मेरे पुराने मित्र फज़ल पिछले दिनों उपराष्ट्रपति भवन में अंसारी साहब से मिलने गए।फज़ल ने बताया कि उपराष्ट्रपति किताबों के सम्मान को लेकर बड़े संजीदा हैं। वे उन्हें भेंट में दी जा रही किताबों को खुद उठाने की पेशकश कर रहे थे, जबकि उस भवन में फूलों का 'बोझ' उठाने के लिए भी दर्ज़नों सहायक मौजूद थे।
ऐसी बातें रुई के फाहे की तरह नर्म और लचीली होती हैं। ये सोच के थोड़ी परेशानी भी होती है कि अब हम उस दौर में तो पहुँच ही गए, जब किताबों को पढ़ने की बात पीछे छूट गयी और उन्हें 'उठाने' की बात होने लगी। वैसे भी संसद और राज्यसभा की फिजा में फैली अराजकता को संभालने में किताबें कितनी मददगार हो सकेंगी? वहां तो अब 'व्हिसिल' की आवाज़ भी नक्कारखाने में तूती की तरह है।
ऐसी बातें रुई के फाहे की तरह नर्म और लचीली होती हैं। ये सोच के थोड़ी परेशानी भी होती है कि अब हम उस दौर में तो पहुँच ही गए, जब किताबों को पढ़ने की बात पीछे छूट गयी और उन्हें 'उठाने' की बात होने लगी। वैसे भी संसद और राज्यसभा की फिजा में फैली अराजकता को संभालने में किताबें कितनी मददगार हो सकेंगी? वहां तो अब 'व्हिसिल' की आवाज़ भी नक्कारखाने में तूती की तरह है।
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