Monday, April 18, 2016

सेज गगन में चाँद की [ 11 ]

बड़ी मुश्किल से धरा भक्तन-माँ को इस बात के लिए राज़ी कर पाई कि नीचे वाली कोठरी को किराए से दे दिया जाये। तरह-तरह के तर्क देकर समझाया तब कहीं जाकर माँ की समझ में ये बात बैठी कि बढ़ती मँहगाई के साथ घर के खर्च बढ़ते जाते हैं और मंदिर की आमदनी से इतना कुछ नहीं आता कि दोनों माँ-बेटी का खर्च आराम से चल सके। बुढ़ापे की मार झेल रहा शरीर अन्न की बचत दवा-दारु में सोख लेता है, ये बात धरा ही नहीं, भक्तन खुद भी तो जानती थी।
आखिर भक्तन ने कहा-"अच्छा चल, हनुमान मंदिर वाली पण्डिताइन को कह दूँगी, वो किसी कामकाजी औरत को भेज देगी, कोठरी में रहने को।"
धरा ज़रा कसमसाई, फिर बोली-"माँ ,मैंने किराएदार ढूंढ लिया है।"
और जब भक्तन को पता चला कि धरा ने बिना किसी पहचान-पड़ताल के सड़क चलते एक कबाड़ी लड़के को ढूँढा है, तो जैसे भूचाल सा ही आ गया। बुढ़िया आपा खो बैठी।
-"बोल, सच-सच बता कब से चल रहा है तेरा ये खेल?" भक्तन चिल्लाई।
-"माँ, ये क्या कह रही हो? मैं तो उसे जानती भी नहीं, आज ही बात हुई है,जब वो कोठरी का सामान लेने आया, पढ़ा-लिखा शरीफ.... " धरा अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाई कि माँ बरस पड़ी।
-"चुप, निर्लज्ज कहीं की ! तभी मैं सोच रही थी कि क्यों तेरे पैर थिरक रहे हैं कोठरी खाली करने को" भक्तन ने अपना क्रोध निकाला।
धरा को अपनी प्रेम-पींग बढ़ने से पहले ही लांछन की ये बौछार बिल्कुल नहीं सुहाई, वो ये भी भूल बैठी कि वो अपनी माँ से बात कर रही है। बोली-"अब मैं क्या बच्ची हूँ जो सांस भी तुमसे पूछ-पूछ कर लूंगी?"
धरा का सुर उठा देख कर भक्तन ने पैंतरा बदला-"बेटी, मैं तो तेरे भले के लिए ही कहती हूँ, बिना बाप के गरीब घर में जवान होती लड़की क्या होती है,ये तू क्या जाने बच्ची,लोगों ने तो तेरे पिता को सुनाने में ही कोई कोर-कसर नहीं रखी, लोगों के कड़वे बोल उनका जीवन खा गए" कहते हुए भक्तन ने पल्लू से अपनी आँखें पौंछने का उपक्रम किया।
लेकिन माँ के आंसुओं को देख कर भी धरा ये नहीं भूल पाई कि माँ ने चाहे-अनचाहे उसके चरित्र पर कीचड़ उछालने में भी कोताही नहीं बरती है।
वह माँ के समझाने की अनदेखी कर पूर्ववत क्रोध में ही कह बैठी-"मुझे पता है, मुझे सब पता है, बापू को क्या गम खा गया। आज मुझसे पूछती हो कि मेरा उस लड़के के साथ क्या खेल चल रहा है? मैं पूछती हूँ, तुम्हारा क्या खेल चला था आखेट महल वाले रावसाहब के साथ, जिसके कारण  बापू को लोगों के ज़हर-बुझे ताने सुनने पड़े, बोलो, बताओ?"
भक्तन के जिगर-कुंड में बरसों से दबी राख की चिंगारियों पर मानो ताबड़तोड़ घी पड़ गया। ज्वाला धधक उठी, भक्तन ने पूरी ताकत से खींच कर एक चांटा धरा के गाल पर दे मारा।
धरा बिफर पड़ी, और रोती हुई भीतर खाट पर औंधी जा लेटी।
रोते-रोते ही उसे न जाने कब नींद आ गयी।
 [ जारी ]                  

Sunday, April 17, 2016

सेज गगन में चाँद की [ 10 ]

शाम के सात बज जाने पर भी जब रसोई में बर्तनों की खटर-पटर शुरू न हुई तो भक्तन माँ का माथा ठनका। पहले तो खाट पर पड़े-पड़े ही आवाज़ लगाई।  पर जब दो-तीन आवाज़ों के बाद भी धरा की आहट सुनाई न पड़ी तब भक्तन खुद ही उठ कर बाहर चली आई।
धरा अभी तक पेट के बल उसी तरह बिस्तर पर पड़ी थी। बाल बिखरे हुए थे। कोहनी मोड़ कर माथे के नीचे लगाई हुई थी। सूखे हुए आंसुओं के निशान गालों से होकर होठों तक फ़ैल गए थे।
भक्तन को बेटी पर ममता-सी जागी। धीरे से झुक कर उसकी पीठ पर हाथ फेरने लगी।  कुछ सोचती हुई सी भक्तन अपनी यादों के गलियारों में न जाने कितनी पीछे तक निकल गयी थी। फिर भी उसे दोपहर की बात पर पश्चात्ताप  तो हो ही रहा था। वह हाथों से ही बेटी को दिलासा देने की कोशिश कर रही थी। मुंह से बोल नहीं फूट रहे थे।
ग्लानि कितनी भी हो, जबान से निकले बोलों के तीर तो अब वापस आ नहीं सकते थे।  बिटिया अब तक इसी बात पर रूठी पड़ी थी।  बिन बाप की इकलौती बिटिया पर भक्तन-माँ ने आज पहली बार , केवल कड़वे बोलों की ही बरसात नहीं की थी, बल्कि हाथ भी उठा दिया था।
असल में हुआ ये, कि धरा ने नीचे वाली कोठरी की सफाई करने के बाद, कबाड़ के लिए फेरी लगाने वाले उस लड़के को सारा पुराना सामान बेच डाला। कुछ देर बाद सारा असबाब अपने बोरे में भर कर लड़का जब देहरी से बाहर निकला तो अपने ही बुहार कर इकट्ठे किये गए कचरे पर उसे रश्क सा हुआ।
धरा ने उसके दिए रूपये-पैसे बिना गिने ही मुट्ठी में डाल  लिए थे।
लड़का तो गली में आगे बढ़ गया पर धरा उसके जाने के बाद कोठरी को नए सिरे से निहार कर ऊपर की सीढ़ियां चढ़ गयी। छत की मुंडेर के सिरे पर पहुँच कर सिर्फ एक अहसास सा धरा के पास रह गया, बाकी सब ओझल हो चुका था।
अनमनी सी धरा ने अब माँ के पास बैठ कर उस सारी बात का खुलासा किया जो बात कल शाम से ही भक्तन के पेट में पानी किये हुए थी।
धरा ने माँ को बताया कि उसने नीचे वाली कोठरी की साफ-सफ़ाई इसलिए की है, कि उसे किराए से उठाएंगे, ताकि हाथ में चार पैसे भी आएं और वक़्त-ज़रूरत मदद के लिए घर के वीरान सन्नाटे में कोई हिलता-डुलता इंसान भी दिखाई दे।
धरा को पहले तो  इसी बात पर भक्तन का कोपभाजन बनना पड़ा कि उसने पिता की स्मृति को बिसरा कर उनका सब सामान घर से निकाल बाहर किया, फिर ये जानने के बाद तो भक्तन हत्थे से ही उखड़ गयी कि धरा नीचे वाली कोठरी एक रास्ता चलते अनजान लड़के को किराए से देने की तरफदारी कर रही है।
लड़के की न जाति का पता था न गाँव-घर का,जाने कंवारा था कि शादी-शुदा, किसी चोरी-चकारी के मामले में घर से भागा हुआ भी हो, तो क्या पता? वरना  बिना नौकरी-धंधे के कोई अपने घर से इतनी दूर आता है भला? न कोई जानकारी, न बीच में कोई जानकार।
[ जारी  ]                      

