Friday, May 31, 2013

हम इतने महान कैसे बने ?[अंतिम]

राजा के सांत्वना देने पर मालिन बोली-"महाराज, आपका बेटा घोड़े पर बैठ कर मंदिर के सामने से निकल रहा था, वह दर्शन करने के लिए उतरा तो मेरी बेटी ने जाकर एक माला उसके गले में डाल दी और अब जिद पकड़ कर बैठी है, कि  राजकुमार से शादी करेगी।"
राजा यह सुन कर आग-बबूला हो गया, बोला- "यह क्या मज़ाक है, उसे समझाओ, ऐसा नहीं हो सकता।"
मालिन बोली- "मैंने उसे बहुत समझाया, वह तो जान देने पर उतारू थी, पर मुश्किल से वह एक शर्त पर अपनी जिद छोड़ने पर तैयार हुई है।"
राजा ने फ़ौरन कहा- "क्या शर्त है, जल्दी बोलो, हमें सब मंज़ूर है।"
मालिन ने कहा- "वह चाहती है कि  आप सिर्फ एक दिन के लिए उसे राज्य की रानी बनादें "
राजा सोच में पड़ गया। प्रधान मंत्री ने फ़ौरन कहा- "सोच क्या रहे हैं महाराज, हाँ कह दीजिये, जान भी  छूटेगी, और प्रजा आपको महान भी कहेगी।"
राजा ने कहा- "हमें मंज़ूर है, पर हमारी भी एक शर्त है, प्रजा को यह वचन देना होगा- "फिर कभी कोई भी  किसी बात पर सट्टा नहीं खेलेगा। "
सारा वातावरण राजा की जय-जय कार से गूँज उठा।
   

Tuesday, May 28, 2013

हम इतने महान कैसे बने ? [छह]

राजा ने सोचा था कि  थोड़े दिन रानी के हाथ में शासन देने का नाटक करेंगे, घर भी वह संभालेगी, दरबार भी वही, आराम से शिकार खेलेंगे, घूमेंगे-फिरेंगे। पर यहाँ तो माजरा ही दूसरा था। ये तो जोर-शोर से इतिहास रचने में जुट गई।
राजा ने प्रधान मंत्री की राय ली। प्रधान मंत्री बोला- महाराज, आज तक किसी महिला ने शासन तभी किया है, जब उसका पति न रहा हो, या फिर शासन-योग्य न हो, आप अपने होते हुए इस चक्कर में न पड़ें।राजा को बात ठीक लगी। उसने रानी से कह दिया, कि  महिलाएं न चाहें, तो कोई बात नहीं, वे ये दायित्व न लें।
राजा रानी का विचार-विमर्श चल ही रहा था कि  तभी महल में तेज़ी से एक मालिन ने प्रवेश किया। वह हाथ जोड़ कर बोली- महाराज मुझे क्षमा करें, पर मैं राजकुमार की शिकायत करने आई हूँ।उसकी बेबाकी से राजा-रानी दोनों सन्न रह गए।
वह बोली- मैं अकेली विधवा जंगल से फूल चुन कर मंदिर के बाहर मालाएं बेच कर गुज़ारा करती हूँ। मेरी एक छोटी सी बेटी है। मैं उसका लालन-पालन कर रही हूँ, पर आज तो अनर्थ हो गया।
उसके इतना कहते ही राजा-रानी चिंता में पड़  गए।  

Monday, May 27, 2013

हम इतने महान कैसे बने? [पाँच ]

राजा को कोई उत्तर देने से पहले रानी ने उनसे दो दिन की मोहलत मांगी, जो उन्हें तुरंत मिल गई।
अगली सुबह रानी ने महल में राज्य की प्रतिष्ठित महिलाओं की एक बैठक बुलाई। उन्हें संबोधित करते हुए रानी ने कहा- "हमें दैवयोग से इस राज्य का शासन मिल रहा है, किन्तु हम इसे स्वीकार करने से पहले आप सब की राय जानना चाहते हैं, आप सब बारी-बारी से अपनी बात कहें।"
महिलाओं ने कहना शुरू किया- "हमारा राज्य शुरू होते ही इसकी तुलना पुरुष शासकों से होने लगेगी, अतः यह सुनिश्चित किया जाय, कि  क्या वे भी हमें शासन चलाने में वैसा ही सहयोग देंगे, जैसा हम उन्हें देते हैं?"एक महिला बोली।
दूसरी ने कहा- "जब आप दरबार में जायेंगी, तो क्या राजा आपके वस्त्र, भोजन, समय और सुविधाओं का वैसा ही ध्यान रख पाएंगे, जैसा आप उनका रखती हैं?"
तीसरी ने कहा- "जब आप राज-काज के सिलसिले में अन्य पुरुषों के साथ उठना-बैठना, बातचीत या खानपान का व्यवहार करेंगी तो क्या  राजा बिना किसी ईर्ष्या-जलन के उसे स्वीकार करेंगे?"
चौथी ने कहा- "क्या राजा राजकुमार की देखभाल, लालन-पालन की ज़िम्मेदारी उठाएंगे?"
बैठक अभी चल ही रही थी कि  राजा, जो छिपकर इन लोगों की बातें सुन रहे थे, चिंतित हो गए।

Saturday, May 25, 2013

हम इतने महान कैसे बने? [चार]

राजकुमार की आयु अभी मात्र सत्रह वर्ष थी। राजा ने सोचा, क्या इस कच्ची उम्र में इस पर राज्य का बोझ डालना उचित रहेगा? कहीं ऐसा न हो कि  राजा अपने अधिकार छोड़ दे, और राजकुमार अपने कर्त्तव्य पकड़ न पाए। ऐसे में राज्य का पतन तय था।
राजा ने राज-ज्योतिषी की राय लेनी चाही। राज-ज्योतिषी ने कहा- "भविष्य में दूर-दूर तक राज्य को कोई खतरा नज़र नहीं आता। राजा चाहे जो भी निर्णय लें, राज्य खुशहाल और सुरक्षित ही रहेगा। किन्तु ..."
किन्तु क्या, महाराज? राजा ने विचलित होकर पूछा।
राज-ज्योतिषी ने कहा- एक धर्म-संकट अवश्य है, कुछ समय के लिए यह राज्य किसी स्त्री-शासक के हाथ में जाने का योग अवश्य बन रहा है।
राजा ने प्रसन्न होकर कहा- इसमें कैसा धर्म-संकट? यह तो और भी अच्छा है, कुछ समय के लिए, जब तक राजकुमार वयस्क हो, हम महारानी को सत्ता सौंप देते हैं।
महारानी चिंता में पड़ गईं।   

