhne sunane me thoda ajeeb to lagta hai, lekin fir bhi aisa hota hai. Balki kabhi-kabhi to aisa lagta hai ki aisa hi hota hai!
   Aajkal desh me FDI ki charcha hai. Wall-mart prateek ke roop me akhbaaron me chhaya hua hai. Gambheer aalekhon me bhi, aur kartoon chitron me bhi. Is mudde par hamaari sarkaar aur mukhya partiyan theek vaisa hi bartaav kar rahi hain, jaisa bachche khel-khel me karte hain. Pal me tola, pal me masha. Aam janta ko is par apni koi raay, ya vichaar banaane me thoda wakt lagega.Jansankhya ki maar aur asamaan vitran ne hamaare khudra bazaron ko aisa bana diya hai, jahan milawat, kam taulna, ghatiya ya nakli maal poori keemat me milna, mashhoor branded kampniyon ke lebal ke sath sthaneey utpadanon ka milna aam baat ho gayee hai.
  Aise me ham fir aise ek do-rahe par khade hain, jahan ek or swabhimaan aur bhavna hai, doosri or suvidha aur vikaas. Faisle ki is ghadee me saare refree alag-alag disha me munh karke seetee bajaa rahe hain. Yahi LOKTANTRA hai!

Thursday, September 20, 2012

Mammi ne meri tumhen chaay pe bulaya hai !

  "Mammi ne meri tumhen chaay pe bulaya hai!", sunane me achchha lagta hai n yah vaakya!  Ye kal sunane ko mila. Dar-asal pichhle saptaah meri ek Kahani ek mashhoor Akhbaar men chhapi..Is par kai logon ke phone bhi mujhe aaye.Ek phone aisa bhi aaya ki aapki kahani ne hamari mammi ki barson purani samasya hal kar di. Ve jo baat apne Bete-Bahu se kah nahin pa rahin theen, vah aapki kahaani ne unhe samjhaadi. Unhone khud ab apni bhool sweekar kee hai. Aur...Aur ab Mummy ne aapko shaam ko chaay pe...

Wednesday, September 19, 2012

"भीड़" सजातीय पंछियों की एक दिशा में उड़ान नहीं है !

   कल गणेश-चतुर्थी का अवसर था। गणेश के एक अत्यंत भव्य मंदिर के नज़दीक से गुजरते हुए बेतहाशा भीड़ को देखा। छोटे-बड़े, बूढ़े-युवा-बच्चे, अमीर-गरीब सब थे। एक बार लगा कि  दुनिया में भक्ति-भावना और श्रद्धा में कमी नहीं आई है। यदि उपासना में लीन  होने वालों की तादाद इतनी है तो धरती पर कोई संकट कभी आ ही नहीं सकता। लोग मंदिर में जाते हैं तो अधिकाँश कोई न कोई मनोकामना लेकर भी जाते हैं। ईश्वर सबको देता भी है। किसी को जल्दी तो कभी देर से।
   लेकिन कई बार यह सोच कर डर लगता है कि  हम सबकी मनोकामनाएं एक-दूसरे  से जुडी हैं। कहीं ऐसा न हो कि  इस भीड़ में भगवान किसी जेब कतरे, महिलाओं के प्रति हिंसक-आक्रामक अमानुष, या सामान चुराने वाले को भी "तथास्तु" कह दें, श्रमिकों का खून चूस कर मुनाफा कमाने वाले को भी फलने-फूलने का आशीर्वाद देदें, खाने की वस्तुओं में मिलावट करने वालों को भी सम्पन्न बनने का अभयदान देदें।  भगवान  के कार्य में दखल देने की ज़रूरत भी नहीं, वे जो करेंगे, अपनी बनाई धरती के लिए अच्छा ही करेंगे।

Tuesday, September 18, 2012

वैज्ञानिक दुनिया को गोल कहें, तो यह गोल ही होगी!