Saturday, April 16, 2016

सेज गगन में चाँद की [ 9 ]

लड़का उड़ती सी नज़र वहां फैले-बिखरे सामान पर डाल कर मन ही मन कुछ तौल ही रहा था कि धरा के सुरों का बदलाव उसे प्रतीत हुआ। धरा बोल रही थी-
-"क्या नाम है तुम्हारा ?"
-"नीलाम्बर !"
-"बहुत बड़ा नाम है।"
-"घर में मुझे नील कहते हैं।" कहते-कहते लड़का संकोच से ज़रा झेंप गया।
-"कौन है घर में?" धरा ने नज़र को ज़रा और गहरा, स्वर को ज़रा और मुलायम करके पूछ डाला।
-"यहाँ तो कोई नहीं !"
-"कोई नहीं है, मतलब?"
-"यहाँ पर तो रिश्ते के एक चाचा के साथ रहता हूँ, बाकी लोग गाँव में हैं।"
-"कौन सा गाँव?" धरा की जिज्ञासा बढ़ी।
-"तुम नहीं जानोगी, बहुत दूर का गाँव है।"
लड़के की उम्र ज़्यादा नहीं थी। लेकिन स्वर की सधाई से लगता था कि थोड़ा बहुत पढ़ा-लिखा है। लड़का भी शायद धरा के बारे में ऐसी ही कुछ धारणा बना चुका था। स्वर में और थोड़ी संजीदगी लाते हुए बोला -
-"आपका नाम क्या है?"
धरा को उसका 'तुम' से 'आप' पर आना कुछ-कुछ भाया भी, कुछ-कुछ नहीं भी भाया।
-"धरा !" धीरे से उसने कहा।
-"बहुत छोटा सा नाम है।"
-"सिर्फ छोटा?" कह कर धरा अपने ही प्रश्न पर मुस्करा कर रह गयी। फिर बोली-
-"हाँ , घर के लोग मुझे इसी नाम से पुकारते हैं, वैसे मेरा नाम वसुंधरा है।"
-"कौन लोग हैं घर में?" लड़के की दिलचस्पी भी अब बढ़ रही थी।
-"माँ और मैं, बस !"बातचीत का पटाक्षेप सा होता जान कर धरा ने एकदम से दूसरा सूत्र पकड़ा-
-"गर्मी है, पानी पिलाऊँ?"
लड़के ने पानी के लिए हामी भर दी। जब धरा पानी का लोटा व गिलास लिए वापस कोठरी में लौटी, तब तक दोनों ही थोड़े सहज हो चुके थे। गिलास हाथ में थाम कर लड़के ने पानी मुंह में उंडेलना शुरू किया तो धरा का ध्यान इस बात पर गया कि लड़के ने गिलास को मुंह नहीं लगाया है, फिर भी उसके पानी पीने के ढंग से उसके सलीकेदार होने का आभास हुआ। किसी सड़कछाप आम फेरीवाले जैसा फूहड़पन उसमें कहीं से भी नहीं दिखाई दिया। लड़के ने कलाई से मुंह के गीलेपन को पौंछा और धरा की ओर  देखने लगा।
-"यहाँ कौन रहता है?" लड़के ने अपनी जिज्ञासा धीमी आवाज़ में रखी।
-"कोई नहीं, मैं और माँ ऊपर रहते हैं।" धरा ने किसी रहस्य की तरह बताया।
-"फिर यहाँ ?" लड़के ने भोलेपन से एक बार फिर अपने मन की शंका रखी।
-"खाली है, किराए से दे देंगे" धरा के मुंह से अकस्मात निकला।
लड़का कुछ न बोला, मगर धरा को अपनी प्रत्युत्पन्नमति पर संतोष सा हुआ। वैसे एक ललचाई सी नज़र जब लड़के ने कोठरी की दीवारों पर डाली तो धरा को ये भांपते देर न लगी कि लड़का रहने के लिए ठौर-ठिकाने की तलाश में है।
[ जारी ]    .                        