Friday, May 24, 2013

हम इतने महान कैसे बने? [तीन]

राज्य का खज़ाना खाली होते देख राजा चिंतित हो गया। उसने प्रधान मंत्री से मंत्रणा की। प्रधान मंत्री ने कहा- आप बिलकुल चिंता न करें, इस समस्या का समाधान मुझ पर छोड़ दें।
अगले दिन प्रधान मंत्री ने घोषणा करवा दी कि  जिन लोगों ने भी महल में अपने  कबूतर दिए हैं, वे रोज़ दो-दो मोहरें उन कबूतरों के दाने-पानी के लिए महल में जमा कराएं, जिनका कबूतर इसके अभाव में मर गया उन्हें भारी दंड चुकाना होगा।
देखते-देखते शाही खजाने में अपार दौलत आने लगी, पर जनता इस रोज के दंड से त्राहि-त्राहि करने लगी।राजा का दिल प्रजा के कष्ट से पसीज गया।
राजा ने राजपुरोहित से मशविरा किया। राजपुरोहित ने कहा- प्रजा को कष्ट से बचाने  का एक ही रास्ता है, आप जनता के ऊपर लगाया गया कर-भार माफ़ करदें, किन्तु बिना किसी कारण से जनता को राहत देने से वह अकर्मण्य और नाकारा हो जाएगी, इसलिए  बेहतर होगा कि  यह लाभ जनता को किसी ख़ास मौके पर मिले।
राजा को यह बात जँची, लेकिन सवाल ये था कि  ख़ास मौका  क्या हो? राजपुरोहित ने इसका भी उपाय बता दिया- बोला- आप अपने पुत्र को राजा बना दें, और उसके राजतिलक के शुभ अवसर पर जनता को यह तोहफा देदें।
राजा चिंता में पड़  गया।    

हम इतने महान कैसे बने? [दो]

गुप्तचरों से यह जवाब सुन कर राजा चिंता में पड़ गया। उसे लगा, यह तो बुरी बात है, जनता जुआ खेले, और उससे अमीर बने, यह तो उचित नहीं।  राजा ने मन ही मन कुछ निश्चय किया।
अगले दिन से शाम को राजा के व्यवहार में अजीब सा परिवर्तन आ गया।वह कबूतर हाथ में लेकर उड़ाने लगता, फिर अचानक रानी से कहता, अच्छा लो, इसे तुम उड़ाओ। कभी रानी को पहले कबूतर देता, और जब वह उसे उड़ाने लगती, तो अचानक उसके हाथ से छीन लेता और कहता, नहीं-नहीं, मैं उड़ाऊंगा।
इस विचित्र व्यवहार से रानी चिंता में पड़  गई। उसने राज वैद्य से सलाह की। राज वैद्य ने कहा- इसका एक ही उपाय है। अब तक आप लोगों ने जितने भी कबूतर उड़ाए  हैं, वे सभी वापस लाये जाएँ,तो राजा ठीक होकर ये विचित्र आदत छोड़ सकते हैं।
रानी ने मुनादी करवा दी कि  जो कोई भी सफ़ेद कबूतर लाकर देगा, उसे कबूतर की कीमत के अलावा एक सोने की मोहर इनाम में दी जायेगी।
देखते-देखते प्रजाजनों की भीड़ महल के द्वार पर लगने  लगी। सबके हाथ में कबूतर थे। महल का पूरा अहाता कबूतरों का दड़बा  बन गया, और राज्य का खज़ाना तेज़ी से खाली होने लगा। 

Thursday, May 23, 2013

हम इतने महान कैसे बने?

एक राजा था। वह दिनभर राजकाज में व्यस्त रहता पर शाम होते ही थोड़े आराम, और हवा बदलने की गरज से महल की छत पर आ जाता। उसके साथ महल की छत पर रानीजी भी आतीं। दोनों चहलकदमी करते। राजा को एक अनोखा शौक था। वह रोज़ शाम को छत पर एक सफ़ेद कबूतर मंगवाता और उसे आसमान की ओर  उड़ा  देता। कुछ दिन तक यह खेल रानी ने देखा, फिर वह एक दिन पूछ बैठी- "आप रोज़ कबूतर आकाश में क्यों उड़ाते हैं?"
राजा ने कहा- "यह शान्ति का प्रतीक है, इससे शांति और समृद्धि आती है।" यह सुन कर रानी ने भी राजा से कबूतर उड़ाने की ख्वाहिश ज़ाहिर की।
अब रोज़ कबूतर लाया जाता और कभी राजा तो कभी रानी उसे उड़ाते।
दूर-दूर से प्रजाजन शाम होते ही महल की छत की ओर निहारने लगते, और राजा या रानी को कबूतर उड़ाते देख आनंदित होते।
राज्य में सचमुच खुशहाली आने लगी। सब समृद्ध होने लगे। धन बरसने लगा।
राजा को अचरज हुआ, एकाएक इतनी सम्पन्नता राज्य में भला किस तरह आ सकती है? राजा ने अपने गुप्तचरों को इस काम पर लगा दिया। कहा, यह पता  लगाएं, कि  सब खुशहाल कैसे हो रहे हैं?
कुछ दिन में गुप्तचर खबर लाये। उन्होंने राजा को बताया- "रोज़ शाम को आप या रानी साहिबा छत से  कबूतर उड़ाते हैं। प्रजा में इस बात पर भारी सट्टा  लगता है कि  आज राजा या रानी में से कौन कबूतर उड़ाएगा ? इसी सट्टे से जनता मालामाल होती जा रही है।"

