Thursday, October 11, 2012

जिसकी मिसाल दे न सकें सातों आसमाँ

     गलती किसी की भी हो,ज़िम्मेदारी से बच नहीं सकता। ये यकीनन ऐसी ही दास्ताँ है जिसकी मिसाल सातों आसमान भी मिलके नहीं दे सकते।
   वो बच्ची अस्सी साल की थी तो क्या, उसका बाल-सुलभ उत्साह से खेलने-गाने का शौक अभी बरकरार था। वे सजती भी थी, खिलखिलाती भी थी तथा  बच्चे और किशोर उसे अपना व अपना सा समझ कर उसे घेरे भी रहते थे। मंच पर आने में उसकी सांस फूलती थी तो क्या, उसकी आस भी तो फलती थी। वह अभिनय सीख रही थी, ठीक वैसे ही, जैसे कोई किशोरी हथेलियों पर मेहँदी रचाना सीख रही हो। वो दिन भर सारे में घूम कर जब घर लौटती तो अपनी बड़ी बहन को दिन भर की ऊँच-नीच ऐसे सुनाती थी जैसे अभी-अभी बचपन छोड़ कर समझदार हुई हो।वह अपनी दीदी की तीसरी आँख बनी हुई थी। अपने घर के किरायेदारों से घनी सहेलियों की तरह ही ईर्ष्या भी पालती थी।
   वह इतनी बड़ी कब हो गई कि  उसकी छप्पन साल की लड़की उसे छोड़ कर चली जाये, वो भी आत्म-हत्या करके ! ठीक भी तो है, वर्षा का क्या, कभी भी बरस कर थम जाय। बात तो आशा की है, वह कभी न टूटे !

9 comments:

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