Wednesday, October 31, 2012

गाँधी हारे

समय बहुआयामी होता है। यह एक ही घड़ी  में दो लोगों से अलग-अलग व्यवहार कर सकता है।
यह किस्सा पिछली सदी की पोटली से है। भारत में पिछली शताब्दी में दो ऐसे पिता हुए थे,जो बहुचर्चित तो थे ही, सार्वजानिक जीवन की हस्तियाँ भी थे। बस, अन्तर केवल इतना था कि  एक का पुत्र उसे पिता कहता घूम रहा था, पर पिता पुत्र को पुत्र कहने में संकोच कर रहा था, दूसरे को सारा देश पिता कह रहा था, पर वह इस संबोधन को सुन पाने के लिए जीवित ही नहीं रहा था।
वैज्ञानिक और प्रशासनिक उपलब्धियों से लबालब नई सदी आई। दोनों पिताओं की समय ने अपने-अपने तरीके से परीक्षा ली। जो पिता अपने पितृत्व को छिपाता फिर रहा था उसे समय ने "पिता" घोषित किया। जिसके पितृत्व पर सारा देश नाज़ करता था, समय ने उसे देश का पिता मानने से इनकार कर दिया।
आरटीआई के तहत एक बालिका के प्रश्न पर गृह मंत्रालय ने यह कीमती जानकारी दी कि  महात्मा गांधी को कभी राष्ट्र-पिता घोषित नहीं किया गया।

अच्छे मार्क्स दिलाएगा 'कम्पलसरी क्वेश्चन' अमेरिका में

अमेरिका ने एक बहुत बड़ा इम्तहान दे दिया। 108 वर्षों के इतिहास में ऐसा जलज़ला पहली बार आया। जिन पञ्च-तत्व से मिल कर इंसान बना है, वही पांच-तत्व इंसान को बर्बाद करने भी चले आये। आग-पानी की दोस्ती इस तरह पहले कभी नहीं देखी गई। ऊपर से मूसलाधार पानी बरस रहा हो और नीचे जगह-जगह आग लग जाए, ऐसा मंज़र पहले कभी नहीं देखा गया। ऐसा केवल रोमांटिक शायरी की दुनिया में सुना गया है, हकीकत में नहीं। पत्रकार भी यदि मौके पर खुद न मौजूद हों, और शीशे के कक्षों में बैठ कर समाचार लिख रहे हों, तो ग़मगीन ख़बरों की ऐसी शैली भी हो सकती है जैसी एक भारतीय पत्रकार ने दिखाई। आप लिखते हैं- तेज़ हवा से सागर तट के पेड़ माइकल जैक्सन की भांति नाच रहे थे, किनारे हेमा मालिनी की तरह नृत्य कर रहे थे। क्रूर और दायित्वहीन पत्रकारिता की ऐसी मिसाल उन कुछ और देशों में भी देखी गई, जिनके लिए अमेरिका केवल ईर्ष्या-महाद्वीप का एक मुल्क रहा है। वे, जो कभी अपनी कमजोरी नहीं देख पाते, उन्हें केवल दूसरे की मजबूती पेट का दर्द देती है। संकट की घड़ी भी उनके लिए उल्लास का कार्निवल हो सकती है।
वहीँ दूसरी तरफ अमेरिका से "राना" के कुछ सदस्यों ने लिखा, कि भारतीय अधिकारियों को  यहाँ आकर देखना चाहिए, और सीखना चाहिए कि  आपदा-प्रबंधन किसे कहते हैं।कागज़ पर कलम के सहारे थिरकने वाले पत्रकार महाशय से ऐसे अधिकारी ज्यादा राष्ट्र-भक्त साबित हुए जो संकट में घिरे देश से भी कुछ सीख लेने की सीख अपनों को दे रहे थे।
यह भयानक तूफ़ान दुनिया के किसी भी कौने में 'आखिरी' तूफ़ान सिद्ध हो। यह जिन पर से गुज़रा उन्हें यह  तन-मन-धन से और सक्षम बना कर जाये - ऐसी शुभकामनाएं !
अमेरिकी प्रशासन के सामने अनिवार्य प्रश्न की तरह उपस्थित हुआ यह प्रश्न उसे आगामी पांच दिनों में आने वाले दूसरे इम्तहान में निश्चय ही अच्छे अंक दिलाएगा ...जब वर्तमान राष्ट्रपति गर्व से कह सकेंगे कि  "हम लाये हैं तूफ़ान से कश्ती निकाल के ..."

Monday, October 29, 2012

ये कहानी है दुआ की और तूफ़ान की

प्रकृति निर्बल के धैर्य की परीक्षा लेती है, और समर्थ की ताकत की। पिछले कुछ समय से नैसर्गिक कहर अमेरिका का रुख किये हुए है। कुछ न कुछ आपदा वहां मंडराती ही रहती है। आज के अखबार और न्यूज़ चैनल्स फिर एक भीषण तूफ़ान की कहानी लिए हुए हैं। वैचारिक उत्तर-आधुनिकता का यह शायद भौतिक स्वरुप है। इस संकट की घड़ी में किसी के हाथ में शुभ-भावनाओं की अभिव्यक्ति के सिवा और कुछ है भी नहीं, लेकिन यदि शुभकामनाओं के अस्तित्व में ज़रा भी सचाई है, तो दुनिया भर के करोड़ों लोगों की भावनाएं इस संकट में फंसे अमेरिकी मित्रों की मन के अंतिम छोर तक से सहायता करेंगी। इस संकट से भी यह महादेश अपने सामर्थ्य को और प्रामाणिक बना कर निकलेगा।
जल्दी ही इस आपदा की भरपाई हो, और अमेरिका अपने राष्ट्रनेता के चयन को नया जामा पहनाये।

Sunday, October 28, 2012

बुरी बात है किसी की आलोचना करना

आलोचना एक शास्त्र है, जिसके द्वारा किसी भी विचार को प्रतिक्रियात्मक संशोधनों के माध्यम से पुष्ट-दुरुस्त करके 'पूर्ण' बनाया जाता है। इसी के द्वारा उसका मूल्याङ्कन भी होता है।
आम तौर पर आलोचना का अर्थ किसी की बुराई से भी लिया जाता है। अपने इस अर्थ में आलोचना अच्छी नहीं मानी जाती। कहा जाता है कि  हम किसी की आलोचना न करके उसे सुझावों के माध्यम से सकारात्मक प्रतिक्रिया दें।
एक बार एक जंगल में कुछ जानवर इकट्ठे हुए तो बातों -बातों में यही चर्चा छिड़ गई कि किसी की निंदा करना अच्छी बात नहीं है। निंदा करने से कोई सुधरता नहीं है, उलटे हमेशा के लिए बिगड़ जाता है। यद्यपि कुछ जानवर यह भी कह रहे थे, कि  गलत बात की निंदा की ही जानी चाहिए, अन्यथा गलत बात को दोहराए जाने की आशंका बढ़ जाती है। अब दो गुट बन गए, बहस शुरू हो गई कि निंदा करना उचित है अथवा अनुचित। काफी देर तक बहस का कोई हल न निकलता देख कर किसी ने कहा- चलो, थोड़ी देर के लिए, इस चर्चा को विराम देते हैं। "इंटरवल" के बाद फिर सोचेंगे कि  क्या करना चाहिए।
सब इधर-उधर खेलने-खाने-तैरने-गाने में लग गए। देखते-देखते वातावरण हंसी-ख़ुशी में बदल गया।
तैरते-तैरते एक मछली अपनी सहेली से बोली- ये बतख इतने पैर फैला-फैला कर तैरती है कि  कभी भी चोट लग जाती है। बतख ने मछली की बात नहीं सुनीं क्योंकि पानी से बात बाहर नहीं जा रही थी। उधर बतख कछुए से कह रही थी कि ये मछली इतना ऊपर-नीचे तैरती है कि  इसकी टक्कर से गिरने की नौबत आ जाती है।बात भीतर पानी में नहीं गई। पेड़ पर बैठे कबूतर ने तोते से कहा- ये कौवा इतना बेसुरा है कि इसके बोलने से रात को नींद उचाट हो जाती है। संयोग से कौवा उस समय पानी पीने गया हुआ था, वहीँ उसे मेंढक कह रहा था- तुम तो अच्छी तरह पानी पीते हो, ये चील आती है तो पानी के साथ-साथ हमारे बच्चों को भी गड़प जाती है। चील ने कुछ नहीं सुना, क्योंकि वह ऊंचाई पर उड़ रही थी। नीचे खरगोश लोमड़ी से कह रहा था- ये चील उड़-उड़ कर अपने को थका कर भूख से बेहाल कर लेती है फिर नीचे आकर हम पर हमला करेगी। लोमड़ी सोच रही थी कि  खरगोश चुप हो तो वह चूहों की शिकायत करे, उसकी मांद को चारों ओर से खोद-खोद कर खोखला कर देते हैं, जिस से भीतर पानी भर जाता है। शुक्र था कि चूहे वहां नहीं थे, जो सुनलें।    

Saturday, October 27, 2012

आप अपना एक मिनट कितने में देंगे?

जब हर साल दशहरा आता तो मोहल्ले में बच्चे इकट्ठे होकर "रावण" का पुतला बनाते, और फिर धूम धाम से उसे जलाते। वे उसे बुराई पर अच्छाई की जीत कहते। वे इस जीत को सेलिब्रेट करते। घर-घर से चंदे में कुछ पैसे जमा किये जाते, और फिर उनसे मिठाई भी बांटी जाती।
एक दिन बैठे-बैठे बाल-मण्डली के दिमाग में आया, कि  हम दिन भर रावण बनाने में इतनी मेहनत  करते हैं, और चंद क्षणों में उसे जला देते हैं? यह प्रतीक रूप में भी तो ठीक नहीं, क्योंकि बुरे पर अच्छाई की जीत कोई क्षणों का काम नहीं है। इसमें जीवन खर्च हो जाता है। कुछ बुद्धिमान बच्चों ने इस परंपरा में कोई नयापन लाने की ठानी। उन्होंने सोचा- हम अच्छाई और बुराई का द्वन्द दिखायेंगे, ताकि पूरी शाम का कुछ सघन उपयोग हो सके। सभी ने अपनी-अपनी कल्पना के घोड़े दौड़ाये।
अगली बार जब दशहरा आया तो बच्चे घर-घर जाकर एक सवाल करने लगे -"आप अपना एक मिनट कितने में देंगे?"
लोग हैरान होकर उनसे पूछते- "पर तुम्हें एक मिनट क्यों चाहिए?"
बच्चों की सेना के लीडर ने जवाब दिया - "हर बार राम के तीर चलाते ही रावण तुरंत जल कर नष्ट हो जाता है। हम चाहते हैं, कि  इस बार रावण कुछ प्रतिरोध करे, इसलिए हम उसे सहयोग देने वाली एक सेना भी बना रहे हैं। हम इसके लिए सेना को मेहनताना भी देंगे। कृपया बताएं कि  आप रावण को कितनी देर तक बचाने में सहयोग कर सकते हैं? हम आपको उतने समय का भुगतान भी करेंगे।"
एक बुजुर्ग से व्यक्ति ने इस सवाल पर बच्चों से कहा-तुम एक मिनट का मुझे क्या दोगे,यदि मैं रावण को आसानी से न मरने दूं?
बच्चे बोले- आप ऐसा कैसे करेंगे?
वे बोले- हम राम और रावण के दो दल बना देंगे। राम एक बॉल से रावण  पर हमला करेंगे और रावण बैट से अपना बचाव करेगा।और जब तक तुम बॉल  को कैच नहीं कर लोगे, रावण  बचा रहेगा।
बच्चों ने चंदे में मिले सारे पैसों में अपना-अपना जेब-खर्च भी मिलाया, और मोहल्ले में एक क्रिकेट-क्लब बन गया।   