शनिवार का दिन भारत में "इंजिनीयर्स डे "के रूप में मनाया गया। वैसे यह विश्व ओजोन दिवस भी था।
एम.विश्वेश्वरैय्या को याद करते हुए, 'पानी' के लिए जीवन खर्च कर देने वाले इस वैज्ञानिक को इस बार एक अतिरिक्त श्रद्धा से याद किया जा रहा था। शायद पानी को बेमोल समझने वाला दौर ख़त्म हो चुका है, इसलिए सहसा अतीत अनमोल हो गया।
इस दिन एक और प्रतिष्ठित वैज्ञानिक को सुनने का मौका मिला। डा .एस .सी . बोस कह रहे थे कि  जो आरम्भ हुआ है, वह ख़त्म भी होगा। मशीनें इंसान को उसी ढाँचे में फिर ले जा कर खड़ा कर देंगी, जिससे वह मानवता के आरम्भ में आया था।
इसका मतलब यही हुआ कि  हम जहाँ से चले थे, वहीँ पहुँच जायेंगे? कोई बात नहीं, अपने अतीत में देखे दिन फिर से देखना भी हमें आनंद ही देगा।
यह दिन एक और प्रतिष्ठित वैज्ञानिक स्व . प्रो . रेखा गोविल का जन्म दिन भी था। वे कहा करती थीं कि  कुदरत ने आदमी और औरत को प्रकृति की दो समान इकाइयों के रूप में बनाया ज़रूर है,लेकिन इस "समानता"को सिद्ध करने की ज़िम्मेदारी औरत पर ही है।
वैज्ञानिक अक्सर ठीक ही कहा करते हैं, क्योंकि जो कहते हैं, उसे पहले जांचने के लिए अपना जीवन खपा देते हैं।   

Saturday, September 15, 2012

अरे , ऐसा भी कहीं होता है?

अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव नवम्बर में हैं, जोर आजमाइश चल रही है। लेकिन ओबामा महोदय का एक बयान अख़बारों में छपा है कि "मैं चुनाव हार भी सकता हूँ", यह बात जितनी स्वाभाविकता, संजीदगी, और मासूमियत से कही गई है, उतनी ही सही भी है।
कहीं भी, कभी भी, कोई भी चुनाव हार ही सकता है। चुनाव क्या, हर खेल में हार-जीत तो भविष्य के गर्भ में ही होती है। यदि कहीं यह अहंकार हो, कि मुझे कोई नहीं हरा सकता, तो फिर चुनाव की ज़रुरत ही न रहे।
लेकिन हम यह सब क्यों सोचें, हम तो भारत में हैं।
हमारे यहाँ तो ऐसा कभी कोई सपने में भी नहीं कहता। नाकारा, बण्डलबाज़, खूनी ,चापलूस,चमचा , लुटेरा, चोर, घोटालेबाज, निकम्मा, ...[और जो भी पर्यायवाची हो सकते हों,] चाहे जैसा भी उम्मीदवार हो, वह यह कभी नहीं कहता कि  मैं हार भी सकता हूँ। यहाँ तो वोटों की गिनती के दौरान भी यदि यह पता चले कि  आप अपने विरोधी से पांच लाख वोटों से पीछे चल रहे हैं, तब भी यही कहा जाता है कि  अभी नतीजा पूरा नहीं आया है। इतना ही नहीं, यहाँ तो यदि आप हार ही जाएँ, तब भी यही कहने का रिवाज़ है कि  गिनती में घपला हुआ है, जनता तो मुझे ही चाहती है। ऐसे आत्म-विश्वास पर ही तो लोकतंत्र चलता है!   

चित भी मेरी, पट भी मेरी, बनाम चुप रहने पे तूफ़ान उठा लेती है दुनिया

   एक राजा  था। वह अपनी प्रजा के लिए कुछ नहीं करता था। प्रजा तरह-तरह से उसे उकसाती कि  वह कभी तो जन-समस्याओं पर ध्यान दे। राज में चल रही अराजकता पर कुछ तो बोले। लेकिन राजा होठों को फ़ालतू चीज़ समझता था। जब लोग बोल-बोल कर थक गए तो वे तरह-तरह से अपना विरोध जताने लगे। कोई राजा पर फब्तियां कसने वाली कविता लिखता, तो कोई उसका कार्टून बना डालता। कोई काले झंडे दिखाता तो कोई पुतला ही फूंक डालता। राजा इस सब को प्रजा की "कलात्मकता"मान कर निर्लिप्त रहता, और शब्द-बैंक में एक धेले का भी चैक न डालता।
   अगर कोई रात-दिन पत्थर की मूर्ति के सामने बैठ कर आरतियाँ गाता रहे, तो आखिर एक दिन मंदिर की दीवारों से भी प्रतिध्वनियाँ फूटने लगती हैं। राजा ने भी आखिर एक दिन अपने होठों को चकमक पत्थर की तरह रगड़ने की ठानी। राजा के पत्थर के होठ बजे तो उनमें से कुछ बुदबुदाने की आवाज़ आने लगी। प्रजा तुरंत राजा के उदगार सुनने को दौड़ी। सब कान लगा कर राजा की बात सुनने लगे।
   राजा कह रहा था- मेरे विरोधी जो कहें, उसका उल्टा करदो। लोग महंगाई कम करने को कहते हैं तो और बढ़ा दो। मुझे राज छोड़ने को कहते हैं तो मेरी कुर्सी से मुझे और कस कर बाँध दो।   

Friday, September 14, 2012

ट्यूनीशिया या लीबिया में पर्दा ज्यादा ताकतवर है?

