देश में इन दिनों महिला कानूनों की धूम है। उन पर अलग-अलग दृष्टिकोण सामने आ रहे हैं। हमें यह भी स्वीकारना पड़ेगा कि इनका दुरूपयोग भी बड़े पैमाने पर शुरू हो गया है। आज वकील या अधिवक्ता महिलाओं को बता रहे हैं कि ये आरोप लगाने पर ये धारा लगेगी, अमुक सबूत से अमुक सजा बनेगी, और तदनुसार आरोपों को 'तैयार' भी किया जा रहा है। अर्थात महिलाएं यहाँ भी पुरुषों द्वारा संचालित की जा रही हैं। जहाँ पहले लोग कहा करते थे कि डाक्टर, वकील और पुलिस से जीवन में कभी वास्ता न पड़े, वहीँ अब सलाह दी जा रही है कि आपका फॅमिली डाक्टर, फॅमिली कानूनी-सलाहकार और फॅमिली रक्षक ज़रूर होना चाहिए। मज़े की बात यह है कि 'सब' कमाऊ पूत हों, इस लालसा में "फॅमिली"ही आसानी से नहीं हो पा रही है।न जाने क्यों, हम यह नहीं समझना चाह रहे कि 'कानून' यदि इंसानियत पर आधारित हों, तो फिर पुरुष-कानून या महिला-कानून अलग-अलग बनाने की ज़रुरत नहीं होगी। एक "महिला के प्रति अपराध" में भी पुरुष और महिलाएं दोनों शामिल हैं, इसी तरह पुरुष अपराध भी अपराध ही है। उनमें भी दोनों शामिल हो सकते हैं।
हाँ, जिन कानूनों में पहले कभी महिलाओं को वंचित रखा गया था, उनमें समानता लाने के लिए प्रावधान करने ही होंगे।
हाँ, जिन कानूनों में पहले कभी महिलाओं को वंचित रखा गया था, उनमें समानता लाने के लिए प्रावधान करने ही होंगे।
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