Wednesday, October 3, 2012

श्राद्ध, शुभ कार्य और स्मरण पूर्वजों का !

   वर्ष में एक पखवाड़े का समय श्राद्धों के लिए निर्धारित है। कहते हैं कि  इस अवधि में हर घर में दिवंगत हो चुके लोगों को याद किया जाता है, और उनकी 'आत्मा' की तृप्ति के लिए कुछ विशेष व्यक्तियों को भोजन करा कर यह संतोष किया जाता है कि  भोजन दिवंगत आत्माओं तक पहुँच गया। भोजन में कुछ पशु-पक्षियों का भाग भी रहता है, जो शायद 'प्राणी-मात्र' को तृप्त करने के उद्देश्य से प्रतीक रूप में जोड़ा जाता है।
   यदि हम इस अनुष्ठान की तार्किकता पर न जाकर केवल भावना पर ही जाएँ, तो यह एक पवित्र सोच है, जो अपनी जड़ों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का अवसर प्रदान करती है। जो कभी इस धरती पर साक्षात थे, और हमारे दुनिया में जन्म लेने का कारण बने, उनके लिए जो भी किया जाए वह थोड़ा है। अमीर-गरीब सबका कर्तव्य बनता है कि  अन्न का कुछ भाग अपने पुरखों के लिये निकालें।
   लेकिन एक बात विचलित करती है। इन पंद्रह दिनों में कोई भी शुभ कार्य निषिद्ध क्यों है? ऐसा कौन सा पूर्वज है जो अपनी संतति को प्रसन्न होते न देखना चाहेगा, खासकर उन्हें याद करने के इन दिनों में। और हर "शुभ" कार्य शुभ ही कहाँ है? यदि इन दिनों में हम घर में कोई नयी वस्तु खरीद कर लाते हैं,तो उसके लिए घर से लक्ष्मी भी तो जाती है! हाँ, यदि लक्ष्मी के जाने के डर से हम अपनी खरीद को अशुभ मान रहे हैं, तो बात अलग है।   

3 comments:

  1. भारत विविधता का देश है। एक ही पर्व समय के साथ अलग-अलग लोगों के लिये अलग-अलग अर्थ लेकर आता है। किसी के लिये पूर्वजों की याद है और किसी के लिये काकभोज मात्र। श्राद्ध में शुभ कार्य आरम्भ करने वाले परिवार आज भी हैं भले ही संख्याबल में कम हों। यदि कुछ नया न भी कर सकें तो बच्चों को किसी अन्य पर्व की तरह नये कपड़े पहनाने की परम्परा तो एक पूरे समुदाय में है। वह बात अलग है कि नये राजनीतिक-आर्थिक-आरक्षित-अन्धविश्वासी समीकरणों के चलते वे गरीब नये कपड़े के नाम पर आज केवल रुमाल खरीद पाने की हालत में ला दिये गये हैं।

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  2. भारत विविधता का देश है। एक ही पर्व समय के साथ अलग-अलग लोगों के लिये अलग-अलग अर्थ लेकर आता है। किसी के लिये पूर्वजों की याद है और किसी के लिये काकभोज मात्र। श्राद्ध में शुभ कार्य आरम्भ करने वाले परिवार आज भी हैं भले ही संख्याबल में कम हों। यदि कुछ नया न भी कर सकें तो बच्चों को किसी अन्य पर्व की तरह नये कपड़े पहनाने की परम्परा तो एक पूरे समुदाय में है। वह बात अलग है कि नये राजनीतिक-आर्थिक-आरक्षित-अन्धविश्वासी समीकरणों के चलते वे गरीब नये कपड़े के नाम पर आज केवल रुमाल खरीद पाने की हालत में ला दिये गये हैं।

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  3. Dhanywad, maine 'roti' ko isi liye dabaya tha, ki vah phool jaye. aisa hi kiya aapne, meri baat poori kar di. Aaj hamari bahut si paramparayen aur rivaz vyapariyon dwara sanchaalit, protsaahit aur prayojit hain.

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