   भारत में जब किसी सिनेमा घर के बाहर ऐसा बोर्ड लगा हो- "केवल वयस्कों के लिए" तो उस सिनेमा घर के आस-पास से ललचाई नज़र लिए गुजरने वाले तो मिलेंगे ही, हाल के भीतर भी किशोर और बच्चे अच्छी तादाद में मिलेंगे। इतना ही नहीं, परदे पर भूत देख कर खिलखिलाने वाले बच्चे भी मिलेंगे। किसी को चाक़ू मार कर मौत की नींद सुला देने पर भी ज़रा विचलित न होने वाले किशोर मिलेंगे। ज्यादती की घटना पर ताली बजाते लोग भी देखे जा सकते हैं।
   तात्पर्य यह, कि  फिल्मों को कोई गंभीरता से नहीं लेता। इसे 'पात्रों' की रास-लीला से ज्यादा अहमियत कोई नहीं देता। यदि कभी-कभार कोई कबीर-पंथी कबीर को "दस नम्बरी" कहने पर अपना विरोध दर्ज करा भी दे,तो उसे बहला-फुसला कर इस तरह सेट कर दिया जाता है, कि  दो दिन बाद वह डायरेक्टर के साथ फोटो खिंचवाता और हीरो के ऑटोग्राफ लेता पाया जाता है। बल्कि कभी-कभी तो बनावटी बवंडर खड़े करके मीडिया में छाने और पब्लिसिटी पाने का काम खुद निर्माता और उसके आदमी करते पाए जाते हैं।
   ऐसे में समझना मुश्किल है, कि  संवेदन-हीनता को महानता माना जाए, या संवेदन-शीलता को ?

Thursday, September 13, 2012

पता नहीं चलता कि पहले ठीक थे या अब सही हैं ?

   मुझे अच्छी तरह याद है, कुछ साल पहले तक जब चौदह सितम्बर आता था तो मन में जोर-शोर से यह बात आती थी कि  आज हिंदी दिवस है। इस दिन तरह-तरह के कार्यक्रमों में भाग लेकर हम लोगों को हिंदी भाषा अपनाने के लिए प्रेरित किया करते थे।
   लेकिन आज सोचने पर मुझे ऐसा लगता है कि  इसकी कोई ज़रुरत न तो थी, और न ही है। क्योंकि हिंदी भाषा भारत में तो लोगों ने अपनाई हुई है ही, देश के बाहर भी कई जगहों पर लोग इसका इस्तेमाल करते हैं। और जो लोग इसका प्रयोग नहीं करते, या इसे नहीं अपनाते, उनसे क्यों कहा जाये कि  वे इसे अपनाएं ?सैंकड़ों भाषाएँ हैं, लोग अपनी पसंद और सुविधा से अपनी मनपसंद भाषा को अपनाएँ। कोई किसी के कहने से कोई भी ज़बान क्यों बोले ? और कोई दूसरा उनसे क्यों कहे कि  वे अमुक भाषा बोलें।
    हम जब प्रचारक बन कर किसी एक भाषा के प्रयोग के लिए लोगों को उकसाते हैं, तो हम जितने लोगों को उस भाषा के नज़दीक ला पाने में समर्थ होते हैं, उस से कहीं ज्यादा लोगों को हम उस भाषा से दूर कर देते हैं। क्योंकि लोग उस भाषा को शंका से देखते हुए यह सोचने लगते हैं, कि  शायद इसके प्रचारक अपने किसी निजी स्वार्थ के लिए दूसरों पर अपनी भाषा थोपना चाहते हैं।
    फिर यदि किसी के कहने-उकसाने पर कुछ लोग उस भाषा से जुड़ भी जाएँ तो इस से उस भाषा की श्रेष्ठता कहाँ सिद्ध हुई ?   

कभी आकाश में पानी, कभी पाताल में पानी।

मैं सचमुच चिंतित हो गया था, मुझे लगा कि अब डूबा पानी, कोई बाढ़ नहीं आई, लेकिन शहर पानी का अभ्यस्त नहीं था,इसी से प्रकृति का थोडा सा मज़ाक भी आपदा जैसा लगा। सबसे पहले तो हमारे-आपके बीच वही तकनीकी व्यवधान आया, कि संवाद टूट गया।
अब बादल छट गए हैं। धूप देखेंगे।   

Tuesday, September 4, 2012

अमेरिका, जर्मनी, फ़्रांस,इंग्लैण्ड,चाइना,जापान, भारत ...कहीं भी पसंद नहीं की जा सकती ये बात!