Friday, October 26, 2012

देख लीजिये करके, शायद आपसे हो जाये

जब हम किसी के साथ रहते हैं, तो हमें एक विचित्र अनुभव से गुजरना पड़ता है। किसी की कोई छोटी सी क्रिया या बात हमें मन ही मन उससे विमुख कर देती है। इसी तरह किसी की कोई बात हमें मन ही मन अच्छी लग कर उसके और करीब कर देती है। यह उतार-चढ़ाव और रिश्तों में तो हम निभा ले जाते हैं, पर अन्तरंग संबंधों, जैसे प्रेमी-प्रेमिका या पति-पत्नी, के मामलों में कभी उलझन बढ़ जाती है। हम इसे समझ भी नहीं पाते कि  तब तक देर हो जाती है। हम एक-दूसरे के मन से उतर जाते हैं।
-मैंने पढ़ा था कि  युवती के केला खाने के तरीके से उसका बॉय-फ्रेंड चिढ़ गया।
-प्रेमिका तोहफे में तरह-तरह के कीमती रुमाल देकर थक गई, पर प्रेमी ने हर बार नाक अपनी अँगुलियों की मदद से सड़क पर ही सिनकी।नतीजा यह हुआ कि  भूखी होने पर भी प्रेमिका बेमन से आधा-अधूरा खाकर लौटी।
-'बड' से कान कुरेद कर पति उसी बड को तकिये के नीचे रख, सोता रहा। नतीजतन पत्नी जागती रही।
-प्यासे पति को पानी देती पत्नी का अंगूठा पानी के ग्लास में था, पति की प्यास कभी नहीं बुझी।
यह सूची अंतहीन है।
लेकिन इस दुनिया में अंतहीन कुछ नहीं है। यदि एक छोटा सा प्रयोग करें तो आप इन छोटी-छोटी आदतों के काले प्रभाव से बच सकते हैं।
सप्ताह में केवल एक दिन "रिश्ते का उपवास" रखिये। उस दिन दोनों अलग-अलग जगह, या अलग समय पर खाइए। अलग कमरे में सोइए। अजनबी की तरह व्यवहार कीजिये। पति अपने किसी ऐसे मित्र को बुलाले, जिसे पत्नी न जानती हो, ऐसा ही पत्नी भी करे। एक दूसरे का आपस में परिचय भी न कराएं।
लेकिन क्या सप्ताह में एक दिन ऐसा करने से किसी की आदतें बदल जाएँगी?
नहीं, बदलेंगी नहीं। किन्तु एक वैज्ञानिक क्रिया अपना काम करेगी। जिस समय आप अपने 'प्रिय' के साथ तन या मन से नहीं होंगे, उस समय आपका मस्तिष्क एक मैच खेलेगा। वह प्रिय के अभाव में होने वाले अदृश्य मानसिक आकर्षण को उस विकर्षण से तौलेगा, जो उसकी किसी अवांछित आदत से आप में जन्म लेता है। यह आकर्षण यदि विकर्षण से परिमाण में अधिक है, तो यह विकर्षण को नष्ट कर देगा।और यदि यह विकर्षण से कम भी है, तो यह अपने बराबर विकर्षण के हिस्से को कम कर देगा। ऐसे में आपके लिए अवांछित आदत "सहनीय" होने की सम्भावना बढ़ जायेगी।      

आप ही बताइये, उन्हें न्याय मिला?

ये बहुत पुरानी बात है। तब धरती पर कोई भी न था। एक बड़ी सी परात में ईश्वर ढेर सारी मिट्टी लेकर बैठा था। उसके दिमाग में यह उधेड़-बुन चल रही थी, कि  धरती पर भेजने के लिए कैसे प्राणी बनाए। उसके पास कई डिज़ाइन थे। रंग भी थे और कुछ चमत्कारी शक्तियां भी। उसने सोचा, पहले अलग-अलग कार्य करने वाले  विभिन्न अवयव बना लिए जाएँ, फिर उन्हें एक-साथ मिला कर एक पुतला बना लिया जाए। सूरज के तेज़ से निकली अग्नि, खुला आकाश, बहती हवा, बादलों में भरा पानी था ही। इससे निर्माण सुगम हो गया।
काम शुरू हुआ। निर्माता ने सबसे पहले आँख बना ली, ताकि धरती पर जो भी हो, उसे प्राणी देख सके। फिर धरती के खाने योग्य पदार्थों को प्राणी के शरीर में भरने के लिए एक मुंह भी बना लिया। छोटी सी एक नाक भी बना कर रख ली, हज़ारों तरह की खुशबू-बदबू भी तो पता चले। काटने-चबाने के लिए सुन्दर-सुन्दर दांत बना छोड़े। बादलों की गड़गड़ाहट, झरनों का संगीत सुनने को कान भी तराश कर रख लिए। एक सुन्दर गोल सा डिब्बा बनाया, ताकि इन सब छोटे-छोटे पुर्जों को जोड़े। इसी डिब्बे में एक तरफ दिमाग रख दिया, सोच-विचार में काम आने को। यही गोला पुतले के सबसे ऊपर के हिस्से में रखना ज़रूरी था, ताकि नीचे तक निगाह रखी जा सके।इसी डिब्बे पर धूप गिरनी थी, इसी पर वर्षा, इसलिए इस पर बाल बनाने ज़रूरी थे।
इतना करके बेचारा थक गया। पर काम तो जैसे-तैसे पूरा करना ही था। जल्दी-जल्दी शरीर के बाकी सारे हिस्से भी बना डाले।
जब जोड़ने की बारी आई,तो मेहनत से बनाए गए सारे ये छोटे-छोटे हिस्से दिमाग के डिब्बे के आस-पास ही रहने के लिए जिद करने लगे। हाथ-पैर-पेट-पीठ बेचारे दूर-दूर रह गए। विधाता ने भी चेहरे को ही तराशा।वैकल्पिक व्यवस्था करने के लिए बहुत से भाग दो-दो जड़ दिए।
जब पुतला बन कर खड़ा हुआ, तो पैर सबको चिढ़ाने लगे- "तुम कुछ भी करो, रहना तो वहीँ पड़ेगा, जहाँ हम ले जाएँ"। चेहरे के सारे हिस्से मायूस हो गए, सबने शिकायत की। ईश्वर ने फैसला दिया- "इन अहंकारी पैरों को सबसे ज्यादा काम करना पड़ेगा, किन्तु मानव की पहचान उसके चेहरे से ही होगी। ये पैर उसे स्कूल ले जायेंगे, पर स्कूल पहचान-पत्र पर चेहरे की तस्वीर लगाएगा। ये पैर मंदिर ले जायेंगे, पर वहां तिलक चेहरे पर लगेगा। पेट भरने के लिए ये पैर दिन भर रिक्शा खीचेंगे, पर राशन-कार्ड पर चेहरा ही  दिखेगा। यहाँ तक कि  खिलाड़ी खेल-कूद में सारा शरीर थका डालेंगे, पर पदक चेहरे पर ही दमकेगा"।     

Thursday, October 25, 2012

बैटरी ख़त्म हो जाना एक बात है, पर हाथ से छूट कर टॉर्च का गिर जाना दूसरी -जसपाल भट्टी को याद करते हुए!

जब वो हँसते थे ...नहीं, वो हँसते नहीं थे, वो केवल हंसाते थे। आपके भीतर से एक ऐसी  हंसी निकालने का ज़िम्मा उनका था जो किसी मकसद से निकली हो। वे सार्थक कॉमेडी के बादशाह थे। वे चेहरे पर घुमाव-फिराव, मोड़-तोड़ नहीं रचते थे, बल्कि ऐसी स्थिति रचते थे जो आपको विश्वसनीय बेचारा बना दे, लोग आप पर हँसें  और फिर अगले ही पल संभल जाएँ, कि  अरे, ये तो मेरी ही बात कह रहा है। हास्य की सबसे बड़ी सफलता और सबसे रोचक नाटकीयता यही है।
जसपाल भट्टी ने अभिनय से संन्यास नहीं लिया, वे गुजर गए। हाँ,वे नहीं रहे,वे सचमुच मर गए। उन्होंने एक बार अपने सीरियल में अपनी एक शोक-सभा फिल्माई थी, आज नियति ने सचमुच वह दृश्य फिल्मा दिए। तो नियति ने नया क्या किया, ये तो वे जानते ही  थे। नकलची नियति!
फिल्म और टीवी की दुनिया में यह बड़ा हादसा है। बैटरी तो रोज़ ख़त्म होती है, रोज़ बदली जाती है। टॉर्च ही खो जाए तो मन खराब होता है!

