भारत में जब किसी सिनेमा घर के बाहर ऐसा बोर्ड लगा हो- "केवल वयस्कों के लिए" तो उस सिनेमा घर के आस-पास से ललचाई नज़र लिए गुजरने वाले तो मिलेंगे ही, हाल के भीतर भी किशोर और बच्चे अच्छी तादाद में मिलेंगे। इतना ही नहीं, परदे पर भूत देख कर खिलखिलाने वाले बच्चे भी मिलेंगे। किसी को चाक़ू मार कर मौत की नींद सुला देने पर भी ज़रा विचलित न होने वाले किशोर मिलेंगे। ज्यादती की घटना पर ताली बजाते लोग भी देखे जा सकते हैं।
तात्पर्य यह, कि फिल्मों को कोई गंभीरता से नहीं लेता। इसे 'पात्रों' की रास-लीला से ज्यादा अहमियत कोई नहीं देता। यदि कभी-कभार कोई कबीर-पंथी कबीर को "दस नम्बरी" कहने पर अपना विरोध दर्ज करा भी दे,तो उसे बहला-फुसला कर इस तरह सेट कर दिया जाता है, कि दो दिन बाद वह डायरेक्टर के साथ फोटो खिंचवाता और हीरो के ऑटोग्राफ लेता पाया जाता है। बल्कि कभी-कभी तो बनावटी बवंडर खड़े करके मीडिया में छाने और पब्लिसिटी पाने का काम खुद निर्माता और उसके आदमी करते पाए जाते हैं।
ऐसे में समझना मुश्किल है, कि संवेदन-हीनता को महानता माना जाए, या संवेदन-शीलता को ?
तात्पर्य यह, कि फिल्मों को कोई गंभीरता से नहीं लेता। इसे 'पात्रों' की रास-लीला से ज्यादा अहमियत कोई नहीं देता। यदि कभी-कभार कोई कबीर-पंथी कबीर को "दस नम्बरी" कहने पर अपना विरोध दर्ज करा भी दे,तो उसे बहला-फुसला कर इस तरह सेट कर दिया जाता है, कि दो दिन बाद वह डायरेक्टर के साथ फोटो खिंचवाता और हीरो के ऑटोग्राफ लेता पाया जाता है। बल्कि कभी-कभी तो बनावटी बवंडर खड़े करके मीडिया में छाने और पब्लिसिटी पाने का काम खुद निर्माता और उसके आदमी करते पाए जाते हैं।
ऐसे में समझना मुश्किल है, कि संवेदन-हीनता को महानता माना जाए, या संवेदन-शीलता को ?
विचारणीय बात कही आपने.......
ReplyDeleteसादर
अनु
Aapka aabhar!
ReplyDeleteऐसे में समझना मुश्किल है, कि संवेदन-हीनता को महानता माना जाए, या संवेदन-शीलता को ?
ReplyDeleteSATY KO BADE IMANDARI SE KAHANE AK DUSSSAHAS.
Dhanywad, vaise ab "kahna ya bolna" dheere-dheere faishan men aa raha hai.
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