सेज गगन में चाँद की [ 8 ]

धरा ने कुछ न कहा, पर तसल्ली भक्तन माँ को भी नहीं हुई।  फिर भी इस बात पर से ध्यान हटा कर भक्तन अपनी संध्या-पूजा की तैयारियों में जुट गयी। एक लोटे में पानी लेकर वह पूजा के बर्तन धोने मोरी पर आ बैठी।
आज केवल यही एक बात नहीं थी कि धरा ने पिछले दस बरस से बंद कोठरी खोल दी थी। बल्कि धरा में और भी बदलाव दिख रहे थे माँ को।
इतने बरस बाद बिछड़े बाप की कोठरी बुहारने-झाड़ने में लाड़ली बिटिया थोड़ा बहुत तो दुःख-गम से बेज़ार होती, पर यहाँ तो बात ठीक इसके उलट थी।  धरा उसे और दिनों के मुकाबले कहीं ज़्यादा प्रसन्नचित्त और हलकी-फुलकी दिखाई दे रही थी।  ग़म -कष्ट का कहीं कोई चिन्ह नहीं दिखाई दे रहा था। इतनी मेहनत करके भी उसकी स्फूर्ति बाकी थी। चेहरा भी तरोताज़ा दिख रहा था।
चलो, कुछ भी हो, आखिर धरा उसकी बेटी ही थी, कोई गैर तो नहीं, किसी भी बहाने से खुश थी, यही क्या कम था।  भक्तन को एक अजीब सी ख़ुशी का स्वाद आया और इस स्वाद में वो अपनी सारी उधेड़-बुन बिसरा कर संध्या-पूजा के लिए बैठ गयी।
अगली सुबह तक तो भक्तन-माँ सारे प्रकरण को ही भूल-बिसरा कर बैठ जाती पर ये क्या, दोपहर होते न होते उसे धरा में और भी अप्रत्याशित परिवर्तन दिखाई देने लगे।
धरा ने मुद्द्त बाद चोटी-कंघी भी बेहद इत्मीनान से की। उसकी सज-संवर भी आज माँ को पचने वाली नहीं थी।
खाने से निबटने के बाद भक्तन लेटने को लेट भले ही गयी, पर उसके मन-पोखर पर कोई संशय कंकरियाँ गिरा -गिरा  कर लहरें उठाता ही रहा।
दोपहर हुई। बेहद सुहानी दोपहर। धरा के मन की मुराद सी दोपहर।
वह आया। कच्चे कटहल के दूध सी चिपचिपी जवान आवाज़ के तार-सप्तक गली के छोर से ही उसके कानों में घंटियां बजाने लगे।
और आज बिना किसी चोरी-चकारी के,बिना किसी उधेड़-बुन के, पूरे अधिकार के साथ धरा ने उसे पुकारा।
-"ऐ , सुनो !"
वह बिजली की सी गति से बोरा दीवार से टिका कर सीढ़ियों की ओर लपका।  वह ऊपर आता, इसके पहले ही धरा किसी पारंगत नर्तकी सी थिरकती हुई सीढ़ियों से नीचे आने लगी।  लड़का असमंजस से देखता हुआ नीचे ही खड़ा रह गया।
-"आओ ज़रा मेरे साथ।" धरा आगे-आगे चलती हुई कोठरी की ओर बढ़ी। पीछे-पीछे लड़का सर झुकाए उसके साथ चल पड़ा। दालान पार करके लड़का कोठरी तक आकर ठिठक गया।
धरा तीर की भांति कोठरी के भीतर दाखिल हो गयी। धरा के इशारे से उत्साहित होकर लड़का भी देहरी पर पैर रख कर भीतर झाँकने लगा।
-"देखो, ये देखो, ये भी ..." धरा ने कौने में रखे हुए फालतू सामान के ढेर को अंगुली से दिखाते हुए कहा।
[जारी ]                         

सेज गगन में चाँद की [ 7 ]

और अब , आज धरा चली थी झाड़ू लेकर उसी कोठरी की झाड़-बुहार करने। इतने बरस बाद।
क्या था आज ?  क्या हो गया धरा को ? माँ से पूछा तक नहीं ? बुढ़िया भक्तन बैठी-बैठी सोचती रह गयी।
नियति का चक्र ऐसे ही चलता है।  प्रकृति की रीत यही है।  पौधा ऐसे ही उगता है। बड़े-बड़े पेड़ गिर जाते हैं, धराशायी हो जाते हैं।  उनका कोई बीज-बट्टा पोली मिट्टी  के गर्भ में गिर जाता है। फिर किसी भले मौसम में हवा-पानी का आशीर्वाद लेकर वह पनप भी जाता है। फिर से शुरू हो जाती है दुनिया।
आज कैसा मौसम था क्या जाने? धरा के मन-आँगन में कौन से बीज की कोर गढ़ गयी कि  खुश झूमती लड़की दस बरस पहले का दुःख भूल कर नए दिन लिखने की खातिर नीचे उतर गयी।  बुढ़िया सोचती रही, सोचती रही।
पूरे तीन घंटे लगे धरा को। दस बरस क्या कम होते हैं? घर-बार एक दिन न बुहारो तो गर्द का साम्राज्य हो जाता है। इतने सालों में तो वहां धूल की दुनिया ही बस गयी थी। एक सिरे से धरा ने हर चीज़ को उठा-उठा कर झाड़ा। दीवारों व छत की खूब सफाई की। लपेट कर रखा  गया गूदड़ा सा बिस्तर झड़कार कर बाहर डाला। झिंगली सी खटिया उठा कर बाहर रखी। खूब भर-भर कर डोलची पानी डाला। रगड़-रगड़ कर एक-एक चीज़ की सफाई की। धूल -धक्कड़ और जालों के थक्के खुरच-खुरच कर बहाए।
कोठरी के आलों में रखा सामान धूल-धूसरित होकर अपना रंग भी खो चुका था और दीन भी। धरा ने एक-एक चीज़ को देखा, और जो भी ज़रा काम की दिखाई दी उसे गीले कपड़े से पौंछ-पौंछ कर सहेजा। बाकी के सामान को एक बेकार के ढेर की शक्ल में कोठरी के एक कौने में जमा कर दिया।
धरा ऊपर आई तो साँझ का झुटपुटा हो आया था।  थक कर चूर भी हो गयी थी।  बेदम सी बैठ गयी। माँ एकदम से उसके करीब आई और चुपचाप खड़ी होकर उसके बालों में हाथ फेरने लगी।  दोनों में से कोई कुछ न बोला। दोनों का मौन एक-दूसरी को कुछ न कुछ याद दिलाता रहा।
-"चल अब थोड़ा आराम कर ले।" अम्मा ने कहा।
-"खाना भी तो बनाना है।" कहकर लापरवाही से धरा उठी और रसोई से साग काटने का चाकू तथा चार अरबी लेकर ज़मीन पर ही आ बैठी।
-"ये आज तुझे क्या सूझा बेटी ? क्या बात है जो इस तरह सफाई में जुट गयी !" माँ  आखिर बोल ही पड़ी।
- "सफाई क्या कोई बुरी बात है?" धरा ने संक्षिप्त सा जवाब दिया।
-"बुरी बात तो नहीं है, पर आज बरसों बाद एकाएक तुझे ये ख्याल आया कैसे?"
-"कभी तो आना ही था माँ" धरा ने अरबी छीलते-छीलते ही उत्तर दिया।
पर भक्तन की समझ में ये पहेली आई नहीं, कुछ न कुछ बात तो ज़रूर थी जो बेटी ने इस तरह कमर कस कर इतना बड़ा काम आनन-फानन में कर डाला। माँ ने उड़ती सी निगाह उस पर डाल कर सब अनुमान-अंदाज़ खंगाल डाले।
कौन सा दिन है आज? कहीं उनके जाने का दिन ही तो नहीं? नहीं, पर ये कैसे हो सकता है? वो तो गए थे उतरती सर्दियों की सुबह और अभी तो ठीक से ठण्ड का मौसम आया भी नहीं।  अब भी जब-तब बूंदा-बांदी हो ही लेती थी।  [ जारी ]                                    