अपने कष्ट कम कैसे करें

कष्ट बहुत बुरी चीज़ है। यह कभी किसी को न हो। लेकिन केवल चाहने से कष्ट कम नहीं होते। इसके लिए प्रयास करने पड़ते हैं।
और यह प्रयास समय-समय पर किये जाते हैं। इस समय भी किये जा रहे हैं। ऐसे प्रयास मीडिया कर रहा है।
अब आप यह भी जानना चाहेंगे कि  मीडिया यह प्रयास कर कैसे रहा है।
जब भी हम किसी भी तरह की परेशानी में होते हैं, तब मीडिया झटपट हमें यह बता देता है कि  केवल आप ही नहीं, दूसरे भी परेशानी में हैं। जैसे-
यदि कहीं बम का विस्फोट होता है, तो मीडिया तुरंत आपको बता देता  है कि  ऐसा दूसरे  देशों में भी होता है। यदि कहीं आग लग जाती है तो खबर आती है कि  दूसरे  देशों में भी लग जाती है। यदि कहीं भूख या बेरोज़गारी है तो आपके लिए यह जानकारी हाज़िर है कि  और किस-किस  देश में भी बेरोज़गारी है। यदि कहीं भ्रष्टाचार हुआ है, तो फ़ौरन जान लीजिये कि  और देशों में भी तो हुआ है।
हाँ, यदि दूसरे  देशों में कुछ अच्छा हुआ है और हमारे यहाँ नहीं हो पाया तो मीडिया कुछ नहीं कहेगा, अब इस से आपके कष्ट बढ़ें तो बढ़ें।

Wednesday, May 22, 2013

दोनों हॉट हैं, इसलिए ऐसा हुआ

कल मैं पीज़ा की बात करते-करते फिल्मों की बात करने लगा, तो पढ़ने वालों को ऐसा लगना स्वाभाविक ही था कि  कहीं कोई भूल हो गई। अब मैं फिरसे बताता हूँ कि  मैं क्या कह रहा था।
मैं कह रहा था कि  यदि हम केवल आज के दर्शकों की राय के आधार पर यह जानेंगे कि  पिछले सौ सालों में सबसे अच्छा क्या था, तो शायद उस समय के साथ न्याय नहीं हो पायेगा जो बहुत पहले बीत गया। यह ठीक है कि  आज कई उम्रदराज़ लोग भी मौजूद हैं, जो पुरानी पीढ़ी  का प्रतिनिधित्व करते हैं, पर उनमें से "वोट" कितने देंगे? और वोटिंग में तो एक-एक वोट से परिणाम बदल जाता है। वैसे ही, जैसे उदाहरण के रूप में हम आज के लोगों से उनके पसंदीदा भारतीय व्यंजन का नाम पूछें तो वे पीज़ा का नाम ले लेंगे,इस बात की परवाह किये बिना, कि वह कहाँ का व्यंजन है। दूसरे, उन्हें बहुत से उन व्यंजनों के बारे में पूरी जानकारी नहीं होगी जो सालों पूर्व लोकप्रिय रहे होंगे।
यह विचार मुझे इसलिए आया कि एक साइट पर मैंने "सौ साल की सर्वश्रेष्ठ हीरोइन" के चयन नामांकन देखे। वहां कामिनी कौशल का नाम था, पर माला सिन्हा, निरुपाराय, सुचित्रा सेन, राखी गुलज़ार का नाम नहीं था। नीतू सिंह का नाम था, पर जयाप्रदा , रीना राय, दीप्ति नवल का नाम नहीं था। मीनाक्षी शेषाद्रि  का नाम था, पर पद्मिनी कोल्हापुरे, रति अग्निहोत्री का नाम नहीं था। और दीपिका पादुकोणे का नाम था, पर प्रियंका चोपड़ा का नाम नहीं था।

Tuesday, May 21, 2013

पिछले सौ सालों का सबसे स्वादिष्ट भारतीय व्यंजन- पीज़ा

भारत का सिनेमा अपने सौ साल पूरे होने का जश्न मना रहा है। कुछ अति-उत्साही लोग सौ सालों की उपलब्धियों को इतिहास में दर्ज कर देने की महत्वाकांक्षा भी पाले हुए हैं। यह अस्वाभाविक नहीं है।
फिर अस्वाभाविक या ग़लत  क्या है?
गलत है वह तरीका, जिससे इन उपलब्धियों को आंकने का काम हो रहा है। एक मशहूर साइट ने पिछले सौ सालों की ३८ अभिनेत्रियों के चित्र उनके संक्षिप्त परिचय के साथ पाठकों को "वोटिंग" के लिए परोस दिए हैं। एक जगह कुछ चुनिन्दा फिल्मों पर लोगों की राय 'शताब्दी की सर्वश्रेष्ठ फिल्म' के रूप में मांगी गई है।
इन प्रयासों के जो परिणाम आयेंगे, उनकी कसौटी तो बाद में होगी, अभी उनका नामांकन-चयन ही पूरी तरह निष्पक्ष नहीं कहा जा सकता।
क्षमा करें, "जॉनी -जॉनी यस पापा" पढ़ने वाली पीढ़ी  'गीतांजलि' या 'कामायनी' को वोट शायद ही दे। ऐसे में "अपने" को चुनिए, पर ये मत कहिये कि  आप सौ साल के सबसे बढ़िया हैं।

ऐसा क्यों होता है

जब किसी देश का कोई बड़ा नेता किसी दूसरे  देश के दौरे पर जाता है, तो मीडिया का ध्यान उस देश से सम्बंधित सभी मुद्दों पर तेज़ी से जाने लगता है। न जाने क्यों, मीडिया भी अब ऐसा ही समझने लगा है कि  उसकी भूमिका वहीँ है जहाँ कुछ अनहोनी हो जाये। सामान्य ढंग से चलते कामकाज के समय मीडिया अपने को लाचार पाता है।और अब एक लाचारी ये है, कि  मीडिया खूब सघन है। ऐसे में यदि कुछ न हो तो वह क्या करे।
आज जब हम ये ख़बरें पढ़ रहे हैं कि  भारत और चाइना के बीच विकास के करार हो रहे हैं, सद्भाव के प्रयास हो रहे हैं, तो इसका कारण यही है कि  वहां के प्रधानमन्त्री हमारे बीच आये। कुछ दिन पहले ये ख़बरें  भी हम इसीलिए पढ़ पा रहे थे, कि  चाइना ने हमारे क्षेत्र में घुसपैठ कर ली है।
हम चाइना की वस्तुओं की तरह आपसी संबंधों को भी मुहावरा बनाने से रोक सकें, ये ज़िम्मेदारी भी मीडिया को लेनी चाहिए।