Wednesday, October 24, 2012

"प्रेम" के भी नए क्रिया-कलाप रचे कवि

पिछले दिनों एक कवि -सम्मलेन में जाने का अवसर मिला। नए-पुराने, छोटे-बड़े, संघर्षरत- स्थापित, सभी तरह के रचनाकार एक साथ थे। अच्छा लग रहा था, कि  कुछ किशोर व युवा कवि भी दिग्गजों के साथ कंधे से कन्धा मिला कर पूरे उत्साह से अपनी बात कह रहे थे।
लेकिन एक बात खटक रही थी। लगभग सभी कवियों के ज़ेहन में 'प्रेमिका' का वही रूप स्थापित था, जो तुलसी, केशव,बिहारी या अन्य श्रृंगारी कवियों की कल्पना में देखा जाता है। वही, प्रेमिका की चाल, उसके बाल, उसके चेहरे के आधारभूत श्रृंगार आज के कवियों की कल्पना में भी  बसे हुए थे।
क्या आज की महिलाओं के तौर-तरीकों पर हमारे युवा कवियों का ध्यान नहीं गया?क्या नारी-जगत की अधुनातन को अपनाने की मुहिम अनदेखी ही रहेगी? क्या जो स्त्रियाँ कर्त्तव्य, अधिकार, प्रतिष्ठा की जंग लड़ रहीं हैं, उन्हें प्रेम नहीं किया जाएगा? क्या वे अपनी शारीरिक ज़रूरतों के लिए "रोबोट" रचेंगी? क्या गाड़ी  चलाती स्त्री के हाव-भाव प्रेमी को आकर्षित नहीं करते? वेतन लेकर लौटती पत्नी क्या उन्हें मुग्ध नहीं करती? हमारे युवा रचनाकार इस ओर  भी सोचें। यही बात युवा कवयित्रियों पर भी लागू है। अब उनके प्रेमी केवल उन्हें भोगने वाले योद्धा ही नहीं हैं, उनकी सी भावनाएं अब उनके प्रेमियों में भी हैं।

Tuesday, October 23, 2012

"साहब का अफ़सोस"

 बात उन दिनों की है जब हमारे देश में अंग्रेजों का आगमन हो चुका था। शहरों पर तो उनका आधिपत्य हो ही चला था, गाँव भी उनकी चकाचौंध से अछूते नहीं रहे थे। वे साम-दाम-दंड-भेद अपना वर्चस्व विभिन्न समुदायों पर कायम कर ही लेते थे। कहीं-कहीं लोग उनसे घृणा भी करते थे, अतः विरोध स्वरुप उनके बहकावे में न आने के लिए जन-सामान्य को सतर्क करते थे, मगर कुछ लोग ऐसे भी थे जो भारतीय विपन्नता और हताशा से ऊबे हुए थे, अतः वे ललचाई नज़रों से अंग्रेजों के क्रिया-कलाप देखते, और उन्हें अपनाने की चेष्टा भी करते।
ऐसे क्रिया-कलापों में सर्वाधिक लोकप्रिय थी घर में कुत्ता पालने की प्रथा।
प्रायः हर अंग्रेज़ अपने घर में कोई न कोई बढ़िया नस्ल का कुत्ता रखता था। उसे इंसानों की भांति सभी सुविधाएं सुलभ करवाई जाती थीं। प्रत्येक सुबह वे बड़ी शान से उन कुत्तों को घुमाने के लिए सड़क पर निकलते। इस सैर में अंग्रेजों और कुत्तों के बराबर ठाठ होते। एक सुन्दर पट्टा ज़ंजीर सहित कुत्ते के गले में पड़ा होता, और एक भव्य हैट  अंग्रेज़ मालिक के सर पर होता। कोई-कोई उम्रदराज़ व्यक्ति हाथ में छड़ी रखना भी पसंद करता। हर गाँव वाला रौबदार अंग्रेज़ बहादुर को शान से कुत्ते के साथ गुजरते हुए कौतुहल से देखता।
एक दिन गाँव से कुछ दूर सड़क पर घूमते  हुए अंग्रेज़  अफसर ने देखा कि  सड़क के किनारे एक मुर्गा घूम रहा है। अंग्रेज़  के हाथ में अपनी बढ़िया विलायती कुतिया की ज़ंजीर थी। उसने यह सोच कर ज़ंजीर को कस कर पकड़ लिया कि शायद कुतिया मुर्गे पर झपटेगी। कुतिया ने उस तरफ देख कर भौंकना शुरू कर दिया था। आशा के विपरीत मुर्गा कुतिया के पास तक चला आया। अंग्रेज़  के साथ-साथ कुतिया को भी हैरत तो हुई पर मुर्गे को न डरते देख कर कुतिया थोड़ा सहम गई। अंग्रेज़  मालिक को मुर्गे और कुतिया की इस मुलाक़ात में रस आने लगा। वह चुपचाप रुक कर आमने-सामने खड़े दोनों प्राणियों को देखता रहा। उसने देखा, अब कुतिया ने भौंकना बंद कर दिया है। मुर्गे ने भी गर्दन उठा कर जोर से बांग दी- "कुकड़ू कूँ " और अकड़ कर वापस जाने लगा।
अब यह रोज़ का सिलसिला बन गया। अंग्रेज़ महाशय घूमने आते, तो ठीक उसी वक्त पर मुर्गा भी टहलता हुआ चला आता। उनकी कुतिया की मानो मुर्गे के साथ दोस्ती हो गई। दोनों एक दूसरे को पहचानी नज़रों से देखते और ऐसे खड़े हो जाते मानो बातें कर रहे हों।
कुछ दिन के बाद कुतिया ने सुन्दर से तीन पिल्लों को जन्म दिया। अब उसका घूमना बंद हो गया था, वह घर में ही रहती। सर्दी में कुतिया के प्यारे बच्चे गद्दी में लिपट कर कूँ-कूँ करते रहते।
एक दिन अचानक न जाने क्या हुआ, अंग्रेज़ महाशय ने अपनी छड़ी उठाई और अपनी प्यारी कुतिया को तड़ा तड़ पीटना शुरू कर दिया। कुतिया के चिल्लाने की आवाज़ से घर के नौकर-चाकर दौड़े, पर किसी को कुछ समझ में नहीं आया कि साहब अपनी पसंदीदा पालतू कुतिया को क्यों पीट रहे हैं। साहब बुदबुदाते जाते थे-'हम इधर लोगों को अपना लैंग्वेज़ सिखाने की कोशिश करता, ये साला उस देसी मुर्गे का लैंग्वेज़ सीख कर आ गया ...' साहब का बुदबुदाना न तो देहाती नौकर-चाकर समझे,और न ही वे छोटे-छोटे पिल्ले, जो सर्दी और भय से अब भी कूँ कूँ किये जा रहे थे।      

सात अरब में से अब केवल दो बचे

जी नहीं, ये किसी घपले-घोटाले की बात नहीं है। हमारा मतलब यह है, कि  दुनिया में अरबों लोगों के होते हुए भी अब केवल हमारे पास दो तरह के लोग ही बचे हैं।
ये कोई रोज़ की बात नहीं है। ये केवल आज की बात है। क्योंकि आज दशहरा है। और दशहरे के दिन हमें केवल ये दो लोग ही याद आते हैं- एक राम और दूसरा रावण । बाकी तमाम दुनिया इन्हीं दो के पीछे खड़ी  है। एक के पीछे हैं, आदर्श, सच्चाई, मर्यादा, और दूसरे के पीछे है- कपट,क्रूरता और वासना।
आज के दिन हमें चुनना होता है कि  हम इनमें से किस कतार में हैं? क्या हम अपना जीवन किसी आदर्श या मर्यादा के सहारे बिताना चाहते हैं, या हम छल-कपट के रथ पर बैठ कर अपनी वासनाओं के पीछे हैं?
कभी-कभी ऐसा भी होता है कि  हम खुद नहीं जानते कि  हमारा ध्येय क्या है। ऐसे में हमारी स्थिति बिना पतवार की नाव जैसी हो जाती है, जो किनारे लग भी जाए, और डूब भी जाए। कहने का अर्थ है कि  हम भाग्यवादी हो जाते हैं। भाग्य पर भरोसा होना एक बात है, और भाग्य के हवाले होना दूसरी।
आप सभी को विजय-दशमी की हार्दिक शुभकामनाएं!

छः महीने का शिशु क्या देखता है हम में

जब हम किसी भी छोटे से बच्चे को देखते हैं, तो हमारा मन उसे गोद में उठाने या पुचकारने का होता है। लोग उसका गाल थपथपा कर या उसे सहला कर उस से दृष्टि-संपर्क बनाने का प्रयास करते हैं। कई बार रेल या बस में सफ़र करते हुए किसी छोटे से बच्चे के कारण  ही अपरिचित व्यक्तियों में भी  आपस में बातचीत होने लग जाती है, क्योंकि संपर्क का यह तंतु बच्चा ही जोड़ देता है।
क्या कभी आपने यह सोचा है कि  इतना छोटा बच्चा जब हमें देखता है तो क्या सोचता है? बच्चा अपने अनुभव और बुद्धि के आधार पर हमारे चेहरे की तलाशी इस तरह लेता है-
1.क्या हम उसके अब तक देखे किसी चेहरे से मेल खाते हैं?
2.क्या हम उसकी यथास्थिति[ गोद में होना, ज़मीन पर बैठे होना, धूप-छाँव या गर्मी आदि] को बदलने में किसी तरह सहायक हो सकते हैं?
3.क्या हम विश्वसनीय हैं?
4.उसके लिए  सबसे कम्फर्टेबल लोगों के प्रति हमारा रवैया कैसा है?
5.उसकी बेसिक चीज़ों के लिए हम कितने मददगार हैं?
6.क्या हमारे पास उसे कोई नया अनुभव कराने के लिए कोई कार्य-योजना है?
7.संभावित भय के चिन्ह क्या हमारे चेहरे में खोजे जा सकते हैं?
शायद आपको पता हो, इन्हीं आधारों पर सौन्दर्य प्रतियोगिताओं  में एक सेक्शन यह भी होता है, जब प्रतियोगियों को छोटे शिशुओं से मिला कर उनकी प्रतिक्रिया देखी जाती है। वे अपनी प्रतिक्रिया से प्रतियोगी के "यूनीक" होने को तलाशने में मददगार होते हैं।

Monday, October 22, 2012

एक टोकरा-भर फल, और एक भी फीका नहीं- यश चोपड़ा

यश चोपड़ा भी चले गए। कुछ दिन बाद उनकी एक नई , ताज़ातरीन फिल्म रजतपट पर अवतरित होने वाली थी। लेकिन वे उसका घाटा-मुनाफा देखने नहीं ठहरे।
अपने लगाए पेड़ की छाँव और फल हर माली के नसीब में नहीं होते। लेकिन कुछ माली ऐसे ज़रूर होते हैं, जिनके लगाए पेड़ बरसों तक सबको छाँव देते हुए सबके दिल में उनकी याद को ताज़ा बनाए रखते हैं। यशजी ऐसे ही थे। उनकी सबसे बड़ी खासियत उच्च दर्जे का मनोरंजन शालीनता और सार्थकता के साथ देना रहती थी। पांच दशक तक कर्म-लीन  यशजी पर न कभी बोझिल उबाऊपन या अश्लीलता का आरोप लगा, और न ही सतही मनोरंजन का।
यशजी के निधन के समाचार ने जिस तरह हर छोटे-बड़े सितारे का रुख उनके घर की ओर  मोड़ा उस से उनकी मिलनसारिता का पता चलता है।
यदि किसी दूसरे जहाँ में मनोरंजन की किसी दुनिया का अस्तित्व है, तो यशजी आग की लपटों पर सवार होकर वहां पहुँच चुके होंगे। फिर भी उनकी नई फिल्म के सतरंगी उजाले हम जल्दी ही आने वाली दीवाली पर देखेंगे।     

Sunday, October 21, 2012

सगी मौसी हूँ, कोई सौतेली माँ नहीं !

