"धरा ... ओ धरा... बेटी धरा...." माँ ने गले की तलहटी से जैसे पूरा ज़ोर लगा कर बेटी को आवाज़ लगाई।
सपाट सा चेहरा लिए धरा सामने आ खड़ी हुई।
बेटी के चेहरे पर अबूझा डोल देख कर बुढ़िया मानो फिर टिटियाई- "रोटी.... रोटी की कह रही थी मैं।
धरा मानो कुछ समझी ही नहीं, वह अपनी माँ को उसी तरह घूरती हुई जस की तस खड़ी रही। उसकी माँ को सभी भक्तन माँ कहते थे। सभी से सुन-सुन कर कभी-कभी वह भी भक्तन माँ ही बोल बैठती थी।
भक्तन ने अबकी बार अपने सुर में थोड़ी रिरियाहट घोली , बोली- " क्या बात है धरा ? ... ऐसे क्या देख रही है ...रोटी नहीं बनी क्या अभी? तेरी तबियत तो ठीक है? ये शक्ल कैसी बना रखी है तूने ? अबकी बार भक्तन माँ ने कई सवालों के फंदे से डाल दिए। धरा को सपाट से चेहरे से सामने खड़ी देख कर माँ कुछ समझ नहीं पाई थी, इसी से एहतियातन सभी तरह के सुर पिरो कर अपनी टेर उसके गले में किसी ताबीज़ की तरह टाँगने की कोशिश की माँ ने।
अबकी बार उबलते दूध की तरह धरा का बोल फूटा, झल्ला कर बोली-" कमाल करती हो अम्मा,सुबह तुमने खुद नहीं कहा था कि आज उपवास धरोगी। खाना नहीं खाओगी। सुबह तो चाय का गिलास भी नज़रों से ही सिराए दे रही थीं , अब रोटी-रोटी की रट लगा रही हो।
धरा की इस अप्रत्याशित शब्द-बौछार से भक्तन माँ के झुर्रीदार चेहरे पर खिसियाहट चिपक गयी। उनकी मिची सी आँखें ऐसी लजाईं, ऐसी लजाईं कि क्या सीता माता की लजाई होंगी धरती फटने की गुहार लगाते वक़्त।
-"हाय मेरा सत्यानाश हो,मेरे पेट में पत्थर पड़ें ..." और न जाने क्या-क्या कहती भक्तन, कि पैर पटकती धरा भीतर चली गयी। जाते-जाते धरा ने चुनरी की कोर को होठों में भींच कर अपनी हंसी जो सिकोड़ी, बुढ़िया की मोतियाबिंद वाली आँख में भी छौंक सा लग गया। धरा तो चली गयी पर भक्तन का बड़बड़ाना जारी रहा।
एकाएक ज़मीन पर हाथ टेक कर लंगड़ाती सी भक्तन उठी और ठाकुरजी के आले के करीब जाकर वहां रखी मूर्ति को शीश नवाया फिर मोरी पर जाकर पानी की टंकी से हाथ में जल ले-लेकर कुल्ले करने लगी। वहां से पलटी तो देखा- धरा रसोई के सामने बैठ थाली से पहला कौर लेकर मुंह में डाल चुकी थी।शायद गट्टे में मिर्च ज्यादा हो गयी थी, पहले ही कौर का धसका लगा और धरा खांसने लगी। फिर थाली छोड़ लपक कर पानी का लोटा लेने दौड़ी।
बुढ़िया तेज़ चाल से चलती आले के ठाकुर के सामने खुद को ठेल ले गयी और अगरबत्ती की राख को अँगुलियों से समेट -समेट कर अगरबत्ती-दान साफ़ करने लगी। ऐसी भयभीत सी हाथ चला रही थी मानो एक दिन में दूसरी बार चोरी करते हुए रंगे हाथों पकड़ ली गयी हो। पहले धरा से रोटी मांग कर, फिर धरा को स्वाद से खाते देखकर ....खाल सी खिंचने लगी भक्तन की। [ जारी ]