Friday, May 17, 2013

कनेक्टिविटी

एक गाँव के छोटे से स्कूल में सुबह के समय एक बच्चा बैठा अपने बैग में रखी कहानी की किताब पढ़ रहा था। किताब में एक छोटी कहानी थी, कि - "एक आदमी के पास एक मुर्गी थी। वह रोज़ एक अंडा देती थी। आदमी कभी अंडा खाता, कभी बेच देता। एकदिन आदमी के मन में यह लालच-भरा विचार आया, कि  क्यों न मैं मुर्गी को चीर कर सारे अंडे एक साथ ही  निकाल लूं। आदमी ने तेज़ चाकू लेकर मुर्गी का पेट चीर डाला। वहां से अंडे तो नहीं निकले, लेकिन एक "पोटली" ज़रूर निकली। पोटली में ढेर सारा पछतावा भरा था।"
बच्चे ने कहानी सब को सुनाई।
धीरे-धीरे बच्चों का मन कहानी-किताबों से हटने लगा। वे अब खेलना पसंद करते थे, ताकि बड़े होकर खूब नाम और पैसा कमा सकें।
एकबार कुछ बच्चों ने खेल-खेल में खूब नाम कमा लिया। उन्होंने सोचा अब अपने नाम को बेच कर खूब सारा पैसा भी कमा लिया जाये। बच्चों ने बचपन में मुर्गी वाली कहानी तो पढ़ी नहीं थी, अतः उन्हें यह पता नहीं था, कि  रोज़ अंडे खाने से ताकत आती है, और सारे अंडे एक ही दिन निकाल लेने से मुर्गी मर जाती है। उन्हें ये कौन बताता कि  खेलने से मज़े भी आते हैं, और पैसे भी मिलते हैं, जबकि खेल को बेचने से मुर्गी की तरह खेल भी मर जाता है। बच्चे खेल बेचने का खेल खेलने लगे।  
आखिर एकदिन बच्चों को "पछतावे" वाली पोटली मिल ही गई। वे अब ये नहीं सोच रहे थे कि  हमने खेल क्यों बेचा, बल्कि ये सोच रहे थे कि  हमने बचपन में कहानी क्यों नहीं पढ़ी।
 

आइये "पीढ़ी-अंतराल" मिटायें [ अंतिम]

महत्वपूर्ण यह है कि  जब हम पीढ़ी-अंतराल की बात करते हैं, तब ये केवल युवा, प्रौढ़ या वृद्ध लोगों की बात नहीं है। यह दो पीढ़ियों का विभेद है।
यदि एक बीस साल का लड़का और एक पचपन साल का प्रौढ़ रिश्ते में भाई [सगे या रिश्ते में] हैं तो इनमें पीढ़ी  अंतराल नहीं होगा, चाहे इनकी उम्र में पैंतीस साल का अंतर है । जबकि यदि अठारह साल का लड़का है, और छत्तीस वर्ष की आयु की उसकी माता है, तो केवल अठारह साल का अंतर होने पर भी यहाँ दो पीढ़ियों का प्रतिनिधित्व है। अतः इनकी विचार-भिन्नता में दो पीढ़ियों के अंतर वाली मानसिकता दिखाई देगी।
प्रायः आयु का अंतर भी विचारों की ताजगी को प्रभावित करता है, और इसके समान्तर और भी कई कारक हमारे विचारों को निर्धारित करते हैं। फिरभी दो पीढ़ियाँ   जब आमने-सामने होती हैं तो उनका सोचने का नजरिया एक ख़ास द्रष्टि रखता है। इसी द्रष्टि-अंतराल को हम उनकी व्यवहार-चर्या में देखते हैं।

आइये "पीढ़ी -अंतराल" मिटायें [नौ ]

मुझे नहीं पता कि  आप ये  बात मानेंगे या नहीं, लेकिन मेरे शोध में एक बात और आई है, जिसमें दो पीढ़ियाँ अलग-अलग बर्ताव करती हैं।
ये बात है, किसी भी रोग या शारीरिक कष्ट की अवस्था में डॉक्टर को दिखाने को लेकर। देखा गया है कि  रोग का अंदेशा होने पर या उसके चिन्ह दिखाई देने पर पुराने लोग थोड़ा ठहर कर देखने के कायल होते हैं। उन्हें लगता है कि  शरीर की कुछ प्रतिरोधक क्षमता होती है, अतः रोग शुरू होने पर पहले कुछ परहेज़ रख कर शरीर को अपना काम करने देना चाहिए। ठीक न होने पर ही दवा या डॉक्टर का सहारा लेना चाहिए। बल्कि कभी-कभी तो वे देसी घरेलू इलाज़ से काम चला लेजाने की कोशिश भी करते हैं।
इसके विपरीत नई नस्ल के युवा प्रतिरोधक क्षमता के भरोसे बैठना पसंद नहीं करते। वे घरेलू इलाज पर भी भरोसा नहीं करते। उन्हें लगता है कि  हर रोग का स्पष्ट  वैज्ञानिक कारण है, रोग होते ही डॉक्टर को दिखाया जाना चाहिए। शायद युवा पीढ़ी  इस बात से भी भली भाँति परिचित है कि  आज के मिलावट के ज़माने में घरेलू वस्तुएं और जड़ी-बूटियाँ प्रभावशाली नहीं हो सकतीं।
यद्यपि आज रोग के इलाज़ पर "बीमा" का प्रभाव भी देखा जाता है। यदि आपको इंश्योरेंस से इलाज़ का पैसा वापस मिल जाता है, तो आप महँगा इलाज़ पसंद करते हैं, पर यदि पैसा जेब से ही जाना हो तो सोच-समझ कर खर्च किया जाता है।

