राष्ट्रपति भवन में जब-जब जो भी शख्सियत रही है, कोई न कोई मौलिक छाप लगभग सभी ने छोड़ी है। राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने दो परम्पराओं को तिलांजलि दी। एक तो राष्ट्रपति भवन में तब तक केवल अंग्रेजी के ही अखबार मंगवाए जाने की परंपरा थी, पर उन्होंने विशेष रूप से कह कर वहां हिंदी के अखबारों की व्यवस्था भी करवाई। दूसरे,राष्ट्रपति से मिलने आने वालों के लौटते समय राष्ट्रपति का उनके साथ देहलीज़ तक आना वर्जित था। राष्ट्रपति के प्रोटोकॉल के अनुसार उन्हें भीतर से ही राष्ट्रपति से रुखसत होना पड़ता था। इस प्रथा को ज्ञानी जैल सिंह ने बदल दिया। वैसे भी, कहा जाता है कि घर आये अतिथि को देहरी तक छोड़ने आना एक स्वस्थ परंपरा है। केवल घर में कोई गमी हो जाने पर ही अतिथि को बाहर तक आकर नहीं छोड़ा जाता।पूर्व-राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने मेहमानों को परोसे जाने वाले खाने-नाश्ते में अपनी पसंद को शामिल करने की पहल की। तब तक किसी के आने पर खुद राष्ट्रपति को भी यह पता नहीं होता था कि उनके मेहमान को क्या खिलाया जाने वाला है। यद्यपि, कुछ घटिया वहां किसी को कभी नहीं खिलाया गया।
मौजूदा राष्ट्रपति ने भी एक पुरानी प्रथा को नया रूप दिया है। अब वे अपने को महामहिम नहीं कहलवायेंगे। सही है, इस संबोधन में एक राजसी सामंतशाही की हलकी सी झलक तो थी ही। कोई अपने व्यक्तित्व में कोई कमी रखे तो उसे आभरणों से लादे, प्रणव मुखर्जी को इसकी क्या ज़रुरत? महोदय भी कोई कम गरिमा-सूचक संबोधन तो नहीं है।
मौजूदा राष्ट्रपति ने भी एक पुरानी प्रथा को नया रूप दिया है। अब वे अपने को महामहिम नहीं कहलवायेंगे। सही है, इस संबोधन में एक राजसी सामंतशाही की हलकी सी झलक तो थी ही। कोई अपने व्यक्तित्व में कोई कमी रखे तो उसे आभरणों से लादे, प्रणव मुखर्जी को इसकी क्या ज़रुरत? महोदय भी कोई कम गरिमा-सूचक संबोधन तो नहीं है।
महोदय भी कोई कम गरिमा-सूचक संबोधन तो नहीं है।
ReplyDeleteBADE LOGO KI BADI PASAND
Bilkul theek kaha aapne! Dhanyawad!
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