सपाट सा चेहरा लिए धरा सामने आ खड़ी हुई।
बेटी के चेहरे पर अबूझा डोल देख कर बुढ़िया मानो फिर टिटियाई- "रोटी.... रोटी की कह रही थी मैं।
धरा मानो कुछ समझी ही नहीं, वह अपनी माँ को उसी तरह घूरती हुई जस की तस खड़ी रही। उसकी माँ को सभी भक्तन माँ कहते थे। सभी से सुन-सुन कर कभी-कभी वह भी भक्तन माँ ही बोल बैठती थी।
भक्तन ने अबकी बार अपने सुर में थोड़ी रिरियाहट घोली , बोली- " क्या बात है धरा ? ... ऐसे क्या देख रही है ...रोटी नहीं बनी क्या अभी? तेरी तबियत तो ठीक है? ये शक्ल कैसी बना रखी है तूने ? अबकी बार भक्तन माँ ने कई सवालों के फंदे से डाल दिए। धरा को सपाट से चेहरे से सामने खड़ी देख कर माँ कुछ समझ नहीं पाई थी, इसी से एहतियातन सभी तरह के सुर पिरो कर अपनी टेर उसके गले में किसी ताबीज़ की तरह टाँगने की कोशिश की माँ ने।
अबकी बार उबलते दूध की तरह धरा का बोल फूटा, झल्ला कर बोली-" कमाल करती हो अम्मा,सुबह तुमने खुद नहीं कहा था कि आज उपवास धरोगी। खाना नहीं खाओगी। सुबह तो चाय का गिलास भी नज़रों से ही सिराए दे रही थीं , अब रोटी-रोटी की रट लगा रही हो।
धरा की इस अप्रत्याशित शब्द-बौछार से भक्तन माँ के झुर्रीदार चेहरे पर खिसियाहट चिपक गयी। उनकी मिची सी आँखें ऐसी लजाईं, ऐसी लजाईं कि क्या सीता माता की लजाई होंगी धरती फटने की गुहार लगाते वक़्त।
-"हाय मेरा सत्यानाश हो,मेरे पेट में पत्थर पड़ें ..." और न जाने क्या-क्या कहती भक्तन, कि पैर पटकती धरा भीतर चली गयी। जाते-जाते धरा ने चुनरी की कोर को होठों में भींच कर अपनी हंसी जो सिकोड़ी, बुढ़िया की मोतियाबिंद वाली आँख में भी छौंक सा लग गया। धरा तो चली गयी पर भक्तन का बड़बड़ाना जारी रहा।
एकाएक ज़मीन पर हाथ टेक कर लंगड़ाती सी भक्तन उठी और ठाकुरजी के आले के करीब जाकर वहां रखी मूर्ति को शीश नवाया फिर मोरी पर जाकर पानी की टंकी से हाथ में जल ले-लेकर कुल्ले करने लगी। वहां से पलटी तो देखा- धरा रसोई के सामने बैठ थाली से पहला कौर लेकर मुंह में डाल चुकी थी।शायद गट्टे में मिर्च ज्यादा हो गयी थी, पहले ही कौर का धसका लगा और धरा खांसने लगी। फिर थाली छोड़ लपक कर पानी का लोटा लेने दौड़ी।
बुढ़िया तेज़ चाल से चलती आले के ठाकुर के सामने खुद को ठेल ले गयी और अगरबत्ती की राख को अँगुलियों से समेट -समेट कर अगरबत्ती-दान साफ़ करने लगी। ऐसी भयभीत सी हाथ चला रही थी मानो एक दिन में दूसरी बार चोरी करते हुए रंगे हाथों पकड़ ली गयी हो। पहले धरा से रोटी मांग कर, फिर धरा को स्वाद से खाते देखकर ....खाल सी खिंचने लगी भक्तन की। [ जारी ]
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