Sunday, September 23, 2012

ये कहाँ चल दिए हम, सब जानते-समझते!

   देश चलाने के लिए लोकतंत्र में अलग-अलग विचारधाराओं वाली पार्टियों के अस्तित्व में आने का प्रावधान है। इस से सभी दिशाओं में विचार-मंथन हो जाता है। लेकिन जब पार्टियों के भीतर अवसरवादी लोग तैरती मछलियों की तरह अपने-अपने हितों के पीछे भागते हैं, तो पानी गन्दा हो जाता है। फिर दो विकल्प होते हैं- या तो हम पानी को साफ़ करने की कोशिश करें, या फिर ताल बदल लें।
   यह देखा गया है कि  हमारी दिलचस्पी पानी को साफ करने की कोशिश में नहीं होती।हम झटपट सरोवर बदलने की जुगत में लग जाते हैं, ताकि फिर से साफ़ और नया पानी मिले।
   आगामी चुनावों को लेकर सत्ताधारी दल में नए पानी की प्यास कुछ इसी तरह उभर रही है। पार्टी की युवा शाखा के क्रिया-कलापों के बाद अब हम "बाल-शाखा" की तैय्यारी कर रहे हैं। यह भविष्य के वोटर्स की फसल के लिए नर्सरी लगाने जैसा है। लेकिन अपना वोट-गोदाम भरने के लिए हम "बचपन" की पौध को कहीं भयानक जंगल में न रोप डालें, ये ध्यान ज़रूर रखना होगा। हमारे 'विद्यार्थियों' को राजनीति  सिखाने के लिए हमने जो छात्र-संघ बनाए हैं, जब उनके चुनाव होते हैं तो हर शहर की प्रशासन और  क़ानून-व्यवस्था बाज़ के सामने सहमे कबूतर की तरह दहल जाती है।

2 comments:

  1. कुछ लोग ताल गन्दा करते हैं कुछ बदलकर ताल बदल लेते हैं। कोई मौसम के हिसाब से प्रवास अपनाते हैं कोई पीढियों से भटक रहे हैं। स्ंगठन में शक्ति है और शक्ति में दुरुपयोग है। छोते चुनावों में क्लीन लोग आने लगे तो (कुछ खटकती नज़रों में) बड़े चुनावों का भविष्य खतरे में पड़ जायेगा ... और न पड़े तो भी सबको पता ही है मि. क्लीन कौन से दूध से धुलते हैं ... विचारणीय मुद्दा!

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हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

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