सेज गगन में चाँद की [ 6 ]

उसके बाद से कभी किसी ने उसे हँसते-बोलते देखा ही नहीं। उसके शरीर पर भी जैसे कोई गाज़ गिरी, तन बदन सिमटने लगा। देखते-देखते चलते हुए हाथ पैरों ने दग़ाबाज़ी शुरू कर दी। शाम ढले जब काम पर से लौटता तो अपने को बेबस-निढाल पाता। मंदिर की ओर आँख उठा कर देख तक न पाता।  ईश्वर को घेर कर खड़ी  दीवारें उसे किसी पाप का खंडहर नज़र आतीं।
भला ऐसे कितने दिन चलती है ज़िंदगी? अरे, कुदरत तो इंसान को पैदा करने के दिन से उससे भिड़ने लग जाती है , रोओ तो खाना मिले, चीखो तो दुलार। न कुछ मांगो तो कौन कुछ दे? धरा के बाप की जीवन-इच्छा कमज़ोर होती चली गयी।  कुदरत ने भी मुंह सा फेर लिया। जब-तब बीमार पड़ा रहने लगा।
वैद्य-डॉक्टरों  के पास जो बूटियां-दवाएं हैं, सो सब ईमान की पुतलियाँ हैं। ईमानदारी से कहो कि जीना है,तो सिफत की तासीर है उनकी, नहीं तो जड़-तना-पत्ते और गोलियां हैं,  खाये जाओ, खाये जाओ।
धरा का बाप कमज़ोरी के चलते कई-कई दिन तक काम पर न जा पाता। भक्तन पर काम का बोझ बढ़ने लगा।रूपये पैसे की भी किल्लत रहने लगी। अब मंदिर का सारा प्रसाद उतनी उदारता से न बाँट पाती थी। उसी में से नन्ही धरा और बीमार पति का कलेवा भी निकालना पड़ता।
इस तरह कभी श्रद्धा से प्रभु की तीमारदारी के लिए निकली हुई अबला एक व्यावसायिक पुजारन में तब्दील होने लगी।
हाड़-मांस के असहाय पति और पत्थर के बेजान देवता की साज-सम्भाल व तीमारदारी ने थोड़े वक़्त में ही ज़्यादा उमरिया खर्च हो जाने की सी नौबत ला दी। धरा जल्दी बड़ी होने लगी तो भक्तन जल्दी बुढ़ाने लगी।
धरा के बाप से न तो जोरू की हाड़-तोड़ मेहनत देखी जाती और न ही प्यारी बिटिया की बेबस आँखें। मगर मज़बूरी ने खटिया से चिपका ही छोड़ा।
और एक दिन जब भक्तन ऊपर वाली कोठरी से उतर कर नहाना-धोना करके पति को प्रसाद देने इस नीचे वाले कमरे में पहुंची तो धरा के पिता को वहां से नदारद पाया।
राम जाने कहाँ चला गया। लाख ढूंढा, न कोई खोज-खबर मिली और न कोई ठिकाना। शायद अपनी लाचारी के कहर से अपनी पत्नी और बिटिया को बचाने की गरज से सवेरे के नीम अँधेरे में अशक्त बूढ़ा सा दिखने वाला धरा का बाप कहीं मर-खपने चला गया।
वह दिन था और आज का दिन, नीचे वाली कुटिया में न भक्तन ने कभी झांक कर देखा और न धरा ने।  वहां ताला डाल दिया गया।
उसे कभी किसी ने खोल कर न देखा। माँ-बेटी दोनों अपने को मानो इस भुलावे में रखे रहीं कि भीतर सोता होगा। आज दस बरस बीते, कहीं से कोई खोज-खबर नहीं मिली थी।  आस-पास के सब गाँव छान मारे।  कितने ही लड़कों और मर्दों की मदद लेकर  शहर-भर में ढुँढवाया।  पर वह तो ऐसा गया, मानो कभी था ही नहीं।  कभी खोली न गयी उसकी कोठरी  पिछले दस-बरस में कबाड़ की तरह हो गयी।  हर चीज़ बहरी हवा-पानी  से महरूम, उसी तरह काठ के किवाड़ों  में बंद।      [ जारी ]                               

Friday, April 15, 2016

सेज गगन में चाँद की [ 5 ]