सैफ करीना की शादी भी हो गई। सबको आनंद आया, केवल दो लोगों को छोड़ कर। एक तो वो काजी जी, जिन्हें ये मलाल रहा कि  करीना ने शादी से पहले इस्लाम नहीं कबूला। दूसरा वो मीडिया, जिसे ये अचम्भा रहा कि शादी में मौसी जी नहीं आईं !
काजी जी की चिंता जायज़ है, बरसों पहले जब करीना की सासू माँ नवाबाइन बनीं थीं, तब वे भी "आयशा सुल्ताना" बन गई थीं। खैर,उनकी बात अलग हैं, उनका स्वभाव काफी शर्मीला था।
पर शादी में करीने से मौसी जी को तो आना चाहिए था। वे केवल मौसी ही नहीं हैं, बल्कि उनके ताल्लुकात सारे खानदान से हैं।
वे दुल्हन की माँ  को तब उपहार दे चुकी थीं, जब दुल्हन पैदा भी नहीं हुई थी। जब करीना की मम्मी बबीता  ने फिल्मों में कदम रखा, तो उन्हें मौसी जी की छोटी बहन होने का खूब सहारा मिला। बल्कि मौसी जी ने अपने जोड़ीदार दो-तीन हिट हीरोज़, राजेंद्र कुमार, संजय खान और मनोज कुमार जैसे, उन्हें तोहफे में दे दिए। दूल्हे की माँ  की वे फिल्म 'वक्त' में जेठानी बनीं। अपना देवर उन्हें देकर मौसी जी ने उन्हें अपनी साइड हीरोइन भी बनाया। इतना ही नहीं, दुल्हन के बाबा से उन्होंने 'दूल्हा-दुल्हन' का खेल खेला, मझले बाबा को 'बदतमीज़-राजकुमार' कहा, छोटे बाबा को 'प्रेम- पत्र' लिखे।ऐसे में, शादी में तो उन्हें आना ही चाहिए था।
हाँ, ये हो सकता है कि वे आईं हों, पर कैमरे की निगाह उन पर न गई हो! क्योंकि अब इस उम्र में वे कोई "साधना-कट" बाल तो बना कर आई नहीं होंगी!

Saturday, October 20, 2012

करप्शन के मुद्दे पर मौसमी बयार का असर

इस शीर्षक पर किसी को भी यकीन नहीं आएगा। क्योंकि अब यह माना जाने लगा है कि  भ्रष्टाचार बेअसर है। उस पर किसी बात का कोई असर नहीं होता। बहस की कोई गुंजाइश नहीं है, यह ठीक ही है कि भ्रष्टाचार  के गैंडे  की खाल को छेदने वाली गोली कम से कम भारत में तो अभी नहीं ही बनी। फिर क्या करें? बात ख़त्म करदें?
नहीं, भ्रष्टाचार का जिस तरह कभी इलाज़ नहीं होगा, उसी तरह भ्रष्टाचार की बात कभी ख़त्म भी नहीं होगी। अब हमारे देश के अधिकाँश लोग भ्रष्टाचार की बात की जुगाली करते हुए दिन बिताएंगे।
प्राचीन काल में जब किसी शासक का कोई महल बनता था, तो उसके आस-पास कुछ-एक छोटे-मोटे महल-चौबारे, और भी बनते थे। इन सब के साथ तरह-तरह की कहानियां नत्थी हुआ करती थीं- मसलन, इसमें राजाजी की वो रानी रहती थीं, जिन्हें वे चाहते तो थे, पर उनसे शादी नहीं की थी।
इसमें उन महारानीजी का वास था, जिन्हें राजा ने जुए में जीत तो लिया था, पर इन्होने राजा के गले में वरमाला डालने से इनकार कर दिया था।
इसमें वो पटरानी जी रहती थीं,जो महाराज की जनम-जनम की अर्धांगिनी तो थीं, पर महाराज ने जीवन भर उनका घूंघट नहीं उठाया।
इसमें वो दासी रहती थी, जिसने राज्य के वारिस को जन्म दिया। आदि-आदि।
राजा-रानी का यही खेल अब सत्ता और शासक का खेल है!ये भ्रष्ट तो हैं, पर सत्ता के मौसम में सर-आँखों पर।हैं तो निकम्मे, पर बकने में माहिर हैं, लिहाज़ा पड़े रहने दो!

Friday, October 19, 2012

अब वे पेज-3 पार्टी, एक्स्कर्षन या डांसिंग म्यूज़िक नहीं, नैतिक शिक्षा पर कोई क्लास चाहते हैं

ये सचमुच अद्भुत था। अवर्णनीय, शानदार और अविश्वसनीय।
मैं बड़ी संख्या में युवाओं को संबोधित कर रहा था। मैं उन्हें बता रहा था कि  अब राजनीति ,समाज और परिवारों में अब तक अच्छी माने जाने वाली नैतिक मान्यताओं का टूटना, और भ्रष्टाचार व घपले-घोटालों का इतना बोलबाला क्यों हो रहा है। मैं उन्हें प्रैक्टिकल बनने की सलाह दे रहा था, और कह रहा था कि  अब आप लोग इन्हीं परिस्थितियों में जीने की आदत डालिए। मेरा कहना था कि  जिस तरह किसी सूअर के बच्चे या कीड़े-मकोड़े कीचड़ और गंदगी में ही अठखेलियाँ करते हुए भी जिंदगी बसर कर लेते हैं, वैसे ही आप भी सोच लीजिये कि  अब ये देश ऐसा ही रहेगा। भ्रष्टाचार, बेईमानी, घूसखोरी, चोरी, चारित्रिक पतन, नशाखोरी, मुनाफाखोरी, मिलावट, सिफारिश, शिक्षा की खरीद, डकैती आदि अब हमेशा हमारे साथ ही  रहेंगे, क्योंकि हमारे बीच से इन्हें हटाने की सोचने तक वाले लोग भी मिटते जा रहे हैं। अब किसी भी सुधार की कोशिश करने वाले के मुंह पर कालिख पोती जाएगी, और अच्छा देखने, अच्छा बोलने, अच्छा सुनने और अच्छा सोचने वाले को जान का खतरा रहेगा। हमें धर्म-जाति , नस्ल आदि के नाम पर आपस में लड़वाया जाता रहेगा, और सोने की लंका बनाने में हम एक दूसरे  के खून के प्यासे रहेंगे। हमारी गर्दन में ऐसे पेस-मेकर लगा दिए जायेंगे कि  हम घिसटते हुए जाकर उन्हें वोट देते रहें।  
तभी मैंने देखा कि  थोड़ी सी हलचल हुई, और कुछ लोग मुझसे कहने लगे, सर, आप मन से नहीं बोल रहे। हमें कुछ नैतिक बातें बताइये। वे आपस में बातें कर रहे थे- "हमने इन्हें पहले भी सुना है, ये ऐसा नहीं कहते।"

Thursday, October 18, 2012

पेड़

एक रास्ते के किनारे एक पेड़ खड़ा था। उसे यूँही खड़े-खड़े बरसों बीत गए थे। बूढ़ा  भी हो चला था। अब तने और शाखों में झुर्रियां पड़  गई थीं। जड़ों में ऐंठन और खोखलापन आ गया था। पत्ते या तो आते ही नहीं, या फिर पीले, मुरझाये हुए आते। खाद और पानी की कौन कहे, अपने फल-फूल तक का अता-पता न रहता।  अव्वल तो आते ही नहीं, और आते तो अपनी जान बचाने को चुपचाप खुद ही उदरस्थ कर लेता। आस-पास के लोग भी सोचते, अब गिरे, तब गिरे।
एक दिन कोई लकड़हारा कुल्हाड़ी लेकर आ ही पहुंचा। पेड़ को जैसे सांप सूंघ गया। जीने की इच्छा बलवती हो उठी। लकड़हारे से बोला- बेटा ,मैंने अपना हाथ काट कर तुझे लकड़ी दी, तू उसी लकड़ी में लोहा फसा कर मेरी जान लेने आ गया?
लकड़हारा बोला-न तुझमें फल, न फूल, न छाया, अगर अब भी तुझे न काटा तो तेरे हाथ-पैर खोखले होकर लकड़ी देने के भी न रहेंगे! बेहतर यही होगा कि  तू अपनी बलि देकर कुछ पुण्य का काम कर। लकड़ी दे, और रास्ते से हमेशा के लिए हट जा।
पेड़ बोला- जरा तो सोच, मेरे कोटरों में अब भी दर्ज़नों पखेरू बसते हैं, क्यों उन्हें बेघर करता है?
लकड़हारा न पसीजा, बोला,गए-बीते बूढ़े को इतनी जगह घेर कर पड़े रहने का कोई हक़ नहीं है,तू रास्ते से हटेगा तो तेरी जगह नया बिरवा आएगा। वो फल-फूल भी देगा और छाया भी।
पेड़ मायूस होकर बोला- पर तू  नया बिरवा लाएगा कहाँ से?
लकड़हारा बोला- तेरे बीज से!
पेड़ ख़ुशी से झूम उठा। इससे पहले कि  लकड़हारे की कुल्हाड़ी चले, पेड़ खुद ही भरभरा कर गिर पड़ा।     

इतिहास लौटेगा?

प्राचीन काल में हमारे राजा-महाराजा ऊंचे-ऊचे पहाड़ों पर बने अभेद्य दुर्गों में रहा करते थे। कहा जाता है कि  वे सुरक्षा, अहंकार, गोपनीयता आदि के कारणों से ऐसा करते थे। दिलचस्प बात यह थी कि  वे तो अपनी प्रजा को सुरक्षा मुहैय्या करा देते थे, पर उन्हें सुरक्षा की गारंटी कौन दे, इसलिए वे खुद ही दुर्गम स्थानों पर भारी लाव-लश्कर लेकर अजेय दुर्गों में रहा करते थे।
समय के साथ वे दिन लद चुके, अब तो लोकतंत्र है। इसमें कोई किसी से नहीं डरता।शुभ्र-धवल खादी  के कोमल परिधान पहन कर मौजूदा सत्ताधीश जनता के बीच "रोड शो"करते हैं। देश में कानून है, अदालत है, न्यायाधीश हैं, अधिवक्ता हैं, पुलिस है, प्रशासन है, अब भला किसको किसका भय। कोई कहीं जाए, कोई कहीं से आये।
बस, केजरीवाल फर्रूखाबाद न जाएँ, वर्ना "कानून मंत्री" उन्हें "देख लेंगे"! 