एक बच्चा अपने घर के बाहर खेल रहा था। वह अकेला ही अपना मन लगाने के लिए इधर-उधर से कुछ चीज़ें उठा लाया था, और अब उन्हीं में मगन था।
कुछ देर में एक राहगीर उधर से गुज़रा। उसने बच्चे से ठिठोली करने के मकसद से उससे पूछा- तुम अकेले क्यों खेल रहे हो? क्या तुम्हारा कोई और दोस्त नहीं है?
बच्चे ने कोई जवाब नहीं दिया, वह उसी तरह तन्मय होकर खेलता रहा। राहगीर ने फिर पूछा- अगर तुम्हें अकेले ही खेलना था तो तुम यहाँ बाहर क्यों चले आये। तुम घर के भीतर भी तो खेल सकते थे।
बच्चा फिर चुप रहा, कुछ न बोला। राहगीर अपने को कुछ असहज महसूस करता हुआ आगे बढ़ गया।
वह मन ही मन सोचता जा रहा था, या तो इस बच्चे के पास आवाज़ नहीं है, या फिर यह बहरा होगा। ...बेचारा ...यह सोचता राहगीर उस अजनबी बच्चे के लिए द्रवित हो गया।
वह अभी कुछ ही दूर गया होगा, कि  पीछे से बच्चे की कड़कदार आवाज़ आई-" ए , इधर आओ !"
चौंक कर राहगीर ने पीछे देखा, और उत्साह से बच्चे के पास लौटा।
उसके आते ही बच्चे ने अपनी बुलंद आवाज़ में पूछा- "तुम्हारा कोई साथी नहीं है, अकेले क्यों घूम रहे हो?"
इस अप्रत्याशित सवाल से राहगीर सकपका गया, बोला- नहीं नहीं, मैं तो एक ज़रूरी काम से जा रहा था।
बच्चे ने धीरे से कहा - फिर रास्ते में रुक कर  गैर-ज़रूरी सवाल क्यों कर रहे थे ? तुम्हें पता नहीं, घर शाम को पांच बजे तक नहीं होता।
-क्या मतलब ? राहगीर बोला।
मेरे पिता बस चलाते हैं, वे ड्यूटी के बाद पांच बजे घर आते हैं। मम्मी शहर के अस्पताल में नर्स हैं, वे सात बजे आती हैं। बच्चा सहजता से बोला।  

Sunday, September 2, 2012

ये सारा सोना लेलो, मुझे कहीं से थोड़ा सा लोहा लाकर देदो

दुनिया के किसी कौने में एक अमीर आदमी रहता था। बेहद अमीर। उसके पास कितनी दौलत थी, यह तो उसके बैंक-खाते से ही पता चल पायेगा, किन्तु उसकी दौलत इतनी ज़रूर थी कि  उसे दुनिया का एक बेहद अमीर आदमी कहा जा सके।
एक दिन उस अमीर आदमी ने अपनी संपदा के प्रबंधक को बुलाया, और कहा- मेरे पास जितना भी सोना है, वह तुम लेलो, और मुझे कहीं से थोड़ा सा लोहा लाकर देदो।
प्रबंधक संकोच से गढ़ गया। बोला- मैं आपकी संपदा का प्रबंधक हूँ, इसका उपभोक्ता नहीं, अतः मैं इतना सोना कैसे ले सकता हूँ। मेरे लिए तो वह वेतन ही पर्याप्त है, जो आप मुझे देते हैं। किन्तु क्षमा करें, मेरा वेतन इतना भी नहीं है कि  मैं उसमें से किसी को उपहार लाकर दे सकूं। पर, आप मुझे यह तो बताएं कि  आप थोड़े से लोहे का करेंगे क्या?
अमीर आदमी बोला- जब मैं इस दुनिया में नहीं रहूँगा, तब हो सकता है कि कोई तो ऐसा व्यक्ति हो जो आकर तुमसे यह जानना चाहे कि  मैं कैसा था? तब तुम मेरी कब्र खोद कर कॉफिन-बॉक्स में से मुझे निकाल कर उसे दिखा सको, इसके लिए मैं एक कुल्हाड़ी बनवा कर रख जाना चाहता हूँ।
प्रबंधक को बहुत अचम्भा हुआ, वह बोला- आपकी दूरदर्शिता बहुत महान है, किन्तु इतनी सी बात की इतनी चिंता?
अमीर आदमी ने कहा- मैंने अपने जीवन में यही सीखा है कि  साध्य को पाना चाहते हो तो साधनों को जुटाना सीखो। इसी से सफलता मिलती है। 