Thursday, May 16, 2013

आइये "पीढ़ी-अंतराल" मिटायें [आठ]

दो पीढ़ियों के व्यवहार में एक रोचक अंतर और मिलता है।
मौजूदा फैशन को लेकर नई  पीढ़ी  ज्यादा सजग है। यदि तंग पायजामा फैशन में है, तो फिर नई  पीढ़ी  को इस से कोई सरोकार नहीं है, कि  वह आरामदेह  है या तकलीफदेह, उसे वही चाहिए। जबकि पुरानी पीढ़ी  को बदन पर जो सुविधा-जनक लग रहा है या सुहा रहा है, वही चाहिए, चाहे वह देखने में कैसा भी पुरातन लग रहा हो।
यही लॉजिक उलट जाता है जब बात 'मेक-अप' की आती है। युवा फैशन-प्रिय होते हैं किन्तु श्रृंगार-प्रिय नहीं होते। प्रायः जो कुछ जैसा है वे उसे वैसा ही दिखाने में यकीन करते हैं। जबकि चीज़ों को श्रृंगार से बदलने की चाहत  या लालसा पुराने लोगों में ज्यादा होती है। इसका कारण भी यही है कि  उनके व्यक्तित्व में गुजरता वक्त  ज्यादा फेर-बदल कर देता है, जबकी  युवा उगते हुए जिस्म के मालिक होते हैं, जिसे ज्यादा सजाना-सँवारना नहीं पड़ता।
नई  उम्र की नई  फसल के विचार चंचल और बदलते हुए होते हैं, शायद इसीलिए जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने कहा है कि  फैशन ऐसी बदसूरत चीज़ है जिसे बार-बार बदलना पड़ता है।  लेकिन किसी युवादिल से पूछिए- "फैशन कितनी खूबसूरत चीज़ है।"  

Wednesday, May 15, 2013

आइये "पीढ़ी-अंतराल" मिटायें [सात]

जब दो पीढ़ियों की  तुलना होती है, तो एक तथ्य और भी उभर कर आता है- धन का अर्जन और उसका उपभोग या खर्च। धन को खर्च करने के रवैये पर भी दो पीढ़ियाँ  अलग-अलग सोच रखती हैं।
युवा पीढ़ी  सोचती है कि  जितना है, वह सब खर्च करने के लिए ही तो है। बल्कि कभी-कभी तो युवा लोग इसके लिए भी तत्पर हो जाते हैं, कि  उधार लेकर खर्च कर लें, बाद में चुका देंगे। बेतहाशा बढ़ते लोन और अग्रिम की वित्तीय गतिविधियाँ इसी सोच का नतीजा हैं।
इसके विपरीत पुरानी पीढ़ी  इस मामले में थोड़ी कंजर्वेटिव है। जो है, वह भी पूरा खर्च डालने के लिए नहीं है। इसी में से भविष्य की आपदाओं के लिए भी बचा कर रखना है। हाथ में चार पैसे रहेंगे, तो मदद भी मिलेगी, खाली हाथ  वालों को कोई नहीं पूछता।
इस अंतर का कारण यह है कि  दोनों पीढ़ियों की जोखिम उठाने की क्षमता अलग-अलग है। यही अंतर हमें संतुष्ट या असंतुष्ट भी रखता है, माने कूल।
हाँ, कभी-कभी कुछ बुज़ुर्ग यह भी सोच लेते हैं कि  जो पास में  है उसका आनंद लिया जाए, तब उन्हें "जिंदादिल" के तमगे से नवाज़ा जाता है। कोई युवा कहता है कि  सोच-समझ कर खर्च  किया जाए, तो उसे 'कंजूस' की पदवी भी मिल सकती है।
पहले कहा जाता था कि  "पूत सपूत तो क्यों धन संचय, पूत कपूत तो क्यों धन संचय?" अब लोग सोचते हैं कि  धन होगा तो पूत भी सपूत होगा, धन नहीं होगा तो पूत भाग्य-भरोसे हो जाएगा।

आइये "पीढ़ी -अंतराल" मिटायें [छह]

लड़का बहुत तेज़ बाइक चला रहा था। उसके पीछे उसके पिता बैठे थे, जो किसी काम से बाज़ार गए थे। गाड़ी  से उतरते ही पिता ने लड़के को टोका- "तुम बहुत तेज़ गाड़ी  चलाते हो, इतना तेज़ नहीं चलना चाहिए, इससे दुर्घटना हो जाती है ।"
लड़के को बहुत आश्चर्य हुआ। आश्चर्य के कई कारण थे- पहला कारण तो ये था, कि दुर्घटना नहीं हुई थी, तब भी  उसे ये बात कही जा रही थी। दूसरा कारण ये था कि गाड़ी चलाने से पहले या चलाते समय नहीं, बल्कि गाड़ी चला लेने के बाद उसे ये टिप्स दिए जा रहे थे। तीसरा कारण यह था, कि पिता को वहां जल्दी पहुंचना था, इसीलिए लड़के को ले जाया गया था, अन्यथा वह बस से जा रहे थे। चौथा कारण यह था कि  समय से काम पूरा करवा दिए जाने पर किसी शाबाशी के बदले यह सीख मिली थी।
उधर पिता के मन में यह ख्याल था कि  अभी तो वे साथ में थे, अकेले में तो यह न जाने कितनी तेज़ी और लापरवाही से चलाता होगा। ये आजकल के बच्चे सड़क के ट्रेफिक को कम्प्यूटर गेम समझते हैं, दुर्घटना होने के बाद ही इन्हें समझ आती है। इन्हें इतनी समझ नहीं है कि  यह सब सुविधाएं आदमी की सहूलियत के लिए  हैं, जान जोखिम में डालने के लिए नहीं।
यह विचार-भिन्नता पीढ़ी -अंतराल है। यहाँ पुरानी पीढ़ी  को यह समझना होगा, कि  उनके अनुभव की जगह बच्चे 'अपने' अनुभवों से ज्यादा सीखेंगे। बच्चों को भी यह सोचना चाहिए, कि  उनसे ऐसा क्यों कहा जा रहा है, इसके क्या परिणाम हो सकते हैं।      