Wednesday, October 17, 2012

अच्छे दिन

जब अच्छे दिन आते हैं तो अपने आप सब अच्छा-अच्छा होता है। मर-खप चुके पूर्वजों की याद से हम उबर जाते हैं। नई  रातें शुरू हो जाती हैं। गली-कूंचों के मेहनत-कश कारीगर बांस की खपच्चियों का अस्थि-पंजर बना कर रंगीन कागजों से उसे रावण रूप देने लगते हैं। इस प्रत्याशा में वे श्रम का निवेश और आस की बुवाई करते हैं कि अब समय का राम आये, और इनका वध करे।अच्छे दिनों के उजास में उनकी भी रोटी निकले।
गली-गली बारूद से फुलझड़ी और पटाखे बनने लगते हैं कि  खुशियों का आगाज़ और इस्तकबाल आवाज़ से हो। गुलाबी ठण्ड मंच पर आने को नया जोड़ा पहनने लगती है।
घरों के कौनों-कंदराओं में रेंगते बिलबिलाते कीट-पतंगे अपने दिन गिनने लगते हैं, ताकि बुरी-आत्माओं के ये प्रतीक बुहार कर दूर किये जा सकें। इनके अंडे-भ्रूणों का फूटना अच्छे आगत की रणभेरी बजाता है।
बड़ी कुर्सियों पर बैठे ऊंचे लोग प्रजा को सौगात, ईनाम, इकराम बांटते हैं। वे मोटे और गाढे लिबास पहनने लगते हैं, ताकि उनके  ज़मीर पर उजाला न गिरे। क्योंकि कोई भी मौसम आखिरी थोड़े ही होता है, पुराने दिनों को आखिर फिर लौटना तो होता ही है। ज़मीर को कौन रंगरेज़ बार-बार रंगने की ज़हमत उठाये!
 

Monday, October 15, 2012

मीडिया क्लब ऑफ़ इंडिया

आज एक बड़ी समस्या तेज़ी से उभर कर आई है।यह समस्या वैसे नई नहीं है, क्योंकि यह पहले भी थी, किन्तु पहले  केवल विज्ञापन के क्षेत्र में थी, अब यह ख़बरों के क्षेत्र में भी आ गई। यह समस्या ऐसी है कि  इस से हमें कोई नुक्सान नहीं होगा, केवल हमारे ज़मीर को नुक्सान होगा। अब कोई भी यह अंदाज़ लगा सकता है कि  ज़मीर मैला हो जाने के बाद इंसान में क्या बाकी रह जाता है। लेकिन अब लोग ज़मीर जैसी चीज़ को ज्यादा भाव नहीं देते।
समस्या यह है कि  अखबारों के पन्नों पर मछलियाँ तैरने लगी हैं। जब कोई समस्या सामने हो तो पहेलियाँ नहीं बुझानी चाहिए, इसलिए मैं सीधी  बात पर आता हूँ। पहले "विज्ञापन" विज्ञापनों को खाया करते थे, अब ख़बरें भी ख़बरों को खाने लगी हैं। बड़ी मछली छोटी मछली को आराम से खा रही है। अर्थात यदि कोई व्यक्ति या एजेंसी यह चाहे कि  आपकी बात न सुनी जाय तो वह उस जगह को खरीद रही है, जिस से आप अपनी बात कहने वाले थे। इस खरीद-फरोख्त में मीडिया के अंदरूनी लोग भी शामिल हैं। उनकी सहमति  के बिना शायद यह संभव नहीं है। इस बात पर दो राय हो सकती हैं, कि  कौन अपनी मर्ज़ी से शामिल है और कौन मजबूरी में। ऐसे में "मीडिया क्लब ऑफ़ इंडिया"को एक ज़िम्मेदार मंच की भूमिका में आना होगा।

Sunday, October 14, 2012

हलो,हम कैसे हैं?

थोड़ा अजीब लगता है न अपने आप से अपना हाल पूछना, या फिर दूसरों से अपने बारे में पूछना। दरअसल हमारा मूल्यांकन दो तरह से होता है,एक हमारी जड़ों से, दूसरा हमारे आकाश से। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। हम विभीषण के बारे में सोचें। उसकी जड़ें उसे गद्दार कहेंगी। उसका आकाश उसे मनुष्यता का वाहक कहेगा।
इस सिद्धांत को भारत में यदि किसी ने समझा है तो हमारी राजनैतिक पार्टियों ने। वहां अब लगभग विभीषणों का सफाया हो चुका है। हाँ,जिस तरह शरीर की अपान वायु को निकालने के दो तरीके हैं- एक डकार द्वारा और दूसरा ...उसी तरह अब पार्टियाँ अपने विचार और टिप्पणियाँ जनता के सामने रखने के लिए दोनों तरीके काम में लेती हैं। पार्टियों के पास दो तरह के 'प्रवक्ता' होते हैं। जिसकी जितनी सत्ता, उसका प्रवक्ता उतना मुखर।

भव्य मनोरंजन और इंसानी जिज्ञासा का-"टाइम-स्क्वायर"

भय और भक्ति एक साथ नहीं होती।
मैं उन दिनों न्यूयॉर्क में था। लेकिन तब तक अकेले वहां इधर-उधर घूमने का ज्यादा अनुभव नहीं था, क्योंकि हमेशा वहां रहने वाले बच्चों के साथ ही घूमना हुआ था। उस दिन भी दफ्तर जाते हुए वे मुझे कह गए कि उन्हें शायद आज वापस आने में थोड़ी देर हो जाए।
घर में कुछ मेहमान आये हुए थे, जिन्हें कुछ ही दिनों में वापस लौटना था।अतः वे अपने एक-एक दिन को शहर देखने में काम ले लेना चाहते थे। मेहमानों में कुछ महिलायें ही थीं, जिनमें एक वृद्ध महिला भी थीं। उन लोगों ने मुझसे कहा कि  आज हम लोग टाइम-स्क्वायर देखने चलें।
इस प्रस्ताव पर मुझे थोड़ी घबराहट तो हुई कि  सब शहर से अपरिचित लोग ऐसी भीड़-भाड़ वाली जगह पर कैसे पहुचेंगे, किन्तु एक तो उनका उत्साह, दूसरे मुझ पर उनका विश्वास, दोनों ही को बनाए रखने का सवाल था। मुझे भी स्वीकृति देनी पड़ी।
थोड़ी ही देर में, हम शहर से अजनबियों की मण्डली टाइम-स्क्वायर के लिए निकल पड़ी। हमें कुछ दूर चलने के बाद, सही ट्रेन चुन कर वहां पहुंचना था और वहां भी सही स्टेशन पहचान कर उतरना था। वे तीनों मेरे साथ होने के कारण पूरी तरह आश्वस्त थीं, वहीँ मैं उन तीनों के साथ होने के कारण भयंकर तनाव में था। हम भारत से गए थे, जहाँ महिलायें साथ होने पर किसी को भी तनाव से ही गुजरना होता है। हम यह नहीं जानते थे कि  अमेरिका में इस तनाव की कोई अहमियत या ज़रुरत नहीं है।
वृद्ध महिला अत्यधिक सतर्क व चौकन्नी थीं।वह हर कदम मेरी ओर  देखते हुए इस तरह बढ़ाती थीं, कि  मानो ज़रा सी चूक होते ही हम सब हिंदी-फिल्मों के मेले में बिछुड़े हुए पात्रों की तरह हमेशा के लिए बिछुड़ जायेंगे। शायद वह बीच-बीच में कोई मंत्र भी बुदबुदाती थीं, यह मैं पूरे विश्वास से कह सकता हूँ, क्योंकि मैं भी कभी-कभी ऐसा ही करता था। जबकि हम अच्छी तरह जानते थे कि  जिन भगवानों के नाम हम जप रहे थे, वे यहाँ कभी नहीं आये थे।
जब स्टेशन से सीढियां चढ़ कर हम बाहर निकले, और सामने वास्तव में टाइम-स्क्वायर ही दिखाई दिया, तो उन महिला के चेहरे पर आने वाला  सफलता का भाव किसी कोलंबस या वास्को-डिगामा के मनोभाव से कम नहीं था। उनकी क्या कहूं, खुद मैं भी तो चक्र-व्यूह से निकले अभिमन्यु की भांति चकित था।       

Friday, October 12, 2012

उपयोगी गणित

एक आदमी एक काम  को कितने समय में करता है?
पहले काम तो बताओ!
अरे हाँ-हाँ,एक आदमी एक आदमी को कितनी देर में चुप कर सकता है?
यदि आदमी गूंगा हो तो जीरो मिनट में।
यदि गूंगा  न हो तो ?
कभी नहीं।
अच्छा,  एक औरत एक औरत को कितनी देर में चुप कर सकती है?
अरे पर चुप करना क्यों है?
क्योंकि चुप रहने से शांति रहती है।
बेतुका सवाल।
चलो, थोड़ा  मुश्किल सवाल , एक महिला एक सौ बीस करोड़ लोगों को शांत रखती है, और सत्ताईस देश पचास करोड़ लोगों को शांत रखते हैं, तो बताओ, ज्यादा नोबल कौन? 
यूरोपीय संघ को शांति का नोबल पुरस्कार मिलने पर हार्दिक बधाई!

रवींद्र नाथ टैगोर की तरह उसने भी सीखना नहीं छोड़ा

   कई साल पहले मुझे एक बाल-श्रमिक विद्यालय में जाने का अवसर मिला। एक छोटी सी लड़की वहां थी, जिसने अपना परिचय देते समय, पहले मुझे "गुड मॉर्निंग" कहा था। बाकी सारे बच्चों ने नमस्कार कहा था। इसी से वह मेरे ध्यान में बनी रह गई। मुझे बताया गया कि  वह छः साल की उम्र में एक चूड़ी  के कारखाने में काम कर रही थी, जहाँ छापा पड़ने के बाद उसे इस विद्यालय में पढ़ने भेजा गया।
   कुछ समय बाद पता चला कि  उसके माता-पिता वहां से भी उसे ले गए और उसे घर के कामों में हाथ बटाने के लिए घर और खेत में ही रहना पड़ा।
   वर्षों के बाद एक विश्व-विद्यालय के लॉन से गुजरते हुए मैं चौंका, जब मैंने बगीचे में काम करती महिलाओं के बीच से  एक प्रौढ़ सा स्वर सुना- 'सर, गुड मोर्निंग' !
   मैं चौंका, और सब कुछ याद आ जाने पर मेरी वह "मॉर्निंग" बिलकुल 'गुड' नहीं रही। मैं सोचता रहा, कि अवसर देने में ईश्वर हमेशा अविश्वसनीय रहा है।
   कुछ दिनों के बाद एक शाम वहां से गुजरने के दौरान मैंने उसी 'महिला' को सड़क पर देखा। मैं तो एकाएक यह तय नहीं कर पाया कि  उस से क्या बोलूँ, लेकिन वह तत्परता से बोल पड़ी- 'सर, शाम की गुड मॉर्निंग'...मैं, न तो उसे कुछ कह सका, और न ही ईश्वर को अविश्वसनीय कह सका  ...आखिर वह भी तो प्राइमरी स्कूल से अब यूनिवर्सिटी में आ गई थी।