600 वीं पोस्ट "मंटू कुमार" के नाम

आज मेरी इस पोस्ट पर 600 पल पुराना सफ़र आपके साथ पूरा हो रहा है।इस लम्बे सफ़र में कभी-कभी मुझे बहुत अकेला हो जाना पड़ा। इसका एक कारण यह था कि मैंने बीच में अपनी कुछ लंबी कहानियाँ,एक उपन्यास  और कुछ अन्य लंबी रचनाएँ ब्लॉग पर परोस दी ।नतीज़ा यह हुआ कि मेरे मित्रों और शुभचिंतकों ने ब्लॉग पर झाँकना कुछ कम कर दिया ।मै इसे समेटकर बंद करने की सोचने ही लगा था कि मंटू कुमार के ब्लॉग "मन के कोने से" पर मेरा ध्यान गया ।मैंने कुछ टिप्पणियाँ भी की ।इसका परिणाम यह हुआ कि इस युवा ब्लॉग लेखक की प्रतिक्रिया भी मुझे मिलने लगी ।और मुझे लगा जैसे बातों का सिलसिला फिर से चल निकला हो ।अब मेरे मन के कोने से यह आवाज आ रही है कि मै यह सिलसिला 1000 पोस्ट तक बंद न करूँ ।मै इसके लिए मंटू को धन्यवाद देता हूँ ।
अब मै एक आश्चर्य मिश्रित ख़ुशी का समाचार भी आपको दे रहा हूँ ।आज मंटू मुझसे मिलने मेरे पास आया है और इससे भी बड़ी ख़ुशी इस बात की है कि मेरे इस झरोखे से मंटू कुमार ही बात कर रहा है ।
मंटू कुमार- अब कहने के लिए कुछ बचा ही नही,बस दो लफ्ज- "इनकी नज़र में मेरे वजूद के एहसास ने जीने की तमन्ना को और बढ़ा दिया है ।" दो दिन पहले अंकल ने उन लोगों के लिए एक संदेश दिया था जिनका उस दिन जन्मदिन है ।मैंने सोचा कि शायद अंकल का ही आज जन्मदिन हो ।इसलिए मै बधाई देने के वास्ते उनके पास चला आया ।यहाँ आकर मुझे पता चला कि उनका जन्मदिन 11 जुलाई को आता है ।यह संदेश उन्होंने सभी के लिए दिया था ।    

Saturday, September 1, 2012

ये जीत किसकी है, ये हार किसकी है, ऑस्ट्रेलिया और भारत का मैच अनिर्णीत

क्रिकेट हो या कोई और खेल, अनिर्णीत रह जाने के लिए कोई आसानी से तैयार नहीं होता। कोई न कोई फैसला तो होना ही चाहिए। भरसक जोर लगाने पर भी यदि जीत न मिले तो मन करता है कि  गोल के सामने से खिसक जाओ, ट्रॉफी किसी के तो हाथ लगे। रखी-रखी किस काम की।
पर फ़िलहाल जिस खेल की बात हम कर रहे हैं, उसमें यह तय कर पाना लगभग नामुमकिन है कि  कौन हारा , कौन जीता। पहली नज़र में तो ऐसा लगता है दोनों ही हार गए, और साथ में हार गई इंसानियत, दुनियादारी और बुद्धिमत्ता।
ऐसा कौन सा खेल है, और हो क्या गया?
ऑस्ट्रेलिया में एक विज्ञापन निकला और उसमें निर्देश था कि  भारतीय आवेदन न करें !
लगता है कि  ऑस्ट्रेलिया नस्लीय भेदभाव की गिरफ्त में आने वाला इक्कीसवीं सदी का पहला नया देश बन गया। और उधर भारत भी कबीलाई मानसिकता को सीने से चिपकाए रहने वाले देश की छवि से निजात न पा सका।
ग्लोब्लाइज़ेशन उन्नत देशों की परिकल्पना थी, भारत जैसे विकासशील देश ने इसे धीरे-धीरे सीखा। अब उन्नत देशों को देख कर हम कुछ और सीखें, इससे पहले ही - "आईने सारे उठा कर फेंक दो, कह रहे हैं हम पुराने हो गए।"  

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...