आखेट महल परकोटे से रोज़ इतनी दूर का पैदल आना-जाना आसान काम नहीं था।  लेकिन फिर भी इतनी दूर की जगह जो मालिक ने उन्हें रहने के लिए दी थी, उसमें भी मालिक ने उन लोगों का ही सुभीता देखा था। दरअसल बस्ती से दूर के इस वीराने में एक पुराना छोटा देवरा था, जिस पर दीवारें और छत डलवा कर मालिक रावसाहब ने एक छोटा मंदिर बनवा दिया था। इस मंदिर की देख-रेख और साफ-सफ़ाई का काम धरा के पिता को मिला था। इसीलिये मंदिर के नज़दीक की ये जगह और ये छोटी सी कुटिया उन लोगों की हो गयी थी। बीस बरस पहले किसे पता था कि  शहरों की बस्तियां गाँवों और जंगलों का खून पी-पीकर ऐसी पनपेंगी कि उन्हें निगल ही लेंगी।
यही तो दुनिया का दस्तूर है। बच्चा जन्मते ही कोई नहीं कहता कि ये मर जाये। लेकिन ये सब चाहते हैं कि जल्दी से आँगन में खेले, जल्दी से बड़ा होकर पढ़ने जाये। जल्दी से धंधे -पानी से लगे। जल्दी से दुल्हन लाए। जल्दी से बाल-बच्चों वाला हो। फिर सब कहते हैं कि हम पोते-पड़पोते देखें। अब दादा-नाना बनते-बनते बचपन और जवानी तो टिकने नहीं, बुढ़ापा आएगा ही। फिर सब कहते हैं कि  बुढ़ापे से तो मौत भली !
इस तरह निकल जाते हैं बरसों-बरस। और इसीलिए शहर की इस बस्ती ने खेड़े को खाने में ले लिए बीस बरस। बाद में धरा का बाप जब जी-तोड़ मेहनत करके चार पैसे कमा लाया तो ऊपर की ये दो कोठरियां और पक्का चौबारा बने।
धरा हुई। बिटिया को पलकों पे रखता था हरदम। इसीलिए तो कुछ सुन नहीं सका।जब नज़दीक के घर की एक बुढ़िया ने चार आदमियों के सामने कह दिया कि मालिक ने मंदिर और कुटिया धरा के बाप को नहीं बल्कि धरा की माँ को दिया है, तो हत्थे से ही उखड़  गया, बिफ़र पड़ा एकदम।
जाकर बुढ़िया का गला ही दबोच डाला। वो तो कहो, बुढ़िया जान से नहीं गयी, केवल बेहोश होकर ही रह गयी वर्ना कौन कहता उस दिन से धरा की माँ को भक्तन? सब हत्यारे की जोरू ही कहते।
सब 'भक्तन' इसीलिये तो कहते थे कि धरा का बाप तो जाता था परकोटे पर काम करने और धरा की माँ संभालती थी मंदिर का कामकाज। साफ-सफाई, सज-संवर, पूजा-अर्चना भक्तन के जिम्मे रहती।  छोटी सी धरा भी जब-तब माँ का हाथ बंटाने मंदिर में साथ जाती।
सवेरे चार बजे उठ कर पास के कुंए पर नहाना-धोना करना और फिर मंदिर की सीढ़ियों पर माथा टेक कर झाड़ -बुहार में जुट जाना। सुबह सवेरे नहा-धोकर जब इक्का-दुक्का लोग मंदिर में आना शुरू होते, तब तक धरा की माँ सारा काम निपटा कर वापस घर का रुख कर चुकी होती। दिन निकलते-निकलते धरा का बाप भी कुंए  पर नहा-निपट कर कलेवा करने आ बैठता और बस, शुरू हो जाता दिन।
लेकिन जिस दिन से पड़ौस  की बुढ़िया ने वह बात कही,धरा के बापू को न जाने क्या हो गया।
[ जारी ]                             

सेज गगन में चाँद की [ 4 ]

धरा खिलखिला कर हंस पड़ी।  लड़के ने बेहद संकोच से चोली धरा को पकड़ाई। धरा को ये देखना सुहा रहा था  कि ज़मीन केवल उसकी ही डाँवाडोल नहीं हो रही है।
-"तुम क्या लाते हो?" धरा ने पूछा।
-"मैं ?  .... मैं क्या लाऊँगा ....मैं तो लेने आता हूँ।" लड़के ने मुंडेर पर रखे अपने हाथ का इशारा नीचे पड़े अपने बोरे की ओर किया और बोला -"बेकार का सामान, टूटी-फूटी चीज़ें,पुराने जूते,कपड़े, कबाड़   ..."
अब न तो लड़के को समझ में आया कि और किस बहाने छत पर खड़ा रहे, न धरा ही समझ पाई कि कैसे उसे रोके? लड़का पलटा, और धीमी चाल से सीढ़ियाँ उतरने लगा।
भक्तन माँ ने चाय की टेर लगाई तो धरा जैसे नींद से जागी।
अम्मा को चाय देने के बाद धरा में अजब सी फुर्ती दिखाई दी। अम्मा भी आश्चर्य से देखने लगी, क्यों लड़की कमर में फेंटा बांध कर मुस्तैद हो रही है।  जब चाय पीकर अम्मा ने खाली गिलास ज़मीन पर रखा तो उनकी बूढ़ी आँखों की जिज्ञासा भी खाली हो चुकी थी।
धरा ने पल्ला कमर में खोंस कर हाथ में झाड़ू उठा ली थी और धीरे से ये कहती हुई नीचे सीढ़ियां उतर गयी कि नीचे वाली कोठरी की सफाई करेगी।
-"अरी ये आज इतने दिनों बाद ... वो भी तीसरे पहर को तुझे क्या सूझी? कल सुबह कर लेना।" अम्मा कहती ही रह गईं, धरा नीचे जा चुकी थी।
कोठरी की सफाई, इस ख्याल से ही अम्मा का जी न जाने कैसा-कैसा हो आया। क्या-क्या तो नहीं घूम गया आँखों के सामने।
आज से बीस बरस पहले इस पूरी बस्ती में ये नीचे वाली छोटी सी कोठरी ही तो थी अकेली, जब पहली बार भक्तन माँ यहाँ आई थी।  कैसा शांत वीराना सा पड़ा था चारों ओर। ईंटों से जैसे तैसे खड़ी की गयी एक कुटिया, उसके किनारे फूस -टप्पर की छाँव से बनी छोटी सी रसोई,काँटों की बाढ़  लगा घास-पात से घिरा चौबारा और बस ! और ?
और वो, .... धरा का बाप !
भरे बदन का हंसमुख, मेहनती, ईमानदार आदमी।
यहाँ से चार मील की दूरी पर था आखेटमहल का परकोटा, जहाँ काम पर लगा था वह। ये जगह उसे मालिकों की ओर से ही रहने को दी गयी थी। धरा के बाप के मन में ये जोत जलती रहती थी कि एक दिन इस जगह का दाम चुका कर इसका मालिकाना हक़ पाएंगे। हालाँकि मालिक ने कभी इस बात का इशारा तक न किया था कि  ये जगह उनकी नहीं, बल्कि मालिक की है। पर एक दिन धरा के बाप को ये मिल्कियत पराई लगने लगी।
[ जारी ]                        