महामहिम, माननीय और महोदय

राष्ट्रपति भवन में जब-जब जो भी शख्सियत रही है, कोई न कोई मौलिक छाप लगभग सभी ने छोड़ी है। राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने दो परम्पराओं को तिलांजलि दी। एक तो राष्ट्रपति भवन में तब तक केवल अंग्रेजी के ही अखबार मंगवाए जाने की परंपरा थी, पर उन्होंने विशेष रूप से कह कर वहां हिंदी के अखबारों की व्यवस्था भी करवाई। दूसरे,राष्ट्रपति से मिलने आने वालों के लौटते समय राष्ट्रपति का उनके साथ देहलीज़ तक आना वर्जित था। राष्ट्रपति के प्रोटोकॉल के अनुसार उन्हें भीतर से ही राष्ट्रपति से रुखसत होना पड़ता था। इस प्रथा को ज्ञानी जैल सिंह ने बदल दिया। वैसे भी, कहा जाता है कि  घर आये अतिथि को देहरी तक छोड़ने आना एक स्वस्थ परंपरा है। केवल घर में कोई गमी हो जाने पर ही अतिथि को बाहर तक आकर नहीं छोड़ा जाता।पूर्व-राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने मेहमानों को परोसे जाने वाले खाने-नाश्ते में अपनी पसंद को शामिल करने की पहल की। तब तक किसी के आने पर खुद राष्ट्रपति को भी यह पता नहीं होता था कि  उनके मेहमान को क्या खिलाया जाने वाला है। यद्यपि, कुछ घटिया वहां किसी को कभी नहीं खिलाया गया। 
मौजूदा राष्ट्रपति ने भी एक पुरानी प्रथा को नया रूप दिया है। अब वे अपने को महामहिम नहीं कहलवायेंगे। सही है, इस संबोधन में एक राजसी सामंतशाही की हलकी सी झलक तो थी ही। कोई अपने व्यक्तित्व में कोई कमी रखे तो उसे आभरणों से लादे, प्रणव मुखर्जी को इसकी क्या ज़रुरत? महोदय भी कोई कम गरिमा-सूचक संबोधन तो नहीं है।

Thursday, October 11, 2012

आज्ञा कारी पत्नी कितनों को मिलती है? जितने उसकी आज्ञा मानने को तैयार हों !

   कभी-कभी ऐसा होता है कि  हम जो कुछ चाहें, जो कुछ कहें वह तत्काल पूरा हो जाता है।और कभी ऐसा भी होता है कि  हम लाख कोशिश करते रहें, पर कुछ नहीं होता ? मतलब यह, कि  हमारे हाथ में कुछ नहीं है। नियति ने सारे ऑप्शंस  अपने हाथ में ही रखे हैं।
   सायरा बानो ने कभी भी दिलीप कुमार को 'आप' तो दूर, 'तुम' तक नहीं कहा। हमेशा "तू".
   लेकिन अब  दिलीप साहब के बंगले के रसोइये ने बताया कि  मैडम साहब को 'आप' ही नहीं कहतीं, बल्कि उन्हें हमेशा 'साहब' भी कहती हैं। वे उनकी उपस्थिति में ही नहीं, बल्कि अनुपस्थिति में भी साहब का संबोधन देती हैं।
   मज़ेदार बात यह है कि  दिलीप साहब ने केवल एक बार कहा था- "साला मैं तो साहब बन गया".ये तो आप जानते ही हैं कि  जब ये बादशाह-बेगम शादी के बंधन में बंधे, तब साहब चवालीस के, और मेमसाहब महज़ बाईस की थीं।  

जिसकी मिसाल दे न सकें सातों आसमाँ

     गलती किसी की भी हो,ज़िम्मेदारी से बच नहीं सकता। ये यकीनन ऐसी ही दास्ताँ है जिसकी मिसाल सातों आसमान भी मिलके नहीं दे सकते।
   वो बच्ची अस्सी साल की थी तो क्या, उसका बाल-सुलभ उत्साह से खेलने-गाने का शौक अभी बरकरार था। वे सजती भी थी, खिलखिलाती भी थी तथा  बच्चे और किशोर उसे अपना व अपना सा समझ कर उसे घेरे भी रहते थे। मंच पर आने में उसकी सांस फूलती थी तो क्या, उसकी आस भी तो फलती थी। वह अभिनय सीख रही थी, ठीक वैसे ही, जैसे कोई किशोरी हथेलियों पर मेहँदी रचाना सीख रही हो। वो दिन भर सारे में घूम कर जब घर लौटती तो अपनी बड़ी बहन को दिन भर की ऊँच-नीच ऐसे सुनाती थी जैसे अभी-अभी बचपन छोड़ कर समझदार हुई हो।वह अपनी दीदी की तीसरी आँख बनी हुई थी। अपने घर के किरायेदारों से घनी सहेलियों की तरह ही ईर्ष्या भी पालती थी।
   वह इतनी बड़ी कब हो गई कि  उसकी छप्पन साल की लड़की उसे छोड़ कर चली जाये, वो भी आत्म-हत्या करके ! ठीक भी तो है, वर्षा का क्या, कभी भी बरस कर थम जाय। बात तो आशा की है, वह कभी न टूटे !

Wednesday, October 10, 2012

अमिताभ-अमिताभ-अमिताभ

    "एक था चंदर, एक थी सुधा" शायद हिंदी फिल्मों की सबसे खराब नियति का शिकार हुई।इसे धर्मवीर भारती ने 'गुनाहों का देवता' के रूप में लिखा था, इसे अमिताभ बच्चन और जया भादुड़ी ने अभिनीत किया था, लेकिन यह दर्शकों को देखने के लिए नहीं मिली।
   कहते हैं, कि  किसी के जन्मदिन पर उसकी अधूरी उपलब्धियों को याद करो तो उसकी उम्र और बढ़ जाती है। अमिताभ शतायु हों!

एक बदनसीब हूँ मैं, मुझे नहीं देखा एक बार!

   इंग्लैण्ड की कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में वैज्ञानिक मंदा बैनर्जी ने बरसों तक मेहनत की, और अरबों-खरबों प्रकाश वर्ष दूर के "शैतान" ब्लैक होल्स को ढूंढ निकाला। कहते हैं कि  जब कोई विशाल-काय तारा मर जाता है, तो धीरे-धीरे उसका शव उसी के बदन में इकट्ठा हो जाता है, और कालांतर में वह शैतान बन जाता है। । गर्व की बात है कि  मंदा जी भारतीय हैं। उन्हें इस विश्व-व्यापी उल्लेखनीय खोज के लिए जितनी बधाई दी जाए, कम है।
   बॉलीवुड के एक नायक की एक शिकायत फिजाओं में दर्ज है कि  नायिका ने फूल, दर्पण आदि जैसी छोटी मोटी चीज़ों को तो देखा, किन्तु नायक को नहीं देखा। जब भी किसी भारतीय की विदेश में बड़ी उपलब्धि होती है, तो मुझे हमेशा वही नायक याद आ जाता है। ऐसा महसूस होता है कि  इन्होने ऐसी उपलब्धि यहीं, अपने देश में क्यों नहीं पाई? उन्हें 'शैतान' ही खोजने थे तो ...यहाँ न मिलते?

Tuesday, October 9, 2012

तीसरा विश्व युद्ध

   यह कहावत बहुत प्रचलित है कि  दुनिया में एक न एक दिन पानी के लिए भी युद्ध होगा। युद्धों को लेकर कुछ अति-उत्साहित लोग तो यहाँ तक कह देते हैं, कि  तीसरा विश्व युद्ध ही पानी के लिए होगा। ऐसे योद्धा-तबीयत लोगों के मानस की यह गर्मी बनी रहे, किन्तु ईश्वर करे कि  पानी कहीं न बीते।
   इधर कुछ दिनों से एक नयी ज़मात भी उभरी है जो कहती है कि  तीसरा विश्व-युद्ध शहरों में सड़कों  पर वाहनों की अधिकता को लेकर होगा। पिछले दिनों एक कार्यक्रम में चर्चा के दौरान एक सज्जन कह रहे थे कि  अगला विश्व-युद्ध महिलाओं की दयनीय होती जाती स्थिति को लेकर होगा। उन्हें तत्काल ही एक अन्य सज्जन ने अपडेट कराया, यह कह कर कि  विश्व-युद्ध हुआ तो वह महिलाओं की बढ़ती ताकत की वजह से होगा। वहां श्रोताओं में भी "बयानाव" होने लगा।
   एक मिनट, इस बयानाव शब्द से तो आपको कोई असुविधा नहीं हो रही? यह बिलकुल आसान, 'पथराव' जैसा शब्द है। इसका तात्पर्य यह है कि  वहां एक दूसरे  पर बयान फेंके जाने लगे। और फिर देखते-देखते वहां एक अन्य ज़मात भी पुरानी उम्र की नयी फसल की भांति उग आई। उसका कहना था कि  विश्व-युद्ध अगर अब हुआ, तो केवल 'भाषा' के लिए होगा। उनकी बात कोई आसानी से काट भी न पाया, क्योंकि वे अभी ताज़ा-ताज़ा जोहान्सबर्ग से लौटे थे।

नियमानुसार काम माने हड़ताल

   यह अवधारणा बैंकों की है। वहां एक ख़ास किस्म की हड़ताल होती है, जिसे "वर्क टू  रूल"  कहते हैं। इसका अर्थ है नियमानुसार काम ! सुनने में अटपटा लग सकता है। लेकिन यह सच है कि  इस "हड़ताल" में कर्मचारी आते हैं, और बाकायदा सीट पर बैठ कर नियमों के अनुसार कार्य करते हैं। और सबसे मजेदार बात यह है कि  पब्लिक रो देती है। इसका मतलब सीधा-सीधा यह हुआ कि  "नियम" बेतुके हैं। यह केवल परिहास की बात नहीं है, वास्तव में इसका कारण  है हमारे देश की जनसँख्या। हम हर जगह संख्या-बल में इतने अधिक हैं कि  आसानी से हमारी दाल कभी नहीं गलती।  कर्मचारी आपके नोट गिनते समय नियम पालन करेगा। अर्थात वह एक-एक नोट को इस तरह चैक करके लेगा कि  दिन भर में दस प्रतिशत लोगों के पैसे ही जमा कर सके।क्योंकि यदि कोई नकली नोट आ जाता है तो यह उसकी ज़िम्मेदारी होगी।
   यदि किसी सिटी बस में कोई ज़िम्मेदार कंडेक्टर यह कहे कि  वह नियमानुसार केवल उतनी ही सवारियां ले जाएगा जितनी सीटें हैं, तो हाहाकार मच जायेगा, क्योंकि जितनी सवारियां बस में बैठी हैं, उतनी ही बाहर खड़ी रह जाएँगी।
   एक कहावत है कि  "कुछ तो गुड़  ढीला, और कुछ बनिया ढीला", तात्पर्य यह कि  सरकार भी आयोजना करते समय सौ लोगों के लिए पचास पत्तल ही लगवाती है, ताकि तरह-तरह से लुत्फ़ उठाया जा सके। कभी अपनों-अपनों को रेवड़ी बांटने का मज़ा लिया जा सके तो कभी काला-बाजारी के रास्ते खुले रहें।

