यकीनन इस समय अगर कहीं कोई बेकारी या बेरोज़गारी है तो वो मीडिया के पास है। इस समय मीडिया की हालत उस चक्की के समान है जिसमें टनों अनाज पीसने की क्षमता है पर जिसमें गेंहूं के चार दाने भी नहीं गिर रहे। अब ऐसे में ये सफ़ेद हाथी आखिर करे भी तो क्या करे। इस लिए मजबूरन इसे शाख-शाख, पात-पात झूला झूल कर रस निचोड़ना पड़ रहा है। कोई अगर कुछ न कहे तो मीडिया में खबर बनती है, कोई कुछ कहे तो खबर बनती ही है, कोई अटक-अटक कर कहे तो "ब्रेकिंग न्यूज़" बनती है। कोई धारा-प्रवाह कहे तो आवरण कथा बन जाती है। कई चैनल्स तो एक-एक नेता के भरोसे चल रहे हैं। ऐसा लगता है कि सुबह-सुबह चैनल का कोई वाशिंदा चुपचाप जा कर नेताजी के गले में कैमरा डाल देता है, बिलकुल बिल्ली के गले में घंटी बाँधने के अंदाज़ में, और शाम को चैनल के पास फुटेज आ जाता है, जिसे सीधा दिखाओ चाहे तिरछा।
खैर, ये तो अपने-अपने अंदाज़ हैं। आजकल गणतंत्र के पेड़ पर फल-फूल लगने का भी मौसम है। "बनाना रिपब्लिक" एक मशहूर ब्रांड है, जिसे हमारे अखबार बेवज़ह पब्लिसिटी दे रहे हैं। फिर हमारे मैंगो -मैन कहेंगे कि मल्टी-नेशनल्स विज्ञापन बहुत करते हैं। ये तो राजनीति भी नहीं है, उसका आगाज़ मात्र है।
खैर, ये तो अपने-अपने अंदाज़ हैं। आजकल गणतंत्र के पेड़ पर फल-फूल लगने का भी मौसम है। "बनाना रिपब्लिक" एक मशहूर ब्रांड है, जिसे हमारे अखबार बेवज़ह पब्लिसिटी दे रहे हैं। फिर हमारे मैंगो -मैन कहेंगे कि मल्टी-नेशनल्स विज्ञापन बहुत करते हैं। ये तो राजनीति भी नहीं है, उसका आगाज़ मात्र है।
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