सेज गगन में चाँद की [ 3 ]

गलियों में फेरी लगाता वह लड़का अक्सर आता। धरा की समझ में ये नहीं आता था कि ये लड़का उसका कौन है जो उसकी कच्चे दूध की सी छलकती आवाज़ कानों में पड़ते ही वह अपना सब काम-धाम छोड़ कर मुंडेर के पास दौड़ी चली आती है। ऊपर से नीचे झांकती और उसे गली में जाते हुए देखती रहती, तब तक, जब तक वो आँखों से ओझल न हो जाये। लेकिन एक अंजान पराये लड़के को वह कैसे, और क्योंकर रोके, यह समझ न पाती। एक ऐसा जवान लड़का, जिसकी आवाज़ उसके कानों में मंदिर के घंटे की तरह बजती है, जिसका  गली में से होकर गुज़रना उसकी आँखों को ताज़े पानी की लहर-सा धोता है, वह कौन है, कहाँ रहता है,क्या करता है, ये सब जानने और उससे बात करने को धरा बेचैन हो उठी।
फिर एक दिन धरा का भी अम्मा की तरह उपवास हो गया।  उपवास रोटी का नहीं, बल्कि उस लड़के को न देख पाने का। आज वह नहीं आया। सोलह साल की धरा के कान गली में उस लड़के की आवाज़ की आहट सुनने को तरसते ही रह गए। आज जैसे दोपहरी ही नहीं हुई।
जैसे किसी पोखर के किनारे कोई शरारती बच्चा शंख और सीपियाँ बीनने के लिए खोजी आँखों से घूमता है, धरा भी कच्चे दूध सी उस आवाज़ की आहटों को ऐसे ही बीनने को तरसती रह गयी। लेकिन वह नहीं आया।
और तब धरा ने जाना कि उसके आने के क्या मानी  हैं, उसी दिन धरा को ये भी पता चला कि उसके न आने के क्या मानी हैं।
अगला दिन और मज़बूत हुआ। जब रोज़ की भांति लड़के के आने का समय हुआ तो  धरा सारे काम आधे-अधूरे मन से करती मुंडेर पर नज़र जमाए रही। उसकी आवाज़ की गंध हवा में उड़ कर धरा के कानों पर किसी अदृश्य काग सी बैठ गयी थी।
न जाने कैसी शरारत सूझी धरा को कि मुंडेर पर सुबह धोकर डाली अपनी चोली हौले से उसने छत से नीचे ठेल दी। सब ऐसे हुआ जैसे किसी पिटारी वाले का खेल हो।
वह आया और उसने धरा की आँखों में अपने कल न आने का नक्शा छपा देखा।  फिर देखी उसने सामने मिट्टी में गिरी चोली। फिर उसने नज़र घुमा कर आजू-बाजू के बंद किवाड़ देखे।  फिर कंधे से उतार कर अपना बोरा एक ओर भीत से टिकाया। और संकरे दरवाजे से सीढ़ियां चढ़ कर छत पर आया।  हाथ में थी चोली।
धरा को मानो छत डोलती सी लगी। दम साध कर उधर देखा।
-"ये ...ये तुम्हारी चोली।"  उसने हाथ बढ़ा कर कहा। [ जारी ]                   
   

Thursday, April 14, 2016

सेज गगन में चाँद की [ 2 ]

खाना खाकर धरा ने छोटी वाली छत पर चटाई बिछाई और सुई-धागा खोजती हुई आले में झांक ही रही थी कि नीचे से फिर वही आवाज़ सुनाई दी। आज न जाने उसे क्या हुआ , दौड़ती हुई मुंडेर से लग कर नीचे झाँकने लगी।
वही था।  कंधे पर बड़ा सा खाली बोरा डाले ऊपर ही देख रहा था। धरा से आँखें चार होते ही झेंप गया।धरा ने भी इधर-उधर देखा, फिर मुंडेर पर ही सट कर खड़ी हो गयी। एक-दो पल उसने भी उधर देखा, फिर मायूसी और धीमी रफ़्तार से जाने के लिए आगे बढ़ने लगा। धरा को न जाने क्या सूझी, उसे पीछे से आवाज़ दे डाली।
-"ऐ  ... सुनो !"
पलट कर पीछे देखते-देखते उसकी आँखें किसी अविश्वास से फडफ़ड़ाईं , और अगले ही क्षण उसके कदम किसी मज़बूत विश्वास से थम गए। त्यौरियां ऊपर को किये हुए ही उसने ऊपर छत पर देखा।
अब धरा चुप ! क्या बोले?
लड़का भी जादू-जड़ा सा उसे देखे जाये। देखे जाये।
कोई जवाब न पाकर लड़का खड़ा-खड़ा भीत निहारता रहा फिर निचुड़े से मन से आगे बढ़ लिया।
अम्मा की चोली की उधड़ी सिलाई गौंठती धरा के हाथ में सुई जैसे थिरकने-सी लगी।  उसके कलेजे से चिपक सी गयी आवाज़ भी दूर-दूर होती गली में बिला गयी। धरा का आपा लौटा।
उसे बेचारी अपनी माँ पर भी तरस सा आने लगा- दो रोटी पेट में जाती तो खून के दो कतरे बनते न बनते, जितना खून पश्चात्ताप में ठाकुरजी के आगे बड़बड़ाते-घिघियाते फुंक गया बुढ़िया का। अच्छा उपवास रखा।
धरा ये सोच के उठी कि नुक्क्ड़ से अम्मा के लिए कोई फल-फूल ही लादे।  भूखी काया, पहाड़ सा दिन, बुढ़ापे का शरीर।
आले से बीस रूपये का नोट उठा कर धरा ने चप्पल पहनीं और धड़धड़ाती हुई सीढ़ियाँ उतर गयी।
चौराहे से केले लेकर पलटी ही थी कि सामने विधाता जैसे उसका नसीब लिए खड़ा था।
वही लड़का। सत्रह-अठारह की उम्र, साँवला रंग,माथे पर चमकते छितराते काले बाल। जैसी कच्ची सी खिली-खिली उसकी आवाज़ आती थी, वैसा ही गंदुमी उजास उसके मुंह पर भी छलका दिखा। लड़का मिलिट्री रंग की सीने से खुले बटन की कमीज में झुका हुआ माचिस से बीड़ी सुलगा रहा था। उसके बाल माथे पर इतना नीचे को झुक आये थे, कि उसने समीप से गुज़रती धरा को भी एकाएक नहीं देखा। धरा ने भी बीच-बाजार ठिठक कर रुकने का कोई जोखिम नहीं लिया, और जल्दी-जल्दी डग बढ़ाती चौबारे की ओर लौटने लगी। लड़के का चेहरा  मानस पर कहीं छप गया धरा के।  [ जारी ]                         