Monday, October 8, 2012

आम, केला, गणतंत्र और राजनीति

    यकीनन इस समय अगर कहीं कोई बेकारी या बेरोज़गारी है तो वो मीडिया के पास है। इस समय मीडिया की हालत उस चक्की के समान है जिसमें टनों अनाज पीसने की क्षमता है पर जिसमें गेंहूं के चार दाने भी नहीं गिर रहे। अब ऐसे में ये सफ़ेद हाथी आखिर करे भी तो क्या करे। इस लिए मजबूरन इसे शाख-शाख, पात-पात झूला झूल कर रस निचोड़ना पड़ रहा है। कोई अगर कुछ न कहे तो मीडिया में खबर बनती है, कोई कुछ कहे तो खबर बनती ही है, कोई अटक-अटक कर कहे तो "ब्रेकिंग न्यूज़" बनती है। कोई धारा-प्रवाह कहे तो आवरण कथा बन जाती है। कई चैनल्स तो एक-एक नेता के भरोसे चल रहे हैं। ऐसा लगता है कि  सुबह-सुबह चैनल का कोई वाशिंदा चुपचाप जा कर नेताजी के गले में कैमरा डाल देता है, बिलकुल बिल्ली के गले में घंटी बाँधने के अंदाज़ में, और शाम को चैनल के पास फुटेज आ जाता है, जिसे सीधा दिखाओ चाहे तिरछा।
   खैर, ये तो अपने-अपने अंदाज़ हैं। आजकल गणतंत्र के पेड़ पर फल-फूल लगने का भी मौसम है। "बनाना रिपब्लिक" एक मशहूर ब्रांड है, जिसे हमारे अखबार बेवज़ह पब्लिसिटी दे रहे हैं। फिर हमारे मैंगो -मैन  कहेंगे कि  मल्टी-नेशनल्स विज्ञापन  बहुत करते हैं। ये तो राजनीति  भी नहीं है, उसका आगाज़ मात्र है।

Sunday, October 7, 2012

साहित्य, भाषा, कला और दर्शन में ही नहीं, सांख्यिकी और गणित में भी है रस!

   हर पुलिस-स्टेशन में एक बोर्ड लगा रहता है, जिस पर इलाके के अपराध दर्ज होते हैं। इस बोर्ड से किसी अवधि में अपराधों की संख्या, किस्म और उनके फैलाव का पता चलता है।यह बोर्ड अपनी फितरत में बहु-आयामी होता है। यह अधिकारियों को सांत्वना, जनता को दहशत और सरकार को आंकड़े देने का काम एक साथ करता है। इस को देखने के बाद ही हमें पता चलता है कि  खौफनाक आंकड़ों में भी कितना रस है।
   यदि किसी महीने में चोरी की वारदातें एक प्रतिशत घट कर ज्यादतियों की संख्या दो प्रतिशत बढ़ जाती है, तो पूरे नभ-मंडल में किस्म-किस्म के आकलन बादलों की तरह तैरने लगते हैं। मसलन- समाजशास्त्री कहते हैं कि  अब अर्थ शास्त्रियों का ज़माना लद  गया, अब हमारे दिन हैं। डाक्टर कहते हैं कि  बैंकर्स के दिन गए अब पैसा हम पर बरसेगा। जनता सोचने लगती है कि  गहने-ज़ेवर जाएँ तो जाएँ, घर के लोग सही सलामत वापस आ जाएँ!

आज फिर एक छोटी सी खबर ने ध्यान आकर्षित किया

   कई बार मीडिया में बहुत बड़ी-बड़ी ख़बरें चिल्ला-चिल्ला कर बताई जाती हैं, लेकिन फिर भी देखने वाले रिमोट हाथ में लेकर चैनल बदल लेते हैं। और कभी ऐसा भी होता है कि  कोई नन्ही सी खबर बहुत दुबका-छिपा कर, शर्माते-लजाते हुए बेचारा अखबार किसी कौने में चुपचाप चिपकाता है, और देखते-देखते वह खबर सबके सर चढ़ कर बोलने लगती है।
   आज ऐसा ही हुआ। अखबार ने अंतिम पृष्ठ पर नीचे कौने में, बेहद झेंपते हुए एक खबर लगाई, और एक सौ बीस करोड़ जोड़ी कान खड़े हो गए।
   खबर यह थी कि हमारे देश की एक नामी-गिरामी हस्ती के नाम की सिफारिश शान्ति के नोबल पुरस्कार के लिए की गई। दिल बाग़-बाग़ हो गया। जिस किसी का भी ध्यान इस महान आकांक्षा पर गया, वह वास्तव में प्रशंसनीय है। जिस देश में "घोटाले" रोज़ सूरज की तरह उगते हों, और सरकार का अरबों रुपया रोज़ चाँद की भाँति  डूबता हो,वहां जनता का शांत बने रहना अपने आप इस बात का सबूत है कि  कहीं न कहीं कोई शांति का मसीहा अवश्य है जो देश की ऑक्सीजन नली को मुट्ठी में भींचे घूम रहा है, वर्ना ये खामोशियाँ कोई यूँही नहीं होतीं।शुक्र है कि  आज भी लोग देश को गौतम, गाँधी और नानक का देश स्वीकार तो करते हैं, जिसे शांति पुरस्कार से नवाज़ा जा सकता है ।    

Saturday, October 6, 2012

सर, "चोर-चोर मौसेरे भाई" क्यों कहा जाता है, चचेरे भाई क्यों नहीं?

   यह अच्छी बात है कि  लोगों में महिला मामलों के प्रति अवेयरनेस आ रही है। कल मुझसे एक विद्यार्थी ने पूछा कि  मुहावरों में भी महिलाओं को ही बदनाम किया जाता है, लोग कहते हैं, चोर-चोर मौसेरे भाई, अर्थात चोरों की माँओं  को ही आपस में बहन बताया जाता है, उनके पिताओं को भाई नहीं बताते।
   इस सवाल पर मुझे करीना कपूर का ख्याल आ गया। क्योंकि उनका सर है बिलकुल डैंड्रफ फ्री! उसमें बिलकुल खुजली नहीं होती, पर मुझे देर तक सर खुजाना पड़ा।
   पर विद्यार्थी को उत्तर देना भी ज़रूरी था। मैंने कहा- देखो, यदि कोई चोर है, तो इसका क्रेडिट उसकी माँ  को दिया जाना यह सिद्ध करता है कि  किसी को भी संस्कार देने का महत्वपूर्ण कार्य मुख्यरूप से उसकी माँ  करती है, पिता नहीं। ऐसे में यदि दूसरा भी चोर है तो उसका क्रेडिट भी उसकी माँ  को ही दिया जायेगा। अतः एक चोर के लिए दूसरे चोर की माँ  भी उसकी माँ  सी ही हुई। मौसी माँ  जैसी ही होने के कारण उसे मासी  या मौसी कहा जाता है। ऐसे में दोनों चोर भी मौसेरे भाई ही कहलाते हैं। तो यहाँ भी माँ  की अहमियत ही छिपी है।

Friday, October 5, 2012

अमन-चैन और शांति के खतरे

   सारे शरीरों के संवेग एक से नहीं होते। कुछ बदन ऐसे होते हैं, जिनमें तूफ़ान ज्यादा उठते हैं।ठीक वैसे ही, जैसे सभी फूलों में खुशबू एक सी नहीं होती। लेकिन विभिन्न कारणों से समाज में या बगीचों में रहना सबको एक साथ पड़ता है। बस, यहीं से समस्याएं शुरू होती हैं।
   अनादि  काल से उद्दाम शारीरिक तरंगों वाले नौजवानों को युद्धों में काम लिया जाता रहा। उनकी मानसिकता में शत्रु पर भूखे भेड़िये  की तरह टूट पड़ना होता था। अब हमारे देश में युद्ध लगभग  बंद ही हो गए। लम्बे समय से सेनाओं के पास उस दिन के लिए 'तैयार' रहने का दायित्व है, जिस दिन कुछ होगा। सेनाओं को देश के भीतर ही  कई जिम्मेदारियां संभालनी पड़ रही हैं।
   एक बड़ी संख्या उन लोगों की है जो सेना-पुलिस की नौकरी की आस लगाए, जीवन काट रहे हैं। बहुत से बेकार भी हैं, और बहुत से हताशा में डूबे विकृत मानसिकताओं को भी जी रहे हैं। दूसरी ओर समाज लड़कियों की तुलना में लड़कों की संख्या को रोज़ बढ़ा रहा है।
   ऐसे में हमारे सामने एक ही विकल्प है- "ॐ शांति ॐ !"

उन्होंने कहा था

   एक बार हरिवंश राय बच्चन ने कहा था कि हर लिखने वाले को अपने रहते ही अपना साहित्य लेखन कुछ संकेतों के साथ दुनिया को सौंपना चाहिए। तात्पर्य यह, कि  आपने जिन लोगों को पढ़ा है, उनमें से किसकी दूरी आप अपने लेखन से सबसे कम मानते हैं। आपके प्रेरक, आदर्श, पसंदीदा लेखक वे तो सब अपनी जगह हैं ही, पर आप किसके खेत की फसल से अपनी फसल की जैसी  खुशबू उठती मानते हैं? यह किसी भी तरह 'नक़ल' या 'लेखन पर प्रभाव' जैसी कोई चीज़ नहीं है।
   ठीक इसी तरह हर लेखक को कुछ समय नए लेखकों को पढने के लिए भी निकालना चाहिए। और फिर नव-लेखन में भी आपके लिखे की सबसे छोटी या नाटी छाया आप कहाँ देख रहे हैं, यह आपको इंगित करना चाहिए। हो सकता है कि  आपको किसी भी  ठीहे पर ऐसा न मिले। ऐसे में आपको "निकटतम" खोजना चाहिए।
   बच्चन जी ने उनके घर पर हुई बातचीत में ही यह स्पष्ट किया था कि  लेखकों की एक सामूहिक मैराथन में हम सब को अपने नजदीकी इसी तरह तलाशने चाहिए। स्वयं उन्होंने खुद को उमर खैय्याम का अगला रिले-रेस धावक माना था। वे अपना अगला धावक किसे देख रहे हैं, यह सवाल अनुत्तरित ही रह गया था, क्योंकि तभी उनके पास शिवमंगल सिंह सुमन का फोन आ गया, और वे व्यस्त हो गए।
   उनकी यह अवधारणा मुझे अच्छी लगी, और मैं उस दिन से राही मासूम रजा को और चाव से पढने लगा। आज मैंने एक युवा रचनाकार त्रिपुरारि  कुमार शर्मा की कुछ रचनाएं पढ़ीं तो बच्चन जी की याद आ गई।

