एक तरफ फिल्मकार कहते हैं कि अच्छी कहानियां नहीं मिलतीं, दूसरी तरफ एक से एक उम्दा साहित्यकार हैं जो बेहतरीन कथानकों के अम्बार लगा कर इनाम-इकराम-तमगे-दुशाले सहेजते नहीं थक रहे हैं।
इसकी वजह बहुत साधारण है। बड़ा लेखक अपने हर लफ्ज़ के पार्श्व में संतरी की तरह खड़ा होता है,जहाँ कुछ ऊँच-नीच देखी कि तुलसीदास को परशुराम बनते देर नहीं लगती।
दूसरी तरफ फ़िल्मी कहानियां कई दिमागों [ बेदिमागों भी] की समवेत मिक्स्ड फ्रूटचाट हैं। उन में किसी का जीवट लगा है, किसी का पैसा, किसी का बदन तो किसी का मानस। वहां कोई एक थाप पर थिरकने का जोखिम नहीं ले सकता।
मेरा एक युवा मित्र कहानीकार कुछ दिन पहले मेरे पास आया। वह फिल्मों में लिखता है। उसका नाम आपको नहीं बताऊँगा क्योंकि वह कहानियाँ बेचता भी है,और मैं उसके व्यवसाय पर बर्फ नहीं फेकूँगा। जब मैं मुंबई में रहता था, वह अपने संघर्ष के दिनों में कई-कई दिन मेरे पास आकर रहा करता था।
जब वह आया, मेरी मेज पर मेरी एक अधूरी कहानी के हाथ से लिखे कुछ पेज पड़े थे। दो दिन बाद जाते समय वह बोला -"भाई, इनमें से एक पेज ले जा रहा हूँ।"
वह पूछता नहीं, बताता है। मेरी कहानी किसी परकटे परिंदे सी पड़ी रह गयी।
आपको बताऊँ, कहानी में एक माँ थी जो अपनी छोटी सी दो जुड़वाँ बच्चियों को घर के लॉन में शाम के वक़्त फुटबॉल खिलाने ले जा रही थी। एक बच्ची जल्दी-जल्दी लम्बी जुराबें पैर में पहन रही थी, दूसरी अपनी पहनी हुई पैंट के पाँयचे फोल्ड कर रही थी।
माँ ने झुंझला कर पहली से कहा-"बेटी, गर्मी है, नायलॉन के मोज़े क्यों पहन रही हो?"
बेटी बोली- "माँ , आप कहती हैं खेल से पसीना आना चाहिए, इससे पैर में और भी पसीना आएगा।"
तभी माँ दूसरी बेटी से कहती है-"लॉन में मच्छर हैं, पैंट फोल्ड मत करो, काटेंगे।"
बेटी बोली-"इसीलिये तो फोल्ड कर रही हूँ, वर्ना जब काटेंगे तो खुजाऊंगी कैसे?"
जाते समय मेरा दोस्त बोला-"दो हीरोइनों की कहानी है, उनका बचपन का रोल भी लिखना है, इस दृश्य से दर्शक समझ जायेंगे कि बड़ी होकर कौन दीपिका पादुकोण बनने वाली है और कौन आलिया भट्ट।"
इसकी वजह बहुत साधारण है। बड़ा लेखक अपने हर लफ्ज़ के पार्श्व में संतरी की तरह खड़ा होता है,जहाँ कुछ ऊँच-नीच देखी कि तुलसीदास को परशुराम बनते देर नहीं लगती।
दूसरी तरफ फ़िल्मी कहानियां कई दिमागों [ बेदिमागों भी] की समवेत मिक्स्ड फ्रूटचाट हैं। उन में किसी का जीवट लगा है, किसी का पैसा, किसी का बदन तो किसी का मानस। वहां कोई एक थाप पर थिरकने का जोखिम नहीं ले सकता।
मेरा एक युवा मित्र कहानीकार कुछ दिन पहले मेरे पास आया। वह फिल्मों में लिखता है। उसका नाम आपको नहीं बताऊँगा क्योंकि वह कहानियाँ बेचता भी है,और मैं उसके व्यवसाय पर बर्फ नहीं फेकूँगा। जब मैं मुंबई में रहता था, वह अपने संघर्ष के दिनों में कई-कई दिन मेरे पास आकर रहा करता था।
जब वह आया, मेरी मेज पर मेरी एक अधूरी कहानी के हाथ से लिखे कुछ पेज पड़े थे। दो दिन बाद जाते समय वह बोला -"भाई, इनमें से एक पेज ले जा रहा हूँ।"
वह पूछता नहीं, बताता है। मेरी कहानी किसी परकटे परिंदे सी पड़ी रह गयी।
आपको बताऊँ, कहानी में एक माँ थी जो अपनी छोटी सी दो जुड़वाँ बच्चियों को घर के लॉन में शाम के वक़्त फुटबॉल खिलाने ले जा रही थी। एक बच्ची जल्दी-जल्दी लम्बी जुराबें पैर में पहन रही थी, दूसरी अपनी पहनी हुई पैंट के पाँयचे फोल्ड कर रही थी।
माँ ने झुंझला कर पहली से कहा-"बेटी, गर्मी है, नायलॉन के मोज़े क्यों पहन रही हो?"
बेटी बोली- "माँ , आप कहती हैं खेल से पसीना आना चाहिए, इससे पैर में और भी पसीना आएगा।"
तभी माँ दूसरी बेटी से कहती है-"लॉन में मच्छर हैं, पैंट फोल्ड मत करो, काटेंगे।"
बेटी बोली-"इसीलिये तो फोल्ड कर रही हूँ, वर्ना जब काटेंगे तो खुजाऊंगी कैसे?"
जाते समय मेरा दोस्त बोला-"दो हीरोइनों की कहानी है, उनका बचपन का रोल भी लिखना है, इस दृश्य से दर्शक समझ जायेंगे कि बड़ी होकर कौन दीपिका पादुकोण बनने वाली है और कौन आलिया भट्ट।"
Aapka aabhaar.
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