सेज गगन में चाँद की [ 1 ]

"धरा ... ओ धरा... बेटी धरा...."  माँ ने गले की तलहटी से जैसे पूरा ज़ोर लगा कर बेटी को आवाज़ लगाई।
सपाट सा चेहरा लिए धरा सामने आ खड़ी हुई।
बेटी के चेहरे पर अबूझा डोल देख कर बुढ़िया मानो फिर टिटियाई- "रोटी.... रोटी की कह रही थी मैं।
धरा मानो कुछ समझी ही नहीं, वह अपनी माँ को उसी तरह घूरती हुई जस की तस खड़ी रही।  उसकी माँ को सभी भक्तन माँ कहते थे।  सभी से सुन-सुन कर कभी-कभी वह भी भक्तन माँ ही बोल बैठती थी।
भक्तन ने अबकी बार अपने सुर में थोड़ी रिरियाहट घोली , बोली- " क्या बात है धरा ? ... ऐसे क्या देख रही है ...रोटी नहीं बनी क्या अभी? तेरी तबियत तो ठीक है? ये शक्ल कैसी बना रखी है तूने ? अबकी बार भक्तन माँ ने कई सवालों के फंदे से डाल दिए।  धरा को सपाट से चेहरे से सामने खड़ी देख कर माँ कुछ समझ नहीं पाई थी, इसी से एहतियातन सभी तरह के सुर पिरो कर अपनी टेर उसके गले में किसी ताबीज़ की तरह टाँगने  की कोशिश की माँ ने।
अबकी बार उबलते दूध की तरह धरा का बोल फूटा, झल्ला कर बोली-" कमाल करती हो अम्मा,सुबह तुमने खुद नहीं कहा था कि आज उपवास धरोगी। खाना नहीं खाओगी। सुबह तो चाय का गिलास भी नज़रों से ही सिराए दे रही थीं , अब रोटी-रोटी की रट लगा रही हो।
धरा की इस अप्रत्याशित शब्द-बौछार से भक्तन माँ के झुर्रीदार चेहरे पर खिसियाहट चिपक गयी। उनकी मिची सी आँखें ऐसी लजाईं, ऐसी लजाईं कि क्या सीता माता की लजाई होंगी धरती फटने की गुहार लगाते वक़्त।
-"हाय मेरा सत्यानाश हो,मेरे पेट में पत्थर पड़ें ..." और न जाने क्या-क्या कहती भक्तन, कि  पैर पटकती धरा भीतर चली गयी। जाते-जाते धरा ने चुनरी की कोर को होठों में भींच कर अपनी हंसी जो सिकोड़ी, बुढ़िया की मोतियाबिंद वाली आँख में भी छौंक सा लग गया।  धरा तो चली गयी पर भक्तन का बड़बड़ाना जारी रहा।
एकाएक ज़मीन पर हाथ टेक कर लंगड़ाती सी भक्तन उठी और ठाकुरजी के आले के करीब जाकर वहां रखी मूर्ति को शीश नवाया फिर मोरी पर जाकर पानी की टंकी से हाथ में जल ले-लेकर कुल्ले करने लगी। वहां से पलटी तो देखा- धरा रसोई के सामने बैठ थाली से पहला कौर लेकर मुंह में डाल चुकी थी।शायद गट्टे में मिर्च ज्यादा हो गयी थी, पहले ही कौर का धसका लगा और धरा खांसने लगी। फिर थाली छोड़ लपक कर पानी का लोटा लेने दौड़ी।
बुढ़िया तेज़ चाल से चलती आले के ठाकुर के सामने खुद को ठेल ले गयी और अगरबत्ती की राख को अँगुलियों से समेट -समेट  कर अगरबत्ती-दान साफ़  करने लगी।  ऐसी भयभीत सी हाथ चला रही थी मानो एक दिन में दूसरी बार चोरी करते हुए रंगे हाथों पकड़ ली गयी हो। पहले धरा से रोटी मांग कर, फिर धरा को स्वाद से खाते देखकर ....खाल सी खिंचने लगी भक्तन की।  [ जारी ]                         

Monday, April 11, 2016

सस्ता पड़ता है सितारों का गुच्छा !

फ़िल्में और चाट कोई एक चीज़ नहीं है। ये बात अलग है कि दोनों में समानताएं भी कम नहीं हैं।
एक प्लेट चाट में एक चम्मच नमक और एक चम्मच मिर्च स्वाद का जबरदस्त तड़का लगा देते हैं। ठीक वैसे ही फिल्म में एक हीरो और एक हीरोइन पूरी कहानी को चटपटा बना देते हैं।
लेकिन ठहरिए,कहीं चाट की प्लेट में तीन चम्मच नमक-मिर्च मत डालियेगा, हाँ फिल्म में तीन हीरो या तीन हीरोइनें हो सकते हैं।
इन बहु-सितारा फिल्मों को कहते हैं- मल्टीस्टारर !
मल्टीस्टारर फिल्मों के कई लाभ हैं-
१. आजकल बड़े सितारों के पास व्यस्तता के कारण कई-कई महीनों या सालों तक डेट्स उपलब्ध नहीं होतीं।  ऐसे में यदि फिल्म में कई स्टार्स हैं तो काम रुकता नहीं है और शूटिंग चलती रहती है।
२. यदि किसी वजह से फिल्म नहीं चली तो विफलता का ठीकरा फोड़ने के लिए आपको कई सिर मिल जाते हैं। ३.आजकल अधिकांश सितारों के पार्ट टाइम रोज़गार भी होते हैं, जिनमें फिल्म निर्माण से जुड़ी सुविधाएँ भी होती हैं। जितने सितारे आपके साथ, उतनी ही रियायती सुविधाएँ भी।
४. भीड़भाड़ वाली स्टार कास्ट में सितारे मेहनताना भी अपेक्षाकृत कम लेते हैं।
हाँ,ज़्यादा सितारों के होने के सिर्फ लाभ ही नहीं हैं, नुकसान भी हैं। लेकिन घाटे की बात हम क्यों करें?
महत्वपूर्ण ये है कि आप फिल्म में बहुत से स्टार्स ले रहे हैं, या जिन्हें आपने लिया था, वे अब स्टार बन गए।
"मदर इंडिया" के समय नरगिस, राजकुमार,सुनील दत्त, राजेंद्र कुमार सितारे नहीं थे, बल्कि वे फिल्म की रिलीज़ के साथ ही सितारे बने। "वक़्त" के समय राजकुमार और सुनीलदत्त 'मदर इंडिया' से, साधना 'मेरे मेहबूब' से, 'शर्मिला टैगोर' कश्मीर की कली से, और शशि कपूर 'जब-जब फूल खिले'आरम्भ हो जाने के साथ स्टार का दर्ज़ा पा चुके थे।  "कभी ख़ुशी कभी ग़म" या "शोले" ऐतिहासिक मल्टीस्टारर रही हैं।                   