Monday, May 13, 2013

आइये "पीढ़ी-अंतराल" मिटायें [पांच]

मैं छुट्टी के दिन अपने एक मित्र के यहाँ गया तो वहां माहौल बेहद मनोरंजक पाया। वे स्वयं अखबार पढ़ रहे थे, उनका पुत्र टीवी पर क्रिकेट देख रहा था, उनकी  पत्नी डाइनिंग टेबल पर बैठी फल काट रही थीं और उनकी बेटी अधलेटी होकर किसी पत्रिका में खोई हुई थी।
मेरे आगमन से सबसे पहला खलल बेटी की आराम-तलबी में  पड़ा। मेरे मित्र की पत्नी ने उसी से कहा-"बेटी, देख नहीं रही है, अंकल आये  हैं, चलो उठ कर पानी पिलाओ"
बिटिया ने अचम्भे से मेरी ओर  देखा और बोली-"अंकल, आपको प्यास  लगी है?"
उसका इतना पूछना था, कि  माहौल ने मनोरंजन को तिलांजलि देकर तल्खी का रुख अख्तियार कर लिया। उसके पिता  बोले- "कोई घर में आये तो चाय-पानी पूछते ही हैं, अतिथि अपने आप थोड़े ही मांगेगा"
बिटिया उठ कर पानी लाने चली तो गई, पर उसके जाते-जाते भी उसकी आँखों में दो सवाल मैंने पढ़ ही लिए। पहला सवाल तो ये था, कि  यदि अतिथि के आते ही उसे पानी पिलाने का रिवाज़ है, तो ये बात बेटे, अर्थात उसके भाई को क्यों नहीं सिखाई गई?
इस सवाल पर अभी हम बात नहीं करेंगे, क्योंकि यह पीढ़ी -अंतराल नहीं, स्त्री-पुरुष-भेदभाव का सवाल है।
दूसरा सवाल ये था कि क्या नाश्ता-पानी किसी के बिना कहे देने से बेहतर यह नहीं है  कि उससे पहले पूछ लिया जाए? हाँ, यह अब पीढ़ी -अंतराल की बात है। पुरानी पीढ़ी कहती है, कि जलपान किसी के बिना चाहे पेश करना "शिष्टाचार" है। नई पीढ़ी कहती है, कि पहले पूछ कर हम समय-शक्ति-सुविधा का बेहतर तालमेल कर सकते हैं।
बहरहाल, बिटिया जब पानी लाई तो मुझे सचमुच प्यास नहीं थी, पर मैंने एक घूँट केवल इसलिए भरा, कि  कहीं उससे किसी को कुछ सुनना न पड़े।       

Friday, May 10, 2013

आइये "पीढ़ी -अंतराल" मिटायें [चार]

मेरे एक मित्र के पिता सेवानिवृत्त होकर अपनी सीमित पेंशन से निर्वाह कर रहे हैं। उनका स्वाभिमान उन्हें अकारण किसी की मदद नहीं लेने देता।  कभी-कभी उनके पास बैठने पर वे अपनी दिनचर्या की बातें शेयर करते हैं।
उन्होंने मुझे बताया कि जब भी वे अपनी कोई छोटी-मोटी चीज़ बाज़ार से मंगवाने के लिए अपने पोते को पैसे देते हैं, तो वह लाने के बाद बचे हुए पैसे उन्हें नहीं लौटाता। उन्हें बार-बार उससे पैसे वापस मांगने पड़ते हैं, जो उन्हें अच्छा नहीं लगता।
संयोग से एकदिन उनके पोते से बात हो गई। वह मेरे पूछने पर बोला- "अंकल, दादाजी एक-एक रूपये का हिसाब इस तरह करते हैं, कि  मुझे अच्छा नहीं लगता। कई बार तो मेरे दोस्तों के सामने भी मुझे शर्मिन्दा होना पड़ता है, वे सोचते हैं कि  हम दादाजी को अच्छी तरह नहीं रखते। जबकि पापा तो दादाजी को कितने भी पैसे देने को तैयार रहते हैं। मैं दादाजी की यही आदत छुडवाने के लिए कभी उनके सामान के लिए अपने पास से पैसे दे देता हूँ, कभी उनसे ज्यादा रख लेता हूँ।"
दादाजी का स्वाभिमान पूजनीय है। उसकी हिफाज़त होनी ही चाहिए। लेकिन बच्चे की इस भावना का आदर भी उतना ही ज़रूरी है कि  हम घर में "तेरा-मेरा" होने से रोकें।
बेहतर है कि  दादाजी हर महीने एक निश्चित राशि बच्चे को देदें, और उससे कहें कि थोड़े-थोड़े समय बाद वह हिसाब देता रहे, और ख़त्म होने पर पैसे और लेले। बच्चा भी यह सोचे कि  ये "उसके पिता के भी पिता" हैं,जो कहें, उसे ध्यान से सुने।  
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Thursday, May 9, 2013

आइये "पीढ़ी -अंतराल" मिटायें [तीन]

कुछ दिन पहले एक शादी के अवसर पर, जब आशीर्वाद समारोह चल रहा था, और वर-वधू  नाते-रिश्तेदारों से घिरे मंच पर बैठे थे, मेरी भतीजी ने आकर मुझसे कहा-  "अंकल, आप स्टेज पर से 'ओल्डीज़' को हटादो।"
मैंने पूछा- अरे क्यों?
वह बोली- देखो न, वो सब स्टेज पर खड़े-खड़े आपस में बातें किये जा रहे हैं,  कैमरामैन भी एक तरफ चुपचाप खड़ा है, भैया-भाभी [ दूल्हा-दुल्हन] बोर हो रहे हैं, लोग फोटो खिंचाने के लिए लाइन में खड़े हैं, कई तो चले भी गये।
मुझे उसकी समस्या वास्तव में गंभीर लगी। चंद ऐसे बुज़ुर्ग परिजन जो चालीस-चालीस साल बाद मिल रहे थे, भाव-विभोर हो कर मंच पर इकट्ठे हो गए थे, और पुराने दिनों की अंतहीन यादें ताज़ा कर रहे थे।
ऐसे में बच्चे विनम्रता और शिष्टाचार से 'दादाजी-नानाजी' की मदद करने के नाम पर उन्हें हाथ पकड़ कर  उतार लायें, यही व्यावहारिक है।
अधिक आयु के लोगों का यह दायित्व भी बनता है कि  ऐसे किसी समारोह में शिरकत करते समय किसी युवा को अपने साथ रखें। वह यथास्थिति भांप कर स्वयं आपके लिए  वांछित निर्णय ले सकेगा, और आपको नई  पीढ़ी  में 'अलोकप्रिय' होने से बचायेगा या बचाएगी।

