Friday, May 10, 2013

आइये "पीढ़ी -अंतराल" मिटायें [चार]

मेरे एक मित्र के पिता सेवानिवृत्त होकर अपनी सीमित पेंशन से निर्वाह कर रहे हैं। उनका स्वाभिमान उन्हें अकारण किसी की मदद नहीं लेने देता।  कभी-कभी उनके पास बैठने पर वे अपनी दिनचर्या की बातें शेयर करते हैं।
उन्होंने मुझे बताया कि जब भी वे अपनी कोई छोटी-मोटी चीज़ बाज़ार से मंगवाने के लिए अपने पोते को पैसे देते हैं, तो वह लाने के बाद बचे हुए पैसे उन्हें नहीं लौटाता। उन्हें बार-बार उससे पैसे वापस मांगने पड़ते हैं, जो उन्हें अच्छा नहीं लगता।
संयोग से एकदिन उनके पोते से बात हो गई। वह मेरे पूछने पर बोला- "अंकल, दादाजी एक-एक रूपये का हिसाब इस तरह करते हैं, कि  मुझे अच्छा नहीं लगता। कई बार तो मेरे दोस्तों के सामने भी मुझे शर्मिन्दा होना पड़ता है, वे सोचते हैं कि  हम दादाजी को अच्छी तरह नहीं रखते। जबकि पापा तो दादाजी को कितने भी पैसे देने को तैयार रहते हैं। मैं दादाजी की यही आदत छुडवाने के लिए कभी उनके सामान के लिए अपने पास से पैसे दे देता हूँ, कभी उनसे ज्यादा रख लेता हूँ।"
दादाजी का स्वाभिमान पूजनीय है। उसकी हिफाज़त होनी ही चाहिए। लेकिन बच्चे की इस भावना का आदर भी उतना ही ज़रूरी है कि  हम घर में "तेरा-मेरा" होने से रोकें।
बेहतर है कि  दादाजी हर महीने एक निश्चित राशि बच्चे को देदें, और उससे कहें कि थोड़े-थोड़े समय बाद वह हिसाब देता रहे, और ख़त्म होने पर पैसे और लेले। बच्चा भी यह सोचे कि  ये "उसके पिता के भी पिता" हैं,जो कहें, उसे ध्यान से सुने।  
.     

No comments:

Post a Comment

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...