Sunday, April 10, 2016

बॉलीवुड की हांडी और बड़े साहित्यकारों की दाल

एक तरफ फिल्मकार कहते हैं कि अच्छी कहानियां नहीं मिलतीं, दूसरी तरफ एक से एक उम्दा साहित्यकार हैं जो बेहतरीन कथानकों के अम्बार लगा कर इनाम-इकराम-तमगे-दुशाले सहेजते नहीं थक रहे हैं।
इसकी वजह बहुत साधारण है। बड़ा लेखक अपने हर लफ्ज़ के पार्श्व में संतरी की तरह खड़ा होता है,जहाँ कुछ ऊँच-नीच देखी कि तुलसीदास को परशुराम बनते देर नहीं लगती।
दूसरी तरफ फ़िल्मी कहानियां कई दिमागों [ बेदिमागों भी] की समवेत मिक्स्ड फ्रूटचाट हैं। उन में किसी का जीवट लगा है, किसी का पैसा, किसी का बदन तो किसी का मानस। वहां कोई एक थाप पर थिरकने का जोखिम नहीं ले सकता।
मेरा एक युवा मित्र कहानीकार कुछ दिन पहले मेरे पास आया। वह फिल्मों में लिखता है। उसका नाम आपको नहीं बताऊँगा क्योंकि वह कहानियाँ बेचता  भी है,और मैं उसके व्यवसाय पर बर्फ नहीं फेकूँगा। जब मैं मुंबई में रहता था, वह अपने संघर्ष के दिनों में कई-कई दिन मेरे पास आकर रहा करता था।
जब वह आया, मेरी मेज पर मेरी एक अधूरी कहानी के हाथ से लिखे कुछ पेज पड़े थे।  दो दिन बाद जाते समय वह बोला -"भाई, इनमें से एक पेज ले जा रहा हूँ।"
वह पूछता नहीं, बताता है। मेरी कहानी किसी परकटे परिंदे सी पड़ी रह गयी।
आपको बताऊँ, कहानी में एक माँ थी जो अपनी छोटी सी दो जुड़वाँ बच्चियों को घर के लॉन में शाम के वक़्त फुटबॉल खिलाने ले जा रही थी। एक बच्ची जल्दी-जल्दी लम्बी जुराबें पैर में पहन रही थी, दूसरी अपनी पहनी हुई पैंट के पाँयचे फोल्ड कर रही थी।
माँ ने झुंझला कर पहली से कहा-"बेटी, गर्मी है, नायलॉन के मोज़े क्यों पहन रही हो?"
बेटी बोली- "माँ , आप कहती हैं खेल से पसीना आना चाहिए, इससे पैर में और भी पसीना आएगा।"
तभी माँ दूसरी बेटी से कहती है-"लॉन में मच्छर हैं, पैंट फोल्ड मत करो, काटेंगे।"
बेटी बोली-"इसीलिये तो फोल्ड कर रही हूँ, वर्ना जब काटेंगे तो खुजाऊंगी कैसे?"
जाते समय मेरा दोस्त बोला-"दो हीरोइनों की कहानी है, उनका बचपन का रोल भी लिखना है, इस दृश्य से दर्शक समझ जायेंगे कि बड़ी होकर कौन दीपिका पादुकोण बनने वाली है और कौन आलिया भट्ट।"
                         

Saturday, April 9, 2016

ये संवेदनशील मामला है

यह बात समय-समय पर अलग-अलग ढंग से उठती रही है कि एक ओर हम पेड़ों की अहमियत और उन्हें हर कीमत पर बचाने की बात करते हैं, दूसरी ओर दुनिया से कूच कर रहे इंसान के शव को कटे पेड़ों के आसन पर बैठा कर ही विदा करना चाहते हैं। हम विचार करें कि क्या हम अग्नि के और कई अधुनातन तरीकों पर विश्वास नहीं करते?
हम जानते हैं कि एक साधारण पेड़ औसतन बड़ा होने में तीन से पांच वर्ष का समय लेता है। वही पेड़ कट कर, सूख कर जब आग के हवाले होता है तो भस्म होने में तीन घंटे का ही समय लेता है। आबादी में दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश इस रफ़्तार से अपनी हरियाली कब तक सहेज पाएगा?
यदि हम इसे श्रद्धा,परम्परा,धर्म का मामला मान कर इस परम्परा पर कायम रहना चाहते हैं तो यह नज़रिया और भी कई बातों में दिखना चाहिए, हम दीवाली के उजास को घी भरे मिट्टी के दीपकों से निकाल कर चकाचौंध बिजली की झालरों पर क्यों ले जाएँ? राम के लौटने पर हुई ढोल-ताशों की गड़गड़ाहट को बारूदी विस्फोटक आवाज़ों में क्यों तब्दील कर दें?  
आपका मन कह रहा है न, कि घी के दिए कैसे जलाएं, अब घी है ही नहीं, तो फिर भविष्य में पेड़ों के लिए भी यही कहने का मानस बनाइये।        

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...