आइये "पीढ़ी -अंतराल" मिटायें [दो]

नई पीढ़ी  को अक्सर यह सोच कर उकताहट होती है, कि  बड़े बुज़ुर्ग लोग उनके ऊपर एक अद्रश्य पहरा सा देते हैं। जैसे- उनकी उपस्थिति में बच्चे जोर से हंस-बोल नहीं सकते, उनके लिए सीट छोड़ो, या खड़े हो जाओ, तेज़ आवाज़ में गाने नहीं सुन सकते, उन्हें अभिवादन करना पड़ता है, उनके सामने सोच-समझ कर पहनो-खाओ, यदि कहीं उनके साथ चलना पड़ गया तो धीरे चलो, ज़रा सी गलती हुई तो उनका उपदेश सुनो, आदि-आदि।
असल में बड़े लोग भी मन ही मन  वही चाहते हैं, जो बच्चे करते हैं। ऊब-बोरियत और पिछड़ापन खुद उन्हें भी अच्छा नहीं लगता। लेकिन फिर भी वे ऐसा व्यवहार केवल इसलिए करते हैं, क्योंकि उनके भीतर एक  असुरक्षा की भावना होती है। उन्हें लगता है कि  यदि वे भी बच्चों जैसे व्यवहार ही करने, या स्वीकार करने लग जायेंगे, तो बच्चे उन्हें भी अपना जैसा ही समझ कर उनके साथ  उपेक्षा का व्यवहार करने लगेंगे, और उनका  सम्मान करना बंद कर देंगे। उम्र के साथ-साथ उनकी शक्ति [सुनने, बोलने, देखने की] तो कम हो  ही जाती है, ऐसे में सम्मान  भी कम हो गया तो जीना दुश्वार हो जाएगा, यह डर उन्हें हमेशा सताता है।
ऐसे में बेहतर है, कि  उन्हें सम्मान देते रहें और अपनी हमउम्र गतिविधियों में भी शामिल करें, उनसे बचें नहीं। सम्मान देने से आपका कुछ घटेगा नहीं, सोचिये ये वे लोग हैं, जो दुनिया से आपसे पहले चले जायेंगे।    

आइये "पीढ़ी -अंतराल" मिटायें

 पीढ़ी -अंतराल माने जनरेशन गैप। जब भी कोई बात होती है तो उस पर दो पीढ़ियों के लोग अलग-अलग तरह रिएक्ट करते हैं। दोनों ही अपने वर्जन को सही मानते हुए दूसरे  के दृष्टिकोण की उपेक्षा करते हैं। बस, हो जाता है विवाद।
 पुराने ज़माने में कुछ लोग ऐसे होते थे, जिनकी भाषा अच्छी और शुद्ध होती थी। इसी कारण उनकी मांग और आदर होता था। लोग तरह-तरह के कामों में उनकी मदद लेते थे। इस से उनमें एक अहम या आत्म -विश्वास की भावना आ जाती थी। वे अपने को श्रेष्ठ समझने लगते थे।
अब ऐसे लोगों पर कोई ध्यान नहीं देता। न ही उन्हें इस कारण से विशेष माना जाता है। बस, पुराने लोग समझते हैं कि  नया ज़माना कृतघ्न हो गया, किसी का आदर करता ही नहीं।
इसका कारण  यह है कि  यह तकनीक का ज़माना है। आप तकनीक से अच्छी भाषा लिख सकते हैं, आपकी स्पेलिंग्स चैक हो जाती है, अक्षर सुन्दर बन जाते हैं, शब्द-भण्डार व सही व्याकरण एक क्लिक से उपलब्ध हो जाता है। और यह आपकी नहीं, मशीन की विशेषता है, इसलिए इसके लिए किसी को "क्रेडिट" देना नई पीढ़ी ज़रूरी नहीं मानती। आप सोचते हैं कि बचपन में मास्टरों से मार खाकर,अभ्यास कर-कर के, मुश्किल से जो सीखा, ये आज के लोग उसे अहमियत ही नहीं देते।बस, आप उनसे खफा हो जाते हैं।
सोचिये, जो चीज़ उनके लिए मुफ्त की हो, उसके लिए वे आपको धनवान क्यों समझें? 

काहे को दुनिया बनाई


एक बार वन में एक पेड़ पर बैठे-बैठे कुछ पंछियों में इस बात पर बहस हो गई कि  आखिर दुनिया बनाई ही क्यों गई है, इसका मकसद क्या है?
एक छोटी सी सुन्दर चिड़िया ने चहक कर कहा- "दुनिया इसलिए बनी है ताकि सब इसमें गा सकें। जो भी चाहे, जब भी चाहे, गुनगुनाये"
कौवे को ये बात  बिलकुल नहीं जँची। उपेक्षा से बोला, दुनिया में ढेरों काम हैं, केवल गाने से क्या? दुनिया तो इसलिए बनाई गई है, ताकि जिसके पास जो चीज़ न हो, वह उसे दूसरों से छीन ले।
तभी तोते की आवाज़ आई- " धूर्त,ये दुनिया छीना-झपटी का अड्डा नहीं है, ये सबके एक साथ आराम से रहने के लिए बनी है।"
सब चौंके, क्योंकि अब आवाज़ पेड़ के नीचे से आ रही थी। नीचे घूमता हुआ मुर्गा कह रहा था-"क्यों बेकार की बहस कर रहे हो, देखते नहीं, दुनिया तरह-तरह की चीज़ों को खाने के लिए बनाई गई है।"
चहक कर मैना  बोली- "तुम इसी लालच में मारे गए,सब लोग हम में से किसी को नहीं खाते, सबके मुंह में तुम्हें देखते ही पानी आता है।"

