धरा ने कुछ न कहा, पर तसल्ली भक्तन माँ को भी नहीं हुई। फिर भी इस बात पर से ध्यान हटा कर भक्तन अपनी संध्या-पूजा की तैयारियों में जुट गयी। एक लोटे में पानी लेकर वह पूजा के बर्तन धोने मोरी पर आ बैठी।
आज केवल यही एक बात नहीं थी कि धरा ने पिछले दस बरस से बंद कोठरी खोल दी थी। बल्कि धरा में और भी बदलाव दिख रहे थे माँ को।
इतने बरस बाद बिछड़े बाप की कोठरी बुहारने-झाड़ने में लाड़ली बिटिया थोड़ा बहुत तो दुःख-गम से बेज़ार होती, पर यहाँ तो बात ठीक इसके उलट थी। धरा उसे और दिनों के मुकाबले कहीं ज़्यादा प्रसन्नचित्त और हलकी-फुलकी दिखाई दे रही थी। ग़म -कष्ट का कहीं कोई चिन्ह नहीं दिखाई दे रहा था। इतनी मेहनत करके भी उसकी स्फूर्ति बाकी थी। चेहरा भी तरोताज़ा दिख रहा था।
चलो, कुछ भी हो, आखिर धरा उसकी बेटी ही थी, कोई गैर तो नहीं, किसी भी बहाने से खुश थी, यही क्या कम था। भक्तन को एक अजीब सी ख़ुशी का स्वाद आया और इस स्वाद में वो अपनी सारी उधेड़-बुन बिसरा कर संध्या-पूजा के लिए बैठ गयी।
अगली सुबह तक तो भक्तन-माँ सारे प्रकरण को ही भूल-बिसरा कर बैठ जाती पर ये क्या, दोपहर होते न होते उसे धरा में और भी अप्रत्याशित परिवर्तन दिखाई देने लगे।
धरा ने मुद्द्त बाद चोटी-कंघी भी बेहद इत्मीनान से की। उसकी सज-संवर भी आज माँ को पचने वाली नहीं थी।
खाने से निबटने के बाद भक्तन लेटने को लेट भले ही गयी, पर उसके मन-पोखर पर कोई संशय कंकरियाँ गिरा -गिरा कर लहरें उठाता ही रहा।
दोपहर हुई। बेहद सुहानी दोपहर। धरा के मन की मुराद सी दोपहर।
वह आया। कच्चे कटहल के दूध सी चिपचिपी जवान आवाज़ के तार-सप्तक गली के छोर से ही उसके कानों में घंटियां बजाने लगे।
और आज बिना किसी चोरी-चकारी के,बिना किसी उधेड़-बुन के, पूरे अधिकार के साथ धरा ने उसे पुकारा।
-"ऐ , सुनो !"
वह बिजली की सी गति से बोरा दीवार से टिका कर सीढ़ियों की ओर लपका। वह ऊपर आता, इसके पहले ही धरा किसी पारंगत नर्तकी सी थिरकती हुई सीढ़ियों से नीचे आने लगी। लड़का असमंजस से देखता हुआ नीचे ही खड़ा रह गया।
-"आओ ज़रा मेरे साथ।" धरा आगे-आगे चलती हुई कोठरी की ओर बढ़ी। पीछे-पीछे लड़का सर झुकाए उसके साथ चल पड़ा। दालान पार करके लड़का कोठरी तक आकर ठिठक गया।
धरा तीर की भांति कोठरी के भीतर दाखिल हो गयी। धरा के इशारे से उत्साहित होकर लड़का भी देहरी पर पैर रख कर भीतर झाँकने लगा।
-"देखो, ये देखो, ये भी ..." धरा ने कौने में रखे हुए फालतू सामान के ढेर को अंगुली से दिखाते हुए कहा।
[जारी ]
आज केवल यही एक बात नहीं थी कि धरा ने पिछले दस बरस से बंद कोठरी खोल दी थी। बल्कि धरा में और भी बदलाव दिख रहे थे माँ को।
इतने बरस बाद बिछड़े बाप की कोठरी बुहारने-झाड़ने में लाड़ली बिटिया थोड़ा बहुत तो दुःख-गम से बेज़ार होती, पर यहाँ तो बात ठीक इसके उलट थी। धरा उसे और दिनों के मुकाबले कहीं ज़्यादा प्रसन्नचित्त और हलकी-फुलकी दिखाई दे रही थी। ग़म -कष्ट का कहीं कोई चिन्ह नहीं दिखाई दे रहा था। इतनी मेहनत करके भी उसकी स्फूर्ति बाकी थी। चेहरा भी तरोताज़ा दिख रहा था।
चलो, कुछ भी हो, आखिर धरा उसकी बेटी ही थी, कोई गैर तो नहीं, किसी भी बहाने से खुश थी, यही क्या कम था। भक्तन को एक अजीब सी ख़ुशी का स्वाद आया और इस स्वाद में वो अपनी सारी उधेड़-बुन बिसरा कर संध्या-पूजा के लिए बैठ गयी।
अगली सुबह तक तो भक्तन-माँ सारे प्रकरण को ही भूल-बिसरा कर बैठ जाती पर ये क्या, दोपहर होते न होते उसे धरा में और भी अप्रत्याशित परिवर्तन दिखाई देने लगे।
धरा ने मुद्द्त बाद चोटी-कंघी भी बेहद इत्मीनान से की। उसकी सज-संवर भी आज माँ को पचने वाली नहीं थी।
खाने से निबटने के बाद भक्तन लेटने को लेट भले ही गयी, पर उसके मन-पोखर पर कोई संशय कंकरियाँ गिरा -गिरा कर लहरें उठाता ही रहा।
दोपहर हुई। बेहद सुहानी दोपहर। धरा के मन की मुराद सी दोपहर।
वह आया। कच्चे कटहल के दूध सी चिपचिपी जवान आवाज़ के तार-सप्तक गली के छोर से ही उसके कानों में घंटियां बजाने लगे।
और आज बिना किसी चोरी-चकारी के,बिना किसी उधेड़-बुन के, पूरे अधिकार के साथ धरा ने उसे पुकारा।
-"ऐ , सुनो !"
वह बिजली की सी गति से बोरा दीवार से टिका कर सीढ़ियों की ओर लपका। वह ऊपर आता, इसके पहले ही धरा किसी पारंगत नर्तकी सी थिरकती हुई सीढ़ियों से नीचे आने लगी। लड़का असमंजस से देखता हुआ नीचे ही खड़ा रह गया।
-"आओ ज़रा मेरे साथ।" धरा आगे-आगे चलती हुई कोठरी की ओर बढ़ी। पीछे-पीछे लड़का सर झुकाए उसके साथ चल पड़ा। दालान पार करके लड़का कोठरी तक आकर ठिठक गया।
धरा तीर की भांति कोठरी के भीतर दाखिल हो गयी। धरा के इशारे से उत्साहित होकर लड़का भी देहरी पर पैर रख कर भीतर झाँकने लगा।
-"देखो, ये देखो, ये भी ..." धरा ने कौने में रखे हुए फालतू सामान के ढेर को अंगुली से दिखाते हुए कहा।
[जारी ]
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