Thursday, October 4, 2012

सह-अस्तित्व के समीकरण बदलने पड़ेंगे

देश में इन दिनों महिला कानूनों की धूम है। उन पर अलग-अलग दृष्टिकोण सामने आ रहे हैं। हमें यह भी स्वीकारना पड़ेगा कि  इनका दुरूपयोग भी बड़े पैमाने पर शुरू हो गया है। आज वकील या अधिवक्ता महिलाओं को बता रहे हैं कि  ये आरोप लगाने पर ये धारा लगेगी, अमुक सबूत से अमुक सजा बनेगी, और तदनुसार आरोपों को 'तैयार' भी किया जा रहा है। अर्थात महिलाएं यहाँ भी पुरुषों द्वारा संचालित की जा रही हैं। जहाँ पहले लोग कहा करते थे कि  डाक्टर, वकील और पुलिस से जीवन में कभी वास्ता न पड़े, वहीँ अब सलाह दी जा रही है कि  आपका फॅमिली डाक्टर, फॅमिली कानूनी-सलाहकार और फॅमिली रक्षक ज़रूर होना चाहिए। मज़े की बात यह है कि  'सब' कमाऊ पूत हों, इस लालसा में "फॅमिली"ही आसानी से नहीं हो पा रही है।न जाने क्यों, हम यह नहीं समझना चाह रहे कि  'कानून' यदि इंसानियत पर आधारित हों, तो फिर पुरुष-कानून या महिला-कानून अलग-अलग बनाने की ज़रुरत नहीं होगी। एक "महिला के प्रति  अपराध" में भी पुरुष और महिलाएं दोनों शामिल हैं, इसी तरह पुरुष अपराध भी अपराध ही है। उनमें भी दोनों शामिल हो सकते हैं।
   हाँ, जिन कानूनों में पहले कभी महिलाओं को वंचित रखा गया था, उनमें समानता लाने के लिए प्रावधान करने ही होंगे।

Wednesday, October 3, 2012

चूहा बिल्ली कुत्ता आदमी

   आज एक छोटी सी खबर थी। एक बच्चे ने महिलाओं की सुरक्षा के लिए 'रिस्ट -वाच' में ऐसी तकनीक का प्रावधान किया है कि  किसी संकट के समय में वह उस से छेड़खानी करने वाले को बिजली का करेंट मार कर अपना तात्कालिक बचाव कर सके। इस छोटे से पवित्र प्रयास ने कई सवाल उठाये हैं-
शहरों में महिलाओं के साथ आम होती जा रही छेड़-छाड़  की घटनाओं पर एक ऐसे बच्चे ने चिंता ज़ाहिर की है जिसके शरीर में अभी "पुरुष-महिला" संबंधों की अनुगूंज शुरू भी नहीं हुई। ऐसे बच्चे भी इस 'समस्या' को देख रहे हैं, तो सवाल यह है कि  इस पर 'बड़े' क्या कर रहे हैं?
दूसरा सवाल यह है कि  हमारे आज के समाज में लड़का-लड़की क्या 'चूहा-बिल्ली' अथवा "बिल्ली-कुत्ता" वाली मानसिकता से साथ  रहेंगे? यदि कुछ लोग समाज के कीड़े-मकोड़ों की तरह ही पनप रहे हैं तो क्या इनके लिए 'हिट ' या 'फ्लिट 'जैसी जानलेवा दवाएं ही खोजनी पड़ेंगी?
एक मासूम बच्चे ने यह सोच लिया कि  रिस्ट-वाच से लड़की उसे छेड़ने वाले को करेंट मार सकेगी, अब कम से कम हम तो यह सोच लें कि क्या  इसी घड़ी  का इस्तेमाल लुटेरे राह चलते लोगों को करेंट मार कर लूटने में नहीं करेंगे?

श्राद्ध, शुभ कार्य और स्मरण पूर्वजों का !

   वर्ष में एक पखवाड़े का समय श्राद्धों के लिए निर्धारित है। कहते हैं कि  इस अवधि में हर घर में दिवंगत हो चुके लोगों को याद किया जाता है, और उनकी 'आत्मा' की तृप्ति के लिए कुछ विशेष व्यक्तियों को भोजन करा कर यह संतोष किया जाता है कि  भोजन दिवंगत आत्माओं तक पहुँच गया। भोजन में कुछ पशु-पक्षियों का भाग भी रहता है, जो शायद 'प्राणी-मात्र' को तृप्त करने के उद्देश्य से प्रतीक रूप में जोड़ा जाता है।
   यदि हम इस अनुष्ठान की तार्किकता पर न जाकर केवल भावना पर ही जाएँ, तो यह एक पवित्र सोच है, जो अपनी जड़ों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का अवसर प्रदान करती है। जो कभी इस धरती पर साक्षात थे, और हमारे दुनिया में जन्म लेने का कारण बने, उनके लिए जो भी किया जाए वह थोड़ा है। अमीर-गरीब सबका कर्तव्य बनता है कि  अन्न का कुछ भाग अपने पुरखों के लिये निकालें।
   लेकिन एक बात विचलित करती है। इन पंद्रह दिनों में कोई भी शुभ कार्य निषिद्ध क्यों है? ऐसा कौन सा पूर्वज है जो अपनी संतति को प्रसन्न होते न देखना चाहेगा, खासकर उन्हें याद करने के इन दिनों में। और हर "शुभ" कार्य शुभ ही कहाँ है? यदि इन दिनों में हम घर में कोई नयी वस्तु खरीद कर लाते हैं,तो उसके लिए घर से लक्ष्मी भी तो जाती है! हाँ, यदि लक्ष्मी के जाने के डर से हम अपनी खरीद को अशुभ मान रहे हैं, तो बात अलग है।   

नीरज,निदा फाजली दलाई लामा और वो

     वह एक छोटा सा क्लब था। क्लब ने गाँधी जयंती मनाने के लिए शाम को एक छोटे कमरे में बच्चों को इकठ्ठा कर दिया। बच्चों से कहा गया कि वे दिए हुए समय में कुछ भी करें। बच्चे इतने तो समझदार थे ही कि वे गाँधी जयंती मनाने के लिए दिए गए समय में क्रिकेट न खेलें।
    बच्चे खुश हो गए। वे गा सकते थे, रंगों से खूबसूरत चित्र बना सकते थे, गीतों की अन्त्याक्षरी खेल सकते थे। कुछ समय बाद एक बच्चे ने आकर अपने टीचर को बताया कि  उसने दलाई लामा का चित्र बनाया है। दूसरे बच्चे ने कहा कि  उसने निदा फाजली पर निबंध लिखा है। तीसरा बच्चा बोला कि  उसने नीरज के एक गीत की दो पंक्तियाँ याद की हैं।
    टीचर ने घोषणा की कि  अब समय समाप्त होता है, बच्चे जा सकते हैं। बच्चे चहकते हुए चले गए। जाते हुए बच्चों की आवाज़ में टीचर ने एक आवाज़ सुनी- टीपू सुलतान की जय! टीचर का माथा ठनका, गाँधी जयंती पर बच्चे टीपू सुलतान की जय क्यों बोल रहे हैं?
     टीचर की समझ में कुछ न आया। कमरे का दरवाज़ा बंद करते समय जब टीचर ने लाइट बुझानी चाही तभी टीचर के दिमाग की बत्ती जली। ज़मीन पर रखे एक अखबार में दलाईलामा का फोटो दिखाई दिया। पास ही में नीरज का एक गीत छपा था, और नीचे निदा फाजली का इंटरव्यू था। अब टीचर इतना भी नासमझ तो नहीं था, कि  टीपू सुल्तान की जय का तात्पर्य न जाने। आखिर 'क्रियेटिविटी' की क्लास चलाता था।

Tuesday, October 2, 2012

उपचार

   एक युवक की तबियत खराब हो गई। वह गुमसुम रहने लगा। न उसका मन घूमने-फिरने में लगता, न खाने-बोलने में। इस उम्र में ऐसा बर्ताव देख कर घरवाले चिंतित हुए। उसे डाक्टर के पास भेजा गया। डाक्टर के बहुत पूछने पर उसने बताया- मुझे दुनिया में किसी पर भी विश्वास नहीं होता। किसी भी आदमी को देख कर लगता है, यह भ्रष्टाचारी है, देश को लूट कर खा रहा है। किसी भी औरत को देख कर लगता है, यह दुनिया के अनुशासन को तोड़ने के लिए ही बनी है, इसे कहीं भी, कैसे भी, बस खुली हवा और स्वाधीन जिंदगी चाहिए।
  डाक्टर ने कहा- लेकिन इसमें तुम्हे क्या परेशानी है? तुमने क्यों खाना-पीना छोड़ रखा है?
  युवक कुछ न बोला।उसके साथ आये परिजन आपस में बातें करने लगे- चलो, किसी दूसरे  डाक्टर के पास ले चलते हैं। डाक्टर एकाएक सकपका गया, बोला- नहीं-नहीं, ठहरो- ये लो दवा की पर्ची,ये गोलियां एक-एक घंटे बाद खाना, पांच सौ रूपये!
   परिजन संतुष्ट थे। इलाज हो गया था।

Monday, October 1, 2012

अपवाद

   यह माना जाता है कि  कोई भी व्यक्ति अपने खुद के हित पूरे करने के लिए जवाब-देह न हो।ऐसी स्थिति को "स्वार्थ" कहा जाता है।हमेशा यह व्यवस्था की जाती है कि कोई अन्य व्यक्ति या एजेंसी ही किसी  के हितों या हक़ की जांच करे। घास की रखवाली बकरी को, या मांस की रखवाली शेर को नहीं दी जा सकती। इसीलिए किसी भी व्यवस्था में किसी के काम का मूल्य कोई और निर्धारित करता है। यदि आपका पुत्र कोई परीक्षा दे रहा है, तो उस परीक्षा के परीक्षक या आयोजक  आप नहीं हो सकते। यदि आप कोई लॉटरी  निकाल रहे हैं, तो वह स्वयं आपके नाम नहीं निकल सकती। यह नियम नैतिकता को बल प्रदान करने के लिए बनाए जाते हैं। इस तरह किसी भी समाज में नैतिकता के उच्च मानदंड स्थापित किये जाते हैं।
   किन्तु हर नियम के कुछ अपवाद भी होते हैं। यह नियम भी कोई अपवाद नहीं है। इसका भी अपवाद है। जैसे ...जैसे भारतीय सांसदों के वेतन और भत्तों का निर्धारण खुद सांसद ही करते हैं।

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...