Tuesday, May 7, 2013

ये मुझ पर उनकी कृपा है

एक बार ईश्वर कहीं से गुजर रहा था कि  राह में उसे एक बच्चा मिला। ईश्वर ने बच्चे को अपना परिचय दिया और कहा कि  मैं इसी तरह अपनी दुनिया देखने आता हूँ।
बच्चे ने पूछा, आप इतने सतर्क हैं तो दुनिया इतनी खराब क्यों है?
ईश्वर ने आश्चर्य से कहा- "क्या खराबी है, तुम मुझे झटपट बताओ, मैं तत्काल कुछ करूँगा।"
बच्चा बोला- "देखो, अभी सुबह की ही बात है, पापा चॉकलेट लाये थे, पर मेरी बहन ने बड़ी वाली तो खुद रख ली, और छोटी मुझे देदी।"
"ओह, तो ये बात है", ईश्वर ने कहा-"देखो, चॉकलेट मजेदार तो थी, पर उस से कभी-कभी दांत भी खराब हो जाते हैं, इसलिए तुम तो खुश हो जाओ, कि  दीदी के दांत ज़्यादा खराब होंगे, तुम्हारे कम।"
बच्चा बोला-"अच्छा, तो तुम भी अपने को ऐसे ही समझाते हो?"
ईश्वर निरुत्तर होकर आगे बढ़ गया।     

Monday, May 6, 2013

भला ऐसा भी कहीं होता है?

एक बार एक आदमी ईश्वर के पास गया, और हाथ जोड़ कर बोला- "मुझे वरदान दो, कि  मेरी मनोकामना पूरी हो।" कुछ होता कि  उसके पहले ही दूसरा आदमी वहां आया और अगरबत्ती जला कर बोला- "प्रभु, मेरी मनोकामना पूरी करो।"
मुश्किल से एक पल बीता होगा कि  तीसरे आदमी ने वहां प्रसाद चढ़ा कर कहा-"मेरी मनोकामना पूरी करना"
तत्काल चौथे आदमी ने आकर कुछ भेंट चढ़ाई और निवेदन किया-"भगवान, मेरी मुराद पूरी करो।"
वह आदमी पलटता, उसके पहले ही एक और आदमी बोरा भर कर नोट लाया, और रख कर हाथ जोड़ दिए- "प्रभु, मेरी मुराद पूरी करना।"
तभी एक और आदमी ने भीतर आकर हीरे-जवाहरात का बक्सा पलट कर कहा-"स्वामी, मेरी मनोकामना पूरी हो ।"
तभी एकाएक कोलाहल होने लगा, बाहर भीड़ जमा होने लगी। कुछ आवाजें आने लगीं-"मूर्ति को यहाँ से हटाओ !"
लोगों को गहरा अचरज हुआ जब उन्होंने सुना कि  मूर्ति  से आवाज़ आई- "मुझे नहीं, पुजारी को हटाओ, चढ़ावा तो यही ले जाता है, और हो सके तो कभी अपने गिरेबान में भी झाँको ।"


Saturday, May 4, 2013

क्या आप बता सकते हैं कि कितना अंतर है- मार्क्सवादियों और मार्क्स में?

यह कोई अचम्भे की बात नहीं है कि  "मार्क्स" और मार्क्सवादियों में ज़मीन-आसमान का अंतर है। जब पेड़ बीज से अलग हो सकता है, तो मार्क्सवादी मार्क्स से अलग क्यों नहीं हो सकते? आज गांधीवादी गाँधी जैसे नहीं हैं। रामभक्त राम जैसे नहीं हैं। और तो और, कुछ लोग यहाँ तक कहते हैं कि  इस दौर के इंसान इंसानों जैसे नहीं हैं।
आइये देखें, कोई वैसा क्यों नहीं है, जैसा वह हुआ चाहता था?
१.  कभी भी मौलिकता अनुयायिकता जैसी नहीं होती। अर्थात आपके समर्थक आप जैसे नहीं होंगे। वे आपके पीछे चल रहे हैं,जबकि आपने रास्ता बनाया है। यदि वे आप जैसे होते, तो नया रास्ता बनाते, आपके पीछे क्यों चले आते?
२. कार्ल मार्क्स को जो तकलीफ हुई, वह उनके समर्थकों या अनुयायिओं को नहीं हुई, क्यों कि  उसका   समाधान मार्क्स ने दे दिया। जिस पहेली को हल करने में आपने माथा-पच्ची की,आपके फ़ालोअर्स को तो वह सुलझी हुई मिली न ?
तो हम भी इत्मीनान रखें, कि  मार्क्सवादी आज मार्क्स जैसे नहीं हैं, तो कोई बात नहीं।
वैसे उनमें अंतर है क्या? केवल यही- "मार्क्स समझते थे कि  हर व्यक्ति के विचार अलग हो सकते हैं, जबकि मार्क्सवादियों का विचार है कि  सबको उनकी तरह ही सोचना चाहिए।"  

Thursday, May 2, 2013

सात रंग के सपने [समाधान]

गुरूजी के द्वारा दिए गए प्रसाद ने सभी मित्रों का मार्गदर्शन अलग-अलग तरीके से किया, सभी को अलग-अलग मात्रा में प्रसाद भी मिला।
यह आश्चर्यजनक है कि  उन सभी ने  अलग-अलग पार्टियों को वोट दिया। इस तरह अलग-अलग विचार धारा की कम्युनिस्ट, डीएमके,जनता दल, समाजवादी, बहुजन समाज, भा ज पा और कॉंग्रेस पार्टियों को उनका समर्थन मिला।
अब आप यदि यह जानना चाहें, कि  किसने किसे वोट दिया, तो आपको स्वयं अनुमान लगाना होगा। क्योंकि वोट तो "गोपनीय"होते हैं, हम कैसे बता सकते हैं?
हाँ,यदि आप अपना अनुमान बताना चाहें तो बता सकते हैं, क्योंकि सर्वे तो होते ही हैं।

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

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